बुधवार, 30 अप्रैल 2008

कलम हुए हाथ


गिरीश पंकज ने जब 1997 में एक बड़े दैनिक अख़बार की नौकरी से अलविदा कह कर अकेले चलने का फैसला किया तो उनके चाहने वालों ने भी इसे एक बेवकूफ़ी ही माना। 2007 में पहुंच कर हमें अगर आज उनका फैसला जायज लग रहा है तो इसके पीछे उनका संघर्ष ही है। गिरीश पंकज ने साबित किया कि दैनिक पत्रकारिता से हट कर भी कोई पत्रकार अपनी अर्थवत्ता बचाए और बनाए रख सकता है। कोई नौकरी न करते हुए सिर्फ मसिजीवी हो कर जीना हिन्दी में कितना कठिन है, इसे सब जानते हैं। पंकज ने इसे संभव कर दिखाया। वे हमारे बीच छत्तीसगढ़ के इकलौते पूर्णकालिक लेखक हैं।

दैनिक पत्रकारिता से अलग हो कर जैसे गिरीश पंकज के लिए सारा जहां एक घर हो गया। देश-देशांतर को नापते हुए पंकज, तेजी से किताबें लिखते हुए पंकज, छत्तीसगढ़ राज्य और देश की तमाम प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हुए पंकज, मंचों पर अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान बिखेरते हुए पंकज, ऐसी न जाने कितनी छवियां आज उनके नाम से चिपकी हुई हैं। पंकज के हाथ कलम हो गए हैं, जिसे उन्होंने लिखने की मशीन में बदल दिया है। समय का जितना सार्थक और रचनात्मक उपयोग वे कर रहे हैं उसके चलते उनसे सिर्फ ईर्ष्या की जा सकती है। पर पंकज गजब हैं। वे टाटा के ट्रक में बदल गए हैं, जिनके पीछे लिखा हुआ है - 'जलो मत मुकाबला करो।

पंकज ने जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया है वह 'सद्भावना दर्पण का प्रकाशन। इससे उनकी न सिर्फ देशव्यापी पहचान बनी वरन दस सालों से लगातार प्रकाशित हो रही इस पत्रिका ने देश-विदेश के तमाम महत्वपूर्ण साहित्य को अनूदित कर हिन्दी में उपलब्ध कराने का काम किया। सद्भावना की इस यात्रा ने गिरीश पंकज को एक ऐसे संपादक में बदल दिया जिसने एक नए परिवेश के साथ हिन्दी जगत को वह सामग्री उपलब्ध कराई जो दुर्लभ थी। सद्भावना के कई विशेषांक पंकज की इस खूबी को रेखांकित करते हैं।

पंकज मानते हैं कि वे गांधी से बहुत प्रभावित हैं। पर उनका पूरा लेखन उन्हें कबीर के आसपास खड़ा करता है। जिससे पंकज लोगों पर उंगली उठाते नजर आते हैं। मूलत: व्यंग्यकार होने के नाते यह उनकी मजबूरी भी है। यही पंकज की सीमा भी है, यही उनका सामर्थ्य भी। अपने दो व्यंग्य उपन्यासों 'मिठलबरा और 'माफिया के चलते वे चर्चा और विवादों के केन्द्र में भी आए। उनके पात्र पत्रकारिता और साहित्य के संदर्भों से ही उठाए गए हैं। जाहिर है पंकज को तारीफ के साथ ताने भी मिले। इसकी परवाह पंकज को नहीं है। अब वे 'बालीवुड की अप्सरा नामक एक महत्वपूर्ण उपन्यास लिख रहे हैं। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रीय अंचलों में सिनेमा के नाम पर क्या कुछ चल रहा है इसकी झलक मिलेगी। वहीं जब वे पत्रकारीय टिप्पणियां लिख रहे होते हैं तो उनका व्यंग्यकार उनके अखबारी लेखन को समृध्द करता है।

दो नावों की यह सवारी पंकज को कभी भारी नहीं पड़ी। इसका उन्हें फायदा ही मिला। एक पत्रकार होने के नाते जहां वे तत्कालीन संदर्भों में रचना की तलाश कर लेते हैं वहीं अपनी रचना में पत्रकारी गुणधर्म के नाते आम आदमी से संवाद बना लेते हैं। इन अर्थों में पंकज का कवरेज एरिया बहुत ज्यादा है। अपने व्यक्तिगत जीवन में पंकज जितने सहज, अत्मीय, सहृदय और भोले दिखते हैं, लेखन में वे इसके उलट आचरण करते हैं। वहीं वे अन्याय, अत्याचार, शोषण, पाखंड, विषमता, विसंगतियों के खिलाफ जूझते नजर आते हैं। वे नंगे सच को कहने में यकीन रखते हैं। प्रिय सत्य बोलना उन्हें नहीं आता। शायद इसीलिए उन्हें कबीर की परंपरा से जोड़ना ज्यादा उचित है। कबीर का सच कड़वा ही होता है। उसे सुनने के लिए कलेजा चाहिए पंकज को दया का पात्र दिखना पसंद नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादातर मित्रों की ईर्ष्या के पात्र हैं। पंकज के लिए रिश्ते ही सब कुछ नहीं है। दोस्ती के नाम पर खुशी-खुशी बेवकूफ बनना उन्हें गवारा है। वे रिश्तों में ऐसे रच-बस जाते हैं कि कुछ सूझता ही नहीं। दोस्ती और संबंधों में वे जितने सकारात्मक हो सकते हैं, उससे कहीं ज्यादा हैं। वे कभी-कभी बुरा लिख बोल तो सकते हैं, लेकिन बुरा कर नहीं सकते। उन्हें जानने वाले यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि पंकज का इस्तेमाल कितना आसान है। पंकज इसके लिए तत्पर भी रहते हैं। दोस्ती में फना हो जाना पंकज की आदत जो है।

पंकज ने लिखा और खूब लिखा है। खासकर बच्चों के लिए उन्होंने जो साहित्य रचा है, वह अद्भुत है। बंगला में हर बड़ा लेखक बच्चों के लिए जरूर लिखता है पर हिन्दी में यह परंपरा नहीं है। यहां बाल साहित्य लिखना दोयम दर्जे का काम है। पंकज ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है और एक अभाव की पूर्ति की है। उनका बालसुलभ स्वभाव उनकी अभिव्यक्ति को अधिक प्रवहमान बनाता है। उनकी बाल कविताएं एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने की प्रेरणाभूमि बनती हैं, जिसे हम सब देखना चाहते हैं।

इसी तरह एक समर्थ व्यंग्यकार होने के नाते वे सामयिक संदर्भों पर चुटीली टिप्पणियां करने से भी नहीं चूकते। उनके तमाम व्यंग्य संग्रह एक समर्थ रचनाकार होने की गवाही देते हैं। पंकज ने मंचों पर भी कविताएं पढ़ी है। उनकी कविताओं में ओज भी है और लालित्य भी। लगातार विदेश यात्राओं ने उनके अनुभव संसार को अधिक समृध्द किया है और उनकी दृष्टि भी व्यापक हुई है। राजनैतिक संदर्भों पर उनकी टिप्पणियां समय-समय पर अखबारों में आती रहती है। जिसमें एक सजग नागरिक की चिंताएं दिखती हैं। अपनी अखबारी टिप्पणियों में पंकज एक गांभीर्य लिए हुए एक निश्चित संदेश देते हैं।

सलवा-जुडूम जैसे आंदोलनों पर उन्होंने शायद सबसे पहले सकारात्मक टिप्पणी की। समय के साथ संवाद की यह क्षमता उन्हें अपने समय का एक महत्वपूर्ण पत्रकार बनाती है। साहित्य के क्षेत्र में जा कर आम जनता के सवालों पर जिस संवेदनशीलता के साथ वे बातचीत करते हैं, वह उन्हें अलग दर्जा दिलाता है। मंचों पर उनकी टिप्पणियां आम लोगों का भी दिल जीत लेती है। क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ सच बोलना जाते हैं। बड़े से बड़ा आदमी अनुचित टिप्पणी कर बच नहीं सकता। बशर्ते पंकज को उसके बाद बोलना हो।

वे बड़े हो कर भी इतने सामान्य हैं कि उनकी साधारणता भी असाधारण बन गई है। भरोसा नहीं होता कि इतनी सहजता, सरलता और मृदुता से रसपगा यह व्यक्तित्व कभी-कभी अनुचित होता देख कर इतना उग्र क्यों हो जाता है। सच तो यह है कि पंकज सच की साधना करते हैं। सच और लोकाचार में उन्हें किसी एक का पक्ष लेना हो तो वे सत्य के पक्ष में खड़े होंगे। यह बात दावे से इसलिए कही जा सकती है क्योंकि पंकज किसी का लिखा झूठ भी बर्दाश्त नहीं कर सकते।

शनिवार, 26 अप्रैल 2008

पहचान बनाने की जद्दोजहद




वह एक ऐसा इंसान है जो जो पिछले 32 सालों से रायपुर शहर की गरीब बस्तियों में धर्मार्थ चिकित्सा सेवा कर रहा है। वह है जो राज्य की अस्मिता के लिए सतत निगरानी करते हुए एक लेखक और संवेदनशील इंसान के तौर पर खुद को साबित कर रहा है। संघर्ष पर भरोसा उठने लगे तो इस आदमी की तरफ देखिएगा। वह बहुत दूर का नहीं, बहुत बड़ा भी नहीं, एक साधारण सा आदमी है जिसके खाते में असाधारण उपलब्धियां दर्ज हैं। जी हां, बात डा. राजेन्द्र सोनी की हो रही है। वे जिद और जिजीविषा का दूसरा नाम हैं। आयुर्वेद के चिकित्सिक हैं लेकिन उन्हें साहित्य की हर पैथी में हाथ आजमाने का शौक है। वे साहित्यकार हैं, चित्रकार हैं,व्यंग्यकार हैं,समाजसेवी हैं और न जाने क्या-क्या हैं।


राजेन्द्र जी को देख उनके खास होने का अंदाज नहीं होता,कारण वे ठेठ छत्तीसगढी मानस हैं जिसे न तो आत्मप्रचार आता है न ही मार्केटिंग की कलाएं। फिर भी उपलब्धिों के नाम पर उनके पास एक बड़ा आकाश है। वे छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार ही नहीं हैं बल्कि लघुकथा को देश में स्थापित करने वाले कलमकारों में एक हैं। दावे की पुष्टि हो जाए तो शायद वे राज्य के प्रथम लघुकथाकार एवं हाइकू लेखक भी साबित हो जाएं। वे ऐसे लेखक नहीं हैं जो लिखकर मुक्त हो जाता है, वे मैदान के सिपाही हैं। जो राज्य की अस्मिता के नायक हरि ठाकुर के साथ छत्तीसगढ राज्य के निर्माण के आंदोलन में भी कूद पड़ता है तो अंधश्रध्दा के निर्मूलन के लिए गांव-गांव घूमकर ट्रिक्स प्रदर्शन और कानूनी कार्रवाई तथा चेतना जगाने का काम भी कर सकता है।


राजनांदगांव के घुमका गांव में 9 अगस्त,1953 को जन्में डा. सोनी के पिता रामलाल सोनी जन्मजात कलाकार थे। वे कई मूक फिल्मों जैसे राजा हरिश्चंद्र तारामती,वीर अभिमन्यु आदि में अभिनय कर चुके थे। वे अभिनय के साथ-साथ उच्चकोटि के जेवर निर्माता भी थे। ऐसे कलाधर्मी रूङाानों वाले पिता का प्रभाव डा. सोनी के जीवन पर साफ दिखता है। रामलीला में रोल करने के साथ-साथ मूर्तिकला, फाइनआर्ट, पेंटिंग पर भी राजेन्द्र सोनी ने अपने को आजमाया। छठवीं कक्षा से ही कविताएं लिखने का शौक लगा, जो आज तक साथ है। छत्तीसगढ राज्य की लोक संस्कृति पर उनका काम विलक्षण है। उनके द्वारा लिखे गए लगभग 150 आलेख इस विधा में एक प्रामाणिक उपलब्धि हैं। उनकी पहली कविता छत्तीसगढी सेवक में छपी , जिसे राजभाषा के अनन्य सेवक श्री जागेश्वर प्रसाद निकालते थे। दुखद यह कि छत्तीसगढी भाषा का यह अखबार अब बंद हो गया है। देश की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन से अपनी खास पहचान बनाने वाले डा. सोनी ने पहचान यात्रा नामक त्रैमासिक पत्रिका के प्रकाशन से राज्य में साहित्य की अलख जगाए रखी है। 1980 में उन्होंने साप्ताहिक के रूप में पहचान का प्रकाशन शुरू किया था। पहचान यात्रा का ऐतिहासिक प्रदेय यह है कि उसने राज्य के नामवर साहित्यकारों जैसे मुकुटधर पाण्डेय, नारायणलाल परमार,हरि ठाकुर जैसे लेखकों पर केंद्रित महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित किए।


लघुकथा पर लंबा और सतत काम करने वालों में राजेंद्र सोनी का प्रदेय रेखांकित करने योग्य है। वे लघुकथा के क्षेत्र में 1968 से कार्य कर रहे हैं। अपने पिता की स्मृति में देश में पहली बार लघुकथा लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने एक पुरस्कार की शुरूआत की । राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा आंदोलन को बल देने के लिए नवें दशक की लघुकथा नामक पुस्तक का संपादन प्रकाशन भी किया। इसके अलावा लगभग 50 लघुकथा संकलनों में संपादक रहे। सृजन सम्मान द्वारा आयोजित प्रथम अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन जो पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हुआ का संयोजन आपने किया। डा. सोनी लंबे समय से पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। अखबारों में एक कंपोजिटर से लेकर अपने स्वंत्रत बुलेटिन और पत्रिका के संपादन-प्रकाशन तक का काम उन्होंने किया। उनकी एक पुस्तक खोरबाहरा तोला गांधी बनाबो पर आपातकाल में प्रतिबंध भी लगाया गया। इसके अलावा उनकी तीन अन्य किताबें भी राज्य की भाषा छत्तीसगढ़ी में होने के नाते काफी सराही गयीं।


प्रकाशन के क्षेत्र में राज्य के रचनाकारों को पहचान दिलाने के उद्देश्य से डा. सोनी ने पहचान प्रकाशन की शुरूआत की। जिससे 1982 से लेकर अब तक 60 साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन किया जा चुका है। अपने लंबे और विविध आयामी कार्यों के लिए उन्हें 10,मई 1994 को राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा द्वारा चिकित्सा समन्वय शोध ग्रंथ हेतु सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी द्वारा प्रेमचंद सम्मान, लघु आघात सम्मान, अस्मिता सम्मान, ग्राम्य भारती सम्मान, साहित्य श्री सम्मान आदि से अलंकृत किया जा चुका है। अब जबकि राजेन्द्र सोनी अपनी एक सार्थक पारी खेल चुके हैं तो दूसरी पारी में भी उनसे कुछ गंभीर और महत्वपूर्ण कार्य की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। उनकी त्वरा और जिजीविषा देखकर यह भरोसा भी होता है कि वे निराश नहीं करेंगें।

इतिहास रचते मिश्र



डा. रमेंद्रनाथ मिश्र छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनों की तलाश में है।
भरोसा नहीं होता कि डा. रमेंद्रनाथ मिश्र अब रिटायर हो गए हैं। उनका जोश, जज्बा और योजनाएं देखकर तो ऐसा लगता है कि वे अभी एक लंबी पारी खेलना चाहते हैं। 29 जून 1945 को एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में जन्मे डा. मिश्र का पूरा जीवन रचना और संघर्ष की अविराम यात्रा है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास के एक ऐसे अध्येता हैं, जिसने अपना पूरा जीवन इस क्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहरों और महापुरूषों की परंपरा की तलाश में लगा दिया। उनके मार्गदर्शन में लगभग 60 से अधिक विद्यार्थी पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं, तो लगभग 73 एमफिल के लघुशोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। वे एक ऐेसे यात्री हैं, जिसने एक ऐसा रास्ता पकड़ा है, जिसकी मंजिल वे जितना चलते हैं, उतनी ही दूर होती जाती है। इतिहास और पुरातत्व की वीथिकाओं में भटकता यह यात्री न जाने कितनी मंजिलें पा चुका है और कितनी की तलाश में है। वे रायपुर के समाज जीवन में एक ऐसा सक्रिय हस्तक्षेप हैं कि उनके बिना कोई भी महफिल पूरी नहीं होती। जुझारू इतने कि किसी से भी भिड़ जाएं और अपनी पूरी करवाकर ही वापस हों। एक प्राध्यापक के नाते जहां उनकी लंबी शिष्य परंपरा है, वहीं एक संवेदनशील इंसान होने के नाते उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है। साहित्य, कला, संस्कृति और समाज जीवन के हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से महसूस की जाती है। उनके पिता पं. रघुनाथ मिश्र और मां स्वर्गीय श्रीमती बेनबती देवी दोनों स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी रहे। क्रांतिकारी तेवर श्री मिश्र को शायद इसीलिए विरासत में मिले। पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में इतिहास विभागाध्यक्ष के रूप में उनकी सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण रहीं। इस दौरान वे युवाओं से हुई लगभग सभी गतिविधियों के प्रेरक रहे। एनसीसी, प्रौढ़ शिक्षा, युवक रेडक्रास और तमाम आयोजन उनके नेतृत्व में होते रहे। उन्होंने अपनी अकादमिक गतिविधियों के माध्यम से विश्वविद्यालय को सदैव सकारात्मक नेतृत्व दिया।
डा. मिश्र के मार्गदर्शन में हुए शोधकार्यों में प्राय: ऐसे कार्य हुए, जिससे छत्तीसगढ़ का गौरवशाली अतीत झांकता है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के महापुरूषों संत गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह, ठा. प्यारेलाल सिंह, वामनराव लाखे, मुंशी अब्दुलरउफ खान, माधवराव सप्रे, सुंदरलाल शर्मा से लेकर बस्तर के आदिवासी विद्रोह तक पर बहुत महत्वपूर्ण शोध कार्य करवाए। इससे छत्तीसगढ़ के प्रति उनके अनुराग का पता चलता है। इसके अलावा उन्होंने स्वयं छत्तीसगढ़ के इतिहास का लेखन किया है, जो एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। उनकी पुस्तक ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ का प्रशासनिक इतिहास राज्य के लिए एक महत्पूर्ण दस्तावेज है। छत्तीसगढ़ का राजनैतिक इतिहास और राष्ट्रीय आंदोलन, छत्तीसगढ़ का राजनैतिक सांस्कृतिक इतिहास जैसी किताबें उनके योगदान को रेखांकित करने के लिए काफी हैं। काव्योपाध्याय हीरालाल द्वारा 1921 में रचित छत्तीसगढ़ी व्याकरण का अनुवाद और प्रस्तुति करके उन्होंने छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। सन 1820 में मेजर पी. बांस.एग्न्यू द्वारा लिखित प्रतिवेदन 'छत्तीसगढ़ प्रांत या सूबा का अनुवाद कर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य तो किया ही साथ ही इस क्षेत्र के राज्य बनने की संभावनाओं पर भी अपनी मुहर लगा दी। इससे न सिर्फ छत्तीसगढ़ क्षेत्र की ऐतिहासिकता प्रमाणित हुई, वरन एक ईकाई के रूप में उसकी एक अलग उपस्थिति का भी अहसास होता है।
वे अध्यापक होने के साथ-साथ समाज जीवन में बहुत सक्रिय रहे हैं। शिक्षा जगत की समस्याओं को लेकर, शिक्षकों की समस्याओं के समाधान को लेकर वे निरंतर जूङाते रहे हैं। समाज के दलित और पिछड़े वर्गों के प्रति उनके मन में गहरा अनुराग है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी और सतनामी समाज के योगदान को ऐतिहासिक रूप से रेखांकित करने की हर प्रयास को स्वर दिया। 'राष्ट्रीय आंदोलन में सतनामी पंथ का योगदान विषय पर पीएचडी की उपाधि उनकी एक छात्रा शंपा चौबे को प्राप्त हुई। इसी तरह छत्तीसगढ़ के सामाजिक जीवन पर गुरु घासीदास का प्रभाव विषय पर पीएचडी की उपाधि सुश्री पद्मा डड़सेना को मिली। इस तरह एक मार्गदर्शक के रूप में उनका योगदान बहुत बड़ा है। वे पं. सुंदरलाल शर्मा शोध पीठ के प्रमुख भी रहे। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास और पुरातत्व के एक ऐसे जीवंत प्रवक्ता हैं, जिन्हें आने वाली पीढ़ी को अपना उत्तराधिकार सौंपने में आनंद आता है। पुस्तकों और पत्रिकाओं के संपादन, लेखन और विविध पुस्तकों के सृजन में सहयोगी के रूप में उनकी भूमिका रेखांकित की जाएगी। उनके संपादन में शहीद वीर नारायण सिंह, गुरु घासीदास, पं. सुंदरलाल शर्मा पर केंद्रित महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन जनसंपर्क संचालनालय ने किया है। वे छत्तीसगढ़ में शिक्षा की एक ऐसी परंपरा के उन्नायक और मार्गदर्शक हैं, जिसने अपना पूरा जीवन शिक्षा क्षेत्र को समर्पित कर दिया। आज भी उनके पास ढेरों योजनाएं और करने को बहुत सारा काम है। वे छत्तीसगढ़ के इतिहास विकास में रमे हुए एक ऐसे साधक हैं, जिसने लगातार दिया ही दिया है। शायद उनकी योजनाओं को साकार होता देखने में अभी वक्त लगे लेकिन वे जितनी उर्जा से भरे हैं, वे अपने सपनों को सच करने का माद्दा जरूर रखते हैं। विश्वविद्यालय की लंबी सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद उनके पास गंभीर चिंतन, मनन के लिए काफी समय है। संभव है कि वे समय का रचनात्मक इस्तेमाल कर छत्तीसगढ़ के लिए कुछ ऐसा महत्वपूर्ण रच जाएं कि आने वाली पीढ़ियां उनके दिखाए रास्ते पर चलकर राज्य के बेहतर भविष्य के सपनों में रंग भर पाएं। फिलहाल तो उन्हें चाहने वाले उनको शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

सपनों में भरें रंग


पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को 2020 में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के 6 दशक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहां से उसे सिर्र्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 6 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे युवा भारतवंशी दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवा शक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी जज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था।

आजादी की जंग में जिन नौजवानों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, वही ललक और प्रेरणा आज भी भारत के उत्थान के लिए नई पीढ़ी में दिखती है। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन भारतीय युवा आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक हैं। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं। यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि सांप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है। आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहां विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुंचेगा। भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसाित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। युवा शक्ति तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है।

सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएं हर जगह भारतीय युवा प्रतिभाएं वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। भारत को महाशक्ति बनाना है, तो वह हर भारतीय की भागीदारी से ही सच होने वाला सपना है। देश के तमाम वंचित लोगों को छोड़कर हम अपने सपनों को सच नहीं कर सकते। क्या हम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं?

बॉडी औऱ प्लेजर का संसार


सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग) के संसार का एक पुरजा हो।

हमारे आसपास की दुनिया अचानक कुछ ज्यादा जवान या आधुनिक हो गई लगती है। जिसमें परंपराएं तो हैं, पर कुछ सकुचाई हुई सी। संस्कृति भी है पर सहमी हुई सी। हमारे लोकाचार और त्यौहारों पर बाजार की मार और प्रहार इतने गहरे हैं कि उसने भारतीय विचार को बहुत किनारे लगा दिया है। अपनी चीजें अचानक पिछड़ेपन का प्रतीक दिखने लगी हैं और यह सब कुछ हो रहा है उन युवाओं के नाम पर जो आज भी ज्यादा पारंपरिक, ज्यादा ईमानदार और ज्यादा देशभक्त हैं, लेकिन बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग)के संसार का एक पुरजा हो।

तकनीक, उपभोक्तावाद, मीडिया, वैश्विक संस्कृति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्ववाद से ताकत पाता पूंजीवाद दरअसल आज के समय का एक ऐसा सच है, जिससे बचा नहीं जा सकता। ये चीजें मिलकर जिंदगी में उश्रृंखल और बेलगाम लालसाओं को बढ़ावा देती हैं। विज्ञापनों और मीडिया की आक्रामकता ने देह संस्कृति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर हमारे जीवन पर आरोपित कर दिया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और रेडियो के नए अवतार एफएम पर जिस तरह के विचार और भावनाएं युवाओं के लिए परोसी जा रही हैं, उसने एक अलग किस्म के युवा का निर्माण किया है। क्या यह चेहरा भारत के असली नौजवान का चेहरा है? रातोंरात किसी सौंदर्य प्रतियोगिता या गायन प्रतियोगिता से निकलकर भारतीय परिदृश्य पर छा जाने वाले युवा देश के वास्तविक युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? दरअसल बाजार अपने नायक गढ़ रहा है और भारत की युवा पीढ़ी अपने जीवन संघर्ष में खुद को बहुत अकेला पा रही है। शिक्षा से लेकर नौकरी पाने की जद्दोजहद युवाओं को कितना और कहां तक तोड़ती है, यह देखने वाला कोई नहीं है। बाजार में दिखते हैं सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? दरअसल यह ऐसा प्रायोजित चेहरा है, जो संचार माध्यमों पर दिखाया जा रहा है। कुछ सालों पहले 'काफी कल्चर' की शुरूआत हुई थी। जब काफी हाउस में बैठे नौजवान आपसी संवाद, विचार-विमर्श और खुद से जुड़ी बातें किया करते थे। इनकी सफलता के बाद अब पब कल्चर की युवाओं की नजर है। ये पब कल्चर दरअसल न्यूयार्क के पैटर्न पर हैं, एक नई तरह की संस्कृति को युवाओं पर आरोपित करने का यह सिलसिला इस नए बाजार की देन है। एक बार पी लेने के बाद सारे मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह टूट जाने का जो भ्रम है, वह हमें इन पबों की तरफ लाता है। नशे का भी संसार इससे जुड़ता है। यहीं से कदम बहकते हैं, बार या पब कल्चर धीरे-धीरे हमें अनेक तरह के नशों के प्रयोग का हमराही तो बनाता ही है, कंडोम से भी हमारा परिचय कराता है। कंडोम के रास्ते गुजरकर आता हुआ प्यार एक नई कहानी की शुरूआत करता है। हमारे युवक-युवतियां अधिक प्रोग्रेसिव दिखने की होड़ में इसका शिकार बनते चले जाते हैं पर आज भी ऐसा कितने लोग कर रहे हैं? वही करते हैं, जिनके माता-पिता ने बहुत सा नाजायज पैसा कमाया है और उनके पास अपने बच्चों को देने के लिए वक्त नहीं है। फेंकने के लिए पैसा हो और अक्ल न हो, तो यह डिस्पोजल पैसा किसी भी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। इसके साथ ही काल सेंटरों में काम कर रही पीढ़ी के पास अचानक ढेर सा पैसा आया है। ये ऐसे ग्रेजुएट हैं, जिन्हें दस हजार से लेकर 40 हजार रूपए तक महीने की तनख्वाह आसानी से मिल जाती है। जाहिर है मान्यताएं टूट रही हैं। भावनात्मक रिश्ते दरक रहे हैं। माता-पिता से संवाद घटा है। इस विकराल समय में भी जोड़ने वाली चीजें खत्म नहीं हुई हैं। भारतीय युवा का यह चेहरा उसकी मैली आधुनिकता को दिखाता है। दूसरा चेहरा बेहद पारंपरिक, ज्यादा धार्मिक और ज्यादा स्नेही दिखता है। ऐसे भी नौजवान हैं, जो अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर गिरिवासियों, वनवासियों और ग्रामीणजनों के बीच जाकर बेहतर काम कर रहे हैं। एक पीढ़ी ऐसी है, जो बाडी और प्लेजर के संसार में थिरक रही है, तो दूसरी पीढ़ी इक्कीसवीं सदी के भारत को गढ़ने में लगी है। सवाल यह है कि हम किस पीढ़ी के साथ खड़े होना चाहेंगे?

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

हम सब खड़े बाज़ार में


भारतीय बाज़ार एक नई करवट ले रहा है। उसका विस्तार चौंकाने वाला है और समृध्दि चौंधियानेवाली। पिछले दस सालों में भारतीय बाज़ार का विस्तारवाद कई तरह से निंदा और आलोचना के केंद्र में भी है। बावजूद इसके यह बढ़ता जा रहा है और रोज नई संभावनाओं के साथ और विस्तार ले रहा है। बाज़ार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है।

भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं।

भारत का ग्रामीण बाज़ार अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं। आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।
भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विदू्रप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि ग्रामीण भारत में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय जनमानस समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्याेंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह ग्रामीण भारत, एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं।

भारत के गाँवों में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?

सदके इन मासूम तर्कों के

वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं। लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में, अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा दी जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते।

छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने पहली बार मुस्कराने का मौका दिया है। उन्होंने रायपुर में छत्तीसगढ़ सरकार की आलोचना कर लंबे समय से चली आ रही कांग्रेसियों की मुराद पूरी कर दी है। होता यह रहा है कि केंद्र सरकार के मंत्री राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहे हैं। राज्य में आने वाले लगभग हर मंत्री ने जब भी मौका मिला राज्य सरकार के कामकाज की तारीफ ही की। श्री प्रकाश जायसवाल ने नक्सल मामले पर रमन सरकार को नाकाम बताते हुए कहा कि छ: महीने बाद जब राज्य में कांग्रेस की सरकार होगी, तो वह ही नक्सलियों से निपटेगी। जाहिर है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का यह बयान राज्य सरकार की तार्किक आलोचना कम, चुनावी बयान ज्यादा है। चुनाव निकट आते देख एक सच्चो कांग्रेसी होने के नाते उनका जो फर्ज है, उसे उन्होंने निभाया है। यह सिर्फ़ संदर्भ के लिए कि पिछले महीने जब श्रीप्रकाश जायसवाल के 'बास केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल रायपुर प्रवास पर आए थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।

गृह राज्यमंत्री ने नक्सलवाद के मुद्दे पर राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया, तो इसके कोई बहुत मायने नहीं हैं। क्योंकि नक्सलवाद के खिलाफ यह पहली सरकार है, जो इतनी प्रखरता के साथ हर मोर्चे पर जूझ रही है। सिर्फ़ बढ़ती नक्सली घटनाओं का जिक्र न करें, तो राज्य सरकार की सोच नक्सलियों के खिलाफ ही रही है। डा. रमन सिंह की सरकार की इस अर्थ में सराहना ही की जानी चाहिए कि उसने राजकाज संभालने के पहले दिन से ही नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबध्दता का ऐलान कर दिया था। राजनैतिक लाभ के लिए तमाम पार्टियां नक्सलियों की मदद और हिमायत करती आई हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इन आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग डा. रमन सिंह की सरकार ने पहली बार नक्सलियों को उनके गढ़ में चुनौती देने का हौसला दिखाया है। राज्य सरकार की यह प्रतिबध्दता उस समय और मुखर रूप में सामने आई, जब श्री ओपी राठौर राज्य के पुलिस महानिदेशक बनाए गए। डा. रमन सिंह और श्री राठौर की संयुक्त कोशिशों से पहली बार नक्सलवाद के खिलाफ गंभीर पहल देखने में आई। वर्तमान डीजीपी विश्वरंजन की कोशिशों को भी उसी दिशा में देखा जाना चाहिए।

होता यह रहा है कि नक्सल उन्मूलन के नाम पर सरकारी पैसे को हजम करने की कोशिशों से ज्यादा प्रयास कभी नहीं दिखे। पहली बार नक्सलियों को वैचारिक और मैदानी दोनों मोर्चों पर शिकस्त देने के प्रयास शुरू हुए हैं। यह अकारण नहीं है कि सलवा जुड़ूम का आंदोलन तो पूरी दुनिया में कुछ बुध्दिजीवियों के चलते निंदा और आलोचना का केंद्र बन गया किंतु नक्सली हिंसा को नाजायज बताने का साहस ये बुध्दिवादी नहीं पाल पाए। जब युध्द होते हैं, तो कुछ लोग अकारण ही उसके शिकार होते ही हैं। संभव है इस तरह की लड़ाई में कुछ निर्दोष लोग भी इसका शिकार हो रहे हों। लेकिन जब चुनाव अपने पुलिस तंत्र और नक्सल के तंत्र में करना हो, तो आपको पुलिस तंत्र को ही चुनना होगा। क्योंकि यही चुनाव विधि सम्मत है और लोकहित में भी। पुलिस के काम करने के अपने तरीके हैं और एक लोकतंत्र में होने के नाते उसके गलत कामों की आलोचना तथा उसके खिलाफ कार्रवाई करने के भी हजार हथियार भी हैं। क्योंकि पुलिस तंत्र अपनी तमाम लापरवाहियों के बावजूद एक व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है, जिस पर समाज, सरकार और अदालतों की नजर होती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की इसलिए तारीफ करनी पड़ेगी कि पहली बार उन्होंने इस 'छद्म जनवादी युध्द को राष्ट्रीय आतंकवाद की संज्ञा दी। वे देश के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने इस समस्या को उसके राष्ट्रीय संदर्भ में पहचाना है।

आज भले ही केंद्रीय गृह राज्यमंत्री राज्य शासन को कटघरे में खड़ा कर रहे हों, लेकिन उन्हें यह तो मानना ही होगा कि नक्सलियों के खिलाफ छत्तीसगढ़ सरकार की नीयत पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। इसका कारण यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी जिस 'विचार परिवार से जुड़ी है वह चाहकर भी माओवादी अतिवादियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकती। एक वैचारिक गहरे अंर्तविरोध के नाते भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनैतिक हानि सहते हुए भी माओवाद के खिलाफ ही रहेगी। यह उसकी वैचारिक और राजनैतिक दोनों तरह की मजबूरी और मजबूती दोनों है।

नक्सलवाद के खिलाफ आगे आए आदिवासी समुदाय के सलवा-जुड़ूम आंदोलन को कितना भी लांछित किया जाए, वह किसी भी कथित जनक्रांति से महान आंदोलन है। महानगरों में रहने वाले, वायुयान से देवदूतों की तरह रायपुर की धरती पर उतरने वाले बुध्दिजीवी बस्तर के गाँवों के दर्द को नहीं समझ सकते। आंखों पर जब खास रंग का चश्मा लगा हो, तो खून का रंग नहीं दिखता। वे लोगों के गाँव छोड़ने से दुखी हैं, लेकिन कोई किस पीड़ा, किस दर्द में अपनी आत्मरक्षा के लिए अपना गाँव छोड़ता है, इस संदर्भ को नहीं जानते। सलवा-जुड़ूम के शिविरों की यातना और पीडा उन्हें दिख जाती है, लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही सतत यातना और मौत के मंजर उन्हें नहीं दिखते। इस तरह का ढोंग रचकर वैचारिकता का स्वांग रचने वाले लोग यहां के दर्द को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे पीड़ा और दर्द के ही व्यापारी हैं। उन्हें बदहाल, बदहवास हिंदुस्तान ही रास आता है। हिंदुस्तान के विकृत चेहरे को दिखाकर उसकी मार्केटिंग उन्हें दुनिया के बाज़ार में करनी है, डालर के बल पर देश तोड़क अभियानों को मदद देनी है। उन्हें वैचारिक आधार देना है, क्योंकि उनकी मुक्ति इसी में है। दुनिया में आज तक कायम हुई सभी व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को सर्वश्रोष्ठ व्यवस्था माना गया है। जिनकी इस लोकतंत्र में भी सांसें घुट रही हैं, उन्हें आखिर कौन सी व्यवस्था न्याय दिला सकती है। वे कौन सा राज लाना चाहते हैं, इसके उत्तर उन्हें भी नहीं मालूम हैं। निरीह लोगों के खिलाफ वे एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। अब जबकि सरकारों को चाहे वे केंद्र की हों या राज्य की कम से कम नक्सलवाद के मुद्दे पर हानि-लाभ से परे उठकर कुछ कड़े फैसले लेने ही होंगे। नक्सल प्रभावित सभी राज्यों और केंद्र सरकार के समन्वित प्रयासों से ही यह समस्या समूल नष्ट हो सकती है। यह बात अनेक स्तरों पर छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से कही जा चुकी है। समाधान का रास्ता भी यही है। सही संकल्प के साथ, न्यूनतम राजनीति करते हुए ही इस समस्या का निदान ढूंढा जा सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य में चल रही यह जंग छत्तीसगढ़ की अकेली समस्या नहीं है। देश के अनेक राज्य इस समस्या से जूझ रहे हैं और दिन-प्रतिदिन नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करते जा रहे हैं।

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री भले ही यह कहें कि राज्य सरकार में नक्सलवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है, किंतु सच्चाई यह है कि पहली बार छत्तीसगढ़ सरकार ने ही यह इच्छाशक्ति दिखाई है। इसे हौसला, हिम्मत और साधन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है वरना आरोपों-प्रत्यारोपों के अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

समय, समाज और सरोकार

आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समय में से है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़े सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।

भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमे प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं चाँद पर घर बक्सा, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल, ये सारी चीज़े भी हमे कोई ताकत नहीं दे पातीं। विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी जैसे जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह जमात जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा । यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछ तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये ‘मालिक’ की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय ‘हरसूद’ को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमे इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर हैं। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।

यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोग का समय है और हमारे परोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पीकर परमहंस होने का समय है।

इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागों के विवेकानंद, दक्षिम अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिक अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्कों थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। ‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं’ होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है। आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय पड़ोसियों से मुँह मोड़ने, परिवार से रिश्ते तोड़ने और ‘साइबर फ्रेंड’ बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और ‘विश्व मानव’ बनाने का समय है।

यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है। यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यहि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है। हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खडे़ होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब है। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं। हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। ‘देह और भोग’ के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ?