बुधवार, 30 अप्रैल 2008

कलम हुए हाथ


गिरीश पंकज ने जब 1997 में एक बड़े दैनिक अख़बार की नौकरी से अलविदा कह कर अकेले चलने का फैसला किया तो उनके चाहने वालों ने भी इसे एक बेवकूफ़ी ही माना। 2007 में पहुंच कर हमें अगर आज उनका फैसला जायज लग रहा है तो इसके पीछे उनका संघर्ष ही है। गिरीश पंकज ने साबित किया कि दैनिक पत्रकारिता से हट कर भी कोई पत्रकार अपनी अर्थवत्ता बचाए और बनाए रख सकता है। कोई नौकरी न करते हुए सिर्फ मसिजीवी हो कर जीना हिन्दी में कितना कठिन है, इसे सब जानते हैं। पंकज ने इसे संभव कर दिखाया। वे हमारे बीच छत्तीसगढ़ के इकलौते पूर्णकालिक लेखक हैं।

दैनिक पत्रकारिता से अलग हो कर जैसे गिरीश पंकज के लिए सारा जहां एक घर हो गया। देश-देशांतर को नापते हुए पंकज, तेजी से किताबें लिखते हुए पंकज, छत्तीसगढ़ राज्य और देश की तमाम प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हुए पंकज, मंचों पर अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान बिखेरते हुए पंकज, ऐसी न जाने कितनी छवियां आज उनके नाम से चिपकी हुई हैं। पंकज के हाथ कलम हो गए हैं, जिसे उन्होंने लिखने की मशीन में बदल दिया है। समय का जितना सार्थक और रचनात्मक उपयोग वे कर रहे हैं उसके चलते उनसे सिर्फ ईर्ष्या की जा सकती है। पर पंकज गजब हैं। वे टाटा के ट्रक में बदल गए हैं, जिनके पीछे लिखा हुआ है - 'जलो मत मुकाबला करो।

पंकज ने जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया है वह 'सद्भावना दर्पण का प्रकाशन। इससे उनकी न सिर्फ देशव्यापी पहचान बनी वरन दस सालों से लगातार प्रकाशित हो रही इस पत्रिका ने देश-विदेश के तमाम महत्वपूर्ण साहित्य को अनूदित कर हिन्दी में उपलब्ध कराने का काम किया। सद्भावना की इस यात्रा ने गिरीश पंकज को एक ऐसे संपादक में बदल दिया जिसने एक नए परिवेश के साथ हिन्दी जगत को वह सामग्री उपलब्ध कराई जो दुर्लभ थी। सद्भावना के कई विशेषांक पंकज की इस खूबी को रेखांकित करते हैं।

पंकज मानते हैं कि वे गांधी से बहुत प्रभावित हैं। पर उनका पूरा लेखन उन्हें कबीर के आसपास खड़ा करता है। जिससे पंकज लोगों पर उंगली उठाते नजर आते हैं। मूलत: व्यंग्यकार होने के नाते यह उनकी मजबूरी भी है। यही पंकज की सीमा भी है, यही उनका सामर्थ्य भी। अपने दो व्यंग्य उपन्यासों 'मिठलबरा और 'माफिया के चलते वे चर्चा और विवादों के केन्द्र में भी आए। उनके पात्र पत्रकारिता और साहित्य के संदर्भों से ही उठाए गए हैं। जाहिर है पंकज को तारीफ के साथ ताने भी मिले। इसकी परवाह पंकज को नहीं है। अब वे 'बालीवुड की अप्सरा नामक एक महत्वपूर्ण उपन्यास लिख रहे हैं। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रीय अंचलों में सिनेमा के नाम पर क्या कुछ चल रहा है इसकी झलक मिलेगी। वहीं जब वे पत्रकारीय टिप्पणियां लिख रहे होते हैं तो उनका व्यंग्यकार उनके अखबारी लेखन को समृध्द करता है।

दो नावों की यह सवारी पंकज को कभी भारी नहीं पड़ी। इसका उन्हें फायदा ही मिला। एक पत्रकार होने के नाते जहां वे तत्कालीन संदर्भों में रचना की तलाश कर लेते हैं वहीं अपनी रचना में पत्रकारी गुणधर्म के नाते आम आदमी से संवाद बना लेते हैं। इन अर्थों में पंकज का कवरेज एरिया बहुत ज्यादा है। अपने व्यक्तिगत जीवन में पंकज जितने सहज, अत्मीय, सहृदय और भोले दिखते हैं, लेखन में वे इसके उलट आचरण करते हैं। वहीं वे अन्याय, अत्याचार, शोषण, पाखंड, विषमता, विसंगतियों के खिलाफ जूझते नजर आते हैं। वे नंगे सच को कहने में यकीन रखते हैं। प्रिय सत्य बोलना उन्हें नहीं आता। शायद इसीलिए उन्हें कबीर की परंपरा से जोड़ना ज्यादा उचित है। कबीर का सच कड़वा ही होता है। उसे सुनने के लिए कलेजा चाहिए पंकज को दया का पात्र दिखना पसंद नहीं है। शायद इसीलिए वे ज्यादातर मित्रों की ईर्ष्या के पात्र हैं। पंकज के लिए रिश्ते ही सब कुछ नहीं है। दोस्ती के नाम पर खुशी-खुशी बेवकूफ बनना उन्हें गवारा है। वे रिश्तों में ऐसे रच-बस जाते हैं कि कुछ सूझता ही नहीं। दोस्ती और संबंधों में वे जितने सकारात्मक हो सकते हैं, उससे कहीं ज्यादा हैं। वे कभी-कभी बुरा लिख बोल तो सकते हैं, लेकिन बुरा कर नहीं सकते। उन्हें जानने वाले यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि पंकज का इस्तेमाल कितना आसान है। पंकज इसके लिए तत्पर भी रहते हैं। दोस्ती में फना हो जाना पंकज की आदत जो है।

पंकज ने लिखा और खूब लिखा है। खासकर बच्चों के लिए उन्होंने जो साहित्य रचा है, वह अद्भुत है। बंगला में हर बड़ा लेखक बच्चों के लिए जरूर लिखता है पर हिन्दी में यह परंपरा नहीं है। यहां बाल साहित्य लिखना दोयम दर्जे का काम है। पंकज ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है और एक अभाव की पूर्ति की है। उनका बालसुलभ स्वभाव उनकी अभिव्यक्ति को अधिक प्रवहमान बनाता है। उनकी बाल कविताएं एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने की प्रेरणाभूमि बनती हैं, जिसे हम सब देखना चाहते हैं।

इसी तरह एक समर्थ व्यंग्यकार होने के नाते वे सामयिक संदर्भों पर चुटीली टिप्पणियां करने से भी नहीं चूकते। उनके तमाम व्यंग्य संग्रह एक समर्थ रचनाकार होने की गवाही देते हैं। पंकज ने मंचों पर भी कविताएं पढ़ी है। उनकी कविताओं में ओज भी है और लालित्य भी। लगातार विदेश यात्राओं ने उनके अनुभव संसार को अधिक समृध्द किया है और उनकी दृष्टि भी व्यापक हुई है। राजनैतिक संदर्भों पर उनकी टिप्पणियां समय-समय पर अखबारों में आती रहती है। जिसमें एक सजग नागरिक की चिंताएं दिखती हैं। अपनी अखबारी टिप्पणियों में पंकज एक गांभीर्य लिए हुए एक निश्चित संदेश देते हैं।

सलवा-जुडूम जैसे आंदोलनों पर उन्होंने शायद सबसे पहले सकारात्मक टिप्पणी की। समय के साथ संवाद की यह क्षमता उन्हें अपने समय का एक महत्वपूर्ण पत्रकार बनाती है। साहित्य के क्षेत्र में जा कर आम जनता के सवालों पर जिस संवेदनशीलता के साथ वे बातचीत करते हैं, वह उन्हें अलग दर्जा दिलाता है। मंचों पर उनकी टिप्पणियां आम लोगों का भी दिल जीत लेती है। क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ सच बोलना जाते हैं। बड़े से बड़ा आदमी अनुचित टिप्पणी कर बच नहीं सकता। बशर्ते पंकज को उसके बाद बोलना हो।

वे बड़े हो कर भी इतने सामान्य हैं कि उनकी साधारणता भी असाधारण बन गई है। भरोसा नहीं होता कि इतनी सहजता, सरलता और मृदुता से रसपगा यह व्यक्तित्व कभी-कभी अनुचित होता देख कर इतना उग्र क्यों हो जाता है। सच तो यह है कि पंकज सच की साधना करते हैं। सच और लोकाचार में उन्हें किसी एक का पक्ष लेना हो तो वे सत्य के पक्ष में खड़े होंगे। यह बात दावे से इसलिए कही जा सकती है क्योंकि पंकज किसी का लिखा झूठ भी बर्दाश्त नहीं कर सकते।

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