सोमवार, 26 मई 2008

0 डा. तिवारी पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित



रायपुर। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित होने के बाद 'दस्तावेज के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि संवेदना का विकास ही साहित्यिक पत्रकारिता का बुनियादी आदर्श है। भारतीय परंपरा का मूल स्वर सहिष्णुता है, जिसकी कमी के कारण समाज में अशांति का वातावरण बन रहा है।

महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार में आयोजित एक गरिमामय समारोह में गोरखपुर से पिछले तीन दशकों से अनवरत निकल रही त्रैमासिक पत्रिका 'दस्तावेज के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को प्रख्यात कवि-कहानीकार विनोद कुमार शुक्ल ने शाल, श्रीफल, स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और ग्यारह हजार रुपए नगद देकर पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से विभूषित किया।

पूर्वज साहित्यकार पुरस्कार के लिए नहीं, दंड के लिए पत्रिकाएं निकालते थे - तिवारी
‘साहित्यिक पत्रकारिता की जगह’’ विषय पर अपने व्याख्यान में कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में सहिष्णुता को प्रोजेक्ट करने की जरूरत है। पूंजी की माया महाराक्षस की तरह मुंह फाड़े खड़ी है, जो आंत्यांतिक रूप से मनुष्य का अहित करने वाली है। उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वज साहित्यकार पुरस्कार के लिए नहीं, दंड के लिए पत्रिकाएं निकालते थे। पत्रकारों का एक पैर पत्रिका के दफ्तर में रहता था, तो दूसरा पैर जेल में। पहले लोग खतरा उठाकर कहना, लिखना चाहते थे। उस युग में साहित्य और अनुशासन एक थे। पत्रकारिता में यदि आदर्श स्थापित करना है, तो हमें पूर्वजों का स्मरण करना चाहिए। डा. तिवारी ने कहा कि परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष हमारे संपादकों, पत्रकारों को अपनी जमीन, मनुष्यता से दूर कर रहा है। ज्ञान का भंडार किसी को मुक्त नहीं कर सकता।

डा. तिवारी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में आजकल दो विमर्श चर्चित हैं, दलित विमर्श और स्त्री विमर्श। उन्होंने कहा कि ऐसा करके स्त्री और पुरूष को एक-दूसरे के खिलाफ आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है। दूसरा क्या वैविध्यपूर्ण जटिल संरचना वाले समाज में दलित बिना सहयोग के अपना उध्दार कर लेंगे। उन्होंने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता दोनों के लक्ष्य समान हैं और संवेदना, सहिष्णुता से ही पत्रकारिता, साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता में नए आयाम स्थापित किए जा सकते हैं।

साहित्य और पत्रकारिता के बीच समन्वय की पहल- हिमांशु द्विवेदी
कार्यक्रम के अध्यक्ष हरिभूमि के प्रबंध संपादक हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि मौजूदा समय में जबकि पिता का सम्मान घर के भीतर नहीं बचा है, संजय द्विवेदी द्वारा अपने दादा के नाम पुरस्कार की परंपरा स्थापित करना सराहनीय पहल है। उन्होंने कहा कि संस्कारों से कटने के समय में इस सम्मान से साहित्य और पत्रकारिता के बीच समन्वय स्थापित होगा और नए रिश्तों के संतुलन बनेंगे।

साहित्यिक पत्रकारिता में डॉ. तिवारी का अमूल्य योगदान – विनोद कुमार शुक्ल
मुख्य अतिथि विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता में अपने अवदान, तेवर के लिए 'दस्तावेज को पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान मिलने और इसके संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की उपस्थिति से यह सम्मान ही सम्मानित हुआ है। उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता में डा. तिवारी के योगदान को अमूल्य बताया।

दस्तावेज विचार है – अष्टभुजा शुक्ल
विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल ने कहा कि 'दस्तावेज पत्रिका हाड़-मांस का मनुष्य नहीं है, वह विचार है। हम सब जानते हैं कि विचार का वध संभव नहीं है। यही वजह है कि यह पत्रिका 'जीवेत् शरद: शतम् के साथ 'पश्येव शरद: शतम् के भाव को भी लेकर तीन दशकों में 117 अंक निकल चुकी है।

साहित्यिक पत्रकारिता की डगर कठिन - जोशी
विशिष्ट अतिथि कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता की डगर काफी कठिन है। इस मुश्किल सफर पर तीस सालों से अनवरत चल रही 'दस्तावेज और इसके संपादक डा. तिवारी के योगदान की चर्चा बिना साहित्यिक पत्रकारिता की बात अधूरी है।

कार्यक्रम की शुरुआत में अपने स्वागत भाषण में हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी ने कहा कि भले ही मेरे दादा और रचनाधर्मी स्वर्गीय पं. बृजलाल द्विवेदी की कर्मभूमि उत्तर प्रदेश है पर छत्तीसगढ़ उनकी याद के बहाने किसी बड़े कृतिकार के कृतित्व को रेखांकित करने की स्थायी भूमि होगी और आयोजक होने के नाते यह मेरे लिए गर्व का विषय भी होगा। उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ का यही सखाभाव आज की वैश्विक खतरों से जूझने की भी वैचारिकी हो सकता है। कार्यक्रम को विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कथाकार जया जादवानी और जादूगर ओपी शर्मा ने भी संबोधित किया।

इस अवसर पर पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान के निर्णायक मंडल के सदस्य रमेश नैयर, सच्चिदानंद जोशी, गिरीश पंकज को समिति की संयोजक भूमिका द्विवेदी और संजय द्विवेदी ने स्मृति चिन्ह प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन राजकुमार सोनी ने तथा आभार प्रदर्शन कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के रीडर शाहिद अली ने किया।

इस मौके पर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष बबन प्रसाद मिश्र, छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ निर्वाचन आयोग के आयुक्त डा. सुशील त्रिवेदी, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र पांडेय, छत्तीसगढ़ वेवरेज कार्पोरेशन के चैयरमेन सच्चिदानंद उपासने, साहित्य अकादमी के सदस्य गिरीश पंकज, वरिष्ठ पत्रकार बसंत कुमार तिवारी, दैनिक भास्कर के संपादक,दिवाकर मुक्तिबोध, नई दुनिया के संपादक रवि भोई, मनोज त्रिवेदी, पद्मश्री महादेव प्रसाद पांडेय, हसन खान, डा. रामेंद्रनाथ मिश्र, डा. राजेंद्र मिश्र, जयप्रकाश मानस, डॉ. राजेन्द्र सोनी, डा. मन्नूलाल यदु, डा. रामकुमार बेहार, डा. विनोद शंकर शुक्ल, राहुल कुमार सिंह, राम पटवा, नंदकिशोर शुक्ल, राजेश जैन, रमेश अनुपम, डा. राजेंद्र दुबे, संजय शेखर, रामशंकर अग्निहोत्रि, पारितोष चक्रवर्ती राजेंद्र ओझा, डा. सुभद्रा राठौर, सनत चतुर्वेदी, आशुतोष मंडावी, भारती बंधु, डा. सुरेश, राजू यादव, डा. सुधीर शर्मा, जागेश्वर प्रसाद, केपी सक्सेना दूसरे, चेतन भारती, एसके त्रिवेदी, रामेश्वर वैष्णव, बसंतवीर उपाध्याय, गौतम पटेल सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार एवं आम नागरिक उपस्थित उपस्थित थे।

रविवार, 25 मई 2008

छत्तीसगढ़ की पहचान


छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र 7-8 वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह साहित्य के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारा की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि से हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है । जनपदीय भाषा- छत्तीसगढ़ी के प्रति तमाम श्रद्धाओं और संभ्रमों के बाद यदि हिंदी के व्यापक वृत में छत्तीसगढ़ धनवान बना रहा है तो इसमें उस छत्तीसगढ़िया संस्कार की भी भूमिका भी रेखांकित होती है जिसकी मनोवैज्ञानिक उत्प्रेरणा के बल पर आज छत्तीसगढ़ सांवैधानिक राज्य के रूप में है । कहने का आशय यही कि ब्रज, अवधी आदि लोकभाषाओं की तरह उसने भी हिंदी को संपुष्ट किया है । कहने का आशय यह भी कि लोकभाषाओं के विरोध में न तो राष्ट्रीय हिंदी रही है न ही छत्तीसगढ़ की हिंदी । इस वक्त यह कहना भी मेरे लिए ज़रूरी होगा कि छत्तीसगढ़ की असली पहचान उसकी सांस्कृतिक अस्मिता है, जिसमें भाषायी तौर पर हिंदी और सहयोगी छत्तीसगढ़ी दोनों की सांस्कृतिक उद्यमों, सक्रियताओं, प्रभावों और संघर्षों को याद किया ही जाना चाहिए।


आज जब समूची दुनिया में (और विडम्बना यह भी कि भारतीय बौद्धिकी में भी) अपने इतिहास, अपने विरासत और अपने दिशाबोधों को बिसार देने का वैचारिक चिलम थमाया जा रहा है । पृथक किन्तु उज्ज्वल अस्मिताओं को लीलने के लिए वैश्वीकरण को खड़ा किया जा रहा है । अपनी सुदीर्घ उपस्थितियों को रेखांकित करते रहना ज़रूरी हो गया है । सो मैं आज की इस महत्वपूर्ण आयोजन का फायदा उठाते हुए छत्तीसगढ़ की साहित्यिकता पर स्वयं को केंद्रित करना चाहूँगा । बात मैं समकालीन साहित्यक विभूतियों, प्रतिभाओं, नायकों और उनके कृतित्व पर नहीं बल्कि उस अतीत की ज़मीन का विंहगावलोकन चाहूँगा जिसके बिना समकालीनता के पैर लड़खड़ा सकते हैं । और इसलिए भी कि समकालीन रचनात्मकता और स्थायी दिव्यता के बीच अभी समय की आलोचकीय आँधी बाक़ी है । जबकि हमारे श्रेष्ठ पुरातन की समकालीनता आज भी हम सबको अपने पास बुलाती है ।

तो सीधे-सीधे मै अपने मूल कथन की ओऱ लौटता हूँ - पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य ने पूर्व मीमांसा, भाषा उत्तर मीमांसा या ब्रज सूत्र भाषा, सुबोधिनी, सूक्ष्मटीका, तत्वदीप निबंध तथा सोलह प्रकरण की रचना की, जो रायपुर जिले के चम्पारण (राजिम के समीप) में पैदा हुए थे। अष्टछाप के संस्थापक विट्ठलाचार्य उनके पुत्र थे। मुक्तक काव्य परम्परा की बात करें तो राजा चक्रधर सिंह सबसे पहले नज़र आते हैं । वे छत्तीसगढ़ के गौरव पुरुष हैं। उनके जैसा संस्कृति संरक्षक राजा विरले ही हुए हैं । वे हिन्दी साहित्य के युग प्रणेता पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का जीवनपर्यन्त नियमित आर्थिक सहयोग करते रहे। रम्यरास, जोश-ए-फरहत, बैरागढ़िया राजकुमार, अलकापुरी, रत्नहार, काव्यकानन, माया चक्र, निकारे-फरहत, प्रेम के तीर आदि उनकी ऐतिहासिक महत्व की कृतियां हैं। उनकी कई कृतियाँ 50 किलो से अधिक वजन की हैं ।

भारतेंदु युग का जिक्र करते ही ठाकुर जगमोहन सिंह का नाम हमें चकित करता है, जिनकी कर्मभूमि छत्तीसगढ़ ही रहा और जिन्होंने श्यामा स्वपन जैसी नई भावभूमि की औपन्यासिक कृति हिन्दी संसार के लिए रचा। वे भारतेन्दु मंडल के अग्रगण्य सदस्य थे। जगन्नाथ भानु, मेदिनी प्रसाद पांडेय, अनंतराम पांडेय को इसी श्रृंखला मे याद किया जाना चाहिए । यहाँ सुखलाल प्रसाद पांडेय का विशेष उल्लेख करना समीचीन होगा कि उन्होंने शेक्सपियर के नाटक कॉमेडी ऑफ एरर्स का गद्यानुवाद किया, जिसे भूलभुलैया के नाम से जाना जाता है।

द्विवेदी युग में भी छत्तीसगढ़ की धरती ने अनेक साहित्य मनीषियों की लेखनी के चमत्कार से अपनी ओजस्विता को सिद्ध किया। इस ओजस्विता को चरितार्थ करने वालों में लोचन प्रसाद पांडेय का नाम अग्रिम पंक्ति में है। आपकी प्रमुख रचनाएं हैं – माधव मंजरी, मेवाड़गाथा, नीति कविता, कविता कुसुम माला, साहित्य सेवा, चरित माला, बाल विनोद, रघुवंश सार, कृषक बाल सखा, जंगली रानी, प्रवासी तथा जीवन ज्योति। दो मित्र आपका उपन्यास है। पंडित मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद के लघु भ्राता थे जिन्होंने छायावाद काव्यधारा का सूत्रपात किया। वे पद्मश्री से सम्मानित होने वाले छत्तीसगढ़ के प्रथम मनीषी हैं। पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की झलमला को हिन्दी की पहली लघुकथा मानी जाती है। इन्होंने ग्राम गौरव, हिन्दी साहित्य विमर्श, प्रदीप आदि कृति रचकर हिन्दी साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया। छत्तीसगढ़ के शलाका पुरुष बख्शी जी विषय में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उन्होंने सरस्वती जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का सम्पादन किया। रामकाव्य के अमर रचनाकार डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने कौशल किशोर, साकेत संत, रामराज्य जैसे ग्रंथ लिखकर चमत्कृत किया। निबंधकार मावली प्रसाद श्रीवास्तव का कवित्व छत्तीसगढ़ की संचेतना को प्रमाणित करती है। इंग्लैंड का इतिहास और भारत का इतिहास उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। उनकी रचनाएँ सरस्वती, विद्यार्थी, विश्वमित्र, मनोरमा, कल्याण, प्रभा, श्री शारदा जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में समादृत होती रही हैं । छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास निबंध सरस्वती के मार्च १९१९ में प्रकाशित हुआ था, जो छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय पहचान प्रदान करता है । प्यारेलाल गुप्त छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ रचनाकारों में एक हैं जिन्होंने सुधी कुटुम्ब (उपन्यास) आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हमें सौंपी। द्वरिका प्रसाद तिवारी विप्र की किताब गांधी गीत, क्रांति प्रवेश, शिव स्मृति, सुराज गीत (छत्तीसगढ़ी) हमारा मार्ग आज भी प्रशस्त करती हैं। काशीनाथ पांडेय, धनसहाय विदेह, शेषनाथ शर्मा शील, यदुनंदन प्रसाद श्रीवास्तव, पंडित देवनारायण, महादेव प्रसाद अजीत, शुक्लाम्बर प्रसाद पांडेय, पंडित गंगाधर सामंत, गंभीरनाथ पाणिग्रही, रामकृष्ण अग्रवाल भी हमारे साहित्यिक पितृ-पुरुष हैं।

टोकरी भर मिट्टी का नाम लेते ही एक विशेषण याद आता है और वह है – हिन्दी की पहली कहानी। इस ऐतिहासिक रचना के सर्जक हैं – माधव राव सप्रे।पंडित रविशंकर शुक्ल मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री मात्र नहीं थे, उन्होंने आयरलैण्ड का इतिहास भी लिखा था। पंडित राम दयाल तिवारी एक योग्य समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। शिवप्रसाद काशीनाथ पांडेय का कहानीकार आज भी छत्तीसगढ़ को याद आता है।

मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले कवि हैं। वे कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उनकी विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ हैं – चांद का मुँह टेढा़ है, अंधेरे में, एक साहित्यिक की डायरी। इस कालक्रम के प्रमुख रचनाकार रहे - घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल ।

आधुनिक काल में श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित कवि की छवि रखते हैं, जिनकी प्रमुख कृतियाँ माया दर्पण, दिनारम्भ, छायालोक, संवाद, झाठी, जिरह, प्रसंग, अपोलो का रथ आदि हैं। हरि ठाकुर सच्चे मायनों में छत्तीसगढ़ के जन-जन के मन में बसने वाले कवियों में अपनी पृथक पहचान के साथ उभरते हैं। जिनका सम्मान वस्तुतः छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के संघर्ष का सम्मान है। उन्होंने कविता, जीवनी, शोध निबंध, गीत तथा इतिहास विषयक लगभग दो दर्जन कृतियों के माध्यम से इस प्रदेश की तंद्रालस गरिमा को जगाया है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – गीतों के शिलालेख, लोहे का नगर, अंधेरे के खिलाफ, हँसी एक नाव सी। गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगीरी, नारायणलाल परमार, हरि ठाकुर के समकालीन कवि हैं।

प्रमोद वर्मा की तीक्ष्ण और मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का जिक्र न करना बेमानी होगा । हिंदी रंग चेतना में हबीब तनवीर की रंग चेतना की गंभीर हिस्सेदारी स्थायी जिक्र का विषय हो चुका है ।

छत्तीसगढ़ के रचनाकारों ने सिर्फ़ कविता, कहानी ही नहीं उन तमाम विधाओं में अपनी सार्थक उपस्थिति को रेखांकित किया है जिससे हिंदी भाषा और उसकी संस्कृति समृद्ध होती रही है । आज की लोकप्रिय विधा लघुकथा का जन्म यहीं हुआ । हिंदी की पहली लघुकथा इसी ज़मीन की उपज है । यहाँ मैं उन सभी को स्मरण करते हुए खास तौर पर उर्दू की समानान्तर धारा की बात करना चाहता हूँ जिन्होंने देवनागरी को आजमाकर अपनी हिंदी-भक्ति को चरितार्थ किया । इसमें ग़ज़लकार मौलाना अब्दुल रउफ महवी रायपुरी, लाला जगदलपुरी, स्व. बंदे अली फातमी, स्व. मुकीम भारती, स्व. मुस्तफा हुसैन मुश्फिक, शौक जालंधरी, रजा हैदरी, अमीर अली अमीर की शायरी को क्या आम आदमी भूला सकता है ।

हिंदी की साहित्यिक दुनिया में राज्य के अधिवासी रचनाकारों के भावों, शैलियों की क्रांतिकारिता के तमाम जादुई प्रभावों और अनुसरणों को नमन करते हुए फिलहाल मैं हमारे अपने समय के एक बड़े आलोचक आदरणीय विश्वनाथ तिवारी के (किसी साक्षात्कार में उल्लेखित विचार) का जिक्र करते हुए यह भी कहना प्रांसगिक समझता हूँ – कि आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में अतिवाद जब शीर्षस्थ है और यह भी कि ऐसे अतिवादों से छत्तीसगढ़ जैसा भूभाग कहीं अधिक ग्रस्त रहा है तब ऐसे समय में मेरे मन में और कदाचित् हिंदी की दुनिया के व्याकरणाचार्यों का मन भी क्या आकुल-व्याकुल नहीं होगा कि भूगोल से साहित्यिकी का आखिर कैसा संबंध है ? ऐसे प्रश्नों के जवाब देने की पहल भी इसी भूगोल से होनी चाहिए ।

खैर.... हिन्दी के साथ हम छत्तीसगढ़ी भाषा के रचनाकारों का स्मरण न करें तो यह अस्पृश्य भावना का परिचायक होगा। कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, छत्तीसगढ़ी के उत्कर्ष को नया आयाम दिया – पं. सुन्दरलाल शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय, मुकुटधर पांडेय, नरसिंह दास वैष्णव, बंशीधर पांडेय, शुकलाल पांडेय ने। कुंजबिहारी चौबे, गिरिवरदास वैष्णव ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में अपनी कवितीओं की अग्नि को साबित कर दिखाया। इस क्रम में पुरुषोत्तम दास एवं कपिलनाथ मिश्र का उल्लेख भी आवश्यक होगा। वर्तमान में छत्तीसगढ़ी रचनात्मकता भी लगातार जारी है । पर उसे समय के शिला पर कसौटी में कसा जाना अभी प्रतीक्षित है ।

यहाँ मैं अपनी संपूर्ण सदाशयता और विनम्रता के साथ यह भी कहना चाहूँगा कि यह योगदान कर्ताओं का सूचीकरण नहीं है । फिर मैं साहित्य का इतिहास लेखक भी नहीं हूँ बल्कि सच तो यह भी है कि मैं साहित्य का विद्यार्थी होने का दावा भी नहीं कर सकता । आखिर मैं ठहरा समाचार-जीवी । समाचारों के बीच स्वयं की तलाश करने वाला पत्रकार । मैं और आप स्वयं जानते हैं कि इस हॉल(सभाकक्ष) में और इस समय भी अपनी निजता के साथ देशभर में पढ़े लिखे जाने वाले सु-नामी बिराजे हुए हैं और जिनपर हमें ही नहीं समूचे हिंदी संसार को इस समय गर्व हो सकता है । सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ ऐसे रचनाकार भी बैठे हुए हैं जिन्हें भले ही आज की कथित भारतीय रचनाकार बिरादरी नहीं जानती पर वे भी कई देश की सीमाओं को लाँघकर दर्जनों देशों के हजारों पाठकों के बीच जाने जाते हैं । ये सब के सब हमारे वर्तमान के ही संस्कृतिकर्मी नहीं बल्कि हमारे अतीत में पैठे हुए उन सभी नक्षत्रों की तरह हैं जो भावी समय के खरे होने की गारंटी देते हैं ।

अपनी बात के अंतिम चरण में यह बताते हुए बड़ा ही हर्ष हो रहा है कि भले ही मेरे दादा और रचनाधर्मी स्वर्गीय पं. बृजलाल द्विवेदी जी की कर्मभूमि उत्तरप्रदेश है पर छत्तीसगढ़ उनकी याद के बहाने किसी बड़े कृतिकार के कृतित्व को रेखांकित करने की स्थायी भूमि होगी । और यह आयोजक होने के नाते मेरे लिए गर्व का भी विषय होगा । आखिर उत्तरप्रदेश हिंदी के उज्ज्वल भूगोल के जनपद हैं । और यह सखाभाव दोनों में अनवरत बना रहेगा । यही सखाभाव आज की वैश्विक खतरों से जूझने की भी वैचारिकी हो सकता है कि समानधर्मा जनपद एक लय मे स्वयं को विन्यस्त करते रहें ।

अब तक मैं आपका बहुत समय ले चुका हूँ । परन्तु मैं समझता हूँ कि मुझे इतनी बात रखने का हक़ आपकी ओर से था क्योंकि आपने सदैव हमारी संस्था को अपना धैर्य और संबल दिया है । मै सभी पुनः का स्वागत करते हुए नमन करता हूँ। (पं.बृजलाल द्विवेदी अंलकरण समारोह-2008 में दिया गया स्वागत भाषण, मई 25, 2008, संस्कृति विभाग, रायपुर का सभागार)

मंगलवार, 13 मई 2008

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति सम्मान समारोह 25 को



0 साहित्यिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए अलंकृत होंगे डा. तिवारी

रायपुर। साहित्यिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए 'दस्तावेज’ (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किए जाएंगे। 25 मई, 2008 को शाम 6.00 बजे रायपुर स्थित महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात लेखक विनोद कुमार शुक्ल होंगे तथा अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु द्विवेदी करेंगे। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, कवि अष्टभुजा शुक्ल, कथाकार जया जादवानी समारोह के विशिष्ट अतिथि होंगे। इस अवसर पर सम्मानित संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी “साहित्यिक पत्रकारिता की जगह” विषय पर मुख्य व्याख्यान देंगे।


पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समिति की संयोजक भूमिका द्विवेदी ने बताया है कि वर्ष 2007 के सम्मान हेतु डा. तिवारी के नाम का चयन पाँच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया, जिसमें सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, विजयदत्त श्रीधर, रमेश नैयर, सच्चिदानंद जोशी और गिरीश पंकज शामिल हैं। डा. तिवारी को यह सम्मान साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं और श्रेष्ठ संपादन के लिए दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि हिंदी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को समादृत करने के उद्देश्य से इस पुरस्कार की शुरुआत की गई है। इस राष्ट्रीय सम्मान के अंतर्गत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रुपए नगद, शाल, श्रीफल, सम्मान पत्र एवं प्रतीक चिन्ह देकर समारोहपूर्वक सम्मानित किया जाता है। गत वर्ष यह सम्मान 'वीणा (इंदौर) के संपादक रहे डा. श्याम सुंदर व्यास को दिया गया था। इस वर्ष सम्मान के लिए चयनित डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर से प्रकाशित हो रही साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका 'दस्तावेज के संपादक हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है, जो 1978 से नियमित प्रकाशित हो रही है। इसके लगभग दो दर्जन विशेषांक प्रकाशित हुए हैं, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में जन्मे डा. तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। डा. तिवारी की प्रकाशित पुस्तकों की श्रृंखला में आलोचना की नौ पुस्तकें, 6 कविता संकलन, दो यात्रा संस्मरण, एक लेखक संस्मरण, एक साक्षात्कार संकलन तथा 147 विभिन्न पुस्तकों का संपादन शामिल है। साथ ही उनकी कई रचनाओं का विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, भारत मित्र संगठन मास्को द्वारा पुस्किन सम्मान मिल चुका है। उनके द्वारा संपादित पत्रिका 'दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है।

शुक्रवार, 9 मई 2008

भरोसे का नाम है वाजपेयी



भारतीय लोकतंत्र के छ: दशक के इतिहास में उन सा नायक खोजने पर भी नहीं मिलता। वे सिर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे भारत के तीन बार प्रधानमंत्री रहे हैं, दरअसल वे खास इसलिए हैं कि उन्होंने देश में दक्षिणपंथ की राजनीति को न सिर्फ़ लोक स्वीकृति दिलाई, वरन वे उसके नायक और उन्नायक दोनों बने। अपने लोक व्यवहार और प्रांजल भाषणशैली से पूरे देश को लंबे समय तक मोहते रहने वाले श्री अटल बिहारी वाजपेयी आज भी जनता के दिलों में राज करते हैं, तो इसका विश्लेषण बहुत सहज नहीं है।



बहुत साधारण परिवार से आकर अपने संस्कारों, कार्यक्षमता और विचारधारा के प्रति समर्पण तथा सातत्य से उन्होंने जो जगह बनाई है, वह अप्रतिम और अभूतपूर्व है। भारत का संसदीय इतिहास उनके उल्लेख के बिना अधूरा रह जाएगा। कवि हृदय, संवेदनशील राजनेता के रूप में उनकी ऊंचाई आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन का कारण है। राजनीति में आने वाले तमाम लोग आज भी उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेते हैं। अपनी लंबी आयु और प्राय: खराब रहने वाले स्वास्थ्य के बावजूद वे आज भी भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए आम जनता के बीच सबसे लोकप्रिय नाम हैं। इसका कारण सिर्फ़ यह है कि वे भारत की विविध भाषा-भाषी और विविध संस्कृतियों में रची-बसी अस्मिता को पहचानते हैं और आम हिंदुस्तानी उन पर भरोसा करता है। भारतीय संसद के दोनों सदनों में सांसद के रूप में उनकी उपस्थिति बहुत गंभीरता से ली जाती रही। वे जब सदन में खड़े होते हैं, तो पक्ष और विपक्ष दोनों उन्हें सुनना चाहते हैं, क्योंकि श्री वाजपेयी बेहद सहज और सरल भाषा में कठिन से कठिन मुद्दों का भी जैसा विश्लेषण करते हैं, उससे विषय बहुत आसान नज़र आने लगते हैं। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है और राष्ट्रनिष्ठा को वे हर प्रकार की राजनीति से ऊपर मानते हैं। उनकी यही दृढ़ता उन्हें भारतीय राजनीति में एक विशिष्ट जगह दिलाती है। ग्वालियर में एक अध्यापक के परिवार में जन्म लेकर राजनीति के शिखर पर पहुँचना इतना आसान नहीं था और वह भी एक ऐसी विचारधारा के साथ जो उन दिनों बेहद संघर्ष में थी तथा जनसंघ के रूप में पार्टी की शुरुआत हो रही थी। वे कानपुर में पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संपर्क में आए। इसके बाद तो विचारधारा के प्रति इस तरह समर्पित हुए कि वे उसी के होकर रह गए। लखनऊ से पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और स्वदेश पत्रों का प्रकाशन हुआ, तो वे उसके संपादक बने। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का आशीर्वाद उन्हें मिलता रहा और वे एक ऐसे पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे, जो प्रखर राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बन गया। बाद में श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर आंदोलन के दौरान शहादत के बाद श्री वाजपेयी जनसंघ में शामिल हो गए। इसके बाद जनसंघ ही उनका जीवन बन गया। पार्टी की अहर्निश सेवा और लगातार दौरों ने उन्हें देश का एक लोकप्रिय व्यक्तित्व बना दिया। जब वे पहली बार संसद पहुँचे, तो उनकी वक्रता से संसद भी प्रभावित हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी श्री वाजपेयी की तारीफ की। इसके बाद श्री वाजपेयी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने लक्ष्य के लिए समर्पण और लगातार कार्य ही उनका उद्देश्य बन गया। ध्येय पथ पर चलने की ऐसी मिसाल शायद ही दूसरी हो। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने अपना भौगोलिक विस्तार तो किया ही, वैचारिक दृष्टि से भी उसके विचार आम जनता तक पहुँचे। वाजपेयी की भाषण कला इसमें सहयोगी साबित हुई। लोग उनके भाषणों के दीवाने हो गए। उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई और प्रधानमंत्री के रूप में वे पार्टी के ही नहीं, तमाम लोगों की आकांक्षाओं के केंद्र बन गए। उन दिनों पार्टी की स्थिति संसदीय लोकतंत्र को बहुत प्रभावित करने की नहीं थी। बावजूद इसके देश के जनमन में श्री वाजपेयी के प्रति भरोसा बढ़ता गया और लोग चाहने लगे कि वे एक बार देश के प्रधानमंत्री ज़रूर बनें। इस बीच देश में आपातकाल लग गया और श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक बड़े आंदोलन का प्रारंभ हुआ। श्री वाजपेयी समेत देश के सभी बड़े विपक्षी नेता जेल में डाल दिए गए। आपातकाल विरोधी शक्तियों के समन्वय से जनता पार्टी का गठन हुआ, जिसे बाद में सरकार बनाने का मौका भी मिला। इस सरकार में श्री वाजपेयी विदेश मंत्री बनाए गए। उनके विदेश मंत्री के रूप में किए गए कार्यों की आज भी सराहना होती है। उन्होंने विश्व मंच पर भारत की एक खास पहचान बनाई। बावजूद इसके जनता पार्टी का प्रयोग विफल रहा और सरकार कार्यकाल पूरा न कर सकी। इसके बाद 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर जनसंघ घटक के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। भाजपा के प्रथम अध्यक्ष श्री अटल बिहारी वाजपेयी बनाए गए। इसके बाद श्री वाजपेयी और श्री लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने भाजपा को फिर से खड़ा करना प्रारंभ किया। वाजपेयी वैसे भी सम्मोहित कर देने वाले वक्ता हैं, जो लोगों के दिलो-दिमाग में हलचल मचा देता है। वे एक स्वप्नद्रष्टा तो हैं ही और उनके हाव-भाव सम्मोहित कर देने वाले हैं। भारतीय जनता पार्टी को प्रारंभ में साधारण सफलताएं ही मिलीं, किंतु पार्टी को मिले असाधारण नेतृत्व ने इन सामान्य सफलताओं को आगे चलकर बड़ी सफलताओं में बदल दिया। सबको साथ लेकर चलने की क्षमताओं के नाते वाजपेयी वैसे ही लोगों के चहेते हैं। शायद इसी के चलते वे देश में पहली स्थिर गैर कांग्रेसी सरकार चलाने में सफल रहे। उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मिले कार्यकाल में देश में अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं प्रारंभ हुईं। उनकी सरकार ने लगभग 24 दलों को साथ लेकर चलने का जादू कर दिखाया। यह वाजपेयी के नेतृत्व का ही कमाल था कि पहली बार ऐसा प्रयोग दिल्ली में सफल रहा। अब जबकि वाजपेयी सक्रिय राजनीति से अलग होकर पार्टी की सर्वोच्च नेता और कुलपिता की भूमिका में हैं, उनका आदर और सम्मान आज भी कम नहीं हुआ है। शायद इसलिए कि वे आम जनता में पार्टी के सबसे बड़े प्रतीक हैं।


भाजपा के पास डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसा समर्थ और आदरणीय व्यक्तित्वों की पूरी परंपरा मौजूद है। सही अर्थों में वाजपेयी डा. मुखर्जी और पंडित उपाध्याय की परंपरा के सच्चो उत्तराधिकारी हैं। दायित्वबोध के साथ राष्ट्रवाद का ऐसा समुच्चय साधारणतया देखने में नहीं आता। राजनीति में रहकर भी राजनीति के राग-द्वेष से मुक्त रहना साधारण नहीं है। श्री वाजपेयी ने पार्टी और राष्ट्र को ही अपना सब कुछ माना और इसके भवितव्य के लिए ही उनका पूरा जीवन समर्पित रहा। आज जबकि राजनीति में अनैतिकता, भ्रष्टाचार और तमाम तरह के कदाचरण प्रभावी होते जा रहे हैं श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व का होना राहत देता है। वे विश्वास की एक ऐसी पूंजी हैं, जो कार्यकर्ताओं के हिलते हुए आत्मविश्वास का सहारा है। ऐसे ही संकल्पवान और नैतिक व्यक्तित्व, विचारधारा से जुड़े राजनैतिक कार्यकर्ताओं को यह संबल देते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। विश्वास और नैतिकता की यह डोर एक वैचारिक दल का सबसे बड़ा सहारा है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग इस विश्वास को और मजबूत करते हैं और भरोसा जगाते हैं कि आने वाला समय वैचारिक तथा नैतिक राजनीति का समय वापस लाएगा। आज की भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के लिए वाजपेयी सिर्फ़ एक जीवंत इतिहास नहीं हैं, वे चुनौती भी हैं, क्योंकि वाजपेयी दिखते भले साधारण हों, वे एक असाधारण राजनेता हैं। उन सा होना, उन सा जीना, उन सा करना, उन सा दिखना सरल नहीं है। वे वाणी और जीवन में साम्य का एक ऐसा उदाहरण हैं, जो अपने विश्वासों के लिए जीता है और उन्हीं के आधार पर जीतता भी आया है। आज जबकि राजनीतिक दलों के सामने विश्वास का संकट खड़ा है, आम जनता के मन में राजनेताओं के प्रति एक गहरा अवसाद और निराशा भाव घर कर गया है वाजपेयी जैसे नाम हमें राहत देते हैं। वे राजनीतिक क्षेत्र की एक ऐसी प्रेरणा हैं, जिसकी चमक कभी भी खत्म नहीं होगी।

मंगलवार, 6 मई 2008

दौरे से मिली नई दिशा


0 छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी का दो दिवसीय प्रवास 0


कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी का दो दिवसीय छत्तीसगढ़ दौरा जहां प्रदेश कांग्रेस को स्फूर्ति दे गया, वहीं कई अलग तरह के संदेश भी छोड़ गया। देश को जानने और फिर संगठन में जोश फूंकने के लिए निकले युवा नायक के लिए यह दौरा एक ऐसा प्रसंग था जिसने उन्हें तमाम जमीनी हकीकतों के सामने खड़ा किया। राहुल गांधी के लिए छत्तीसगढ़ का दौरा बेहद भावनात्मक क्षण इसलिए भी था कि उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के प्रति एक खास स्नेह रखते थे। राजीव ने भी अपने शुरूआती दिनों में इन क्षेत्रों का दौरा कर आदिवासी समाज की स्थिति को परखने का प्रयास किया था। जाहिर है राहुल गांधी के लिए यहां के हालात चौंकाने वाले ही थे। आजादी के 60 सालों के बाद आदिवासी जीवन की विषम परिस्थितियां और बस्तर के तमाम क्षेत्रों में हिंसा का अखंड साम्राज्य उन्हें नजर आया।

राहुल गांधी ने इस दौरे में आदिवासी समाज की जद्दोजहद और जिजीविषा के दर्शन तो किए ही अपने संगठन को भी परखा। उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि आदिवासी इलाकों में उनके संगठन में आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व उस तरह से नहीं है, जितना होना चाहिए। उन्होंने यह साफ संकेत दिए कि कांग्रेस संगठन के सभी संगठनों में आदिवासी और दलित वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। कांग्रेस के नए नायक को जमीनी हकीकतों का पहले से पता था। शायद इसीलिए वे अपने संगठन की सामाजिक अभियांत्रिकी को दुरूस्त करना चाहते हैं। कांकेर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए राहुल ने स्वयं को युवराज कहे जाने पर भी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि यह शब्द सामंती समाज का प्रतीक है और एक प्रजातांत्रिक देश में यह शब्द अच्छा नहीं लगता। बस्तर, कांकेर और सरगुजा जिलों के दौरे के बाद राहुल क्या अनुभव लेकर लौटे हैं, इसे जानना अभी शेष है। आने वाले दिनों में जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा, फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं, तब कांग्रेस संगठन की परीक्षा होनी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की 11 सीटों में सिर्फ एक ही कांग्रेस के हाथ लगी थी। बाद में राजनांदगांव लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के देवव्रत सिंह ने सीट जीतकर जरूर यह संख्या दो कर दी। बावजूद इसके कभी कांग्रेस के गढ़ रहे छत्तीसगढ़ में इस समय भाजपा की सरकार है। इस गढ़ को तोड़ना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और उसके मुख्यमंत्री अपनी सरकार की वापसी के लिए आश्वस्त दिखते हैं। यह साधारण नहीं है कि दो वर्षों पूर्व अध्यक्ष बने डा. चरणदास महंत आज तक अपनी राज्य कार्यकारिणी की घोषणा तक नहीं कर सके हैं। कांग्रेस राज्य में टुकड़ों में बंटी है और आपसी खींचतान आसमान पर है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भले ही अलग-थलग पड़ गए हों पर उनकी ताकत कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में तो सक्षम है ही। दूसरी ओर चरणदास महंत बिना सेना के सेनापति बने हुए हैं। ऐसे में राहुल गांधी के सामने छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों में जोश फूंकने के अलावा उन्हें एकजुट करने की चुनौती भी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में आदिवासी, दलित और गरीब तबके को ध्यान में रखकर कई योजनाएं शुरू की हैं, जिसमें तीन रूपए किलो चावल की योजना प्रमुख है। इससे भाजपा इन क्षेत्रों में पुन: अपनी जीत सुनिश्चित मान रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में बस्तर और सरगुजा क्षेत्रों में भाजपा को व्यापक सफलता मिली थी। इसी को देखते हुए राहुल गांधी ने आदिवासी क्षेत्रों को ही केंद्र में लिया है। वे शहरी इलाकों के बजाय आदिवासी क्षेत्रों पर ही फोकस कर रहे हैं। इससे पार्टी को उम्मीद है कि आदिवासी क्षेत्रों में पुन: कांग्रेस की वापसी संभव हो सकती है और उससे दूर जा चुका आदिवासी वोट बैंक फिर से उनकी झोली में गिर सकता है। राहुल के दौरे को खास तौर से इसी नजरिए से देखा और व्याख्यायित किया जा रहा है।

25 अप्रैल, 2008 को जब वे अपनी भारत खोज यात्रा के तहत अंबिकापुर के दरिमा हवाई अड्डे पर उतरे तो वे लगातार अपनी पूरी यात्रा में इस बात का अहसास कराते रहे कि उनकी निगाह में आदिवासी समाज की कीमत क्या है। अंबिकापुर से विश्रामपुर और सूरजपुर के रास्ते के बीच सड़क किनारे आदिवासियों के हुजूम के बीच उन्होंने जा-जाकर उनकी समस्याएं पूछी। अंबिकापुर और विश्रामपुर के बीच पड़ने वाले लेंगा गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ खाना भी खाया। इसी दिन शाम को 6 बजकर दस मिनट पर वे जगदलपुर में थे। अगले दिन जगदलपुर में भी उन्होंने आदिवासी बहुल ग्राम जमावाड़ा में आदिवासियों से घुल-मिलकर चर्चा की। आदिवासी समाज के लोग गांधी परिवार के इस नायक को अपने बीच पाकर भावुक हो उठे। कुल मिलाकर राहुल गांधी का छत्तीसगढ़ दौरा कांग्रेस संगठन में एक नया जोश फूंकने और आदिवासी समाज को एक नया संदेश देने में सफल रहा।


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उम्मीद है उनसे
0 राहुल छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद पहली बार वे यहां आए। इससे एक ओर वे जहां राज्य के दलितों, आदिवासियों, तथा पिछड़ेवर्ग के लोगों की समस्याओं को देखा और समङाा। वहीं दूसरी ओर उनकी यात्रा से राज्य के एनएसयूआई एव युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन भी हुआ। जिसका फायदा कांग्रेस पार्टी को आगामी चुनाव में मिलेगा। गांधी परिवार हमेशा से ही आदिवासियों, दलितों एवं पिछडेवर्ग का हिमायती रहा है। राहुल गांधी जिस सादगी के साथ लोगों के बीच में जाकर उनकी समस्याएं सुनते हैं, उसका व्यापक प्रभाव यहां के जनमानस पर पड़ेगा।
-डॉ. चरणदास महंत, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ कांग्रेस

0 वे जिस लगन के साथ आम जनता के बीच पहुंचे, यह एक बहुत अच्छी बात है। एक युवा नेता होने के नाते इससे उन्हें छत्तीसगढ़ को जानने एवं समङाने का मौका मिला। यह छत्तीसगढ़ की जनता के लिए गौरव का विषय है। यद्यपि इसका सीधे तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इससे युवाओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ, जिसका लाभ आनेवाले आम चुनाव में पार्टी को मिलेगा।
-विद्याचरण शुक्ल, पूर्व केद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ नेता

0 राहुल गांधी उड़ीसा एवं कर्नाटक की यात्रा के बाद छत्तीसगढ़ आए। जिसका लाभ यहां की जनता को अवश्य मिलेगा। उनको यहां चल रही योजनाओं की जमीनी हकीकत के साथ यह भी पता चलेगा कि केन्द्र सरकार की योजनाओं का नाम बदल कर किस प्रकार राज्य सरकार इस योजना का पैसा उस योजना में लगा रही है। उनकी इस यात्रा से यहां हो रहे भ्रष्टाचार का मामला खुलकर सामने आया, जिसका लाभ बाद में ही सही लेकिन आम जनता को मिलेगा।
-मोतीलाल वोरा, कोषाध्यक्ष, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी

0 राहुल गांधी की यात्रा से हमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यात्रा याद आई। इससे उनको देश को समङाने एवं करीब से देखने का मौका मिला। यह देश की जनता एवं स्वयं राहुल गांधी दोनों के लिए लाभदायक है, क्योंकि यही जानकारियां बाद में काम आएंगी। उनकी सरगुजा से बस्तर तक की यात्रा काफी महत्वपूर्ण है। आदिवासियों की बस्तियों में जाकर उनकी जानकारी लेना, वह भी राहुल गांधी द्वारा, स्वयं एक बहुत बड़ी बात है। जिसका राजनैतिक दृष्टिकोण से पार्टी को काफी लाभ मिलेगा।
-अरविन्द नेताम, पूर्व केन्द्रीय मंत्री

0 राहुल आदिवासियों के बीच पहुंचे। यह एक बड़ा अवसर है, जब राजीव गांधी के बाद कोई युवा नेता आदिवासियों के इतने करीब पहुंचा। उनकी इस यात्रा से चुनाव के पूर्व एक आपसी सदभावना का जो माहौल बनेगा, नि:संदेह उसका लाभ पार्टी को मिलेगा।
-अजीत जोगी, पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद

0 उनके छत्तीसगढ़ प्रवास से राज्य में चतुर्दिक उत्साह का माहौल व्याप्त है। हमेशा से ही आदिवासियों एवं दलितों व पिछड़ेवर्ग के लोगों को गांधी परिवार का विशेष स्नेह प्राप्त रहा है। उनके प्रवास से यहां के कार्यकर्ताओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ है। जिसका फायदा आगामी आम चुनाव में पार्टी को निश्चित रूप से प्राप्त होगा।
-सत्यनारायण शर्मा, पूर्व शिक्षा मंत्री