मंगलवार, 24 जून 2008

डा. रमन सिंह: सपनों को सच करने की जिम्मेदारी


छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह अगर अपनी सरकार के साढ़े चार साल से अधिक का समय पूरा करने के बावजूद जनप्रिय बने हुए हैं, तो यह सोचना बहुत मौजूं है कि आखिर उनके व्यक्तित्व की ऐसी क्या खूबियां हैं, जिन्होंने उन्हें सत्ता के शिखर पर होने के बावजूद अलोकप्रियता के आसपास भी नहीं जाने दिया। देखा जाए तो डा. रमन सिंह एक मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा मनुष्य हैं। उनका मनुष्य होना उन सारे इंसानी रिश्तों और भावनाओं के साथ होना है, जिसके नाते कोई भी व्यक्ति वामन से विराट हो जाता है। मुख्यमंत्री बनने के पूर्व डा. रमन सिंह के व्यक्तित्व की तमाम खूबियां बहुज्ञात नहीं थीं। शायद उन्हें इन चीजों को प्रगट करने का अवसर भी नहीं मिला। वे कवर्धा में जरूर 'गरीबों के डाक्टर के नाम से जाने जाते रहे किंतु आज वे समूचे छत्तीसगढ़ के प्रिय डाक्टर साहब हैं। उनकी छवि इतनी निर्मल है कि वे बड़ी सहजता के साथ लोगों के साथ अपना रिश्ता बना लेते हैं। राजनेताओं वाले लटकों-झटकों से दूर अपनी सहज मुस्कान से ही वे तमाम किले इस तरह जीतते चले गए कि उनके विरोधी भी सार्वजनिक तौर पर उनकी आलोचना से संकोच करने लगे हैं।

मुख्यमंत्री के रूप में उनके पदभार ग्रहण करने के साथ ही तमाम आशंकाएं उनकी और उनकी सरकार के आसपास तैर रही थीं। डा. रमन सिंह का स्वयं का इतिहास भी किसी बड़ी प्रशासनिक जिम्मेदारी के साथ जुड़ा नहीं रहा। कुछ समय के लिए वे केंद्र की सरकार में मंत्री जरूर रहे किंतु उस दौर में भी उनके कामकाज के बारे में बहुत कुछ सुनाई नहीं पड़ा। साथ ही साथ उनकी पूरी फौज में ज्यादातर सिपाही ऐसे थे, जो पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। ऐसे में बहुत अनुभवहीन मंत्रियों को लेकर बनी टीम बहुत आशाएं नहीं जगाती थी। डाक्टर साहब का स्वयं का स्वभाव भी उनके प्रशासनिक कौशल पर सवाल उठाता ही दिखता था। अब साढ़े चार साल के बाद यह लगता है कि वे आकलन और विश्लेषण न सिर्फ बहुत सतही थे, बल्कि रमन सिंह को बहुत ही सरलीकृत करके देखा जा रहा था।

डा. रमन सिंह को जिस काम के लिए याद किया जाएगा, उसमें उनकी पहली उपलब्धि तो यही है कि वे अपनी साधारण क्षमताओं के बावजूद पांच साल अपनी सरकार को चला ले गए। आज के समय में यह उपलब्धि भी साधारण नहीं है और तब जबकि मध्यप्रदेश में इसी भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े। दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने संयुक्त मध्यप्रदेश में प्रभावी रहे लगभग सभी भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों को राज्य की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक बना दिया। आप इस बात से राहत ले सकते हैं कि भाजपा दिग्गज लखीराम अग्रवाल अपने स्वास्थ्यगत कारणों से राजनीति में निष्क्रिय हैं किंतु यह साधारण नहीं है कि उनके बेटे अमर अग्रवाल को छ: महीने के लिए मंत्रिमंडल से बाहर भी बैठना पड़ा। कभी मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे नंदकुमार साय के समर्थक भी यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि सायजी कहां हैं और क्या कर रहे हैं? इसी तरह भाजपा के कई दिग्गजों ने, जिनका नाम उल्लेख आवश्यक नहीं है या तो अपने पंख सिकोड़ लिए हैं अथवा स्वयं को रमन सिंह के साथ ही संबध्द कर लिया है। संगठन और सरकार के बीच इतने अच्छे तालमेल के साथ अपना कार्यकाल पूरा करना डा. रमन सिंह की ऐतिहासिक उपलब्धि ही कही जाएगी। भाजपा संगठन में भी दिल्ली से लेकर रायपुर तक के नेताओं के बीच डा. रमन सिंह न सिर्फ सर्व स्वीकृत नाम हैं, वरन वे सबके प्रिय भी हैं। उनके व्यक्तित्व की सहजता और सहज उपलब्धता ने उनका कवरेज एरिया बहुत बढ़ा दिया है।
डा. रमन सिंह को नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबध्दता के लिए भी निश्चित रूप से याद किया जाना चाहिए। वे शायद देश के ऐसे पहले राजनेता हैं, जिन्होंने नक्सलवाद के खिलाफ अपनी प्रखर प्रतिबध्दता को जाहिर करते हुए नक्सलवाद को राष्ट्रीय आतंकवाद के समकक्ष खड़ा कर पूरे देश का ध्यान इस समस्या की ओर आकर्षित किया। नक्सलियों को आतंकी की संज्ञा देने के साथ उनके खिलाफ जनमत निर्माण के लिए उनकी पहल को निश्चित रूप से याद किया जाएगा। राज्य के चौतरफा विकास के लिए मुख्यमंत्री के नाते उनकी सक्रियता रेखांकित करने योग्य है। सरकारी तंत्र की तमाम सीमाओं के बावजूद मुख्यमंत्री की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। पहले दिन से ही उनके ध्यान में आखिरी पंक्ति पर खड़े लोग ही हैं। राज्य शासन की ज्यादातर योजनाएं इसी तबके को ध्यान में रखते हुए बनाई गईं। आदिवासियों को गाय-बैल, बकरी देने की बात हो, उन्हें चरण पादुका देने की बात हो, गरीब छात्राओं को साइकिल देने या पच्चीस पैसे में नमक और तीन रुपया किलो चावल सबका लक्ष्य अंत्योदय ही है। इस तरह की तमाम योजनाएं मुख्यमंत्री की दृष्टि और दृष्टिपथ ही साबित करती हैं।

विकास की महती संभावनाओं के साथ आज भी पिछड़ेपन और गरीबी के मिले-जुले चित्र राज्य की सर्वांगीण प्रगति में बाधक से दिखते हैं। अमीर और गरीब के बीच की खाई इतनी गहरी है कि सरकार की अत्यंत सक्रियता के बिना विकास के पथ पर बहुत पीछे छूट गए लोगों को मुख्य धारा से जोड़ पाना संभव नहीं है। भूमि, वन, खनिज और मानव संसाधन की प्रचुरता के बावजूद यह राज्य बेहद चुनौतीपूर्ण है, जहां पर एक तरफ विकास की चौतरफा संभावनाएं दिखती हैं, तो दूसरी तरफ बहुत से घरों में न सिर्फ फाका होता है, बल्कि रोजगार की तलाश में नित्य पलायन हो रहा है। भूख, कुपोषण और महामारी जैसे दृश्य यहां बहुत आम हैं। किसान पिट भी रहा है और पिस भी रहा है। इन चित्रों को जोड़कर जो दृश्य बनता है वह बहुत चिंताजनक है। विकास यात्रा पर निकले मुख्यमंत्री को इन बिंबों की तरफ भी ध्यान देना होगा। सरकारी तंत्र की असहिष्णुता और सीमाओं के बावजूद राजनैतिक तंत्र की सक्रियता और नीयत का पूरे तंत्र पर प्रभाव जरूर पड़ता है। इसके लिए समय और अवसर उपलब्ध कराना राज्य के लोगों की जिम्मेदारी है, तो उस अवसर का सही और सार्थक इस्तेमाल राज्य के नेतृत्व की नैतिकता के साथ जुड़ा प्रश्न है।

एक नवंबर, 2000 को अपना भूगोल रचने वाला यह राज्य आज भी एक 'भागीरथ के इंतजार में है। छत्तीसगढ़ का भौगोलिक क्षेत्रफल 1, 35, 194 वर्गकिलोमीटर है, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 4.1 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से छत्तीसगढ़ देश के सोलह राज्यों से बड़ा है। यह कई छोटे-छोटे राष्ट्रों से भी विशाल है। छत्तीसगढ़ का क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा और केरल इन तीनों राज्यों के योग से ज्यादा है। जाहिर है इस विशाल भूगोल में बसने वाली जनता छत्तीसगढ़ की सत्ता पर बैठे मुखिया की तरफ बहुत आशा भरी निगाहों से देखती है। इन अर्थों में डा. रमन सिंह के पास एक ऐसी कठिन जिम्मेदारी है, जिसका निर्वहन उन्हें करना ही होगा। इस विशाल भूगोल में सालों साल से रह रही आबादी अपनी व्यापक गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्त होने का इंतजार कर रही है। डा. रमन सिंह के सामने यह चुनौती भी है कि वे श्रोष्ठ मानव संसाधन का विकास करते हुए न सिर्फ लोगों को उत्तम शासन उपलब्ध कराएं वरन उत्तम अधोसंरचना का विकास भी करें।

छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधन, खनिज, वन संपदा और जल संसाधन की दृष्टि से जहां बेहद संपन्न है, वहीं यहां अधोसंरचना के विकास के कई अवसर हैं। देश के मध्य में स्थित होने के नाते देश के सभी हिस्सों से यह लगभग समान दूरी पर है। उत्पादन के साधन, भूमि और श्रम सस्ता होने के नाते विकास की यहां अपार संभावनाएं हैं। राज्य में पावर हब के साथ-साथ फसल चक्र परिवर्तन के माध्यम से एग्रीकल्चर हब बनने की भी क्षमता है। औद्योगिक विकास के लिए समूह आधारित उद्योगों का विकास और लघु उद्योगों का बढावा देकर बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ के सामने औद्योगिकीकरण की दिशा में संभावनाओं के साथ कई बाधाएं भी उपस्थित हैं। राज्य के सांसदों को एकजुट होकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर बहुत तेजी के साथ रेल सुविधाएं बढ़वानी चाहिए। बस्तर का अशांत वातावरण भी एक बड़ी चुनौती है। छत्तीसगढ़ के औद्योगिकीकरण के और इस विकास में आम लोगों को साथ लेकर चलने के लिए कृषि आधारित, वन संपदा आधारित, खनिज संपदा आधारित उद्योगों के साथ-साथ और उदीयमान उद्योगों को महत्व देने की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर सही अर्थों में छत्तीसगढ़ बहुत पीछे है। सरकारी क्षेत्र के अंतर्गत चलने वाली प्राथमिक शिक्षा का बहुत बुरा हाल तो है ही, उच्च शिक्षा की स्थिति भी बेहतर नहीं कही जा सकती। यह एक संकेतक ही है कि राज्य के थोड़े से भी संपन्न लोग अपने बच्चों को इस राज्य के संस्थानों में शिक्षा नहीं दिलाना चाहते। चिकित्सा की सारी सुविधाएं खरीदकर ही उपलब्ध हैं। सरकारी अस्पताल लगभग अपना प्रभाव खो चुके हैं और बहुत मजबूर लोग ही इन अस्पतालों की शरण में आते हैं। राज्य की ये सच्चाइयां मुंह मोड़ने नहीं बल्कि इनके खिलाफ खड़ा होने का अवसर हैं। राज्य गठन के पिछले सात साल, राज्य की संभावनाओं को देखने और खंगालने के नाम पर बीत गए। अब राजसत्ता की जिम्मेदारी है कि वह राज्य के नागरिकाें के मूल प्रश्नों पर भी बातचीत शुरू करे। सरकारी तंत्र को प्रभावी बनाते हुए राज्य के सर्वांगीण विकास की तरफ ध्यान केंद्रित करे।

विरासत में मिली इन तमाम चुनौतियों की तरफ देखना और उनके जायज समाधान खोजना किसी भी राजसत्ता की जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को इतिहास की इस घड़ी में यह अवसर मिला है कि वे इस वृहतर भूगोल को उसकी तमाम समस्याओं के बीच एक नया आयाम दे सकें। सालों साल से न्याय और विकास की प्रतीक्षा में खड़ी 'छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा के हर क्षण का रचनात्मक उपयोग करें। बहुत चुनौतीपूर्ण और कंटकाकीर्ण मार्ग होने के बावजूद उन्हें इन चुनौतियों को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि सपनों को सच करने की जिम्मेदारी इस राज्य के भूगोल और इतिहास दोनों ने उन्हें दी है। जाहिर है वे इन चुनौतियों से भागना भी नहीं चाहेंगे।

रविवार, 22 जून 2008

मुसाफिर हूं यारों...

आत्मकथ्य: संजय द्विवेदी


काले अक्षरों से कागज रंगते, टेबल पर झुके हुए कब चौदह कैलेंडर बीते पता ही नहीं चला...इस बीच कलम थामकर कागज पर खेलने वाली उंगलियां की-बोर्ड पर थिरकने लगीं। प्रदेश और शहर बदलते गए, अखबार भी बदलते गए, अगर कुछ नहीं बदला तो वह थी इस कलम के साथ जुड़ी एक जिम्मेदारी। जिसकी धुन में जिंदगी की सबसे अहम चीज फुरसत छिन गई और खबरों के बीच ही बाकी की जिंदगी सोते, जागते, उठते, बैठते, खाते, पीते गुजरती है...एक शायर के इस शेर की तरह-
'अब तो ये हालत है कि जिंदगी के रात-दिन,
सुबह मिलते हैं मुझे अखबार में लिपटे हुए

बस्ती : ये जो मेरी बस्ती है...
उत्तर प्रदेश के एक बहुत पिछड़े जिले बस्ती का जिक्र अक्सर बाढ़ या सूखे के समय खबरों में आता है। लगभग उद्योग शून्य और मुंबई, दिल्ली या कोलकाता में मजदूरी कर जीवनयापन कर रहे लोगों के द्वारा भेजे जाने वाले 'मनीआर्डर इकानामी पर यह पूरा का पूरा इलाका जिंदा है। बस्ती शहर से लगकर बहती हुई कुआनो नदी वैसे तो देखने में बहुत ही निर्मल और सहिष्णु लगती है, पर बाढ़ के दिनों में इसकी विकरालता न जाने कितने गांव, खेत और मवेशियों को अपनी लपेट में लेती है, कहा नहीं जा सकता। बस्ती जहां खत्म होता है, वहीं से अयोध्या शुरू होता है। अयोध्या और बस्ती के बीच बहने वाली सरयू नदी लगभग वही करिश्मा करती है, जो कुआनो। इसके लंबे पाट पर कितने खेत, कितने गांव और कितने मवेशी हर साल बह जाते हैं जिन्हें देखते हुए आंखें पथरा सी गई हैं। हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का कविता संग्रह 'कुआनो नदी इन्हीं विद्रूपताओं के आसपास घूमता है। सर्वेश्वर इस इलाके की गरीबी, बदहाली और दैनंदिन जीवन के संघर्ष से जूझती हुई जनता के आत्मविश्वास को रेखांकित करना नहीं भूलते। वे एक कविता में लिखते हैं-
गांव के मेले में
पनवाड़ी की दुकान का शीशा
जिस पर
इतनी धूल जम गई है
कि अब कोई अक्स दिखाई नहीं देता।

सर्वेश्वर की यह कविता इस पहचानविहीन इलाके को बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त करती है। यह वही शहर है, जहां मैं पैदा तो नहीं हुआ पर मेरा बचपन इसी शहर में बीता। इस शहर ने मुझे चीजों को देखने का नजरिया, लोगों को समझने की दृष्टि और वह पहचान दी, जिसे लेकर मैं कहीं भी जा सकता था और अपनी अलग 'बस्ती बसा सकता था। बस्ती मेरी आंखों के सामने जैसा भी रहा हो, लेकिन आजादी के बहुत पहले जब भारतेंदु हरिश्चंद्र एक बार बस्ती आए तो उन्होंने बस्ती को देखकर कहा- 'बस्ती को बस्ती कहौं, तो काको कहौं उजाड़।

आज का बस्ती जाहिर है उस तरह का नहीं है। एक लंबी सी सड़क और उसके आसपास ढेर सारी सड़कें उग आई हैं। कई बड़े भवन भी दिखते हैं। कुछ चमकीले शोरूम भी। बस्ती बदलती दुनिया के साथ बदलने की सचेतन कोशिश कर रहा है। बस्ती एक ऐसी जगह है, जो प्रथमदृष्टया किसी भी तरह से आकर्षण का केंद्र नहीं है। कुआनो नदी भी बरसात के मौसम को छोड़कर बहुत दयनीय दिखती है, लेकिन साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में यहां के साहित्यकारों, पत्रकारों ने जो जगह बनाई है उससे बस्ती मुग्ध होते रहती है। हिंदी के समालोचना सम्राट आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मभूमि अगौना इसी जिले में है। यह एक ऐसा साहित्यिक तीर्थ है, जिस पर बार-बार सिर झुकाने का मन होता है।

बस्ती शहर से बहुत थोड़ी दूर पर ही मगहर नाम की वह जगह है, जहां संत कबीर ने अपनी देह त्यागी थी। मगहर को कबीर ने क्यों चुना? यह वजह लगभग सब जानते हैं कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है। कबीर ने इस अंधश्रध्दा को तोड़ने के लिए मगहर का चयन किया था। कबीर का कहना था कि- 'यदि मैं काशी में मरता हूं और मुझे मोक्ष मिल जाता है, तो इसमें राम को क्या श्रेय। इसीलिए कबीर अपनी मृत्यु के लिए मगहर को चुनते हैं। हमें पता है कबीर की मृत्यु के बाद मगहर में उनके पार्थिव शरीर को लेकर एक अलग तरह का संघर्ष छिड़ गया। मुसलमान उन्हें दफनाना चाहते थे, तो हिंदू उनका हिंदू रीति से अंतिम क्रियाकर्म करना चाहते थे। इस संघर्ष में जब लोग कबीर के शव के पास जाते हैं, तो वहां उनका शव नहीं होता, कुछ फूल पड़े होते हैं। हिंदू-मुसलमान इन फूलों को बांट लेते हैं और अपने-अपने धर्म के रीति-रिवाज के अनुसार इन फूलों का ही अंतिम संस्कार कर देते हैं। वहीं पर मंदिर और मस्जिद अगल-बगल एक साथ बनाए जाते हैं। एकता का यह स्मारक आज भी हमें प्रेरणा देता है। यह एक संयोग ही है कि छत्तीसगढ़ के लोक गायक भारती बंधु मगहर में प्रतिवर्ष होने वाले मगहर महोत्सव में कबीर का गान करके लौटे हैं। बस्ती शहर में भी उन्हें सुना गया। कबीर इस तरह से आज भी विविध संस्कृतियों और प्रदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र बने हुए हैं।

फिर बाद के दौर में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डा. लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, डा. वागीश शुक्ल, डा. माहेश्वर तिवारी, श्याम तिवारी, अष्टभुजा शुक्ल जैसे कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने बस्ती को एक अलग पहचान दी है। यह अलग बात है कि रोजी-रोटी की तलाश में इनमें से ज्यादातर तो बड़े शहरों में ही अपना आशियाना बनाने के लिए चले गए और वहां उन्हें जो पहचान मिली उसने बस्ती को गौरव तो दिया, किंतु बस्ती का बस्ती ही रहा। सिर्फ और सिर्फ अष्टभुजा शुक्ल आज की पीढ़ी में एक ऐसे कवि हैं, जो आज भी सुदूर दीक्षापार नामक गांव में रहकर साहित्य साधना में लगे हैं।

इसी शहर में बारहवीं तक की पढ़ाई के बाद मुझे भी उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ जाना पड़ा। यह एक संयोग ही है कि इस इलाके के ज्यादातर लोग उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। बचे-खुचे बनारस चले जाते हैं, पर जाने क्या हुआ कि मेरा प्रवेश लखनऊ विश्वविद्यालय में करवाया गया। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि मेरे पिता लखनऊ विश्वविद्यालय के ही छात्र थे। इस नाते उस विश्वविद्यालय से उनका राग थोड़ा गहरा रहा होगा। लखनऊ में गुजरे तीन साल छात्र आंदोलनों में मेरी अति सक्रियता के चलते लगभग उल्लेखनीय नहीं हैं। कालेज की पढ़ाई से लगभग रिश्ता विद्यार्थी का कम और परीक्षार्थी का ही ज्यादा रहा। जैसे-तैसे बीए की डिग्री तो मिल गई, लेकिन कैरियर को लेकर चिंताएं शुरू हो गईं। इस बीच कुछ समय के लिए बनारस भी रहना हुआ, और यहां मन में कहीं यह इच्छा भी रही कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की जाए।

बनारस : आत्मा में उतरे राग-रंग
काशी में रहते हुए ऐसा बनारसी रंग चढ़ा, जो सिर चढ़कर बोलता था। छात्र आंदोलनों से जुड़ा होने के नाते कई छात्र नेता और नेता अपने मित्रों की सूची में थे। यहां उस समय बीएचयू के अध्यक्ष रहे देवानंद सिंह और महामंत्री सिध्दार्थ शेखर सिंह से लेकर प्रदीप दुबे, जेपीएस राठौर, राजकुमार चौबे, दीपक अग्रवाल और मनीष खेमका जैसे न जाने कितने दोस्त बन गए। इनमें मैं अपने उस समय संरक्षक रहे डा. सुरेश अवस्थी को नहीं भूल सकता। वे बीएचयू में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे। हम उनके सामने बहुत बच्चे थे, लेकिन उन्होंने हमें जिस तरह अपना प्यार और संरक्षण दिया, उसे भुलाना मुश्किल है। वे प्राय: अपने चौक स्थित घर पर हमें बुलाते, सिर्फ बुलाते ही नहीं इतना खिलाते कि उनकी बातों का रस और बढ़ जाता। उनकी धर्मपत्नी इतनी सहज और स्नेहिल थीं कि सुरेशजी का घर हमें अपना सा लगने लगा। अब सुरेश जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बातें, बनारस को लेकर उनका राग आज भी याद आता है। वे सही मायने में बनारस को जीने वाले व्यक्ति थे। बनारस उनकी आत्मा में उतर गया था। लगातार सिगरेट पीते हुए, बनारस और बनारस वालों की बातें बताते डा. अवस्थी एक ऐसे कथावाचक में तब्दील हो जाते, जिसको सुनना और उन बातों से सम्मोहित हो जाना बहुत आसान था। इसी दौरान मेरे साथ अजीत कुमार और राजकुमार से जो रिश्ते बने, वो आज तक जिंदा हैं।

बनारस की अपनी एक मस्ती है। शहर के किनारे बहती हुई गंगा नदी आमंत्रण सी देती है और उसके आसपास बहने वाली हवाएं एक अजीब सा संतोष भी देती हैं। जीवन और मृत्यु दोनों को बहुत करीब से देखने वाला यह शहर वास्तव में भोलेबाबा की नगरी क्यों कहा जाता है यह अहसास यहां रहकर ही हो सकता है। बनारस आप में धीरे-धीरे उतरता है, ठीक भांग की गोली की तरह। बनारस के अस्सी इलाके में चाय की दुकानों पर अनंत बहसों का आकाश है, जहां अमेरिका के चुनाव से लेकर वीपी सिंह के आरक्षण तक पर चिंताएं पसरी रहती थीं। बहसों का स्तर भी इतना उच्च कि ऐसा लगता है कि यह चर्चाएं अभी मारपीट में न बदल जाएं। बनारस आपको अपने प्रति लापरवाह भी बनाता है। यह बहुत बदलने के बाद भी आज भी अपनी एक खास बोली और खनक के साथ जीता हुआ शहर है।
इस शहर ने मुझे ढेर सारे दोस्त तो दिए ही, चीजों को एक अलग और विलक्षण दृष्टि से विश्लेषित करने का साहस भी दिया। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां वर्षभर प्रवेश और वर्षभर परीक्षाएं होती हैं। जिसका श्रेय वहां की छात्र राजनीति को ही ज्यादा है। बड़ी मुश्किल से अभी कुछ विश्वविद्यालयों के सत्र नियमित हुए हैं, वरना हालात तो यह थे कि कुछ विश्वविद्यालयों में सत्र चार वर्ष तक पीछे चल रहे थे। ऐसे हालात में मैंने बीएचयू के साथ ही भोपाल में खुले माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के लिए भी आवेदन कर दिया। बीएचयू से पहले माखनलाल का प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया और इस तरह मैं भोपाल चला आया। जब बीएचयू के प्रवेश परीक्षा के परिणाम आए तब तक माखनलाल का सत्र तीन माह आगे निकल चुका था। यहां पड़े रहना एक विवशता भी थी और जरूरत भी।

भोपाल : कलम लियो जहां हाथ
जब मैं पहली बार भोपाल स्टेशन उतरा, तो मुझे लेने के लिए मेरे सीनियर रहे और पत्रकार ऋतेंद्र माथुर आए थे। उनकी कृपा से मुझे भोपाल में किसी तरह का कोई कष्ट नहीं हुआ। वे माखनलाल के छात्र रहे, इन दिनों इंडिया टुडे में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव के सहपाठी थे। श्यामलाल यादव ने ही मेरी मदद के लिए ऋतेंद्र को कहा था। ऋतेंद्र से आरंभिक दिनों में जो मदद और प्यार मिला, उसने मुझे यह लगने ही नहीं दिया कि मैं किसी दूसरे प्रदेश में हूं। इसके बाद ऋतेंद्र ने ही मेरी मुलाकात मेरे अध्यापक डा. श्रीकांत सिंह से करवाई। डा. श्रीकांत सिंह से मिलने के बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गई। वे बेहद अनुशासनप्रिय होने के साथ-साथ इतने आत्मीय हैं कि आपकी जिंदगी में उनकी जगह खुद-ब-खुद बनती चली जाती है। डा. श्रीकांत सिंह और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गीता सिंह ने मुझे जिस तरह से अपना स्नेह दिया, उससे मैं यह भी कह सकता हूं कि मैं घर को भूल गया। वे मेरी जिंदगी में एक ऐसे शख्स हैं, जिनकी छाया के बिना मैं कुछ भी नहीं। उनकी डांट-फटकार और उससे ज्यादा मिले प्यार ने मुझे गढ़ने और एक रास्ता पकड़ने में बहुत मदद की। मेरे जीवन की अराजकताएं धीरे-धीरे खत्म होने लगीं।

बहुत सामान्य क्षमता का छात्र होने के बावजूद मैंने दैनिक भास्कर, भोपाल की नौकरी करते हुए न सिर्फ बीजे की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए, बल्कि मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मा.गो. वैद्य स्मृति रजत पदक से सम्मानित भी किया गया। विश्वविद्यालय के तत्कालीन महानिदेशक वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा, मेरे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर कमल दीक्षित, मेरे संपादक महेश श्रीवास्तव, शिव अनुराग पटेरिया, स्वदेश के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा, स्वदेश के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा, नई दुनिया में उस समय कार्यरत रहे विवेक मृदुल और साधना सिंह का जो स्नेह और संरक्षण मुझे मिला उसने मेरे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मदद की। दैनिक नई दुनिया, भोपाल में मुझे छात्र जीवन में छपने का जितना ज्यादा अवसर मिला, आज भी मैं उन दिनों को याद कर रोमांचित हो जाता हूं। भास्कर की नौकरी के दौरान ही एक दिन डा. ओम नागपाल से मुलाकात हुई। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि उनके सामने जाते समय भी घबराहट होती थी। वे न सिर्फ सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे, बल्कि उनके पास सम्मोहित कर देने वाली आवाज थी। वे बोलते समय जितने प्रभावी दिखते थे, उनका लेखन भी उतना ही तार्किक और संदर्भित होता था। उनके ज्ञान का और विश्व राजनीति पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं था। इस दौरान उन्होंने मुझसे रसरंग, पत्रिका के लिए कुछ चीजें लिखवाईं। वे नई पीढ़ी के लिए ऊर्जा के अजस्र स्रोत थे। आज जबकि वे हमारे बीच नहीं हैं, उनकी स्मृति मेरे लिए एक बड़ा संबल है।

बीजे की हमारी क्लास में कुल बीस लोग थे। बीस सीटें भी थीं, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से आए हुए लोग थे। इनमें सुरेश केशरवानी, पुरुषोत्तम कुमार, शरद पंडया, अजीत कुमार, धनंजय प्रताप सिंह जैसे तमाम दोस्त मिले, जिनसे आज भी रिश्ता कायम है। बीजे की परीक्षा पास करने के बाद स्वदेश, भोपाल के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा मुझे अपने साथ 'स्वदेश लेते गए। स्वदेश एक छोटा अखबार था और कर्मचारियों का अभाव यहां प्राय: बना रहता था। स्वदेश के मालिक और प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा एक अच्छे पत्रकार के रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने और हरिमोहन जी ने मुझे यहां काम करने के स्वतंत्र और असीमित अवसर उपलब्ध कराए। बाद में कुछ दिनों के लिए यहां प्रमोद भारद्वाज भी आए, जो इन दिनों अमर उजाला, चंडीगढ़ के स्थानीय संपादक हैं। प्रमोद जी से भी मेरी खूब बनी। उन्होंने मुझे रिपोर्टिंग के कई नए फंडे बताए। जिस पर मैं बाद के दिनों में अमल इसलिए नहीं कर पाया, क्योंकि नौकरी देने वालों को मेरा रिपोर्टिंग करना पसंद नहीं आया, बल्कि उन्होंने मुझमें एक संपादक की योग्यताएं ज्यादा देखीं। एमजे की परीक्षा पास करने के बाद राजेंद्र शर्मा का कृपापात्र होने के नाते 1996 में मुझे स्वदेश, रायपुर का कार्यकारी संपादक बनाकर छत्तीसगढ़ भेज दिया गया। मेरे मित्र और शुभचिंतक मेरे इस फैसले के बहुत खिलाफ थे। कई तो मेरे रायपुर जाने को मेरे कैरियर का अंत भी घोषित कर चुके थे।

रायपुर : एक अलग स्वाद का शहर

रायपुर आना मेरे लिए आत्मिक और मानसिक रूप से बहुत राहत देने वाला साबित हुआ। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में मैंने खुद को बहुत सहज पाया। जितना प्यार और आत्मीयता मुझे रायपुर में मिली, उसने मुझे बांध सा लिया। 1996 का रायपुर शायद दिल्ली से न दिखता रहा हो, लेकिन उसकी मिठास और उसका अपनापन याद आता है। आज का रायपुर जब 2008 की देहरी पर खड़े होकर देखता हूं, तो बहुत बदल गया है। शायद इस शहर का राजधानी बन जाना और राजपुत्रों का हमारे करीब आ जाना इस शहर की तासीर को धीरे-धीरे बदल रहा है। 1996 का रायपुर एक बड़े गांव का अहसास कराता था, जहां लगभग सारे परिचित से चेहरे दिखते थे। बहुत सारे पारा-मोहल्ले में बसा हुआ रायपुर एक अलग ही स्वाद का शहर दिखता था। लखनऊ, भोपाल के तेज जीवन ने थोड़ा थकाया-पकाया जरूर रहा होगा, मुझे लगा मैं अपनी 'बस्ती में आ गया हूं।

धीरे-धीरे सरकता हुआ शहर, आज के मुख्यमंत्री आवास तक सिमटा हुआ शहर, आज जिस तरह अपने आकार से, भीड़ से, गाड़ियों के प्रेशर हार्न से आतंकित करता है तो मुझे वह पुराना रायपुर बार-बार याद आता है। आज जिस बंगले में प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हैं, इसी बंगले में कभी कलेक्टर डीपी तिवारी रहा करते थे। उस समय यहां कमिश्नर रहे जेएल बोस हों या उस समय के एसपी संजय राणा, सभी याद आते हैं। अधिकारी भी तब आज के अधिकारियों जैसे नहीं थे। रायपुर सबको अपने जैसा बना लेता था। रायपुर का गुरुत्वाकर्षण अब मुझे कमजोर होता दिख रहा है। अब लोग रायपुर को अपने जैसा बनाने में लगे हैं। ब्राम्हणपारा में रहने वाले लोग हों या पुरानी बस्ती के बाशिंदे, वे इस बदलते शहर को मेरी तरह ही भौंचक निगाहों से देख रहे हैं। शहर में अचानक उग आए मेगा मॉल्स, बंद होते सिनेमाघर उनकी जगह लेता आईनाक्स, सड़क किनारे से गायब होते पेड़, गायब होती चिड़ियों की चहचहाहट, तालाब को सिकोड़ते हुए लोग, ढेर सी लालबत्तियां और उसमें गुम होते इंसान। रायपुर में रहते हुए रायपुर के समाज जीवन में सक्रिय अनेक साहित्यकारों, पत्रकारों से उस समय ही ऐसे रिश्ते बने, जो मुंबई जाकर भी खत्म नहीं हुए। शायद रिश्तों की यह डोर मुझे फिर से छत्तीसगढ़ खींच लाई।

इन मुंबई
1997 में मुंबई से नवभारत का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। नवभारत, छत्तीसगढ़ का बहुत प्रतिष्ठित दैनिक है। उन दिनों बबन प्रसाद मिश्र, नवभारत, रायपुर के प्रबंध संपादक थे। उनकी कृपा और आशीर्वाद से मुझे नवभारत, नागपुर के संपादक और मालिक विनोद माहेश्वरी ने मुंबई संस्करण में काम करने का अवसर दिया। जब मैं मुंबई पहुंचा तो यहां भी मेरे कई दोस्त और सहयोगी पहले से ही मौजूद थे। इन दिनों स्टार न्यूज, दिल्ली में कार्यरत रघुवीर रिछारिया उस समय नवभारत, मुंबई में ही थे। वे स्टेशन पर मुझे लेने आए और संयोग ऐसा बना कि मुंबई के तीन साल हमने साथ-साथ ही गुजारे। यहां जिंदगी में गति तो बढ़ी पर उसने बहुत सारी उन चीजों को देखने और समझने का अवसर दिया, जिसे हम एक छोटे से शहर में रहते हुए महसूस नहीं कर पाते।

मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र, अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में आज भी कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है।

यहां देश के वरिष्ठतम पत्रकार और उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मुलाकात अब एक ऐसे रिश्ते में बदल गई है, जो उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ आने के लिए विवश करती रहती है। विश्वनाथ जी ने पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव और अपने जीवन की सहजता से मुझे बहुत कुछ सिखाया। उनके पास बैठकर मुझे यह हमेशा लगता रहा कि एक बड़ा व्यक्ति किस तरह अपने अनुभवों को अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करता है। यहां नवभारत के समाचार संपादक के रूप में कार्यरत भूपेंद्र चतुर्वेदी का स्नेह भी मुझे निरंतर मिला। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कर्मठता, काम के प्रति उनका निरंतर उत्साह मुझे प्रेरित करता है। उसी दौरान नवभारत परिवार से जुड़े सर्वश्री कमल भुवनेश, अरविंद सिंह, केसर सिंह बिष्ट, अजय भट्टाचार्य, विमल मिश्र, सुधीर जोशी, विनीत चतुर्वेदी जैसे न जाने कितने दोस्त बने, जो आज भी जुड़े हुए हैं। नवभारत में काम करने के अनेक अवसर मिले। उससे काम में विविधता और आत्मविश्वास की ही वृध्दि हुई। वैचारिकी नाम का एक साप्ताहिक पृष्ठ हमने लगातार निकाला, जिसकी खासी चर्चा होती रही। फिर कई फीचर पत्रिकाओं का ए-4 आकार में प्रकाशन पत्रकारिता का एक अलग अनुभव रहा। इसके साथ-साथ सिटी डेस्क की वर्किंग का अनुभव भी यहां मिला। यह अनुभव आपस में इतने घुले-मिले हैं कि जिसने एक पूर्ण पत्रकार बनाने में मदद ही की।

मुंबई में रहने के दौरान ही वेब पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जिसमें अनेक हिंदी वेबसाइट का भी काम प्रारंभ हुआ। वेबदुनिया, रेडिफ डाटकाम, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे अनेक वेबसाइट हिंदी में भी कार्य करती दिखने लगीं। हिंदी जगत के लिए यह एक नया अनुभव था। हमारे अनेक साथी इस नई बयार के साथ होते दिखे, किंतु मैं साहस न जुटा पाया। कमल भुवनेश के बहुत जोर देने पर मैंने इन्फोइंडिया डाटकाम में चार घंटे की पार्टटाइम नौकरी के लिए हामी भरी। जिसके लिए मुझे कंटेन्ट असिस्टेंट का पद दिया गया। वेब पत्रकारिता का अनुभव मेरे लिए एक अच्छा अवसर रहा, जहां मैंने वेब पत्रकारिता को विकास करते हुए देखा। यह दौर लंबा न चल सका, क्योंकि इसी दौरान मेरी शादी भी हुई और शादी के एक महीने बाद दैनिक भास्कर, बिलासपुर में समाचार संपादक के रूप में नियुक्ति हो गई और मुझे छत्तीसगढ़ के दूसरे नंबर के शहर बिलासपुर आ जाना पड़ा।

अथ श्री भास्कर कथा
दैनिक भास्कर, बिलासपुर आने की कथा भी रोचक है। यहां भी स्वदेश के संपादक रहे हरिमोहन शर्मा ही मेरे पुन: भास्कर में प्रवेश का कारण बने। वे उन दिनों हिसार भास्कर के संपादक थे। उन्होंने मुझे पानीपत में जगदीश शर्मा जी से मिलने के लिए कहा। मैं पानीपत पहुंचा और श्री शर्मा से मिला। श्री शर्मा इन दिनों भास्कर समूह में उपाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने अपने सद्व्यवहार और आत्मीयता से मुझे बहुत प्रभावित किया ही तथा साथ लेकर अगले दिन दिल्ली में भास्कर के प्रबंध संचालक सुधीर अग्रवाल से मुलाकात करवाई। श्री अग्रवाल हिंदी पत्रकारिता के उन नायकों में हैं, जिन्होंने अपनी कर्मठता से अपने समाचार पत्र को एक विशिष्ट पहचान दिलाई है। उनके प्रति मेरे मन में वैसे भी बहुत आदरणीय भाव है। मैं उन्हें पत्रकारिता के चंद गिने-चुने मालिकों में मानता हूं, जो हिन्दी में इतनी गंभीरता के साथ एक संपूर्ण अखबार निकालने का प्रयास कर रहे हैं। उनसे मिलना एक अच्छा अनुभव था। उन्होंने मुझसे जगहों के विकल्प के बारे में पूछा और चंडीगढ़, सीकर तथा छत्तीसगढ़ जैसे विकल्प सामने रखे। छत्तीसगढ़ से मेरा एक भावनात्मक रिश्ता पहले ही बन गया था। जाहिर तौर पर मैंने छत्तीसगढ़ का विकल्प ही सामने रखा। उन्होंने तत्काल ही बिलासपुर में समाचार संपादक के रूप में मेरी नियुक्ति कर दी। उनके काम करने का तरीका, चीजों को समझने की त्वरा देखते ही बनती है। वे वस्तुत: विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। हिंदी पत्रकारिता में हो रहे परिवर्तनों को जिस तेजी के साथ उन्होंने स्वीकार किया और अपने अखबार को भी आज के समय के साथ चलना सिखाया, उससे वे एक किंवदंती बन गए हैं।

भास्कर, बिलासपुर के अपने तीन साल के कार्यकाल में उनसे कुल दो बड़ी बैठकें ही हो पाईं, जिनमें एक भोपाल में और दूसरी बिलासपुर के श्यामा होटल में। आमतौर पर समाचार पत्र मालिकों के प्रति पत्रकारों की देखने की दृष्टि अलग होती है, किंतु मैंने यह पाया कि श्री अग्रवाल में संपादकीय मुद्दों की गहरी समझ है और वे अखबार को बहुत गंभीरता से लेने वाले मालिकों में से एक हैं। उनके साथ बैठकर बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। इस बीच भास्कर में काम करते हुए उनसे फोन और ई-मेल पर हल्की-फुल्की सलाहें, कभी प्रेम की भाषा में तो कभी चेतावनी की भाषा में मिलती रहीं किंतु इस कार्यकाल ने मुझे आज की पत्रकारिता के लायक बनाया। साथ ही साथ मेरी कई पूर्व मान्यताओं को बेमानी भी साबित किया।

बिलासपुर शहर में रहते हुए मुझे लोगों से जो अपनापा, प्यार और सद्भाव मिला वह मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान पूंजी है। यह एक ऐसा शहर था, जिसने मुझे न सिर्फ काम के महत्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराए वरन रिश्तों की दृष्टि से भी बहुत संपन्न बना दिया। दिखने में यह शहर बहुत ठहरा हुआ सा और धीमी चाल चलने वाला शहर है किंतु यहां बहने वाली अरपा की तरह लोगों में भी अंत:सलिला बहती है। प्रतिवाद न करने के बावजूद लोग अपनी राय रखते हैं। साथ ही साथ धार्मिकता की भावना इस शहर में बहुत गहरी है। सही अर्थों में यह उस तरह का शहर नहीं है, जिस नाते शहर, शहर होते हैं। एक बड़े गांव सा सुख देता यह शहर आज भी अपने स्वभाव से उतना ही निर्मल और प्यारा है। शहर से लगी रतनपुर की धरती और यहां विराजी मां महामाया का आशीर्वाद सतत् आसपास के क्षेत्र पर बरसता दिखता है। यहां की राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता सब कुछ एक-दूसरे आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि बहुत द्वंद नजर नहीं आते।

हिंदी के यशस्वी कवि श्रीकांत वर्मा, प्रख्यात रंगकर्मी सत्यदेव दुबे का यह शहर इसलिए भी खास है कि इसी जिले के सुदूर पेंड्रा नामक स्थान से सन् 1901 में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र निकालकर पत्रकारिता की एक यशस्वी परंपरा की शुरुआत की। जड़ों में संस्कारों से लिपटा यह शहर अपने प्रेमपाश में बहुत जल्दी बांध लेता है। इसकी सादगी ही इसका सौंदर्य बन जाती है। यहां मुझे मित्रों का इतना बड़ा परिवार मिला कि बिलासपुर मेरे घर जैसा हो गया। यहां भास्कर के मेरे दो वर्ष का कार्यकाल पूरा होने के बाद मेरे वरिष्ठ अधिकारी के रूप में हिंदी के महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के सुपुत्र दिवाकर मुक्तिबोध का आगमन हुआ। उन्होंने कभी भी अपनी वरिष्ठता की गरिष्ठता का अहसास मुझे नहीं होने दिया और एक छोटे भाई के रूप में हमेशा अपना स्नेह और संरक्षण मुझे प्रदान किया। मेरी पुस्तक 'मत पूछ हुआ क्या-क्या की भूमिका भी उन्होंने कृपापूर्वक लिखी। आज भी वे मेरे प्रति बेहद आत्मीय और वात्सल्य भरा व्यवहार रखते हैं।

भास्कर में मेरे सहयोगियों प्रवीण शुक्ला, सुशील पाठक, सुनील गुप्ता, विश्वेश ठाकरे, सूर्यकांत चतुर्वेदी, राजेश मुजुमदार, रविंद्र तैलंग, अशोक व्यास, संजय चंदेल, घनश्याम गुप्ता, हर्ष पांडेय, प्रतीक वासनिक, व्योमकेश त्रिवेदी, देवेश सिंह, अनिल रतेरिया, रविशंकर मिश्रा, योगेश मिश्रा जैसे तमाम मित्र आज भी एक परिवार की तरह जुड़े हुए हैं। इसके अलावा शहर में पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, हरीश केडिया, डा. आरएसएल त्रिपाठी, बेनी प्रसाद गुप्ता, पं. नंदकिशोर शुक्ल जैसे समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में इतने व्यापक संपर्क बने, जिनका नाम गिनाना मुझे संकट में तो डालेगा ही, इस लेख की पठनीयता को भी प्रभावित कर सकता है। इसी दौरान लगभग तीन साल गुरू घासीदास विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डा. गोपा बागची और उनके अत्यंत सरल और सौम्य पतिदेव डा. शाहिद अली की कृपा, प्रेरणा से विश्वविद्यालय में पत्रकारिता शिक्षण का अवसर भी मिला। इसमें अनेक विद्यार्थी तो इतने प्रिय हो गए, जैसे वे मेरे परिवार का ही हिस्सा हैं। जिनमें यशवंत गोहिल नई पीढ़ी के प्रखर पत्रकारों में हैं, जो मेरे साथ भास्कर और बाद में हरिभूमि में भी जुड़े रहे। इसी तरह अनुराधा आर्य, मधुमिता राव, नीलम शुक्ला, दीपिका राव, सुरेश पांडेय, शरद पांडेय, योगेश्वर शर्मा जैसे तमाम विद्यार्थी आज भी उसी भावना से मिलते हैं। बिलासपुर के तीन साल मेरे जीवन के बीते सालों पर भारी थे।

रायपुर : यादों की महक
यादों की यही महक लिए हुए मैं थोड़े समय के बाद छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित होने वाले हरिभूमि से जुड़ गया। यह एक संयोग ही था कि मैं हरिभूमि के तब पंडरी स्थित कार्यालय में रमेश नैयर से मिलने के लिए आया हुआ था। वे छत्तीसगढ़ के अत्यंत सम्मानित पत्रकार और मुझे बहुत स्नेह करने वाले व्यक्ति हैं। स्वदेश, रायपुर में कार्य करते समय मेरा उनसे संपर्क आया था, जो उनकी आत्मीयता के नाते निरंतर सघन होता गया। श्री नैयर से इस मुलाकात के समय ही हिमांशु द्विवेदी से मेरी भेंट हुई। कैसे, क्या हुआ, लेकिन मैं मार्च, 2004 में हरिभूमि से जुड़ गया। इसके पूर्व हरिभूमि के संपादक के रूप में गिरीश मिश्र और एल.एन. शीतल कार्य कर चुके थे। अखबार को निकलते कुल डेढ़ साल हो गए थे और मैं तीसरा संपादक था। बावजूद इसके, अखबार बहुत अच्छे स्वरूप में निकल रहा था। हरिभूमि और हरिभूमि के पदाधिकारियों से जैसा रिश्ता बना कि वह बहुत आत्मीय होता चला गया। यहां पर आरंभिक दिनों में छत्तीसगढ़ के अत्यंत श्रेष्ठ पत्रकार स्वर्गीय रम्मू श्रीवास्तव के साथ काम करने का भी मौका मिला। कुछ ही समय बाद हिमांशु जी पूर्णकालिक तौर पर रोहतक से रायपुर आ गए। उनके साथ मेरा जिस तरह का और जैसा आत्मीय संबंध है, उसमें उनकी तारीफ को ब्याज निंदा ही कहा जाएगा। बावजूद इसके वे बेहद सहृदय, संवेदनशील और किसी भी असंभव कार्य को संभव कर दिखाने की क्षमता के प्रतीक हैं। उनमें ऊर्जा का एक अजस्र स्रोत है, जो उन्हें और उनके आसपास के वातावरण को हमेशा जीवंत तथा चैतन्य रखता है। एक संपादक और एक प्रबंधक के रूप में उनकी क्षमताएं अप्रतिम हैं। इसके साथ ही उनके पास एक बहुत बड़ा दिल है, जो अपने दोस्तों और परिजनों के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए आमादा दिखता है।

इस बीच मेरा चयन कुशाभाऊ पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में रीडर के पद पर हो गया। सो मुझे लगभग छ: माह हरिभूमि से अलग होकर विश्वविद्यालय को अपनी सेवाएं देनी पड़ीं। विश्वविद्यालय में मेरे पुराने साथी डा. शाहिद अली और नृपेंद्र शर्मा मौजूद थे। छ: माह का यह समय एक पूर्णकालिक अध्यापक के रूप में ही गुजरा किंतु मित्रों के लगातार दबाव और तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं से मन जल्दी ही बोर होने लगा। हिमांशुजी का स्नेहभरा दबाव हमेशा बना रहता था। उनके आदेश पर मुझे अंतत: विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़कर फिर हरिभूमि में स्थानीय संपादक के पद पर आना पड़ा। इस दौरान हरिभूमि में काफी परिवर्तन हो चुके थे। कई पुराने साथी अखबार छोड़कर जा चुके थे और एक नई टीम बनाने की चुनौती सामने थी। इस दौर में भी नए-नए साथी जुड़े और कई तो ऐसे जिन्होंने हरिभूमि से ही अपने पत्रकारीय कैरियर की शुरुआत की। इस बीच धमतरी रोड पर हरिभूमि का नया भवन भी बना। वह बहुत सुदर्शन अखबार के रूप में ज्यादा रंगीन पन्नों के साथ निकलने लगा। शहर के बौध्दिक तबकों में भी उसकी खास पहचान बननी शुरू हो गई। इसका फायदा निश्चित रूप से हम सबको मिला। नगर के बुध्दिजीवी हरिभूमि के साथ अपना जुड़ाव महसूस करने लगे। वरिष्ठ पत्रकार बसंत कुमार तिवारी, बबन प्रसाद मिश्र, गिरीश पंकज, जयप्रकाश मानस, सुधीर शर्मा, डा. राजेंद्र सोनी, डा. मन्नूलाल यदु ऐसे न जाने कितने नाम हैं, जिनका योगदान और सहयोग निरंतर हरिभूमि को मिलता रहा। यह एक ऐसा परिवार बन रहा था, जो शब्दों के साथ जीना चाहता है। इस दौरान हरिभूमि ने अपार लोक स्वीकृति तो प्राप्त की ही, तकनीकी तौर पर भी खुद को सक्षम बनाया। इसका श्रेय निश्चित रूप से हरिभूमि के उच्च प्रबंधन को ही जाता है। अब जबकि प्रिंट मीडिया में 1994 में शुरू हुए अपने कैरियर की एक लंबी पारी खेलकर मैं इलेक्ट्रानिक मीडिया के क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हूं तो यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ ही कहा जाएगा। यह असुरक्षा में एक छलांग भी है और स्वयं को तौलने का एक अवसर भी। यह समय मुझे कैसे और कितना बदल पाएगा, इसे हम और आप मिलकर देखेंगे। तब तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की भाषा में मैं एक ब्रेक ले लेता हूं।
(शुक्रवार, 20 जून, 2008)

गुरुवार, 19 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-15

छत्तीसगढ़ी : लोकभाषा से राजभाषा तक

कनक तिवारी

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण से कुछ मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां और मुद्दे उभर कर आए हैं। भाषा को लेकर कुछ महत्वपूर्ण मांगे और स्थापनाएं की जा रही हैं। मसलन छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी को तरजीह देनी होगी। इन स्थापनाओं की पड़ताल की जरूरत है। ये मोटे तौर पर इस तरह हैं:-(1) छत्तीसगढ़ का प्रशासन छत्तीसगढ़ी में चलाया जाए। (2) छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की भाषा घोषित किया जए। (3) छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार जिनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी रही छत्तीसगढ़ी में कुछ नहीं लिखने के कारण छत्तीसगढ़ी की उपेक्षा के लिए शासन और प्रशासन से अधिक दोषी हैं। (4) छत्तीसगढ़ी लेखकों को विशेष सम्मान प्राप्त होना चाहिए। (5) छत्तीसगढ़ी को मानक भाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए।

भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार छत्तीसगढ़ी हिन्दी का ही स्वरूप है। वह अवधी तथा बघेलखंडी से काफी मिलती है। प्रसिध्द विद्वान डॉ. ग्रियर्सन ने कहा है 'यदि कोई छत्तीसगढ़ी अवध में जाकर रहे तो वह एक ही सप्ताह में वहां की बोली इस तरह बोलने लगेगा मानो वही उसकी मातृभाषा हो। इतिहासकारों के अनुसार इसका मुख्य कारण हैहयवंशियों का राज्य भी हो सकता है, क्योंकि वह अवधी के इलाके के ही रहने वाले थे। छत्तीसगढ़ी का व्याकरण डॉ. हीरालाल ने लिखा था, जिसका अनुवाद डॉ. ग्रियर्सन ने किया था। उसका संशोधित संस्करण वर्षों पूर्व लोचन प्रसाद पांडेय के संपादन में प्रकाशित हुआ है। अनुच्छेद 351 ये बौध्दिक स्थापनाएं करता है। 1. हिंदी का प्रसार और विकास संघ का कर्तव्य है। 2. हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है। 3. हिंदी की (मौजूदा) प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी, अन्य भारतीय (प्रादेशिक) भाषाओं और मुख्यतया संस्कृत शब्द, रूप, शैली आदि ग्रहण करते हुए हिंदी को समृध्द करना है। इस संवेदनशील बिन्दु पर आकर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के सवाल पर विचार हो सकता है। यह बेहद दुखद और आश्चर्यजनक है कि संविधान हिंदी की अभिवृध्दि के लिए हिंदी रूपों वाली लोकबोलियों जैसे बृज भाषा, अवधी, बैसवारी, मैथिल, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देलखंडी, बघेलखंडी, हरियाणवी आदि पर निर्भर नहीं रहना चाहता।

यदि छत्तीसगढ़ी को भी राजनीति के सहारे शासकीय कामकाज की भाषा बना दिया गया तो वह अपनी जनसंस्कृति की केंचुल छोड़ देगी। छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली के इतिहास, भूगोल, ध्वनिशास्त्र और प्रेषणीयता को लेकर शोध प्रबंध लिखना संभव हो सकता है लेकिन इस भाषा या बोली को रोजमर्रे के कामकाज में गले उतारना सरल नहीं है। संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मूलभूत अधिकारों का तीसरा परिच्छेद पेंचीदगियां पैदा करता है। अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता उत्पन्न करने वाला द्विगु समास है। अनुच्छेद 16 भाषायी विषमता रहते हुए भी लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता देता है। युवा पीढ़ी का पूरा भविष्य इसी अनुच्छेद के विश्वविद्यालय में है। मंदिरों में इबादत करने के सेवानिवृत्त पीढ़ी के आग्रह की तरह छत्तीसगढ़ी का झंडा उन हाथों में ज्यादा है जिनका कोई भविष्य नहीं है। भाषायी आंदोलन बेकारी भत्ता से लेकर पेंशन की अदायगी तक का अर्थशास्त्र भी होते हैं-यह बात हमने दक्षिण हिंदी विरोधी आंदोलनों के उत्तर में देखी है। अनुच्छेद 19 के वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के छाते के नीचे खड़े होकर लोग अपनी रुचि की भाषा के अखबार और किताबें पढ़ सकते हैं। बहरहाल जब तक छत्तीसगढ़ी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं होती तब तक किसी न्यायालय को अधिकार नहीं है कि वह किसी गवाह तक का बयान छत्तीसगढ़ी में दर्ज करे। न्यायिक सेवा में गैर छत्तीसगढ़ी न्यायाधीश भी हैं। वे न्यायालय की भाषा अर्थात हिंदी और अंग्रेजी में ही काम करने के लिए संविधान द्वारा संरक्षित हैं। यही स्थिति प्रशासनिक सेवा की है। वैसे भी केंद्रीय हिन्दुस्तान के विद्यार्थी सर्वोच्च नौकरशाही में ज्यादा नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालय क्षेत्रीय भाषा में अध्यापन करने का मौलिक अधिकार नहीं रखते। उच्चतम न्यायालय ने 1963 में ही अपने फैसले में गुजरात विश्वविद्यालय में केवल गुजराती माध्यम में शिक्षा देने की कोशिश को नाकाम कर दिया है। शिक्षा पाने के अनुच्छेद 41 के नीति निदेशक को संविधान के हृदय स्थल अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अधिकार माना गया है। ऐसी स्थिति में सरकार को फिलहाल इस बात का अधिकार नहीं है कि वह छत्तीसगढ़ी को समग्र शिक्षा का माध्यम बनाए। यदि कुछ विद्यार्थी छत्तीसगढी भाषा और साहित्य पढ़ भी लेंगे तो हम उनकी सफलता की नदियों और ङाीलों के बदले तालाब रच देंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान, तकनीक, डॉक्टरी, समाजशास्त्र, गणित और कम्प्यूटर जैसे ढेरों ऐसे विषय हैं जिनमें सफलता के लिए छत्तीसगढ़ के विद्यार्थियों की मदद करनी होगी, उनकी दुनिया को संकुचित करने के लिए नहीं।

यह तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली को लेकर जितने भी शोध विगत वर्षों में हुए हैं, उनमें पहल, परिणाम या पथ प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़वासियों के खाते में नहीं है। यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य रहा है कि यहां के विश्वविद्यालयों में बार-बार भाषा-विज्ञानी कुलपतियों की नियुक्तियां हुई है। डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. धीरेंद्र वर्मा और डॉ. उदयनारायण तिवारी जैसे भाषा विज्ञानियों ने मध्यप्रदेश की भाषायी स्थिति पर काम करने के लिए प्रेरणाएं दी हैं। अकेले डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा सभी कट्टर तथा रूढ़ छत्तीसगढ़ी-समर्थक भाषा विद्वानों के बराबर होंगे, जिनकी निस्पृह, खामोश और अनवरत छत्तीसगढ़ सेवा का मूल्यांकन कहां किया गया है। छत्तीसगढ़ी बोली को हिंदी की जगह लेने के निजी आग्रह बौध्दिक-मुद्रा की ठसक लिए हुए हैं। छत्तीसगढ़ी की तुलना दक्षिण की भाषाओं या मराठी, बंगाली वगैरह से की जा रही है। समाचार पत्रों में जगह का आरक्षण मांगा जा रहा है।

डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा ने छत्तीसगढ़ को बीसियों छात्रों को डाक्टरेट की डिग्रियां दिलवाई हैं। एक वीतरागी की तरह जीवन जीने सेवानिवृत्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ में ही बस गए हैं। कथित परदेश नहीं लौट गए हैं। वैसे मानक छत्तीसगढ़ी बोली का अब तक स्थिरीकरण कहां हुआ है। बस्तर, खैरागढ़ और सरगुजा की बोली पूरी तौर पर एक जैसी कहां है। बकौल भगवान सिंह वर्मा इसमें कोई शक नहीं कि छत्तीसगढ़ी बेहद सरस, प्रवाहमयी और लचीली होने के कारण ब्रज या बैसवारी की तरह मधुर है। यह तीन चौथाई छत्तीसगढ़ी आबादी द्वारा बोली भी जाती है। इन सभी विषयों और समस्याओं का विस्तार विद्वानों की पुस्तकों मे है, जिनमें भोलानाथ तिवारी, केएन तिवारी, हीरालाल शुक्ल, कांतिकुमार वगैरह का भी सरसरी तौर पर उल्लेख किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया है कि उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। संविधान संशोधन के बगैर यह नहीं हो सकता। हिंदी की तमाम अन्य उपभाषाएं या बोलियां प्रतीक्षा सूची में पचास वर्षों से लामबंद हैं। इक्कीसवीं सदी में छत्तीसगढ़ी भी पीछे आकर खड़ी हो गई है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने पहली हिंदी से अंग्रेजी की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया। एक तीन है तो दूसरी छह अर्थात दोनों मिलाकर छत्तीस। संविधान में अनुच्छेद 350 एक और दिलचस्प तथा नामालूम सा प्रावधान है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ की सरकार को प्रत्येक व्यक्ति को हिंदी में अभ्यावेदन देने का अधिकार है। छत्तीसगढ़ सरकार को चाहिए कि वह छत्तीसगढ़ी को हिंदी की उपभाषा करार देते हुए लोगों को यह छूट दे दे कि वे अपने अभ्यावेदन छत्तीसगढ़ी में करना शुरू कर दें। उन्हें उत्तर भी छत्तीसगढ़ी में ही देने शुरू किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ी व्यथा, अन्याय, शोषण और हीनता के कोलाज की भाषा हैं। हिन्दी छत्तीसगढ़ी से सहानुभूति, सहकार और आश्वासन की। और अंग्रेजी अन्तत: की जिसे शब्दकोश में अन्याय कहा जाता है। संविधान ने शिक्षा का मूलभूत अधिकार चौदह वर्ष तक प्रत्येक नागरिक को दिया है। भाषा का अलबत्ता वैकल्पिक अधिकार दिया है।

संविधान सभा में छत्तीसगढ़ से रविशंकर शुक्ल, घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल सिंह, किशोरीमोहन त्रिपाठी, गुरू आगमदास और रतनलाल मालवीय वगैरह सदस्य थे। इनमें से सबसे ज्यादा घनश्याम सिंह गुप्त से यह उम्मीद की जा सकती थी कि वे संविधान सभा में छत्तीसगढ़ी के समर्थन में कुछ कहेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। अलबत्ता वे प्रबल हिंदी समर्थक के रूप में उभरे। छत्तीसगढ़ी के लेखक सभी श्रोष्ठ साहित्य का अनुवाद करने की पहल क्यों नहीं करते जिसमें न केवल ग्रामीण पाठक वर्ग परिचित हो बल्कि रचनाकर्मी भी छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्तियों को समृध्द कर सकें। संविधान में उन प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है जिनकी उपस्थिति लोक जीवन में इस तरह रही है कि उनके बिना संबंधित प्रदेशों में प्रशासन नहीं चलाया जा सकता। इनमें हिंदी की उपभाषाएं शामिल नहीं हैं। इस भाषायी स्थिति को सामासिक आदतों के सहकार के साथ स्वीकार कर लिया गया है। संविधान के लागू होने के बाद सिंधी, कोकणी, और मैथिली, नेपाली वगैरह को संविधान के अंतर्गत मान्य भाषाओं का दर्जा दिया गया है। छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या इनसे कम नहीं है। कार्यपालिका तथा न्यायिक प्रशासन जनता के सरोकार हैं, भाषा और बोली के जानकारों के नहीं।

संविधान में संशोधन किए बिना प्रशासन को भाषा से हटकर बोली में रूपांतरण करना संभव नहीं है। शीर्ष स्तर पर आज भी अंग्रेजी न्यायिक और कार्यपालिका प्रशासन की भाषा है। छत्तीसगढ़ी में अंग्रेजी में अनुवाद किए बिना सर्वोच्च स्तर पर इस क्षेत्र की निजी और सामूहिक समस्याएं कैसे पहुंचेगी। छत्तीसगढ़ी की तरह हिंदी की उपरोक्त सहोदराएं पचास साठ वर्षों से संविधान पुत्री घोषित होने के लिए प्रतीक्षारत हैं। इन सब संवैधानिक और अनुसंधानिक आवश्यकताओं को पूरा किए बिना छत्तीसगढ़ी को नए प्रदेश की राजभाषा घोषित करना कैसे मुमकिन किया जा सकता है।
(लेखक प्रख्यात अधिवक्ता एवं विचारक हैं)

शनिवार, 14 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-14

मातृभाषा जरूरी है तो अंग्रेजी मजबूरी है!

गजेंद्र तिवारी

शिक्षा का माध्यम क्या हो? मातृभाषा या और कोई भाषा? इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करने से पहले एक निवेदन करना चाहूंगा। कुछ शब्दों और शब्द समूहों से, कुछ समय के लिए परहेज करने का अभ्यास करना होगा। केवल कुछ समय के लिए। (फौर द टाइम बीइंग) कारण यह है कि ऐसे शब्द या शब्द युग्म विवादों की दिशा को सही नहीं रहने देते, संवेदनाओं का तड़का लगाकर उसकी तासीर बदल देते हैं। हां तो पहले ये शब्द। अस्मिता, आत्मगौरव, आत्माभिमान, स्वाभिमान, माटीपुत्र, माटी की सोंधी गंध। ये तथा इसी भावनात्मक परिवार से जुड़े हुए शब्द और शब्द-युग्म! अस्तु।

स्वीकृत तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा दो करोड़ से भी ज्यादा लोगों के द्वारा व्यवहृत की जाने वाली भाषा है। ऐसी दशा में यदि ऐसी भाषा को समादृत किए जाने की आवाज अगर उठाई जाती है तो उसमें कुछ भी अनुचित दिखाई नहीं देता है। छत्तीसगढ़ एक राज्य है और इस नाते उसकी अपनी स्वीकृत राजभाषा होनी चाहिए। ठीक ही निर्णय लेकर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया है। अब यह तो एक बात हुई। इसी से लगी बात यह है कि राजभाषा तो छत्तीसगढ़ी को घोषित कर दिया गया, अब राजकाज की भाषा बनाओ। दैनिंदिन और सर्वमान्य उपयोग की भाषा बनाओ। शिक्षा का माध्यम छत्तीसगढ़ी हो, ऐसी व्यवस्था करो। ठहरिये, ठहरिये। इतनी जल्दी नहीं। ये विषय ऐसे नहीं हैं कि इन पर 'ओव्हरनाइट कोई फैसला हो सके। ये गंभीर और व्यापक विषय हैं और इनके निराकरण में वैसी ही गंभीरता और व्यापकता अपेक्षित है। मसलन, राजकाज की या प्रशासन की भाषा बनाने का सवाल। यह कोई आसान काम नहीं है। अभी तक हिंदी यह मुकाम हासिल नहीं कर पाई है। अंग्रेजी ही प्रशासन की सर्वमान्य भाषा है आज भी। ऐसे में आनन-फानन में छत्तीसगढ़ी को प्रशासन की भाषा घोषित करने की प्रक्रिया क्या आसान है? और क्या ऐसा घोषित करने का आग्रह करना उचित है?

शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा हो? पहले प्राथमिक शिक्षा का माध्यम निर्धारित करना ही उचित होगा। इस संबंध में जो अध्ययन हैं उनमें इस बारे में मातृभाषा की अनुशंसा की गई है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने से सीखने की प्रक्रिया में आसानी रहती है, ऐसा शिक्षा संबंधी शोधों से प्रमाणित होता है। अब यह तो हुई सिध्दांत की बात। इसे व्यवहारिक स्तर पर लागू करने में क्या और कैसी दिक्कतें दरपेश हो सकती हैं? सबसे पहली बात तो यह है कि प्रदेश में सर्वत्र छत्तीसगढ़ी का प्रयोग नहीं होता। अनेक स्थानों में अन्य स्थानीय बोलियों या भाषाओं का प्रयोग होता है, हिन्दी का प्रयोग होता है। ऐसी बहुलतावादी स्थिति में आने वाली अड़चनों का निराकरण कैसे होगा? छत्तीसगढ़ की मान्यता प्राप्त भाषा छत्तीसगढ़ी हो इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए। रही बात अन्य स्थानीय बोलियों की सो पाठयक्रमों की विरचना इस ढंग से भी की जा सकती है कि सभी का समन्वय और संतुलन कायम रखा जा सके। इस नुक्ते पर भी विवाद की स्थिति कदाचित ही दिखाई पड़ती है।

अब इस व्यवस्था में नकारात्मक क्या है? आज का समय वैश्वीकरण का है। अंग्रेजी की ध्वजा फहरा रही है चारों ओर। गांव-गांव में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने हेतु खासी संख्या में अंग्रेजी स्कूल खोल दिए गए हैं। और स्कूल खोले जाने का यह सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी है। जाहिर है ऐसे स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर निकले हुए विद्यार्थियों का अंग्रेजी का स्तर काफी अच्छा होगा। हमारी सरकार ने निर्णय लिया है कि प्राथमिक कक्षाओं में अंग्रेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाए और उसमें परीक्षा भी ली जाए, जिसमें पास होना जरूरी भी होगा। अब आगे चलकर पढ़ाई के स्टैन्डर्ड का मसला फिर उठेगा? अनेक सवालिया निशान खड़े होंगे।

सोचना यह है कि बेहतर क्या होगा? मातृभाषा में शिक्षा या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा? ध्यान रहे इन सवालों के जवाब में हमें संवेदनाओं और भावनाओं को नहीं देखना है। शुध्द व्यवहारिक स्तर पर विचार करना है। मोटे तौर पर देखा जाए तो अंग्रेजी आज रोजी-रोटी की भाषा है। अगर अंग्रेजी नहीं आती तो मौन रहिए कोई पुछन्ता नहीं मिलेगा। हम कोई निर्णय नहीं दे रहे हैं, आपको विचार करना है। मातृभाषा भी जरूरी है, अंग्रेजी भी जरूरी है। जरूरी से ज्यादा मजबूरी है। इसे किन्हीं अर्थों में अभिशाप की स्थिति भी कहा जा सकता है। ऐसा अभिशाप जिसे ङोलना हमारी नियति है। आज अंग्रेजी का बोलबाला है। अन्य भाषाओं की हालत दोयम दर्जे की है। दरअसल, ङागड़ा लोकभाषाओं में नहीं है। ङागड़े की जड़ है अंग्रेजी। ङागड़ा संस्कृत का भी नहीं है। संस्कृत का जो स्थान है, वह कोई बताने की बात नहीं है। तो फिर आखिर विवाद किसलिए है? इस संबंध में एक संभावित जवाब यह हो सकता है कि विवाद समय के नुक्ते यानी टाइम फैक्टर का है। छत्तीसगढ़ में राजकाज की भाषा और व्यापक बोलचाल एवं व्यवहार की भाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी समादृत हो। अन्य प्रदेशों में वहां की प्रादेशिक भाषाओं को जो ओहदा मिला हुआ है वही ओहदा छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ में प्राप्त हो, इस बात से किसे इंकार हो सकता है? ऐसा होना तो निश्चित है। ऐसा तो होगा ही। बस समय की बात है। अधोसंरचना विकसित होने दीजिए? भाषा को मानकीकृत कीजिए। प्रशासन के लायक मजबूत बनाइये भाषा को। भाषा की मजबूती के लिए केवल साहित्य पर्याप्त नहीं होता। अन्य विषय भी होते हैं। इसके लिए सोच समङा कर योजना बनाना जरूरी है। एकीकृत प्रयत्न किए जाने जरूरी हैं। यह काम विवादों से, आंदोलनों से, राजनैतिक पैतरेबाजी से नहीं होगा। विद्वत-मंडली को बैठना होगा इसके लिए और छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण और मजबूतीकरण के लिए ठोस योजनाएं बनानी होगी।
(लेखक सुपरिचित व्यंग्यकार हैं।)



मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-13
छत्तीसगढ़ी मातृभाषा में शिक्षा ज्यादा जरूरी

रामेश्वर वैष्णव

नंदकिशोर शुक्ल का यह विचार कतई आपत्तिजनक नहीं है कि कक्षा प्रथम से संस्कृत पढ़ाने का प्रावधान न केवल अनुपयोगी है, अपितु छात्रों के लिए अति श्रमसाध्य भी। चूंकि यहां के छात्रों की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है अत: छत्तीसगढ़ी पढ़ाना ज्यादा लाभदायक है। साथ ही छात्रों की दृष्टि से सुगम भी। विश्व के तमाम भाषा विज्ञानियों तथा शिक्षा शास्त्रियों ने मातृभाषा में शिक्षण की व्यवस्था को न केवल अत्यधिक लाभकारी माना है, अपितु छात्रों के बौध्दिक विकास का सुगम रास्ता निरूपित किया है। नंदकिशोर शुक्ल ने किसी भी पंक्ति में संस्कृत का विरोध नहीं किया है, यह तो संपादक का अधिकार है कि वे जैसा चाहे शीर्षक दें। बस उसी आधार पर उन्हें संस्कृत विरोधी घोषित करने की मानसिकता क्या सिध्द करती है? जबसे छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिलाने वाला प्रस्ताव पास हुआ है, तब से कुछ स्थापित विद्वानों के मन में अपनी उपेक्षा होने का संदेह बैठ गया है। छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली तमाम लोकभाषाएं छत्तीसगढ़ी की ही उपभाषाएं हैं। इनमें आपसी विरोध होने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय भाषाओं के बीच कहीं कोई अंर्तद्वंद नहीं है, अगर है तो केवल अंग्रेजी से। छत्तीसगढ़ी की उपेक्षा कर किसी भी भाषा को प्राथमिकता देना महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'अपनी माता को असहाय छोड़कर पराई माता की सेवा करने जैसा उपक्रम है। अपनी माता को महत्व देना क्या संकीर्णता है, क्षेत्रीयता है या सीमित दृष्टि है। संस्कृत के देववाणी होने, समस्त भाषाओं की जननी होने या भारतीयता के भीतर ङाांकने की खिड़की होने में किसको संदेह हो सकता है? इसे पूर्ववत कक्षा छठवीं से पढ़ाए जाने पर ही इसकी गरिमा व दिव्यता से परिचित होने में कोई छात्र समर्थ होगा। कक्षा प्रथम से पढ़ाने का न तो कोई तुक है और न ही प्रयोजन। दरअसल जिस तरह अंग्रेजी को विश्व को देखने की खिड़की माना जाता है, उसी तरह संस्कृत भी भारत की आत्मा को देखने की खिड़की है और अपने घर से अपने इर्द-गिर्द देखने की खिड़की का श्रोय मातृभाषा को ही दिया जा सकता है जो कि छत्तीसगढ़ी का हक है।
(लेखक छत्तीसगढ़ी के कवि एवं साहित्यकार हैं)
मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-12
भाषा के नाम पर राजनीति न करें

डॉ. सोमनाथ यादव

संस्कृत एक ऐसी भाषा है जो पूरे देश की बोली-भाषाओं को संस्कार देती रही है। यही कारण है कि संस्कृत से संस्कृति बनी है। अंग्रेज खेती की ओर प्रमुखता देते हैं इसलिए एग्रीकल्चर से 'कल्चर नि:सृत है जबकि विचार प्रेषण के कारण और विश्व-वंदया होने के कारण हमारा देश भाषा की दृष्टि से संपन्न रहा है। संस्कृत को देवभाषा व लिपि को देवनागरी लिपि से संबोधित करने हमने इसे पावन और अलौकिक स्थान दिया है। यह वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न भाषा है जिसमें लेखन और उच्चारण में समानता है। इसने सभी देश की बोलियों और भाषाओं को पुत्रवत पोषण किया है। यह सभी भाषाओं की जननी है। नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी को पिछड़ा कह सकती है, बेटी मां की उपेक्षा कर सकती है लेकिन इससे न मां का महत्व कम होता और न पुरानी पीढ़ी की चमक कम होती। थोड़ा सा भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस तथ्य से सुपरिचित है लेकिन छत्तीसगढ़ी राजभाषा के प्रयोग के परिप्रेक्ष्य में कोई संस्कृत को तिरस्कृत करने का वक्तव्य दे तो उसे किस आक्रोश से चिन्हित करेंगे, यह आप खुद समझें।

राजभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी को सम्मान सरकार दे रही है लेकिन बिना तैयारी के हम छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई-लिखाई के लिए वक्तव्य दें और संस्कृत का अध्यापन बंदकर छत्तीसगढ़ी में प्रारंभ करने की बात कहें तो हास्यास्पद स्थिति हमें मूर्ख ही तो प्रमाणित करेगी। कोई एक व्यक्ति जो न तो कोई साहित्यकार है, न ही भाषाविद् अत: त्रिभाषा फार्मूला से अनजान होकर वे जो वक्तव्य दे रहे हैं तथा छत्तीसगढ़ी बोलने और पढ़ने-पढ़ाने के लिए जिस तरह बयानबाजी कर रहे है, उसमें अधिकांश लोगों को राज ठाकरे की आत्मा दिखाई देने लगी है। क्या इस प्रदेश से हिंदी, अंग्रेजी को न पढ़कर छत्तीसगढ़ में रहने वाले छत्तीसगढ़ी ही पढ़ेंगे क्या यह राष्ट्र हित में है? यहां हिंदी ने 90 प्रतिशत लगभग प्राप्त कर लिया है और शिक्षा व कार्यालयों में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। व्यावसायिक दृष्टि से जब तक अंग्रेजी आजीविका का साधन रहेगी, इसे ज्ञान और औपचारिकता के लिए अपनाने में क्या हर्ज है? इसकी उपेक्षा करके छत्तीसगढ़ पिछड़ा नहीं कहलाएगा? क्या यहां के बच्चों को संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञान से उपेक्षित कर दें। उन्हें केवल छत्तीसगढ़ी पढ़ाएं। इससे क्या होगा और यह कैसे संभव होगा। क्या वे लोग बताएंगे कि उनके घर के बच्चो सरकारी स्कूलों में पढ़ने की जगह अंग्रेजी माध्यम जैसी निजी स्कूलों में क्यों पढ़ते हैं? क्या वे यह भी बताएंगे कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब बच्चों के साथ ही भेदभाव क्यों? सक्षम एवं धनाढय लोगों के बच्चों को ही सिर्फ अधिकार है अंग्रेजी पढ़ने का? कुछ लोग बयानबाजी कर और कुछ न समङा लोगों को जोड़कर या कहे अंधे में काना राजा बनकर आत्ममुग्ध जीवन जीना चाहते हैं। ऐसे लोगों का समूह बनाकर कुछ लोग भाषायी कटुता रखकर और कट्टरता दिखाकर भूमि पुत्र बनने का नाटक कर रहे हैं। जिस छत्तीसगढ़ी को संस्कृत का संस्कार है, उसे भी विलोपित करने की बात करके उन्होंने सुर्खियों में बने रहने का सफल नाटक किया है या कहें छत्तीसगढ़ी भाषाविद् बनने के फेर में और राजभाषा के अगुवा बनने की तिकड़म में आवेशवश और अज्ञानतावश ऐसा वक्तव्य देकर छीछा लेदर करा रहे हैं। छत्तीसगढ़ी-हिंदी की ही तरह (वैसे भी पूर्वी हिंदी की एक शैली है) संस्कृतनिष्ठ भाषा है। तत्सम के प्रचुर शब्द हिंदी और छत्तीसगढ़ी में मिलते हैं। अत: बेटी द्वारा मां की उपेक्षा का आरोप लगाना संभव ही नहीं है।
(लेखक छत्तीसगढ़ी राजभाषा परिषद् के प्रांतीय महासचिव एवं राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य हैं)
मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-11

छत्तीसगढ़ी भाषा का चरम विकास लक्ष्य हो
जे.आर.सोनी

इन दिनों राज्य के एक समाचार पत्र में नंदकिशोर शुक्ल द्वारा लिखित आलेख की चर्चा और आलोचना का बाजार गर्म है। श्री शुक्ल ने अपने इस आलेख में राज्य के दो करोड़ लोगों की आत्मनिर्भरता और समोन्नति को ध्यान में रखकर नवोदित राज्य की हित रक्षा के लिए मातृभाषा को विशेष रूप से रेखांकित किया था। चूंकि राज्य में छत्तीसगढ़िया शांत, मूक, सहनशील और पिछड़े रहे हैं और उनके सिर पर और कोई ददा-दाई की छत्रछाया नहीं है। शुक्ल जी ने इन्हीं का संज्ञान लेते हुए राज्य की मातृभाषा के विकास पर अपना पक्ष रखा था। श्री संजय द्विवेदी और श्री महेशचंद्र शर्मा के आलेख लेखन कला से चमत्कृत करने वाले अपराजेय, बहुस्वीकृत और यथार्थवादी भले ही प्रतीत हो रहे हों किन्तु छत्तीसगढ़ की अतृप्त माटी की सौंधी गंध जो शुक्ल ने देनी चाही, वह कहां? छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी भाषा राज्य सरकार और आम जनता द्वारा पूर्णरूपेण प्रयुक्त हो, यही मुख्य आलेख का लक्ष्य था और होना भी चाहिए। रोड़ा अटकाने वाले ही नहीं समर्थन करने वाले भी जानते हैं कि पाठयक्रम में अंग्रेजी का वर्चस्व है। संस्कृत, हिंदी या मातृभाषा का दर्जा पूरे देश में साठ वर्ष होने के बाद भी अंग्रजी दां राजनेताओं को मान्य नहीं हुआ। विरोध अंग्रेजी का होना चाहिए। जाहिर है सब भाषाओं की जननी संस्कृत हम सब जनों की नानी-दादी है तो हिंदी, अंग्रेजी माता-विमाता। भाषाओं के इस परिवार में छत्तीसगढ़ी भाषा स्वमाता है। भाषा पर विवाद ठीक नहीं। उनकी दृष्टि का केंद्र बिंदु छत्तीसगढ़ की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी भाषा का चरम और मुक्त विकास है। संस्कृत भाषा और विकास से द्रोह नहीं।
लेखक, पूर्व प्राचार्य हैं
मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-10

संस्कृत में है इस देश की संस्कृति
सच्चिदानंद उपासने
संस्कृत हमारे पूर्वजों की भाषा रही है। हमारे सभी धर्मग्रंथ यथा-वेद, पुराण, उपनिषद आदि संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं। इन ग्रंथों में हिंदुस्तान की आत्मा बसती है। इन्हीं की चाओं के बल पर हिन्दुस्तान को अतीत में जगद्गुरु का पद प्राप्त था।

हमारे पूर्वज मानते थे कि देवगण संस्कृत में ही संभाषण करते हैं, अत: संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गहन अध्ययन एवं शोधों के पश्चात सभी मूर्धन्य भाषाविज्ञानी एवं व्याकरणाचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संस्कृत ही व्याकरण की दृष्टि से सबसे शुध्द एवं पूर्ण भाषा है। संस्कृत में कोई भी तकनीकी कमी नहीं है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में ही (जो संस्कृत में रचित हैं) 'वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया गया है। संस्कृत में ही रचित हमारे आदि ग्रंथों में, 'सर्वेभवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत् जैसी महान एवं मानवतापूर्ण सीख दी गई है।

ऐसी महान भाषा के विषय में जब मैंने एक अखबार में प्रदेश के वरिष्ठ व संस्कारित पत्रकार नंदकिशोर शुक्ल का लेख 'संस्कृत की बजाय शिक्षा छत्तीसगढ़ी में क्यों नहीं? पढ़ा, तो मन बेचैन हो उठा, मस्तिष्क में एक प्रकार की खलबली मच गई कि आखिर हिन्दुस्तान किस ओर जा रहा है। यहां की राजनीति तो चलिए धर्म, जाति, भाषा, बोली, क्षेत्र ऐसे वादों पर संचालित है, किन्तु जब एक बुध्दिजीवी ऐसे विचार रखे कि संस्कृत को प्राथमिक शालाओं में न पढाया जाए, तो हैरान और दुखी होना स्वाभाविक है। यहां छत्तीसगढ़ी का विरोध कतई नहीं है। निश्चित रूप से बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिए जो उसकी मातृभाषा हो, जैसी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल जैसे विद्वानों की भी सोच है।

प्रदेश की प्राथमिक शालाओं में तीन भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, इसमें प्राथमिक स्तर पर छत्तीसगढ़ी को शिक्षा का माध्यम बनाकर संस्कृत को भी एक भाषा के रूप में बेरोकटोक एवं सुविधापूर्वक पढ़ाया जा सकता है। इसमें कहीं कोई समस्या, कहीं कोई कठिनाई है ही नहीं। प्राथमिक से माध्यमिक स्तर पर 6 से 14 वर्ष की आयु में बच्चों में सीखने की दर भी अत्यंत तेज होती है, विद्वानों की राय है कि इस आयु-समूह के बच्चो कई भाषाएं एक साथ सीख सकते हैं। ऐसे में श्री शुक्ल का यह विचार कि प्राथमिक स्तर पर संस्कृत न पढ़ाई जाए, बिल्कुल औचित्यहीन है। इस बारे में 'हरिभूमि में संजय द्विवेदी के प्रकाशित विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूं। संस्कृत ने हमारे देश को महान एवं प्रकांड विद्वान दिए हैं तथा संस्कृत साहित्य में हमारी धरोहर विराजित है यदि हमारा भविष्य संस्कृत का अध्ययन ही नहीं करेगा तो वह साहित्य व धरोहर तो काला अक्षर भैंस समान हो जाएगा। संस्कृत में तो हमारी संस्कृति निहित है। मैं तो यही कहना चाहूंगा कि संस्कृत भाषा को भी सभी भारतीय भाषाओं की जननी कहलाती है, संस्कृत को वही स्नेह, वही सम्मान व संरक्षण मिलना चाहिए, जो उसे आदिकाल में प्राप्त था। तभी हम उस भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रख सकेंगे, जिस पर हमें गर्व है एवं जिसके द्वारा ही संपूर्ण विश्व एवं मानवता का विकास एवं कल्याण संभव है। निहित स्वार्थ हेतु संस्कृत जैसी देवभाषा को विवाद का विषय बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता।

(लेखक छत्तीसगढ़ ब्रेवरेज कारपोरेशन के अध्यक्ष हैं)

शुक्रवार, 13 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-9
भाषाएं नहीं होती हैं साम्प्रदायिक
डॉ. सुधीर शर्मा
पं. नंदकिशोर शुक्ल और संजय द्विवेदी के बहाने अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ विश्व की आधार भाषा संस्कृत का गौरव-गान करने का सौभाग्य मिल रहा है। भाषा की महत्ता और उसकी अस्मिता से दूर केवल बोलचाल तक सिमट रहे जनमानस को जगाने के लिए यह बहस सार्थक साबित हो रही है। अनेक विद्वानों ने संस्कृत और छत्तीसगढ़ी की महत्ता विभिन्न संदर्भों और अनुभवों के माध्यम से प्रतिपादित की है। बहस एक-दूसरे को काटने के बजाय एक-दूसरे के विचारों को आगे बढ़ाने में क्रियाशील है।

बहस के केंद्र में छत्तीसगढी क़े लिए मर-मिटने के लिए बुढ़ापे में निकले पं. नंदकिशोर शुक्ल हैं। श्री शुक्ल का यह कथन कि संस्कृत के बजाय छत्तीसगढ़ी को प्राथमिक स्तर से पाठयक्रम में शामिल करना निश्चित ही विवाद का विषय है, और कोई भी भाषावैज्ञानिक इससे पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता। हमें बजाय शब्द पर आपत्ति है। श्री शुक्ल ने अपनी भाषा एवं अस्मिता के लिए विभिन्न मोर्चों पर सतत संघर्षरत विद्वानों को एकजुट करने का सराहनीय कार्य किया था। यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाए जाने के निर्णय के आसपास वे पूरी तरह निष्ठा के साथ मौजूद थे। उनके साथ इस आंदोलन में उनके तेवर और सत्ताधीशों के साथ तू-तू, मैं-मैं से हम वाकिफ हैं। दरअसल श्री शुक्ल छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के अस्मिता को लेकर गुस्सा भी जाते हैं और इसी उतावलापन या अतिउत्साह से वे संस्कृत के बारे में टिप्पणी कर चुके होंगे। बहरहाल इस बहस के बहाने कुछ ठोस बिन्दुओं पर बातचीत जारी रखें।

संस्कृत की विश्वव्यापी महत्ता आज से नहीं हजारों-हजार वर्षों से है। विश्व के अधुनातन देशों ने भी प्रारंभ से संस्कृत की महत्ता को स्वीकार किया है। दरअसल पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक संस्कृत के व्याकरणिक ढांचे को लेकर ही अपनी भाषा का अध्ययन कर पाते हैं। पाणिनि, यास्क, कात्यायन, पंतजलि, आनंदवर्धन, भर्तृहरि, भाष्य जैसे अनेक व्याकरणार्च और विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाताओं ने सैकड़ों वर्ष पूर्व जिन सिध्दांतों का प्रतिपादन किया था, आज भी उन्हीं सिध्दांतों के सहारे ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। ब्लूमफील्ड, सस्यूर, नॉम चॉमस्की जैसे अनेक पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन भी संस्कृत के इन महान आचार्यों के सामने बौना दिखाई देता है। वे कहीं न कहीं उनसे प्रेरित या उनकी छाया में गुम दिखाई देते हैं। देरिदा भी नागार्जुन, शंकराचार्य और अरविंद से प्रभावित लगते हैं। संस्कृत दरअसल प्रयोग में न आने के बावजूद समूचे विश्व की भाषा है। संस्कृत भाषा विश्व परिवार एवं सार्वजनीन भ्रातृभाव की जननी है। शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने अपनी पूरी शक्ति इसके उत्थान के लिए लगा दी थी। चीन की बड़ी दीवार पर संस्कृत के धर्मसूत्र अंकित हैं। मध्य एशिया में अनेक स्थलों पर संस्कृत-ग्रंथों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। भाषा विज्ञान ने संस्कृत को मानव जाति की प्राचीनतम भाषा माना है। मैक्समूलर ने आंतरिक शांति के उद्देश्य से रचित साहित्य को संस्कृत भाषा का साहित्य माना है। वास्तव में संस्कृत हमारी संस्कृति का मूलाधार है। इसके साहित्य में देश की आत्मा बसी है। ऐसी कोई विधा नहीं जो संस्कृत साहित्य में पूरी तार्किकता के साथ मौजूद नहीं, ऐसा कोई ज्ञान-क्षेत्र नहीं जो अपने मौलिक सिध्दांत के साथ उपस्थित न हो।

बात संस्कृत को प्राथमिक स्तर पर पढ़ाए जाने के संबंध में की जा रही है, तब इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई किस पध्दति से हो रही है और वर्तमान मानसिकता किस ओर है। समूचा भारत और अब एशिया के अनेक देश भी अंग्रेजी की ओर मुंह ताक रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन ने इसे और मजबूत कर दिया है। विश्व बाजार में अपना वर्चस्व बनाने अंग्रेजी के सहारे की जरूरत दिखाई देती है। दूसरी ओर इस बाजार के दादाओं की ओर देखें तो उन्हें लगता है कि बिना देशीय या क्षेत्रीय भाषाओं के उनके उत्पाद और उसके साथ विचार गांवों तक नहीं पहुंच सकते हैं। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी अब अनिवार्य हो चुकी है। संस्कृत का अध्यापन कराने से एक लाभ जरूर होगा कि हम भाषा की शुध्दता एवं उसके आधार को आत्मसात कर सकेंगे। परंतु संस्कृत का पाठ गंभीरता से न होकर बचकाना और महज औपचारिकता के लिए कराया गया तो और भी अनर्थ होगा। हो यही रहा है। अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में संस्कृत और हिंदी को मजाक की तरह पढ़ाया जा रहा है। हम स्वयं अपनी भाषा के प्रति सचेत नहीं है। अशुध्द अंग्रेजी बोलने से भयभीत रहते हैं और दिनभर अशुध्द हिंदी का प्रयोग कर जी रहे हैं। इसलिए संस्कृत को पूरी गंभीरता और योजनाबध्द ढंग से अध्ययन के लिए लागू करना चाहिए।

संस्कृत से अलग मातृभाषा के अध्यापन की बात करें तो केंद्र सरकार ने पहले ही फरमान जारी किया हुआ है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं हों। अनेक राज्यों में ऐसा हो भी रहा है। छत्तीसगढ़ में भी अनेक बोलियों के लिए पाठयक्रम तैयार किए गए हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ी को बार-बार छोड़ना किस मानसिकता की ओर इशारा करता है। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना से जो भय का वातावरण राज्य बनने से पहले था, लगभग वही वातावरण छत्तीसगढ़ी को लेकर है। यह सत्य ही है कि मातृभाषाएं मनुष्य को दिल से जोड़ती हैं। बिखरा हुआ समाज अपनी मातृभाषा की मिठास पाकर एकजुट हो जाता है। यह एकजुटता क्षेत्रीय अस्मिता की सबसे बड़ी पूंजी है। इसी ताकत का अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य की सशक्त वैचारिक आंदोलन के पीछे भी मैं छत्तीसगढ़ी की ताकत को खड़ा पाता हूं। यही ताकत क्षेत्रीय अस्मिता को देश के दूसरे राज्यों की तरह दूसरी ओर न धकेल दे यही चिंता अनेक लोगों की है। दूसरी ओर बिना छत्तीसगढ़ी के छत्तीसगढ़ में न तो सत्ता पाई जा सकती है, न व्यापार किया जा सकता है और तो और छत्तीसगढ़ियों का शोषण भी नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों ने संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने और उस पर वृहद अध्ययन करने का कार्य यूं ही नहीं किया था। भारत में इकलौता वृहद भाषा-सर्वेक्षण का कार्य उन्होंने ही तो अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया था। उसी अध्ययन से हीरालाल काव्योपाध्याय का छत्तीसगढ़ी व्याकरण उपजा है, जिस पर आज हम गर्व करते हैं। जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी को आत्मसात किया है वे सुखी हैं। इसके विपरीत जो लोग अपनी भाषा-अपनी अस्मिता के दीप को प्रावलित रखना जरूरी समङाते हैं, वे गैर छत्तीसगढ़िया कहलाने का दुख भी ङोल रहे हैं। यह बहस बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि भाषाएं साम्प्रदायिक नहीं होती। एक-दूसरे की भाषा और संस्कृति की रक्षा करना और उसका सम्मान करना हमारी मानवीय आवश्यकता है।

(लेखक छत्तीसगढ़ी राजभाषा आंदोलन से जुड़े साहित्यकार हैं)

मंगलवार, 10 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-8

संस्कृत भाषा का ध्वंसीकरण भारतीय संस्कृति का अधोपतन

डीएन राय
भारतीय संस्कृति के मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मातुलालय, संस्कृत काव्य-कुल कौमुदी, वाल्मिकी, व्यास, कालिदास की साहित्य-सर्जना की पवित्रभूमि, प्राचीन काल में संस्कृत की अनगिनत इबारतों के गढ़ छत्तीसगढ़ में संस्कृत के पठन-पाठन को संकुचित करने का प्रस्ताव बेसुरा अलाप जैसा लगता है। समाचार पत्र 'हरिभूमि के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी की इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस छेड़ने की पहल समयोचित, सार्थक एवं स्वागतेय है।

संस्कृत भारत की संस्कृति है। वृहत्तर भारत अर्थात हिन्द-एशिया को सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, पौराणिक विज्ञान, मानवीय चिंतन, दर्शन, चारित्रिक सात्विकता प्रदान करने वाली सुरभारती, प्राचीनता एवं व्यापकता में अन्यतमा है। संस्कृत के तात्विक गुणों ने ही अतिप्राचीन काल में चम्पा, मलाया, बोर्रान या सुमात्रा, जाबा, कम्बोडिया आदि सुदूर द्वीपों में इसे स्वीकार्य एवं व्यवहार्य बनाया था। इसकी प्राचीनता एवं उपयोगिता के मद्देनजर मध्य कालीन भारत के मुगल शासकों एवं शेरशाह सूरी जैसे गैर-हिन्दू हुक्मरानों ने भी संस्कृत को तवाो देकर इसके अक्षय साहित्य का तर्जुमा अपनी भाषाओं में कराया था। इसकी गुणवत्ता के ही कारण पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने कहा था कि अमृत मधुर होता है मगर संस्कृत उससे भी अधिक मधुर है। जर्मन देश के एक अन्य विद्वान ओपेन हावर ने लिखा है कि संस्कृत ग्रंथों में उपनिषदों के अनुशीलन से मेरे जीवन में वास्तविक शांति प्राप्त हुई है। जर्मन देश के ही प्रसिध्द कवि, गेटे ने कालिदास रचित शकुन्तला नाटक पढ़ने के बाद निम्नलिखित उद्गार प्रकट किया था-'यदि भूतल की समस्त आत्म रश्मियों को पीना चाहते हो, यदि आकाश में अनेकों निधि अमृत को पीना चाहते हो तो केवल एक साहित्य कलश शकुन्तला में डूब जाओ।

छत्तीसगढ़ जो प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल कहलाता था, देवभाषा संस्कृत के गंथों की रचना का केंद्र स्थल था एवं इस पुण्य स्थली पर संस्कृत की अनेक अक्षय कृतियों की रचना हुई है। कहते हैं कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने प्रकृति की इसी लीलाभूमि में अपने 'मेघदूत की रचना की थी। मेघदूत में काव्यात्मक शैली एवं उपमा कालिदासस्य के तहत वर्णित शैव कालिदार को शायद अपने प्रतिद्वंद्वी बौध्द दिड़नाग से यही भिड़ंत हुई थी जिसमें यहां के उनके संस्कृत शिष्य निचुल ने उनके प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया था। प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के सुदीर्घ अंचल के पर्यटक, ह्वेनसांग ने लिखा है कि तब दक्षिण कोसल की राजधानी सिरपुर में अवस्थित थी। सिरपुर प्राचीन काल में बौध्दधर्म के दिग्गजों का वास स्थान था। कालिदास का काल ह्वेनसांग के पूर्व का समय है परंतु अन्य पुस्तकों के आधार पर विद्वानों ने यह पमाणित करने की कोशिश की है कि कालिदास बौध्द धर्म में मूर्ति पूजा विरोधी मनोभाव से अपरिचित नहीं थे एवं मेघदूत में वर्णित बौध्द दिनाग से कालिदास की मुठभेड़ का स्थान रायपुर का सिरपुर या इसके इर्द गिर्द मान लिया जाए तो यह बात तर्कविहीन नहीं होगी। अत: कभी संस्कृत के दिग्गजों के वास स्थान छत्तीसगढ़ में संस्कृत की अवमानना की बात बेमानी लगती है।

लोक भाषा का समादार लोकतंत्र के लिए लाजिमी होता है एवं सरकार ने छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दर्जा देकर अपने पवित्र कर्म को संपादित किया है और यह साधुवाद है। संदर्भत: यह उल्लेखनीय है कि अर्ध्दमागधी प्राकृत से निकली छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृत के निकट है। विषय की तह में जाने वाले छत्तीसगढ़ी भाषा के रिसर्चरों द्वारा संस्कृत से इस उपभाषा के तुलनात्मक अध्ययन के उपरांत यह जाहिर हो सकता है कि वाक्यविन्यास, तत्सम, तद्भव शब्दों के अपार भंडार के क्षेत्र में दोनों भाषाओं में समता एवं कहीं कहीं एकरूपता भी है। अत: छत्तीसगढ़ी की अभिवृध्दि के क्षेत्र में संस्कृत का गहन पठन-पाठन उपादेय होगा एवं छत्तीसगढ़ी-पौध को पुष्पित एवं फलप्रसु बनाने में संस्कृत उर्वरक का काम करेगी।

भाषा संवेदनशील मुद्दा है और इसे राजनीतिक ओछे केल भाषाई अतिवादिता एवं अंध राजभक्ति या सोवनिज्म से दूर ही रखना श्रोयस्कर है। छत्तीसगढ़ की अन्य बोलियों एवं ग्रामीण उपभाषाओं को नजर अंदाज करना राजभाषा छत्तीसगढ़ी की प्रगति को बाधित भी कर सकता है। छत्तीसगढ़ी भाषा के हिमायती प्रबुध्द लोगों को संस्कृत व इस अंचल की छोटी-बड़ी अन्य लोकसभाओं एवं ग्रामीण बोलियों को साथ लेकर चलना ही जनहित में मंगलकारी होगा। देश की बदनसीबी थी कि अंग्रेजी हुकुमत के शुरुआती दौर में ही मैकाले की शिक्षा-नीति ने भारत के ग्राम राजों, शहर, कस्बों में अवस्थित पाठशालाओं तथा टोलों में संचालित संस्कृत में शिक्षा की इतिश्री कर दी। गणतांत्रिक भारत में मुदालियर, कोठारी आदि शिक्षा-आयोगों ने संस्कृत शिक्षा के दृत गौरव को पुनर्जीवित नहीं किया। नई शिक्षा नीति में तो संस्कृत-शिक्षा की हालत बद से बदतर हो गई है।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं)

शनिवार, 7 जून 2008


मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-7

लोकभाषाओं का विरोध बेमानी है

डॉ.बलदेव

हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम भाषा और साहित्य को एक नज़र से देखने के विवेक पर विश्वास करते हैं । भाषा मिट्टी है और साहित्य मिट्टी का घड़ा । भाषा से साहित्य है न कि साहित्य से भाषा भाषा, जिसे हम अपने निर्दोष अबोधता से कई बार लिपि, साहित्य और व्याकरण; तथा कई बार व्यवहृतकर्ताओं की संख्या की शर्तों पर मानक या अमानक मानते हैं, वस्तुत समुदाय विशेष की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करती है । उस समुदाय को भूगोल की सीमा में नहीं रखा जा सकता । भाषा मूलतः किसी न किसी बोली की विकसित रूप होती है । यदि इस अर्थ में वह भाषा कहलाती है तो जाहिर है कि उस पर किसी बोली या लोकभाषा का ऋण भी रहता है । भारतीय भाषाओं की जैविक वास्तविकता और शोध से अनुप्रमाणित भी है कि इनका स्त्रोत कहीं न कहीं आदि भारतीय भाषा संस्कृत भी है । जब यह सब हमारी मनीषा में है तो अपने मूल और लोकभाषाओं के विरोध का सवाल ही अकारज है । सवालों के पीछे की भाषा को समझें तो यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि कुछ लोग भाषा में भी व्यावसायिकता की संभावना तलाशते हैं जिन्हें राजसत्ता अपनी मूढ़ता से बिना किसी लाज-लिहाज परमिट भी जारी किया करती है ।



भाषा और साहित्य जनता का विषय है । उसका विकास और विनाश जनता के अभिभावकत्व पर निर्भर करता है । उन्हें तंत्र का ज़रूर संरक्षण चाहिए किंतु वे राज्यसत्ता की दासी नहीं बन सकते। पर भाषा और साहित्य के प्रसंग में जब भी मैं अपने राज्य की राज्यसत्ता को एक कोण पर रखकर सोचता हूँ तो मुझे समूचे राज्य में वीरगाथा काल दिखाई देता है । पर वे ठीक से वीरगाथा के कवि भी सिद्ध नही हो पा रहे हैं । यदि ऐसा होता तो राज्याश्रय से बड़े-बड़े (वस्तुतः छोटे भले ही दिखने में भारी) पुरस्कारों और संस्थानों में उनकी जगह समाचार लेखकों की ताज़पोशी नहीं हो पाती । लाखों के प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कारों को देने से पहले साहित्यिकों की सूची में कोई ना कोई योग्यता की कसौटी पर ज़रूर खरा उतरता । जैसा कि होना लाज़िमी था और जो हो नहीं सका । यह तंत्र की विडंबना ही है कि उसे पुजारी मछेरा दिखाई देता है और मछेरा पुजारी । यह न कोई निजी कुंठा है ना ही बैरतामूलक आत्महीनता। इसमें इस अर्थ की संभावना की तलाश निरर्थक होगी कि हमने क्या कुछ खास नहीं रचा ? हमने खूब रचा पर उसे अखिल भारतीय संदर्भों में 20 साबित किया जाना शेष है । उधर छत्तीसगढ़ी भाषा-भाषियों के मनोविज्ञान को सच माने तो कहा जा सकता है कि वह अपने भूगोल में तो हिचकिचाते हुए छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप कर लेता है किन्तु सीमा से बाहर वह छत्तीसगढ़ी में बतियाने को तौहीनी की श्रेणी में मानता है ।



मेरी सोच मुझे यही संबोधती है कि संस्कृत का विरोध या छत्तीसगढ़ी भूगोल की अन्यान्य भाषाओं( चाहें तो आप उन्हें बोली भी कह सकते हैं ) के तर्क पर छत्तीसगढ़ी के अनुसमर्थन के पीछे भाषा (मातृभाषा छत्तीसगढ़ी ) का प्रेम कम अपने भविष्य की असुरक्षा को लेकर आत्मकुंठा अधिक है । सच तो यह भी है कि छत्तीसगढी के नाम पर अन्यान्य भाषाओं के उत्थान को प्रश्नांकित करने वाले स्वयं जानते हैं कि अपने मूल चरित्र में वे ऐसे हैं नही और उन्हें संस्कृत और राज्य की अन्य भाषाओं के प्रति संपूर्ण आस्था भी है । आपको इसे समझने के लिए सत्ता की घोषणाओं में संदर्भ मिल जायेगा जिसमें कहा जा रहा है कि भविष्य में छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग का गठन किया जाना है । जाहिर है गठन होगा तो इसमे अध्यक्ष सह सदस्यों का भी मनोनयन होगा जो भले ही छत्तीसगढ़ी और संस्कृत परिषद की तरह फिसड्डी न हो पर उन्हें व्यवस्था की ओर से मंत्री का दर्जा भी मिलेगा । वे लाल बत्ती की गाड़ी में पर्यटन कर सकेंगे । यह इसलिए भी सच है कि जो अपनी महत्ता साबित करने के लिए इस समय नियोक्ता और उसके सिपहसालारों में अपनी घुसपैठ बना रहे हैं वे कहीं से भी भाषाविद् नहीं हैं । साहित्य यानी कि कथा, कविता, गीत लिखना अलग बात है और भाषा के मर्म को व्याख्यायित करना और उसे किसी राज्य की राजभाषा के योग्य बनाने की बात और ।



छत्तीसगढ़ी के साहित्यकारों को अपनी रचनात्मकता पर पुनः गौर करना चाहिए कि उनका लिखा-पढ़ा कहीं पुनर्पाठ में भोथरा तो नहीं । यदि वह भोथरा लगता है तो यह सपना देखना भूल जाना चाहिए कि वे ही छत्तीसगढ़ी को राजभाषा के योग्य सत्ताधारियों को मनवाने में सक्षम रहें है और उसमें उनके ही साहित्य की महती भूमिका है । अच्छा तो यही होगा कि हम सब मिलकर आवाज़ उठायें कि छत्तीसगढ़ी का जो बिल महामहिम के पास है उसे जल्द से जल्द हमारे जननायक क्लियर करायें । मृतप्रायः छत्तीसगढ़ी भाषा परिषद का पुनर्गठन हो या फिर छत्तीसगढ़ी साहित्य अकादमी का गठन हो । और सबसे बड़ी बात यह कि छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग को ऐसे मनीषियों के हाथों सौंपा जाये जो केवल ददरिया, साल्हो, पैरोड़ी, या फिर साहित्य ही क्यों नहीं लिखते बल्कि इससे आगे उनमें छत्तीसगढ़ी को राजकाज और कामकाज के योग्य बनाने की सारी प्रशासनिक और भाषावैज्ञानिक क्षमता भी हो । क्योंकि प्रश्न व्याकरण का है लेखन मात्र का नहीं । यदि सत्ता-संचालक इससे असहमति जताते हैं तो इसके विरोध करने का उत्तरदायित्व साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का है न कि मातृभाषा प्रेम की आड़ में किसी भाषा के विरोध के बहाने अपनी बहादुरी के प्रति सत्ता का ध्यान मात्र आकृष्ट करने का ।
(लेखक छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ आलोचक और भाषाविद् हैं )

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-6

लोकभाषाओं को लेकर बेचैनी क्यों

एच.एस. ठाकुर

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के कोई छह साल बाद छत्तीसगढ़ी को ‘राजभाषा’ बनाने का विधेयक तो पारित हो गया, मगर उसे आज तक कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं हो सका है । इस बीच इस मुद्दे को शायद डायवर्ट करने की दृष्टि से ‘छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग’ का गठन किया जा रहा था कि किन्तु मीडिया ने एक किसी बुजुर्ग साहित्यकार को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किये जाने का मुद्दा उछाल दिया । इसके बाद से साहित्यकारों में लोकभाषाओं को लेकर बेचैनी पैदा हो गई ।


भाषा कोई भी हो उसका निकट संबंध प्रकृति से रहता है । भाषा शब्द के मूल में भाख शब्द है जिसका संबंध ‘नाद’ से होता है । शिशु जब हँसने और बोलने की अवस्था में पहुँचता है तब उसकी माँ बच्चे की आवाज या भाख का मतलब समझ जाती है । यह सिर्फ मानव तक ही सीमित नहीं अपितु अन्य प्राणियों में भी इसका असर दिखाई पड़ता है । कह सकते हैं कि लोकभाषाएं प्रकृति की देन हैं । अक्षर को ब्रह्म भी कहा गया है अर्थात् शब्द और भाषायें अपने मूल में प्रकृतिजन्य भी हैं ।


वैदिक काल में लोकवाणी, आकाशवाणी और देववाणी का उल्लेख वेदों में मिलता है । अधिकांश वेद संस्कृत में हैं । इससे प्रमाणित होता है कि संस्कृत भारत की प्राचीनतम् भाषा है । यही नहीं भारत वर्ष की अन्य प्रांतीय भाषाएं जैसे तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया आदि के मूल शब्द संस्कृत- निष्ठ ही हैं । भारतीय भाषायें संस्कृत-गंगा से निकली छोटी-बड़ी धारायें हैं । भूगोल और वातावरण के कारण इन धाराओं की शैली भिन्न-भिन्न है, स्थापत्य भिन्न है किन्तु तासीर एक ही है । ऐसी स्थिति में आज जब पूरा देश अंग्रेजी के पीछे दीवाना है तब आदिभाषा संस्कृत की महत्ता को कम करके आंकना उचित नहीं होगा ।


संस्कृत लोकभाषा से बढ़कर वेद, उपनिषद, आरण्यक, संहिता की भाषा भी है । वह हमारे होने की पहचान कराने वाली भाषा है । यदि संस्कृत का पठन-पाठन एकबारगी बंद कर दिया जाता तो युवा पीढ़ी को भारतीय दर्शन, विचार, अस्मिता, इतिहास आदि के मूल तत्वों को पहचानने में कठिनाई होगी । रोजगार की तराजू में तौलकर उसे समूचे खारिज करना कहाँ का न्याय होगा । वह विरासतीय ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म और शाश्वत मूल्यों की भाषा है । उसमें हमारे अतीत का प्रमाणित सत्य है । प्रासंगिक यह होगा कि संस्कृत को न केवल पाठ्यक्रम में अनिवार्य किया जाय बल्कि उसे रोजगार से भी जोड़ा जाय ।


जहां तक छत्तीसगढ़ी का सवाल है वह छत्तीसगढ़ का प्रतीक है । छ.ग. का कोई भी व्यक्ति प्रदेश से बाहर जाकर जब छत्तीसगढ़ी में वार्तालाप करता है तब संपूर्ण छत्तीसगढ़ की परंपरा, विरासत, कला, संस्कृति और अस्मिता का स्वयंमेव बोध हो जाता है । इस तरह छत्तीसगढ़ी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह एक समृद्ध भाषा है, कम से कम मौखिक अभिव्यक्ति के स्तर पर । यद्यपि छत्तीसगढ़ी का व्याकरण शब्दकोष, वांछित लिखित और वाचिक साहित्य आदि सारी औपचारिकताएं बहुत पहले से ही लगभग पूरी हो चुकी हैं । उसके बावजूद विलंब होना समझ से परे है । यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि बड़े शायद राज्य के बड़े नौकरशाह, उनकी मंशा नहीं है कि छत्तीसगढ़ी को भाषा का दर्जा मिले । वे शायद इसे अपनी स्वेच्छाचारिता के रास्ते में पारदर्शिता का अकुंश भी मानते हैं । हो सकता है कि कांग्रेस-भाजपा व सत्ता में बैठे लोग जिसमें अधिकांश छत्तीसगढ़ी मूल अस्मिता और स्संकृति से लवरेज नहीं है को भी अपने अधिनायकत्व में बाधा की संभावना नजर आती हो और वे इसे टालने की मानसिकता में भी हों


छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है । बस्तर से लेकर जशपुर, सरगुजा तक जीवन शैली में एकता होते हुए उनकी स्थानीय बोलियों में विविधता है । चूंकि सभी बोलियां स्थानीय लोगों(जनता) की संस्कृति, कारोबार और व्यवहार की भाषा है, इसलिए इन प्रचलित लोगभाषाओं को शासकीय स्तर पर ज्यादा से ज्यादा संरक्षण दिया जाना चाहिए । इसमें शिक्षा, शब्दकोष निर्माण, लोक साहित्य का संग्रहीकरण, अमिलेखीकरण महत्वपूर्ण क़दम हो सकते हैं । इन लोकभाषाओं को कुछ लोगों द्वारा बंद करने का सोचना भी स्वयं में बेइमानी है । वह उस जनता के साथ गैर प्रजातंत्रिक कार्यवाही भी है जिसकी सम्यक अभिव्यक्ति उसी भाषा में होती है । फलतः वह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध भी है ।
छत्तीसगढ़ी और उसके साथ सहधर्मी भाषाओं को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से जोगी शासनकाल में छत्तीसगढ़ी भाषा परिषद का गठन किया गया था । जिसका मात्र 3 माह की अल्पायु में ही गला घोंट दिया गया । ऐसे राजकीय पहलों की मिसाल के बाद सरकारी स्तर पर भाषाओं के उन्नयन कार्य को लेकर बुद्धिजीवियों, भाषाविदों को चिंतित न होकर व्यक्तिगत प्रयास जारी रखना ही श्रेयस्कर होगा । फिलहाल बहस में इतना ही पर इत्यलम् नहीं ।
(लेखक जनसंपर्क विशेषज्ञ एवं आरएनएस संपादक के हैं )


मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया - 5


भाषाओं की हत्या की वैचारिकता सरासर तानाशाही


डॉ. राजेन्द्र सोनी


सीमा में मरने वाला वीर सिपाही जब शहीद होता है तो वह अपनी जन्म-भूमि, माँ को याद करता है और वह भी अपनी मातृभाषा में । कम से कम हमारी अपनी संस्कृति में जन्मदात्री, धरती और भाषा के साथ मनुष्य का संबंध माँ-बेटे का है । यानी इन तीनों को हम माँ कहते हैं । माँ के बाद हम मातृभाषा के माध्यम से हाड़-मांस के लोथड़े से मनुष्य होने का संस्कार पाते हैं । परिवार के बाद हम पड़ोस से भी कोई दूसरी अन्य भाषा सीखते हैं जैसे हिंदी, सिंधी, उड़िया, गुजराती आदि । बहुधा ये भाषायें मित्रता की भाषा सिद्ध होती हैं । उन्हें भी हम मातृभाषा से कमतर नहीं देखते । ये भाषायें एक तरह से घर से बाहर के बीच सेतु का काम करती हैं । स्कूल में हमारा परिचय हिंदी के साथ संस्कृत और अंग्रेजी आदि से होता है । इस आदि वाली सूची में हम ऊर्दू, काश्मीरी, तेलुगु, बंगला, मराठी आदि को देख सकते हैं । हमारे देश में यह सब भूगोल या प्रादेशिकता के आधार पर निर्धारित होता है । भारतीय परिवेश की बात करें तो जब मातृभाषा हमारे लिए कामकाज की भाषा सिद्ध नहीं होती तब हम या तो हिंदी सहित अन्य सांवैधानिक मान्यताप्राप्त भाषा के सहारे रोजगार के अवसर जुटाते हैं या फिर अंग्रेजी की भी शरण में जाकर दो पैसे कमाने का हुनर सीखते हैं । वैसे आज अंग्रेजी ज्ञान के लिए मजबूरी नहीं बल्कि रोजगार के लिए मजबूर बनाने वाली स्थिति में है ।

जब हम अपने राज्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें अपनी मातृभाषा के रूप मे छत्तीसगढ़ी दिखाई देती है । क्योंकि प्रदेश की सर्वाधिक आबादी अपने घर-परिवार में हिंदी में नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ी में कार्य-व्यवहार संपादित करती है । यही भाषा मूल और आम छत्तीसगढ़िया के पास-पड़ोस और गाँव-शहर में संपर्क की भाषा भी है । एक तरह से यह राज्य के आम जीवन में हिंदी से भी ज़्यादा व्यहृत भाषा है । यहाँ हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जब हम छत्तीसगढ़ी कहते हैं तो उसमें छत्तीसगढ़ी के सभी उपप्रकार यानी सादरी, हल्बी, कुडुख, गोंड़ी आदि बोलियाँ भी स्वभाविक तौर पर समादृत हो जाती हैं। कहने का मतलब यही कि ये भाषायें कुछ व्याकरणिक अंतर से छत्तीसगढ़ी परिवार की सदस्या हैं ।

राज्य की बहुसंख्यक लोगों की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया जाना सकारात्मक क़दम है । छत्तीसगढ़ी के उत्थान के लिए उसका अपना पृथक आयोग बनाना भी । और छत्तीसगढ़ी साहित्य अकादमी भी । छत्तीसगढ़ी के उत्थान के लिए हर संघर्ष वांछित है । क्योंकि यह छत्तीसगढ़ियों की अस्मिता की भाषा है । इसी में वह अपनी संपूर्ण और सर्वोच्च अभिव्यक्ति देता है । ठीक उसी तरह जिस तरह हरियाणा में हरियाणवी, महाराष्ट्र में मराठी, पंजाब में पंजाबी, उडिसा में उडिया, बिहार में बिहारी हिंदी या भोजपुरी आदि । ऐसे में छत्तीसगढियों को भी अपनी भाषा छत्तीसगढ़ी में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार क्यों न हो । कम से कम प्राथमिक स्तर पर । क्योंकि छत्तीसगढ़ी फिलहाल अभी सभी आधुनिक विषयों के पाठ्यक्रम की भाषा नहीं बन सकी है । हाँ उसमें हम विपुल साहित्य ज़रूर रच चुके हैं । किन्तु अन्य साहित्येत्तर विषयों की किताबें रचना अभी शेष है जो किसी भी भाषा मे उच्चतर पाठ्यक्रम के लिए अनिवार्य शर्त है । कदाचित भाषा अकादमी और साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यही राज्य सरकार का उद्देश्य है और जनता का भी कि हम अपनी भाषा को भविष्य में इतना सक्षम बनायें कि वह उच्चतर कक्षाओं मे भी शिक्षा का माध्यम बन सके । राजकाज की भाषा बन सके । इस तरह वह कामकाज की भाषा भी बन सके ।

राज्य में जब हम राजकीय दृष्टि से छत्तीसगढ़ी की स्थिति का आंकलन करते हैं तो कह सकते हैं कि सरकारें अभी शिक्षाकर्मी, पटवारी, जैसी तृतीय श्रेणी और भृत्य और फर्राश जैसी चतुर्थ श्रेणी की नौकरी में छत्तीसगढ़ी भाषा की जानकारी की शर्त लागू की है । शिक्षा का माध्यम नहीं । वर्तमान में राज्य की सभी बड़ी नौकरियों जिसमें शासकीय और कंपनियों की नौकरियाँ सम्मिलित हैं में चयन की शर्त छत्तीसगढ़ी नहीं बन सकी है । इन नौकरियों में कभी भी छत्तीसगढ़ी भाषा के जानकारों को प्राथमिकता के स्पष्ट दर्शन नहीं हुए हैं । इसके पीछे का सच जो भी हो एक महत्वपूर्ण सच यह भी है कि ये कार्य छत्तीसगढ़ी में नहीं बल्कि हिंदी और अंग्रेजी में होते हैं चाहे वह केंद्र शासन का कार्यालय हो या राज्य सरकार का या फिर किसी कंपनी-फैक्टरी का । यदि कोई छत्तीसगढ़िया बच्चा किसी विदेशी कंपनी में रोजगार चाहता है तो उसकी अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी वहाँ रोजगार नहीं दिला सकती । तब आप या हम उसे कैसे रोक सकते हैं कि वह उस भाषा मे अध्ययन-शिक्षण न करे जो उसके भविष्य की या विकास की भाषा होगी । क्योंकि हम इतने सक्षम तो हैं नहीं कि राज्य के सभी प्रतिभाओं को राज्य की भाषा में शिक्षित करके राज्य के भीतर ही रोजगार दिला सकें । और ऐसी मंशा भी हमारे नेताओं में फिलहाल नहीं दिखाई देती । ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के लक्ष्य पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए । ताकि वह ज्यादा से ज्यादा युवाओं के लिए आत्मसम्मान के साथ रोजगार की भाषा भी बन सके । उसकी संस्कृति की भी रक्षा होती रहे ।

हम सभी जानते हैं कि हिंदी के साथ छत्तीसगढ़ी का कोई विरोध नहीं है । उसका संस्कृत से विरोध का तो प्रश्न ही नहीं उठता । वर्तमान में संस्कृत शिक्षा को अनिवार्य करने से छत्तीसगढ़ी के पिछड़ जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। संस्कृत का अनादर करना भाषाओं की जननी का भी अनादर जैसा है । ठीक इसी तरह राज्य के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की लुप्त प्रायः भाषाओं को संरक्षण देने में भी कोई बुराई नहीं है । क्योंकि वे छत्तीसगढ़ी को ही पुष्ट करती हैं । सारांश यही कि हमारे लिए छत्तीसगढ़ी-प्रेम सर्वोचित है किन्तु अन्य भाषाओं की हत्या की वैचारिकता सरासर तानाशाही । और इस रूप में किसी को भी ऐसी छूट राज्य में मिलनी नहीं चाहिए, चाहे वह कितना बड़ा शक्तिशाली क्यों ना हो ।
(लेखक, छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं )

मेरे आलेख की प्रतिक्रिया - 4

किसी भाषा को दरकिनार करने का मतलब
डॉ. जे. आर. सोनी
प्रत्येक भाषा की एक गरिमा होती है । उसकी निजी सुंदरता उसी में खुलती है । उसके अनुयायी उसी भाषा में स्वयं को पूरी तरह अभिव्यक्त कर पाते हैं । मातृभाषा केवल अभिव्यक्ति ही नहीं वह उस उसके बोलने वालों की अस्मिता भी है जिसका संपूर्ण विश्वास सिर्फ़ उसी भाषा में संभव होता है । ऐसी स्थिति में किसी भाषा को दरकिनार करने का मतलब उस भाषा-भाषियों को भी दरकिनार करना है । शायद इसीलिए लुप्तप्रायः भाषाओं को भी बचाने पर सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी और समाज सहमत हैं । छोटी-से-छोटी भाषाओं के प्रति लापरवाही बरतना एक तरह से सांस्कृतिक खजानों को लूटते देखना है

जब हम छत्तीसगढ़ की भाषाओं (बोलियों सहित) की बात करते हैं तो हमारे सम्मुख कई प्रकार की भाषायें उपस्थित होती हैं । छत्तीसगढी राज्य की प्रमुख भाषा है । राज्य की 82.56 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा शहरी क्षेत्रों में केवल 17 प्रतिशत लोग रहते हैं । यह निर्विवाद सत्य है कि छत्तीसगढ का अधिकतर जीवन छत्तीसगढी के सहारे गतिमान है । यह अलग बात है कि गिने-चुने शहरों के कार्य-व्यापार राष्ट्रभाषा हिन्दी व उर्दू, पंजाबी, उडिया, मराठी, गुजराती, बाँग्ला, तेलुगु, सिन्धी आदि भाषा में होती हैं किन्तु इनमें से अधिकांश छत्तीसगढ़ी समझते भी हैं और कुछ-कुछ बोलते भी हैं । आदिवासी क्षेत्रों में हलबी, भतरी, मुरिया, माडिया, पहाडी कोरवा, उराँव, सरगुजिया आदि बोलियो के सहारे ही संपर्क होता है । इस सबके बावजूद छत्तीसगढी ही ऐसी भाषा है जो समूचे राज्य में बोली, व समझी जाती है । एक तरह से यह छत्तीसगढ राज्य की संपर्क भाषा है । वस्तुतः छत्तीसगढ राज्य के नामकरण के पीछे उसकी भाषिक विशेषता भी है । सभी तरफ से देखें तो वह छत्तीसगढ़िया होने का विशिष्ट प्रमाण भी है। कदाचित् इसीलिए छत्तीसगढ़ी को दलगत भावना से उठकर सभी ने श्रद्धा से देखा । जहाँ कांग्रेस ने उसे राजभाषा बनाने की पहल की तो भाजपा ने उस संकल्प को अमली जामा पहनाने की शुरूआत की है । जिसके परिणाम में छत्तीसगढ़ी भाषा आयोग का कागज़ी अवतरण हो चुका है और निकट भविष्य में वह हम सबको दिखने लगेगा ।

यदि यही कारण है कि इन दिनों राज्य में छत्तीसगढ़ी के सबसे बड़े ज्ञाता और भाग्यविधाता होने की होड़ मची हुई है । कोई अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता का सहारा लेकर इस आयोग में प्रवेश करना चाहता है तो कोई मीडिया का । कल तक जो छत्तीसगढ़ी के सच्चे हितैषी थे वही आज एक दूसरे के ख़िलाफ कीचड़ उछालने की कवायद करते देखे जा सकते हैं । ऐसे समय यदि छत्तीसगढ़ी के संवर्धन के लिए संस्कृत और अन्य आदिवासी-भाषाओं के खिलाफ कोई कुछ भी कहता है तो जनमानस साफ-साफ समझ सकता है कि असली मुद्दा अन्य भाषाओं के खिलाफ नहीं बल्कि स्वार्थ जनित है । यह पदलोलुपता का कारण भी हो सकता है । यहाँ यह भी कहना अप्रांसगिक नहीं होगा कि इस आयोग में मात्र छत्तीसगढ़ी साहित्य लेखन के आधार पर नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ी भाषा-मर्मज्ञता, भाषा वैज्ञानिक दक्षता के आधार पर ही प्रतिभासंपन्न एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्वों मे सक्षम आयुवाले व्यक्तित्वों पर विचार किया जाय । मात्र आयुगत वरिष्ठता एवं दलगत निष्ठा से किसी प्रशासनिक उद्देश्यों की औपचारिक पूर्ति तो हो सकती है पर भाषा जैसे संवेदन प्रकरण का उत्थान वास्तविक योग्यता से ही संभव है और इसमें सतर्कता अंत्यंत ज़रूरी है । हमें नहीं भूलना चाहिए यह साहित्य अकादमी नहीं भाषा अकादमी है ।


छत्तीसगढ़ी के हित में लड़ना हम सभी छत्तीसगढ़ियों के लिए लाजिमी है । और कोई भी ऐसा करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं । बुराई की जड़ तो वहाँ है जब हम ऐसा किसी पद, भूमिका, या निजी महत्वाकांक्षा के लिए करते हैं । हम यह कैसे कह सकते हैं कि संस्कृत को पढ़ाई से हटा दें । उसमें हमारे भारतीय(छत्तीसगढ़िया भी पहले भारतीय है) होने का जीवंत दस्तावेज है । वह भारतीयता की भी निशानी है । उसमें हमारे जीवन-दर्शन, संस्कृति का मूल है । भले ही वह लुप्त प्रायः है पर वह आज भी हर संकट में हमारा सर्वोच्च विश्वसनीय संदर्भ भी है । आज उसे जनता की आंकाक्षानुरूप संरक्षण देने की सच्ची पहल की ज़रूरत है न कि उसे छत्तीसगढ़ी जैसी मयारुक भाषा की दीवानगी में आलोचना का शिकार बनाने की । पर हमें संस्कृत के पाठों को भी नये संदर्भों, परिप्रेक्ष्यों में समझना होगा क्योंकि वह समाज में वर्चस्व की शिक्षा न दे बल्कि दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के प्रति भी समान स्नेह का वातावरण दे सके, राज्य सहित देश में भी जिसकी आज महती आवश्यकता है । तभी सर्वे भवन्तु सुखिनः का नारा फलित होगा । हम यह भी कैसे कह सकते हैं कि राज्य की अन्य भाषाओं को खतम कर दें या उनके लिए हो रहे कार्यों को बंद कर दें ? ऐसा कहना और करना दोनों तानाशाही होगा ।


उचित तो यही होगा कि अपने मित्र भाषाओं के प्रति भी सहिष्णुता का परिचय दें और यदि राज्य में हलबी, भथरी, सादरी आदि भाषाओं में प्राथमिक स्कूल के बच्चों की शिक्षा की पहल की जाती है तो उसे समर्थन दें क्योंकि वह छत्तीसगढ़ी से बाहर है ही नहीं । वैसे भी कक्षा पहली से लेकर पाँचवी तक व्यवहारिक तौर पर राज्य भर में स्थानीय भाषा में ही हमारे गुरूजन शिक्षा देते रहे हैं । पर छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई-लिखाई के स्थायी मुद्दों को भी याद करना होगा । अंग्रेजी, आधुनिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी की भाषा है, उसे हम मातृभाषा की तरह न अपनाये पर उसे कामकाज की भाषा बनाने मे हमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि संस्कृति के साथ साथ रोटी भी चाहिए मनुष्य को ।
(लेखक गुरुघासीदास साहित्य अकादमी के महासचिव हैं)

अनुदारता छत्तीसगढ़ की परंपरा नहीं

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-3

अनुदारता छत्तीसगढ़ की परंपरा नहीं
गिरीश पंकज
इन दिनों छत्तीसगढ़ में सामाजिक समरसता और भाषाई उदारता के विरोध में जो वातावरण बनता दीख रहा है, उसे लेकर सद्भावना को जीवन का पाथेय मानने लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है। किसी भाषा या जाति को बड़ा या छोटा साबित करके कुछ लोग समाज में नफरत की विष-बेल तो पनपा सकते हैं, मोहब्बत का पैगाम नहीं दे सकते। हरिभूमि में दो जून को प्रकाशित संजय द्विवेदी का लेख ऐसी ही अनुदार सोच के विरुध्द एक जरूरी हस्तक्षेप है। सचमुच यह विचार अपने आप में कितना खतरनाक है, कि हम एक रौ में बहते हुए सारी भाषाओं की जननी संस्कृत का ही विरोध शुरू कर दें। संस्कृत के विरोध में सदियों से एक वातावरण बनाया जाता रहा है। आज संस्कृत के सामने अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसे दौर में हम भारतीय लोग ही अगर संस्कृत शिक्षा के विरुध्द बयान देंगे, तो इस महान भाषा का क्या हश्र होगा? अंग्रेजी का विरोध तो समझ में आता है, लेकिन संस्कृत का विरोध करके हम आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? हम अपनी भाषाई अस्मिता के प्रति इतने कट्टर भी न हो जाएं, कि हमें अपने आसपास कुछ और नजर ही न आए।


छत्तीसगढ़ी की बात करते हुए हम सरगुजिया, हल्बी, लरिया सदरी, खल्टाही जैसी सहायक बोलियों को तो न भूल जाएं। ये क्या बात हुई कि केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई हो, यहां की दूसरी बोलियों में नहीं। अन्य महत्वपूर्ण बोलियों ने क्या बिगाड़ा है? उन बोलियों में तो साहित्य लिखा जा रहा है। वाचिक में भी है, और लिखित में भी है। जब आप केवल छत्तीसगढ़ी की बात करेंगे और दूसरी बोलियों का विरोध करेंगे, तो यह स्वाभाविक है, कि अन्य बोलियों के बोलने वाले भी उठ खड़े होंगे। इस तरह धीरे-धीरे भाषाई वैमनस्य पनपेगा और शांत छत्तीसगढ अशांत होता चला जाएगा। छत्तीसगढ में ऐसा कभी नहीं हुआ। इसलिए बेहतर है कि हम छत्तीसगढ़ की तमाम बोलियों को साथ ले कर चलें और जिस इलाके में जो बोलियां प्रमुख हैं, उस इलाके की प्राथमिक शिक्षा वहां प्रचलित बोलियों में भी दी जाए। इससे वे बोलियां भी समृध्द होंगी और आपसी प्रेम व्यवहार भी बना रहेगा।

इधर छत्तीसगढ़ के बरक्स संस्कृत को रखने की कोशिश भी खेदजनक है। यह कहना कि प्राथमिक शिक्षा संस्कृत में नहीं दी जानी चाहिए, एक तरह का परंपरा विरोधी बयान है। संस्कृत एक भाषा ही नहीं है, वह हमारी आस्था, परंपरा और अस्मिता की प्रतीक भी है। आक्रांताओं के कारण संस्कृत धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि वह अब हमारे काम की नहीं रही। आखिर वह हमारी आदि माँ है। अगर हम लोग ही उससे मुंह मोड़ने की कोशिश करेंगे, तो हम प्रकारांतर से अंग्रेजी को ही मंडित करने की नादानी करेंगे। आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में अंग्रेजी के विरुध्द आंदोलन शुरू हों, लेकिन छत्तीसगढ़ में कुछ लोग संस्कृत के विरुध्द वातावरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं। संस्कृत ही नहीं, ये लोग दूसरी बोलियों के विरुध्द भी हैं। आखिर यह भाषाई कट्टरता समाज को कहां ले जाएगी?

हम छत्तीसगढ़ी की वकालत करें यहां तक भी ठीक है, लेकिन हम छत्तीसगढ़ की दूसरी बोलियों के विरोध में भी खड़े दिखाई दें, तो यह एक तरह से आपसी अलगाव की ही शुरूआत होगी। आखिर जो अनुदारता महाराष्ट्र में दिखाई पड़ रही है, वही अनुदारता अगर छत्तीसगढ़ में नजर आएगी, तो सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया जैसे महान नारे का क्या होगा? छत्तीसगढ़ क़ी उदारता विख्यात है। यह उदारता बनी रहे। यही इसकी पहचान है। नफरत यहां की मुख्यधारा कभी नहीं रही। लेकिन कुछ लोग जब यहां के सीधे-सादे लोगों को गुमराह करने की कोशिश करते रहते हैं, तब पीड़ा होती है।

छत्तीसगढ़ी बहता नीर :- छत्तीसगढ़ी भषा किसी के रोकने से नहीं रूकने वाली। वह भी बहता नीर है। आगे बढ़ती जाएगी। राजभाषा तो वह बन ही गई है। छत्तीसगढ़ के स्टेशनों में भी वह गूंजने लगी है। छत्तीसगढ़ी में उद्धोषणाएं सुन कर मन प्रफुल्लित हो जाता है। देश भर के लोग छत्तीसगढ़ आते-जाते रहते हैं, यहां से गुजरते हैं। वे जब छत्तीसगढ़ी में उद्धोषणाएं सुनते हैं, तो वे अपने साथ यहां के शब्द भी ले जाते हैं। यहां की मिठास ले जाते हैं। यह बताते हुए मुङो हार्दिक प्रसन्नता हो रही है, कि अब छत्तीसगढी साहित्य अकादमी, दिल्ली तक जा पहुंची है। पिछले दिनों अकादमी के हिंदी बोर्ड की बैठक में छत्तीसगढ़ से इकलौता सदस्य होने के नाते मैंने सबसे पहले यही प्रस्ताव रखा कि छत्तीसगढ़ी भाषा पर परिचयात्मक पुस्तक प्रकाशित होना चाहिए क्योंकि छत्तीसगढ़ी अब छत्तीसगढ राज्य की राजभाषा हो गई है। अकादेमी के सभी सदस्यों ने मेरे सुझाव पर अपनी मुहर लगा दी। बहुत जल्दी अकादेमी की ओर से छत्तीसगढ़ी पर पुस्तक प्रकाशित हो जाएगी और देश छत्तीसगढ़ी भाषा के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त कर सकेगा। कल को साहित्य अकादेमी द्वारा छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए पुरस्कार की शुरुआत भी हो सकती है। जैसे इस वक्त मैथिली आदि पर पुरस्कार दिए जाते हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रकाशन भी हो सकता है। यहां यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है, कि किसी भाषा को कोई रोक नहीं सकता। मैं छत्तीसगढ़ का हूं, इसलिए मेरा फर्ज है कि मैं जहां कहीं भी जाऊं, छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढी क़े पक्ष में खड़ा होऊं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं दूसरी भाषाओं के विरोध में भी अपने तर्क दूं, और सामाजिक समरसता को आहत करने की कोशिश करूं।

हर भाषा अपनी जगह बना ही लेती है। शुरुआत धीरे-धीरे होती है। लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यजनक सोच है कि हम केवल छत्तीसगढ़ी की बात करें और संस्कृत का विरोध करें। संस्कृत के विरोध की कल्पना करना भी हमें अभारतीयता और असहिष्णुता की ओर ले जाता है। कोई अंग्रेज या कोई विदेशी संस्कृत विरोध करे तो बात समझ में आती है, लेकिन एक भारतीय चिंतक ही संस्कृत भाषा के विरोध में खड़ा नजर आए तो इस पर केवल दुख ही व्यक्त किया जा सकता है।

हम अपनी भाषाई कट्टरता में आपा खोने लगते हैं। जैसा महाराष्ट्र में राज ठाकरे सरीखे लोग कर रहे हैं। सबै भूमि गोपाल की है। महाराष्ट्र केवल मराठियों का ही नहीं है, उसके निर्माण में दूसरे प्रांतों से आए लोगों का भी योगदान है। पूरा देश हमारा घर है। हम कहीं भी जा कर रह सकते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में बाहर से आई अनेक संस्कृतियां समन्वय के साथ रह रही हैं। छत्तीसगढ़ में सरगुजा से लेकर बस्तर तक और बस्तर से जशपुर तक, अनेक बोलियां प्रचलित हैं। इन सबकी बड़ी बहिन है छत्तीसगढ़ी, इसलिए उसे सबको साथ लेकर चलना ही चाहिए। यह कहना कि छत्तीसगढ़ में केवल छत्तीसगढ़ी में ही पढ़ाई की जाए, संस्कृत नहीं, अन्य बोलियां भी नहीं, तो एक तरह की वैचारिक तानाशाही है, जिस ओर संजय द्विवेदी ने अपने लेख में इशारा किया है। यह सकारात्मक सोच है। अगर कहीं कोई अव्यवहारिक सोच पनपती है, तो उसका विरोध होना ही चाहिए। लेकिन यह विरोध मतभेद के स्तर का हो, हम तर्क दें। हमारे मतभेद मनभेद में तब्दील न हों। वैसे भी देववाणी कही जाने वाली संस्कृत भाषा का विरोध हमारी संस्कृति नहीं हो सकती। हम संस्कृत ही क्यों, किसी भी भाषा और बोली के विरुध्द खड़े न दिखाई दें। छत्तीसगढ़ में जितनी भाषा-बोलियां हैं, उनको भी जीने का हक है। छत्तीसगढ़ में सबका उन्नयन हो, सब विकास करें। सब सुखी रहें। संस्कृत भी पनपे, और छोटी-छोटी बोलियां भी। ऐसी हो हमारी सोच। यही सोच सामाजिक समरसता की श्रीवृध्दि में सहायक होगी।
(लेखक साहित्य अकादमी के सदस्य एवं छत्तीसगढ़ के प्रख्यात साहित्यकार हैं)