गुरुवार, 19 जून 2008

मेरे आलेख पर प्रतिक्रिया-15

छत्तीसगढ़ी : लोकभाषा से राजभाषा तक

कनक तिवारी

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण से कुछ मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां और मुद्दे उभर कर आए हैं। भाषा को लेकर कुछ महत्वपूर्ण मांगे और स्थापनाएं की जा रही हैं। मसलन छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी को तरजीह देनी होगी। इन स्थापनाओं की पड़ताल की जरूरत है। ये मोटे तौर पर इस तरह हैं:-(1) छत्तीसगढ़ का प्रशासन छत्तीसगढ़ी में चलाया जाए। (2) छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की भाषा घोषित किया जए। (3) छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार जिनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी रही छत्तीसगढ़ी में कुछ नहीं लिखने के कारण छत्तीसगढ़ी की उपेक्षा के लिए शासन और प्रशासन से अधिक दोषी हैं। (4) छत्तीसगढ़ी लेखकों को विशेष सम्मान प्राप्त होना चाहिए। (5) छत्तीसगढ़ी को मानक भाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए।

भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार छत्तीसगढ़ी हिन्दी का ही स्वरूप है। वह अवधी तथा बघेलखंडी से काफी मिलती है। प्रसिध्द विद्वान डॉ. ग्रियर्सन ने कहा है 'यदि कोई छत्तीसगढ़ी अवध में जाकर रहे तो वह एक ही सप्ताह में वहां की बोली इस तरह बोलने लगेगा मानो वही उसकी मातृभाषा हो। इतिहासकारों के अनुसार इसका मुख्य कारण हैहयवंशियों का राज्य भी हो सकता है, क्योंकि वह अवधी के इलाके के ही रहने वाले थे। छत्तीसगढ़ी का व्याकरण डॉ. हीरालाल ने लिखा था, जिसका अनुवाद डॉ. ग्रियर्सन ने किया था। उसका संशोधित संस्करण वर्षों पूर्व लोचन प्रसाद पांडेय के संपादन में प्रकाशित हुआ है। अनुच्छेद 351 ये बौध्दिक स्थापनाएं करता है। 1. हिंदी का प्रसार और विकास संघ का कर्तव्य है। 2. हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है। 3. हिंदी की (मौजूदा) प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी, अन्य भारतीय (प्रादेशिक) भाषाओं और मुख्यतया संस्कृत शब्द, रूप, शैली आदि ग्रहण करते हुए हिंदी को समृध्द करना है। इस संवेदनशील बिन्दु पर आकर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के सवाल पर विचार हो सकता है। यह बेहद दुखद और आश्चर्यजनक है कि संविधान हिंदी की अभिवृध्दि के लिए हिंदी रूपों वाली लोकबोलियों जैसे बृज भाषा, अवधी, बैसवारी, मैथिल, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देलखंडी, बघेलखंडी, हरियाणवी आदि पर निर्भर नहीं रहना चाहता।

यदि छत्तीसगढ़ी को भी राजनीति के सहारे शासकीय कामकाज की भाषा बना दिया गया तो वह अपनी जनसंस्कृति की केंचुल छोड़ देगी। छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली के इतिहास, भूगोल, ध्वनिशास्त्र और प्रेषणीयता को लेकर शोध प्रबंध लिखना संभव हो सकता है लेकिन इस भाषा या बोली को रोजमर्रे के कामकाज में गले उतारना सरल नहीं है। संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मूलभूत अधिकारों का तीसरा परिच्छेद पेंचीदगियां पैदा करता है। अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता उत्पन्न करने वाला द्विगु समास है। अनुच्छेद 16 भाषायी विषमता रहते हुए भी लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता देता है। युवा पीढ़ी का पूरा भविष्य इसी अनुच्छेद के विश्वविद्यालय में है। मंदिरों में इबादत करने के सेवानिवृत्त पीढ़ी के आग्रह की तरह छत्तीसगढ़ी का झंडा उन हाथों में ज्यादा है जिनका कोई भविष्य नहीं है। भाषायी आंदोलन बेकारी भत्ता से लेकर पेंशन की अदायगी तक का अर्थशास्त्र भी होते हैं-यह बात हमने दक्षिण हिंदी विरोधी आंदोलनों के उत्तर में देखी है। अनुच्छेद 19 के वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के छाते के नीचे खड़े होकर लोग अपनी रुचि की भाषा के अखबार और किताबें पढ़ सकते हैं। बहरहाल जब तक छत्तीसगढ़ी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं होती तब तक किसी न्यायालय को अधिकार नहीं है कि वह किसी गवाह तक का बयान छत्तीसगढ़ी में दर्ज करे। न्यायिक सेवा में गैर छत्तीसगढ़ी न्यायाधीश भी हैं। वे न्यायालय की भाषा अर्थात हिंदी और अंग्रेजी में ही काम करने के लिए संविधान द्वारा संरक्षित हैं। यही स्थिति प्रशासनिक सेवा की है। वैसे भी केंद्रीय हिन्दुस्तान के विद्यार्थी सर्वोच्च नौकरशाही में ज्यादा नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालय क्षेत्रीय भाषा में अध्यापन करने का मौलिक अधिकार नहीं रखते। उच्चतम न्यायालय ने 1963 में ही अपने फैसले में गुजरात विश्वविद्यालय में केवल गुजराती माध्यम में शिक्षा देने की कोशिश को नाकाम कर दिया है। शिक्षा पाने के अनुच्छेद 41 के नीति निदेशक को संविधान के हृदय स्थल अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अधिकार माना गया है। ऐसी स्थिति में सरकार को फिलहाल इस बात का अधिकार नहीं है कि वह छत्तीसगढ़ी को समग्र शिक्षा का माध्यम बनाए। यदि कुछ विद्यार्थी छत्तीसगढी भाषा और साहित्य पढ़ भी लेंगे तो हम उनकी सफलता की नदियों और ङाीलों के बदले तालाब रच देंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान, तकनीक, डॉक्टरी, समाजशास्त्र, गणित और कम्प्यूटर जैसे ढेरों ऐसे विषय हैं जिनमें सफलता के लिए छत्तीसगढ़ के विद्यार्थियों की मदद करनी होगी, उनकी दुनिया को संकुचित करने के लिए नहीं।

यह तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली को लेकर जितने भी शोध विगत वर्षों में हुए हैं, उनमें पहल, परिणाम या पथ प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़वासियों के खाते में नहीं है। यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य रहा है कि यहां के विश्वविद्यालयों में बार-बार भाषा-विज्ञानी कुलपतियों की नियुक्तियां हुई है। डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. धीरेंद्र वर्मा और डॉ. उदयनारायण तिवारी जैसे भाषा विज्ञानियों ने मध्यप्रदेश की भाषायी स्थिति पर काम करने के लिए प्रेरणाएं दी हैं। अकेले डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा सभी कट्टर तथा रूढ़ छत्तीसगढ़ी-समर्थक भाषा विद्वानों के बराबर होंगे, जिनकी निस्पृह, खामोश और अनवरत छत्तीसगढ़ सेवा का मूल्यांकन कहां किया गया है। छत्तीसगढ़ी बोली को हिंदी की जगह लेने के निजी आग्रह बौध्दिक-मुद्रा की ठसक लिए हुए हैं। छत्तीसगढ़ी की तुलना दक्षिण की भाषाओं या मराठी, बंगाली वगैरह से की जा रही है। समाचार पत्रों में जगह का आरक्षण मांगा जा रहा है।

डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा ने छत्तीसगढ़ को बीसियों छात्रों को डाक्टरेट की डिग्रियां दिलवाई हैं। एक वीतरागी की तरह जीवन जीने सेवानिवृत्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ में ही बस गए हैं। कथित परदेश नहीं लौट गए हैं। वैसे मानक छत्तीसगढ़ी बोली का अब तक स्थिरीकरण कहां हुआ है। बस्तर, खैरागढ़ और सरगुजा की बोली पूरी तौर पर एक जैसी कहां है। बकौल भगवान सिंह वर्मा इसमें कोई शक नहीं कि छत्तीसगढ़ी बेहद सरस, प्रवाहमयी और लचीली होने के कारण ब्रज या बैसवारी की तरह मधुर है। यह तीन चौथाई छत्तीसगढ़ी आबादी द्वारा बोली भी जाती है। इन सभी विषयों और समस्याओं का विस्तार विद्वानों की पुस्तकों मे है, जिनमें भोलानाथ तिवारी, केएन तिवारी, हीरालाल शुक्ल, कांतिकुमार वगैरह का भी सरसरी तौर पर उल्लेख किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया है कि उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। संविधान संशोधन के बगैर यह नहीं हो सकता। हिंदी की तमाम अन्य उपभाषाएं या बोलियां प्रतीक्षा सूची में पचास वर्षों से लामबंद हैं। इक्कीसवीं सदी में छत्तीसगढ़ी भी पीछे आकर खड़ी हो गई है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने पहली हिंदी से अंग्रेजी की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया। एक तीन है तो दूसरी छह अर्थात दोनों मिलाकर छत्तीस। संविधान में अनुच्छेद 350 एक और दिलचस्प तथा नामालूम सा प्रावधान है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ की सरकार को प्रत्येक व्यक्ति को हिंदी में अभ्यावेदन देने का अधिकार है। छत्तीसगढ़ सरकार को चाहिए कि वह छत्तीसगढ़ी को हिंदी की उपभाषा करार देते हुए लोगों को यह छूट दे दे कि वे अपने अभ्यावेदन छत्तीसगढ़ी में करना शुरू कर दें। उन्हें उत्तर भी छत्तीसगढ़ी में ही देने शुरू किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ी व्यथा, अन्याय, शोषण और हीनता के कोलाज की भाषा हैं। हिन्दी छत्तीसगढ़ी से सहानुभूति, सहकार और आश्वासन की। और अंग्रेजी अन्तत: की जिसे शब्दकोश में अन्याय कहा जाता है। संविधान ने शिक्षा का मूलभूत अधिकार चौदह वर्ष तक प्रत्येक नागरिक को दिया है। भाषा का अलबत्ता वैकल्पिक अधिकार दिया है।

संविधान सभा में छत्तीसगढ़ से रविशंकर शुक्ल, घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल सिंह, किशोरीमोहन त्रिपाठी, गुरू आगमदास और रतनलाल मालवीय वगैरह सदस्य थे। इनमें से सबसे ज्यादा घनश्याम सिंह गुप्त से यह उम्मीद की जा सकती थी कि वे संविधान सभा में छत्तीसगढ़ी के समर्थन में कुछ कहेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। अलबत्ता वे प्रबल हिंदी समर्थक के रूप में उभरे। छत्तीसगढ़ी के लेखक सभी श्रोष्ठ साहित्य का अनुवाद करने की पहल क्यों नहीं करते जिसमें न केवल ग्रामीण पाठक वर्ग परिचित हो बल्कि रचनाकर्मी भी छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्तियों को समृध्द कर सकें। संविधान में उन प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है जिनकी उपस्थिति लोक जीवन में इस तरह रही है कि उनके बिना संबंधित प्रदेशों में प्रशासन नहीं चलाया जा सकता। इनमें हिंदी की उपभाषाएं शामिल नहीं हैं। इस भाषायी स्थिति को सामासिक आदतों के सहकार के साथ स्वीकार कर लिया गया है। संविधान के लागू होने के बाद सिंधी, कोकणी, और मैथिली, नेपाली वगैरह को संविधान के अंतर्गत मान्य भाषाओं का दर्जा दिया गया है। छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या इनसे कम नहीं है। कार्यपालिका तथा न्यायिक प्रशासन जनता के सरोकार हैं, भाषा और बोली के जानकारों के नहीं।

संविधान में संशोधन किए बिना प्रशासन को भाषा से हटकर बोली में रूपांतरण करना संभव नहीं है। शीर्ष स्तर पर आज भी अंग्रेजी न्यायिक और कार्यपालिका प्रशासन की भाषा है। छत्तीसगढ़ी में अंग्रेजी में अनुवाद किए बिना सर्वोच्च स्तर पर इस क्षेत्र की निजी और सामूहिक समस्याएं कैसे पहुंचेगी। छत्तीसगढ़ी की तरह हिंदी की उपरोक्त सहोदराएं पचास साठ वर्षों से संविधान पुत्री घोषित होने के लिए प्रतीक्षारत हैं। इन सब संवैधानिक और अनुसंधानिक आवश्यकताओं को पूरा किए बिना छत्तीसगढ़ी को नए प्रदेश की राजभाषा घोषित करना कैसे मुमकिन किया जा सकता है।
(लेखक प्रख्यात अधिवक्ता एवं विचारक हैं)

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