मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

प्रभाष जोशी स्मृति अंक हेतु लेख आमंत्रित

प्रभाष जोशी होने के मायने

त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रभाष जोशी स्मृति अंक का प्रकाशन किया जा रहा है। हिंदी पत्रकारिता को पहचान देने वालों में श्री प्रभाष जोशी सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। वे पत्रकारिता में प्रयोगधर्मिता एवं सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता के लिए जीवनभर प्रयत्नशील रहे। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की अग्रणी त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रभाष जोशी के योगदान का मूल्यांकन करने का प्रयत्न स्मृति अंक में किया जा रहा है। इस अंक के लिए लेखकगण अपने आलेख, विश्लेषण, यादें, विशेष पत्र और फोटोग्राफ्स भेज सकते हैं। सामग्री भेजने की अंतिम तारीख है 30 दिसंबर 2009। लेखों को इस पते पर भेजिएः संपादक, मीडिया विमर्श, 428, रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 (मध्यप्रदेश)। आप अपने लेख mediavimarsh@gmail.com पर मेल भी कर सकते हैं। लेखक अपने बारे में पूरा परिचय जरूर लिखें। मीडिया विमर्श का वेब संस्करण पढ़ने के लिए www.mediavimarsh.com पर विजिट कीजिए।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

अराजक राजनीति से जूझने का समय

लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर पाबंदी जरूरी


मुंबई में एक टीवी चैनल के कार्यालय पर शिवसेना का हमला एक ऐसी घटना है जिसकी निंदा से आगे बढ़कर इस सिलसिले को रोकने के लिए पहल करने की जरूरत है। शिवसेना ने कुछ नया नहीं किया। वही किया जो वे अरसे से करते आ रहे हैं। टीवी चैनलों ने सारा कुछ इतना तुरंत और जीवंत बना दिया है कि ये चीजें अब दर्ज होने लगी हैं। शिवसेना के रास्ते पर ही चलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके मदांध नेता राज ठाकरे अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी कि बाजार में अब दो गुंडे हैं।

शिवसेना हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों का डीएनए एक है। दोनों लोकतंत्र और संविधान को न मानने वाले दल हैं। हमारे लोकतंत्र की खामियों का फायदा उठाकर वे विधानसभा और संसद तक भले पहुंच जाएं पर वे कार्य और व्यवहार दोनो से अलोकतांत्रिक हैं। बाल ठाकरे के लोग सालों से पत्रकारों और अपने विरोधी विचारों से इसी तरह निपटते आए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में भरोसा होता तो ये पार्टी या राजनीतिक दल बनाते, सेना नहीं। सही मायने में ये लोकतंत्र में बाहुबल और शक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए आए हैं। इन्हें तर्क, संवाद और बातचीत में आस्था नहीं है। ये तो शक्ति के आराधक हैं जो शिवाजी महाराज का नाम भी लेते हैं और महिलाओं पर भी हाथ उठाने से इन्हें गुरेज नहीं है। मराठा संस्कृति को आज ये जैसी पहचान दे रहे हैं उससे वह कलंकित ही हो रही है। सही मायने में यह हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलता है कि हम ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने में खुद को विफल पा रहे हैं। शिवसेना सही मायने में एक ऐसा दल है जिसके पास कोई वैचारिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है। वह शिवाजी महाराज का नाम लेकर एक भावुक अपील पैदा करने की कोशिश तो करता है पर शिवाजी के आर्दशों से उसका कोई लेना देना नहीं है। आम मजदूर और मेहनतकश आदमी के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने वाली शिवसेना और मनसे जैसे दल पूंजीपतियों से हफ्ता वसूली करके अपनी राजनीति को आधार देते रहे हैं। पैसा वसूली और भयादोहन के आधार पर अपनी राजनीति को चलाने वाले ये लोग बेहद डरे और धबराए हुए लोग हैं इसीलिए संवाद के बजाए ये हमेशा जोर आजमाइश पर उतर आते हैं।

कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों की विफलता यही है कि वे ऐसी अराजक क्षेत्रीय ताकत के साथ खड़े नजर आते हैं। भाजपा जहां शिवसेना की साझीदार है वहीं कांग्रेस के ऊपर शिवसेना और अब मनसे को फलने- फूलने के अवसर देने के आरोप हैं। कभी कांग्रेस की राजनीति में कद्दावर रहे तमाम नेताओं के साथ शिवसेना प्रमुख के रिश्तों के चलते ही उसे महाराष्ट्र की राजनीति में बढ़त मिली। आज आरोप यह है कि कांग्रेस की सरकार के ढीलेपन के चलते ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपनी गुंडागर्दी जारी रखे हुए है। उनकी हिम्मत यह है कि वे विधानसभा में भी हाथापाई कर रहे हैं और विधायकों को पत्र लिखकर धमका भी रहे हैं। अब मनसे स्टेट बैंक आफ इंडिया के अफसरों और उसके परीक्षार्थियों को धमकाने का काम कर रहा है। राज्य की यह कमजोरी ही गांवों से लेकर शहर और जंगलों तक एक अशांति का वातावरण बनाने में मदद कर रही है। क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक मचाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं। इन्हें भड़काने वाले लोंगों की जगह क्या जेल में नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोग सही मायनों में इस देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा हैं। उनसे कड़ाई से निपटना हमारे राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी है। पर हमारी सरकारें निरूपाय दिखती हैं। बलवा करने वाले और करवाने वाले दोनों को दंडित करने का साहस हम क्यों नहीं पाल पा रहे हैं। मुंबई जैसा शहर यदि ऐसी अराजकता का केंद्र बना रहा तो हम क्या मुंह लेकर दुनिया के सामने जाएंगें। मुंबई में 26.11.2008 जैसी घटनाएं हो जाती हैं तो हम यह कहते हैं कि पड़ोसी देश ने साजिश की, यह जो सड़कों पर नंगा नाच हमारे अपने लोग ही भारतीय नागरिकों के खिलाफ कर रहे हैं उसका क्या। आस्ट्रेलिया में भारतवंशी छात्रों के उत्पीड़न पर हम रोज चिंता जता रहे हैं, आस्ट्रेलिया की सरकार को लांछित कर रहे हैं। यहां अपने ही देश में प्रतियोगी परिक्षाएं दे रहे छात्रों को लोग मारते हैं तो हम क्या कर पा रहे हैं। सही मायने में भारतीय राज्य अपने नागरिकों की रक्षा और उनके शांतिपूर्ण जीवन-यापन की स्थितियां भी पैदा नहीं कर पा रहा है। कुछ मुट्टी भर लोग कभी शिवसैनिक बनकर, कभी आतंकवादी बनकर, कभी नक्सलवादी बनकर, कभी मनसे कार्यकर्ता बनकर भारतीय जनता पर अत्याचार करते रहेगें और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं।

मीडिया को भी इन स्थितियों के खिलाफ सामने आना होगा। ये सारी चुनौतियां दरअसल हमारे लोकतंत्र के खिलाफ हैं। सो हमें लोकतंत्र और देश को बचाना है तो सारे विवाद भूलकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा जो संवाद के बजाए बाहुबल या बंदूकों से फैसला करना चाहती हैं। अभी जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो यही मीडिया विधानसभा की तेरह सीटें जीतने वाले राज को हीरो बना रहा था। उन पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे। आखिर ऐसी अराजक प्रवृत्तियों का महिमामंडन करने से हम कब बाज आएंगें। कारण यही है इनके बेलगाम हाथ अब मीडिया के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं। आज हमें बहुत दर्द हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा अब हिलने लगा है। गुंडों और अराजक राजनीति को महत्वपूर्ण बनाने का जो काम मीडिया और खासकर टीवी मीडिया जिस अंदाज में कर रहा है उसपर भी सोचने की जरूरत है। मीडिया को भी ऐसे अराजक तत्वों के महिमामंडन से बाज आना होगा क्योंकि इससे इनकी धृणा की राजनीति को ही विस्तार व समर्थन मिलता है। सही मायनों में हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर तुरंत पाबंदी लगाई जानी चाहिए और इसके नेताओं को तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल देना चाहिए। इससे इस घातक प्रवृत्ति का विस्तार रोका जा सकेगा वरना भारतीय राज्य और लोकतंत्र दोनों को चुनौती देने वाली ऐसी ताकतें कई राज्यों में सिर उठा सकती हैं। क्योंकि क्षेत्रीयता और भाषा की गंदी राजनीति से देश वैसे भी काफी नुकसान उठा चुका है। हम आज भी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी।


झारखंड के दर्द को समझिए

राज्य को राजनीतिक स्थायित्व का इंतजार

एक ऐसा भूभाग जो अंतहीन उपेक्षा का शिकार है। बिहार के साथ रहते हुए उसे लगता रहा कि हमें न्याय नहीं मिलेगा। पृथक राज्य के लिए यह इलाका लंबे समय तक संधर्ष करता रहा और अब जबकि उसके राज्य बने नौ साल पूरे हो रहे हैं तो यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि आखिर उसे मिला क्या। वहां की बहुसंख्यक आदिवासी आबादी को इंतजार था एक भागीरथ का जो आए और उन्हें पिछड़ेपन, नक्सलवाद और गरीबी से मुक्त कराए। पर नजर आते हैं मधु कौड़ा, जो हजारों करोड़ के मालिक तो बन गए पर राज्य वहीं का वहीं खड़ा है। झारखंड राज्य का निर्माण एक त्रासदी बन गया है। पृथक राज्य के आंदोलन से जुड़े रहे शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, करिया मुंडा, इंदरसिंह नामधारी क्या सब अपनी आभा खो चुके हैं ? क्या होगा इस राज्य का ? यह सवाल चुनाव के मैदान में उतरे हर नेता से वहां की प्रायः खामोश रहने वाली जनता का है।

झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। सवाल बहुत हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं। जनता के सामने भरोसा जताने और जीतने लायक कोई चेहरा नहीं दिखाता। यही अविश्वास वहां त्रिशंकु विधानसभा बनवाता रहा है। कभी भाजपा के दिग्गज नेता रहे और पहले मुख्यमंत्री बने बाबूलाल मरांडी अपनी साफ छवि के बावजूद अकेले दम पर सरकार बनाने का माद्दा नहीं रखते सो कांग्रेस ने उन्हें अपने पाले में कर लिया है। वे कांग्रेस के साथ मिलकर मैदान में हैं। भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी जीत से उत्साहित है और उसे लगता है झारखंड पर असली अधिकार उसी है। सो मैदान तो इन्हीं दो ताकतों के बीच बंटा हुआ लगता है। जिसमें त्रिशंकु विधानसभा बनने पर छोटे दलों की भी भूमिका हो सकती है। किंतु झारखंड के सवाल इस चुनाव से बड़े हैं क्योंकि पिछली सरकारें और उनके चार मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन और मधु कौड़ा उनसे टकराने का साहस भी नहीं पाल पाए हैं। सो जनता को पास वोट देने की मजबूरी तो है पर वह उम्मीद से खाली है। सुबोधकांत सहाय और यशवंत सिन्हा जैसे बड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद वहां की राजनीति की सीमाएं बेहद तंग हैं। पैसे को लेकर जैसी प्रकट पिपासा झारखंड की राजनीति में दिख रही है वह चिंतन का विषय है। एक नवसृजित राज्य यदि अपनी यात्रा के प्रारंभ में ही इतना बेचारा और लाचार हो जाएगा तो वह भविष्य की सुंदर रचना के स्वप्न भी नहीं देख सकता।

झारखंड के सामने नक्सलवाद, भ्रष्टाचार राजनीतिक स्थायित्व आज सबसे बड़े प्रश्न हैं। एक ऐसा राज्य जो प्राकृतिक संसाधनों और वन संपदा से समृद्ध है क्या लोगों की लूट का इलाका बनकर रह जाएगा ? क्या यहां के निवासी जो आज भी अपनी जिंदगी को बहुत मुश्किलों से चला रहे हैं के सामने राजनीति और प्रशासन का कोई संवेदनशील चेहरा कभी सामने आएगा ? गरीब आदिवासियों का पलायन रोकने में सरकार विफल रही है। घरेलू दाई बनाकर महानगरों में भेजी जाती रही महिलाओं-युवतियों का शोषण बदस्तूर जारी है। इससे दलालों का मन बढा है। अब, वह खुल्लम-खुला मानव व्यापार करने लगे हैं। झारखंड के निवासियों का यह दर्द आज समझने की जरूरत है। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, आम लोगों की राज्य के विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे सवाल है जो झारखंड की आम जनता को मथ रहे हैं। दूरदराज अंचलों में पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के रोशनी का आज भी इंतजार हो रहा है। शोषण और देश के विभिन्न क्षेत्रों में पलायन कर रोजी रोटी कमाने के लिए मजबूर राज्य के गरीब आदमी की चिंता आखिर कौन करेगा। 22 जिलों में बसे दो करोड़, 70 लाख लोगों के भविष्य का सवाल भी अगर झारखंड राज्य के गठन के बाद भी यहां की राजनीति के केंद्र में नहीं है तो हमें सोचना होगा कि आखिर इस जनतंत्र का मतलब क्या है।

यह झारखंड की राजनीति की त्रासदी ही कही जाएगी कि शिबू सोरेन जैसे क्रांतिकारी पृष्टभूमि के नेता का पतन होते हुए हमने देखा। बाबूलाल मरांडी जैसे नेता की विफलता देखी। इन दो नेताओं की सीमाओं और असफलताओं ने राज्य को ऐसे मोड़ पर खड़ाकर दिया है जिससे निजात तो असंभव दिखती है। झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्य कई मोर्चों पर बेहतर काम करते दिख रहे हैं पर राजनीतिक अस्थिरता ने झारखंड के पैरों में बेड़ियां बांध दी हैं। आज हालात यह हैं कि बिहार जैसा राज्य भी विकास की एक नई यात्रा शुरू कर अपनी गलतियों को सुधारने के लिए आतुर दिखता है किंतु झारखंड इस उम्मीद से भी खाली दिख रहा है। राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार पूरा देश कर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य को एक स्थिर सरकार मिलेगी और झारखंड अपने सपनों में रंग भर सकेगा। विकास के मोर्चे पर तेजी से बढ़ते राज्य के रूप में अपनी पहचान बना सकेगा। नक्सलवाद की गंभीर चुनौती से जूझने का साहस जुटा सकेगा और अपनी जनता को निराशा और अवसाद से मुक्त कर सकेगा।

भाजपा तय करे शिवसेना चाहिए या राष्ट्रवाद ?

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अपनी भारी पराजय के बाद शिवसेना की बदहवाशी तो समझी जा सकती है लेकिन भाजपा को हुआ क्या है ? उसे यह तय करने का यह सबसे बेहतर समय है कि वह राष्ट्रवाद के अपने मूलविचार के साथ खड़ी है या समाज को तोड़ने में लगी शिवसेना के साथ।

विचारधारा को लेकर भ्रम से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह शिवसेना के साथ खड़ी है तो इसका कारण क्या है ? क्या भाजपा के लिए उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अब बेमानी हो गया है ? जिसके कारण वह शिवसेना जैसे दल से अपने रिश्तों को पारिभाषित नहीं कर पा रही है। क्या वृहत्तर हिंदू समाज और अन्य धार्मिक समूहों के साथ उसका संवाद शिवसेना जैसे प्रतिगामी दलों के चलते प्रभावित नहीं हो रहा है ? सही मायने में भाजपा को शिवसेना जैसे दलों से हर तरह के रिश्ते तोड़ लेने चाहिए क्योंकि शिवसेना की राजनीति का आज के भारत में कोई भविष्य नहीं है। सो उसके साथ रहकर भाजपा भी बहुत से समुदायों और समाजों के लिए खुद को अश्पृश्य ही बना रही है। शिवसेना और उसकी गर्भनाल से निकली जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह भारतीय लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका ही है।

सही मायने में शिवसेना एक अलोकतांत्रिक विचार को पोषित करने वाला दल है जिसका भारत के संविधान और कानून में भरोसा नहीं है। लंपट और अराजक तत्वों का यह गिरोह जैसी राजनीति को प्रतिष्ठा दिला रहा है वह हैरतंगेज है। हमारे राज्य की कमजोरियों का फायदा उठाकर फलफूल रहे ये लोग सही मायनों में एक सभ्य समाज में रहने लायक नहीं है। ये वे लोग हैं जो मुंबई जैसे कास्मोपोलेटिन चरित्र के शहर को भी असभ्यों की नगरी सरीखा बनाने में लगे हैं। भाजपा के बड़े नेता आज यह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। माना कि कांग्रेस ने अपनी राजनीति को बढ़ाने के लिए फूट डालो और राज करो की रणनीति पर चलना उचित माना, जिसका लाभ भी उसे साफ तौर पर मिला। किंतु क्या इससे भाजपा का पाप कम हो जाता है। भाजपा नेतृत्व को दिल पर हाथ रखकर ये सोचना होगा कि क्या किसी उत्तरभारतीय ने शिवसेना से बीजेपी के रिश्तों को देखते हुए मुंबई में बीजेपी को वोट दिया होगा? यह बात अपने आप में बहुत महत्व की है। एक राष्ट्रीय दल होने के बावजूद उसके शिवसेना जैसे साथियों के चलते भाजपा की विश्वसनीयता कम हुयी है। शिवसेना और मनसे आपसी प्रतिस्पर्धा में अभी हिंदी भाषियों और उत्तरभारतीयों के खिलाफ और विषवमन करेंगें तो क्या भाजपा, कांग्रेस की तरह इस पूरे तमाशे का आनंद ले सकती है। कांग्रेस इस पूरे तमाशे में सर्वाधिक सुविधा में है। दुविधा तो दरअसल बीजेपी की है। सो बीजेपी को शिवसेना नेतृत्व से बहुत साफ शब्दों में बात करनी चाहिए कि उसे अपना हिंदी भाषियों के खिलाफ द्वेष छोड़ना ही होगा। यदि भाजपा एक राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी दल होने के नाते अपनी विश्वसनीयता चाहती है उसे अराजक राजनीति के विषधरों से अपनी दूरी बनानी ही होगी। क्योंकि एक राष्ट्रीय दल होने के नाते उसकी जिम्मेदारियां बहुत अलग हैं। सो उसे अपने राष्ट्रीय चरित्र के साथ खड़ा होना होगा भले ही इसके लिए राजनीतिक तौर पर उसे थोड़ा नुकसान भले ही उठाना पड़े। विचारधारा से समझौतों ने भाजपा की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। सो भाजपा को हिंदी और हिंदी भाषियों के सवाल पर महाराष्ट्र के संदर्भ में अपना रूख स्पष्ट करना ही चाहिए। यह बात वाचिक आलोचना से आगे बढ़कर होनी चाहिए।

देखा जाए तो भाजपा और शिवसेना का रिश्ता इसलिए संभव हो पाया कि शिवसेना ने अपनी उग्र क्षेत्रवाद की राजनीति का विस्तार करते हुए हिंदू एकता की बात शुऱू की थी। हिंदुत्व भाजपा और शिवसेना की दोस्ती का आधार रहा है। राममंदिर के आंदोलन में दोनों दलों की वैचारिक एकता ने इस दोस्ती को परवान चढ़ाया था। भाजपा के नेता स्व. प्रमोद महाजन ने इस एकता के लिए काफी काम किया। महाजन में यह क्षमता थी वो बाल ठाकरे को सही रास्ते पर ले आते थे। अब किसी भाजपा नेता में यह क्षमता नहीं कि वह ठाकरे का जहर निकालकर उन्हें हिंदुत्व के ब्राडगेज पर ला सके। राज ठाकरे की पार्टी से गहरी प्रतिद्वंदिता के चलते शिवसेना को अपने तेवर लगातार उग्र ही रखने हैं। अब जबकि शिवसेना पुनः अपने क्षेत्रवादी, हिंदी विरोधी अपने संकीर्ण एजेंडे पर लौट आयी है तो फैसला भाजपा को करना है कि वह ऐसी ताकत के साथ खड़ी दिखकर किस तरह वृहत्तर हिंदू समाज की हितैषी होने का दावा कर सकती है। अगर वह ऐसा दावा करती है तो वह कितना विश्वसनीय है ?


बुधवार, 4 नवंबर 2009

आर्थिक पत्रकारिता: पहचान बनाने की जद्दोजहद

वैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महागठिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना की संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रूचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में अभी यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।

‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव-ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा।

भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका ‘कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले ‘कामर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से भी प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से ‘इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकानामिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में ‘व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिजनेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिजनेस चैनलों की शुरूआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। जी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज, एनडीटीवी प्राफिट आदि।

वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिजनेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है। इसकी तरह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेजी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं, जिनमें सिर्फ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध हैं। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ट पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ट’ हैं। उनके शब्दों में - ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े-बड़े पत्र वाणिज्य समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं, अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिजनेस रिपोर्टर तथा बिजनेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूंजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।

ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएं सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है। ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सके। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान-सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

इलेक्ट्रानिक मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए





मीडिया में आकर, कुछ पैसे लगाकर अपना रूतबा जमाने का शौक काफी पुराना है किंतु पिछले कुछ समय से टीवी चैनल खोलने का चलन जिस तरह चला है उसने एक अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। हर वह आदमी जिसके पास नाजायज तरीके से कुछ पैसे आ गए हैं वह टीवी चैनल खोलने या किसी बड़े टीवी चैनल की फ्रेंचाइजी लेने को आतुर है। पिछले कुछ महीनों में इन शौकीनों के चैनलों की जैसी गति हुयी है और उसके कर्मचारी- पत्रकार जैसी यातना भोगने को विवश हुए हैं, उससे सरकार ही नहीं सारा मीडिया जगत हैरत में है। एक टीवी चैनल में लगने वाली पूंजी और ताकत साधारण नहीं होती किंतु मीडिया में घुसने के आतुर नए सेठ कुछ भी करने को आमादा दिखते हैं।


अब इनकी हरकतों की पोल एक-एक कर खुल रही है। रंगीन चैनलों की काली कथाएं और करतूतें लोगों के सामने हैं, उनके कर्मचारी सड़क पर हैं। भारतीय टेलीविजन बाजार का यह अचानक उठाव कई तरह की चिंताएं साथ लिए आया है। जिसमें मीडिया की प्रामणिकता, विश्वसनीयता की चिंताएं तो हैं ही साथ ही उन पत्रकारों का जीवन भी एक अहम मुद्दा है जो अपना कैरियर इन नए-नवेले चैनलों के लिए दांव पर लगा देते हैं। चैनलों की बाढ़ ने न सिर्फ उनकी साख गिरायी है वरन मीडिया के क्षेत्र को एक अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की यह चिंता बहुत स्वाभाविक है कि कैसे इस क्षेत्र में मचे धमाल को रोका जाए। दिसंबर,2008 तक देश में कुल 417 चैनल थे जिसमें 197 न्यूज चैनल काम कर रहे थे। सितंबर,2009 तक सरकार 498 चैनलों के लिए अनुमति दे चुकी है और 150 चैनलों के नए आवेदन विचाराधीन हैं। टीवी मीडिया के क्षेत्र में जाहिर तौर पर यह एक बड़ी छलांग है। कितु क्या इस देश को इतने सेटलाइट चैनलों की जरूरत है। क्या ये सिर्फ धाक बनाने और निहित स्वार्थों के चलते खड़ी हो रही भीड़ नहीं है। जिसका पत्रकार नाम के प्राणी के जीवन और पत्रकारिता के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिस दौर में दिल्ली जैसी जगह में हजारों पत्रकार अकारण बेरोजगार बना दिए गए हों और तमाम चैनलों में लोग अपनी तनख्वाह का इंतजार कर रहे हों इस अराजकता पर रोक लगनी ही चाहिए।


यह बहुत बेहतर है कि सरकार इस दिशा में कुछ नियमन करने के लिए सोच रही है। चैनल अनुमति नीति में बदलाव बहुत जरूरी हैं। यह सामयिक है कि सरकार अपने अनुमति देने के नियमों की समीक्षा करे और कड़े नियम बनाए जिसमें कर्मचारी का हित प्रधान हो। ताकि लूट-खसोट के इरादे से आ रहे चैनलों को हतोत्साहित किया जा सके। सरकार ने ट्राइ को लिखा है कि वह उसे इसके लिए सुझाव दे कि और कितने चैनलों की गुंजाइश इस देश में है और चैनलों की बढ़ती संख्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अपने पत्र में मंत्रालय की चिंता वास्तव में देश की भी चिंता है। पत्र में इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि नए चैनल शुरू करने वालों में बिल्डर,ठेकेदार, शिक्षा क्षेत्र में व्यापार करने वाले, स्टील व्यापारी समेत तमाम ऐसे लोग हैं जिनका मीडिया उद्योग से कोई लेना देना या पूर्व अनुभव नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह भी शिकायत मिली है चैनल शुरू करवाने को लेकर दलाली का एक पूरा कारोबार जोर पकड़ चुका है। उल्लेखनीय है कि चैनल शुरू करने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय के अलावा गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय की अनुमति भी लेनी होती है।


हालांकि कुछ आलोचक यह कह कर इन कदमों की आलोचना कर सकते हैं कि यह कदम लोकतंत्र विरोधी होगा कि नए चैनल आने में अड़चनें लगाई जाएं। किंतु जिस तरह के हालात हैं और पत्रकारों व कर्मियों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा रहा है उसमें नियमन जरूरी है। चैनल का लाइसेंस पाकर कभी भी चैनल पर ताला डालने का प्रवृत्ति से आम पत्रकारों को गहरा झटका लगता है। उनके परिवार सड़क पर आ जाते हैं। नौकरियों को लेकर कोई सुरक्षा न होना और पत्रकारों से अपने संपर्कों के आधार पर पैसै या व्यावसायिक मदद लेने की प्रवृत्ति भी उफान पर है। चैनल खोलने के शौकीनों से सरकार को यह जानने का हक है कि आखिर वे ऐसा क्या प्रमाण दे रहे हैं कि जिसके आधार पर यह माना जा सके कि आपके पास तीन या पांच साल तक चैनल चलाने की पूंजी मौजूद है। वित्तीय क्षमता के अभाव या मीडिया के दुरूपयोग से पैसे कमाने की रूचि से आने वालों को निश्चित ही रोका जाना चाहिए। चैनल में नियुक्त कर्मियों के रोजगार गारंटी के लिए कड़े नियमों के आघार पर ही नए नियोक्ताओं को इस क्षेत्र में आने की अनुमति मिलनी चाहिए। मीडिया जिस तरह के उद्योग में बदल रहा है उसे नियमों से बांधे बिना कर्मियों के हितों की रक्षा असंभव है। पैसे लेकर खबरें छापने या दिखाने के कलंकों के बाद अब मीडिया को और छूट नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हर तरह की छूट दरअसल पत्रकारिता या मीडिया के लिए नहीं होती, ना ही वह उसके कर्मचारियों के लिए होती है, यह सारी छूट होती है मालिकों के लिए। सो नियम ऐसे हों जिससे मीडिया कर्मी निर्भय होकर, प्रतिबद्धता के साथ अपना काम कर सकें। केंद्र सरकार अगर चैनलों की भीड़ रोकने और उन्हें नियमों में बांधने के लिए आगे आ रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए। ध्यान रहे यह मामला सेंसरशिप का नहीं हैं। पत्रकारों के कल्याण, उनके जीवन से भी जुड़ा है, सो इस मुद्दे पर एलर्जिक होना ठीक नहीं है।


( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

हरिनारायण को बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान




भोपाल। दिल्ली से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका कथादेश के संपादक हरिनारायण को पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिये जाने की घोषणा की गई है। वर्ष 2008 के सम्मान के लिए श्री हरिनारायण के नाम का चयन पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया जिसमें नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव( मुंबई), सप्रे संग्रहालय, भोपाल के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर( भोपाल ), छत्तीसगढ़ हिन्दी ग्रंथ अकादमी के संचालक रमेश नैयर, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, साहित्य अकादमी के सदस्य गिरीश पंकज (रायपुर) शामिल थे। पूर्व में यह सम्मान वीणा(इंदौर) के यशस्वी संपादक डा.श्यामसुंदर व्यास और दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को दिया जा चुका है।

सम्मान समिति के सदस्य संजय द्विवेदी ने बताया कि हिन्दी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित एवं रेखांकित करने के उद्देश्य से इस सम्मान की शुरूआत की गई है। इस सम्मान के तहत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को 11 हजार रूपये, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह एवं सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया जाता है। मार्च 1948 में जन्में श्री हरिनारायण 1980 से कथादेश का संपादन कर रहे हैं। वे हंस, विकासशील भारत, रूप कंचन के संपादन से भी जुड़े रहे हैं। उनके संपादन में कथादेश ने देश की चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी जगह बना ली है।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

पचास साल का दूरदर्शन



नए बाजार में खुद को तलाशता एक जनमाध्यम


अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना चाहिए। वह उस राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। - पीसी जोशी पैनल

आज 2009 में खड़े होकर हम इस टिप्पणी से कितना सहमत हो सकते हैं। जाहिर तौर पर यह टिप्पणी एक बड़ी बहस की मांग करती है। अब जबकि देश में प्राइवेट चैनलों की संख्या 450 के आसपास जा पहुंची है तो दूरदर्शन भी अपना परिवार बढ़ाकर 30 चैनलों के नेटवर्क में बदल चुका है। 15 सितंबर,1959 को हमारे यहां टीवी की शुरूआत हुयी। आकाशवाणी की तरह दूरदर्शन के लिए हमारी सरकारों में कोई स्वागतभाव नहीं था। भारत सरकार और वित्त मंत्रालय की यह धारणा बनी हुयी थी कि टीवी तो विलास की चीज है। शायद इसीलिए इसे रेडियो की तरह पश्चिम के साथ ही, प्रारंभ नहीं किया जा सका।

दूरदर्शन को लेकर सरकारी हिचक के कारण इसे एक माध्यम के रूप में स्थापित होने में काफी समय लगा। यह तो इस माध्यम की शक्ति ही थी कि उसने बहुत कम समय की यात्रा में खुद को न सिर्फ स्थापित किया वरन तमाम जनमाध्यमों को कड़ी चुनौती भी दी। हम देखें तो 1966 में दूरदर्शन को लेकर पहला गंभीर प्रयत्न चंदा कमेटी के माध्यम से नजर आया। जिसने उसे रेडियो के बंधन से मुक्त करने और एक स्वतंत्र माध्यम के रूप में काम करने की सलाह दी। कमेटी ने कहा- उसे (टीवी को) उस रेडियो के उपांग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जो (रेडियो)खुद आमूल परिवर्तन की दरकार रखता हो।

इसके लगभग एक दशक बाद 1977 में बनी बीजी वर्गीज कमेटी ने भी अपनी 1978 में दी गयी रिपोर्ट में भी स्वायत्तता की ही बात कही। कुल मिलाकर दूरदर्शन को लेकर सरकारी रवैये के चलते उसके स्वाभाविक विकास में भी बाधा ही पड़ी। संचार माध्यमों की विकासमूलक भूमिका को दुनिया भर में स्वीकृति मिल चुकी थी। शिक्षण और सूचना का दौर भी इसी माध्यम के साथ आगे बढ़ना था। कुल मिलाकर इस भूमिका को स्वीकृति मिल रही थी और भारत की सूचना नीति (1985) इसे काफी कुछ साफ करती नजर आती है, जिसमें दूरदर्शन व्यापक फैलाव के सपने न सिर्फ देखे गए वरन उस दिशा में काफी काम भी हुआ। हालांकि 1982 में एशियाड के आयोजन के चलते दूरदर्शन को रंगीन किया गया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री बसंत साठे की इसमें बड़ी भूमिका रही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमसे पहले ही पाकिस्तान, श्रीलंका और बांगलादेश में रंगीन टीवी आ चुका था। दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक शिव शर्मा के मुताबिक एशियाड के बेहतर प्रसारण के लिए पांच ओबी वैन, और 20 कैमरे खरीदे गए, नौ लोगों की टीम दी गयी। जिस दिन एशियाड का प्रसारण प्रारंभ हुआ उस दिन वह टीम 900 लोगों की हो चुकी थी। इस प्रसारण की दुनिया भर में तारीफ हुयी।

दूरदर्शन का यह सफर जारी रहा। सही मायनों में 1982 से 1991 तक का समय भारतीय दूरदर्शन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जिसने न सिर्फ उसके नायक गढ़े वरन एक दूरदर्शन संस्कृति का विकास भी किया। यह उसकी लोकप्रियता का चरम था जहां आम जनता के बीच उसके समाचार वाचकों, धारावाहिकों के अभिनेताओं की छवि एक नायक सरीखी हो चुकी थी। दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रमों में चित्रहार का प्रमुख स्थान था। यह आधे धटे का फिल्मी गीतों का कार्यक्रम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन पर आने वाले शैक्षणिक कार्यक्रमों के अलावा कृषि दर्शन नाम का कार्यक्रम भी काफी देखा जाता था। इसे ऐतिहासिक विस्तार ही कहेंगें कि जहां 1962 में देश में मात्र 41 टीवी सेट थे वहीं 1985 आते-आते इनकी संख्या 67 लाख, 85 हजार से ज्यादा हो चुकी थी। रंगीन प्रसारण और सोप आपेरा ने इसे और विस्तार दिया। हमलोग, बुनियाद धारावाहिक के माध्यम से मनोहर श्याम जोशी ने एक क्रांति की। ये जो है जिंदगी, फिर वही तलाश जैसे धारावाहिक काफी पसंद किए गए। इसके बाद दूरदर्शन पर धार्मिक धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ। रामानंद सागर की रामायण और उसके चमत्कारी प्रभाव ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले। रामायण के प्रसारण के समय गांवों-शहरों में जिंदगी ठहर जाती थी। इस धारावाहिक का ही असर था कि इसके पात्र सीता और रावण दोनों लोकसभा तक पहुंच गए। आंकड़ों पर भरोसा करें तो करीब 10 करोड़ लोगों ने इसका हर एपीसोड देखा। इसके अलावा इसी कड़ी में महाभारत को भी अपार लोकप्रियता मिली। भारत एक खोज जहां एक नया स्वाद लेकर आया वहीं मुंगेरीलाल के हसीन सपने, कक्का जी कहिन, करमचंद, मुल्ला नसीरूद्दीन, वागले की दुनिया, तमस जैसे धारावाहिक अपनी जगह बनाने में सफल रहे। एकमात्र चैनल होने के नाते प्रतिस्पर्धा का अभाव तो था ही किंतु जो कार्यक्रम सराहे गए उनकी गुणवत्ता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

सही मायनों में दूरदर्शन ने देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एक पूरी पीढी का विकास किया। आज की बहुत विकसित हो चुकी टीवी न्यूज मीडिया के स्व. कमलेश्वर, स्व. सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रणव राय, विनोद दुआ, नलिनी सिंह, अनुराधा प्रसाद, सईद नकवी या राहुल देव, ये सभी दूरदर्शन के माध्यम से ही प्रकाश में आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह की प्रस्तुति आजतक, दूरदर्शन के मैट्रो चैनल के माध्यम से ही प्रकाश में आयी। यही आधे घंटे का कार्यक्रम बाद में टीवी टुडे कंपनी के पूर्ण चैनल आजतक के रूप में दिख रहा। प्रणव राय भी एनडीटीवी इंडिया के मालिक हैं। इसी तरह अनुराधा प्रसाद भी अब न्यूज 24 चैनल चला रही हैं। राहुल देव, सीएनईबी न्यूज चैनल के संपादक हैं। दूरदर्शन के मंच से सामने आए ये पत्रकार आज खुद उसके एक बड़े प्रतिद्वंदी के रूप में हैं, किसी माध्यम की सफलता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि टीवी मीडिया की एक पूरी पीढ़ी के विकास एवं वातावरण निर्माण का श्रेय दूरदर्शन को ही जाता है। चुनावी नतीजों के कई दिनों के प्रसारण की याद करें तो दूरदर्शन का महत्व और नेटवर्क की कार्यक्षमता याद आएगी। तब होने वाली बहसें, कई दिनों तक चलने वाली मतगणना में भी दूरदर्शन ने अपनी ताकत का अहसास कराया था। 1989 की मतगणना की याद करें दूरदर्शन ने 100 जगहों पर संवाददाताओं को रखकर चुनाव का सीधा प्रसारण कराया था। प्रणव राय और विनोद दुआ की जोड़ी का आनस्क्रीन कमाल इसमें दिखा था। क्रिकेट के खेलों के सीधे प्रसारण से लेकर, संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण का श्रेय दूरदर्शन के हिस्से दर्ज है। दूरदर्शन ने एक मास कल्चर भी रचा था। गोविंद निहलानी, माणिक सरकार, गिरीश करनाड, तपन सिन्हा, महेश भट्ट जैसे लोग दूरदर्शन से यूं ही नहीं जुड़े थे। उन दिनों मंडी हाउस देश की कला,संस्कृति और प्रदर्शन कलाओं को मंच देने का एक बड़ा केंद्र बन गया था।

सही मायने में अर्थपूर्ण कार्यक्रमों और भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए देश की भावनाओं को स्वर देने का काम दूरदर्शन ने किया है। आज जबकि 24 घंटे के तमाम निजी समाचार चैनल अपनी भाषा, प्रस्तुति और भौंडेपन को लेकर आलोचना के शिकार हो रहे हैं, तब भी दूरदर्शन का डीडी न्यूज चैनल अपनी प्रस्तुति के चलते राहत का सबब बन गया है। क्योंकि लोग कहने लगे हैं कि बाकी चैनलों में खबरें होती ही कहां हैं। दूरदर्शन आज भी अपने न्यूज नेटवर्क और तंत्र के लिहाज से बेहद सक्षम तंत्र है। उसकी पहुंच का आज भी किसी चैनल के पास तोड़ नहीं है। फिर क्या कारण है कि आज के चमकीले बाजार तंत्र में उसकी आवाज अनसुनी की जा रही है। उसके भौतिक विकास, पहुंच, सक्षम तकनीकी तंत्र के बावजूद उसके सामने चुनौतियां कठिन हैं। उसे आज के बाजारवादी तंत्र में अपनी उपयोगिता के साथ-साथ, कटेंट को सरोकारी बनाने की भी चुनौती है। नया बाजार, नए सूत्रों और नए मानदंडों के साथ विकसित हो रहा है। इसके लिए दूरदर्शन को एक नया रास्ता पकड़ना होगा। आने वाले समय में दूरदर्शन को भी हाई डिफिनिशन टीवी और मोबाइल टीवी शुरू करना होगा। इससे उसे बहुत लाभ होगा। दूरदर्शन की डायरेक्ट टू होम सेवा ने उसकी पहुंच को विस्तारित किया है। इसे और विस्तारित किए जाने की जरूरत है। इसमें पेड चैनलों को शामिल कर उसकी उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। आने वाले दिनों में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दूरदर्शन ही होस्ट ब्राडकास्टर है, इसमें उसे अपनी तकनालाजी को उन्नत करते हुए विश्वस्तरीय प्रसारण मुहैया कराने का मौका मिलेगा। एशियाड के माध्यम से उसने जो ख्याति पाई थी, राष्ट्रमंडल खेल उसमें एक अवसर ही है जब उसे अपनी सिद्धता और उपयोगिता साबित करनी है। लाख बाजारी दावों के बावजूद दूरदर्शन आज भी अपनी पहुंच, क्षमता, तकनीक में बहुत बेहतर है। पचास साल पूरे होने पर इसका संकल्प यही होना चाहिए कि वह अपने देश के विशाल जनमानस के लिए रुचिकर कार्यक्रमों का प्रसारण करे। बीबीसी को एक रोलमाडल की तरह इस्तेमाल करते हुए उस दिशा में कुछ कदम चलने का सार्थक प्रयास करे। बाजार के इस दौर में जब हर तंत्र पर बाजारी शक्तियों का कब्जा है और यह बढ़ता ही चला जाने वाला है ऐसे में आम आदमी और उसकी सरकार की बात कहने-सुनने का यह अकेला माध्यम बचा है। जिसपर आज भी बाजार की ताकतें अभी पूरी तरह काबिज नहीं हो पायी हैं। सरकार और लोकतंत्र के पहरेदारों को समझना होगा कि आज जिस तरह पूरा मीडिया बाजार और पैसे के तंत्र का गुलाम है, ऐसे में दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे तंत्र को बचाना भी जरूरी है। क्योंकि सरकारें कम से कम इन माध्यमों पर अपनी बात कह सकती हैं। अन्यथा अन्य प्रचार माध्यमों तो बिकी हुयी खबरों के ही वाहक बन रहे हैं। जो कई बार सामाजिक, सामुदायिक हितों से परे भी आचरण करते नजर आते हैं। ऐसे में सरकारी तंत्र होने के नाते जो इसकी सीमा है वही इसकी शक्ति भी है। इस कमजोरी को ताकत बनाते हुए दूरदर्शन समाचार-विचार और संस्कृति केंद्रित कार्यक्रमों का अकेला प्रस्तोता हो सकता है।

जड़ों की तरफ लौटने, जड़ों से जोड़ने, उसपर संवाद करने और सही मायने में जनमाध्यम बनने की ताकत आज भी दूरदर्शन में ही है। बड़ा सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन अपनी इस ताकत को पहचान कर आज के समय के प्रश्नों से जूझने को तैयार है। अगर नहीं तो उसे अपनी धीमी और खामोश मौत के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

भाजपा का अंतर्द्वंदः जनसंघ बने या कांग्रेस


क्या आरएसएस ढूंढ पाएगा बीजेपी के वर्तमान संकट का समाधान
अरूण शौरी ने फिर एक लेख लिखकर भाजपा के संकट को हवा दे दी है, निशाना आडवानी व पार्टी के कई वरिष्ट नेता हैं। इसपर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना है कि शौरी के लेखन में विद्वता की झलक होती है और इसे पढ़ा जाना चाहिए। ऐसे प्रसंग आज भाजपा का रूटीन बन गए हैं। इसके चलते भारतीय जनता पार्टी को जानने-पहचानने वाले और उसे एक उम्मीद से देखने वाले आज हैरत में हैं। एक ऐसी पार्टी जिसके पीछे एक बड़े वैचारिक परिवार का संबल हो, विचारधारा की प्रेरणा से जीने वाले कार्यकर्ताओं की लंबी फौज हो, उसे क्या एक या दो पराजयों से हिल जाना चाहिए। भाजपा आज भी अपनी संसदीय शक्ति के लिहाज से देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है पर 1952 से लेकर आजतक की उसकी यात्रा में ऐसी बदहवासी कभी नहीं देखी गयी। जनसंघ और फिर भाजपा के रूप में उसकी यात्रा ने एक लंबा सफर देखा है। चुनावों में जय-पराजय भी इस दल के लिए कोई नयी बात नहीं है। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने जिस तरह भाजपा के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है वह बात चकित करती है।

इसके पहले 2004 की पराजय ने भी पार्टी को ऐसे ही कोलाहल और आर्तनाद के बीच छोड़ दिया था। तबसे आज तक भाजपा में मचा हाहाकार कभी धीमे तो कभी सुनाई ही देता रहा है। शायद 2004 में पार्टी की पराजय के बाद लालकृष्ण आडवानी ने इसलिए कहा था कि – हम एक अलग दल के रूप में पहचान रखते हैं लेकिन जब यह कहा जाता कि हमारा कांग्रेसीकरण हो रहा तो यह बहुत अच्छी बात नहीं है। आडवानी की पीड़ा जायज थी, साथ ही इस तथ्य का स्वीकार भी कि पार्टी के नेतृत्व को अपनी कमियां पता हैं। किंतु 2004 से 2009 तक अपनी कमियां पता होने के बावजूद पार्टी ने क्या किया कि उसे एक और शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। क्या कारण है पार्टी के दिग्गज नेता आपसी संवाद के बजाए एक ऐसे पत्राचार में जुट गए जिससे पार्टी की सार्वजनिक अनुशासन की धज्जियां ही उड़ गयीं। भाजपा के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान चिंताओं को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस बीजेपी के इस संकट का समाधान तलाश पाएगा। पर इस संकट को समझने के भाजपा के असली द्वंद को समझना होगा।

भाजपा का द्वंद दरअसल दो संस्कृतियों का द्वंद है। यह द्वंद भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच का है। जनसंघ यानि भाजपा का वैचारिक अधिष्ठान। एक ऐसा दल जिसने कांग्रेस के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात किया, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक प्रेरणा पाता है। भारतीय राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों, राजनीतिक क्षेत्र में एक वैकल्पिक दर्शन की अवधारणा लेकर आए जनसंघ और उसके नेताओं ने काफी हद तक यह कर दिखाया। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बलराज मधोक, मौलिचंद शर्मा, अटलविहारी वाजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे नेताओं ने अपने श्रम से जनसंघ को एक नैतिक धरातल प्रदान किया। राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए भी जनसंघ का एक अलग पहचान का नारा इसीलिए स्वीकृति पाता रहा क्योंकि नेताओं के जीवन में शुचिता और पवित्रता बची हुयी थी। संख्या में कम पर संकल्प की आभा से दमकते कार्यकर्ता जनसंघ की पहचान बन गए।

राममंदिर आंदोलन के चलते भाजपा के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व ने सारा कुछ बदल कर रख दिया। पहली बार भाजपा चार राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में अकेले दम पर सत्ता में आई। इस विजय ने भाजपा के भीतर दिल्ली के सपने जगा दिए। चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गयी। साधन, पैसे, ताकत,जाति के सारे मंत्र आजमाए जाने लगे। अलग पहचान का दम भरनेवाला दल परंपरागत राजनीति के उन्हीं चौखटों में बंधकर रह गया जिनके खिलाफ वह लगातार बोलता आया था। दिल्ली में पहले 13 दिन फिर 13 महीने, फिर छह साल चलने वाली सरकार बनी। गठबंधन की राजनीति के मंत्र और जमीनी राजनीति से टूटते गए रिश्तों ने भाजपा के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी। एक बड़ी राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद उसमें आत्मविश्वास, नैतिक आभा, संकट में एकजुट होकर लड़ने की शक्ति का अभाव दिखता है तो यह उसके द्वंदों के कारण ही है।

भाजपा की गर्भनाल उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुयी है जो राजनीति के मार्ग पर उसके मनचाहे आचरण पर एक नैतिक नियंत्रण रखता है। सो, भाजपा न पूरी तरह कांग्रेस हो पा रही है ना ही उसमें जनसंघ की नैतिक शक्ति दिखती है। वामपंथियों की तरह काडरबेस पार्टी का दावा करने के बावजूद भाजपा का काडर अपने दल की सरकार आने पर सबसे ज्यादा संतप्त और उपेक्षित महसूस करता है।
भ्रष्टाचार का सवालः
भाजपा का सबसे बड़ा संकट उसके नेताओं के व्यक्तिगत जीवन और विचारों के बीच बढ़ी दूरी है। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में यही अंतर दोनों को अलग करता है। कांग्रेस में भ्रष्टाचार को मान्यता प्राप्त है, स्वीकृति है। वे अपने सत्ता केंद्रित, कमीशन केंद्रित कार्यव्यवहार में अपने काडर को भी शामिल करते हैं। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता बल्कि नेता और कार्यकर्ता के बीच रिश्तों को मधुर बनाता है। अरसे से सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता के रहने का एक अभ्यास भी विकसित हो गया है। सत्ता उन्हें एकजुट भी रखती है। जबकि, भ्रष्टाचार तो भाजपा में भी है किंतु उसे मान्यता नहीं है। इस कारण भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है। क्योंकि उसकी कोशिश यही होती है कि किस तरह वह अपने कार्यकर्ताओं तथा संघ परिवार के तमाम संघठनों की नजर में पाक-साफ रह सके। इस कारण वह राजनीतिक आर्थिक सौदों में अपने काडर को शामिल नहीं करता और नैतिकता की डींगें हांकता रहता है। भाजपा नेताओं के पास सत्ता के पद आते ही उनके अंदरखाने सत्ता के दलालों की पैठ बन जाती है। धन का मोह काडर से दूर कर देता है और अंततः परिवार सी दिखती पार्टी में घमासान शुरू हो जाता है। राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण ये काडर भावनात्मक आधार पर काम करते हैं और व्यवहार में जरा सा बदलाव या अहंकारजन्य प्रस्तुति देखकर ये अपने नेताओं से नाराज होकर घर बैठ जाते हैं। सत्ता जहां कांग्रेस के काडर की एकजुटता व जीवनशक्ति बनती है वहीं भाजपा के लिए सत्ता विग्रह एवं पारिवारिक कलह का कारण बन जाती है।

गुटबाजी से हलाकानः
भाजपा और कांग्रेस के चरित्र का बड़ा अंतर गुटबाजी में भी देखने को मिलता है। कांग्रेस में एक आलाकमान यानि गांधी परिवार है जिस पर सबकी सामूहिक आस्था है। इसके बाद पूरी कांग्रेस पार्टी क्षत्रपों में बंटी हुयी है। गुटबाजी को कांग्रेस में पूरी तरह मान्यता प्राप्त है। यह गुटबाजी कई अर्थों में कांग्रेस को शक्ति भी देती है। इस नेता से नाराज नेता दूसरे नेता का गुट स्वीकार कर अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है। आप आलाकमान की जय बोलते हुए पूरी कांग्रेस में धमाल मचाए रख सकते हैं। प्रथम परिवार के अलावा किसी का लिहाज करने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र ऐसा कि एक अदना सा कांग्रेसी भी,किसी दिग्गज का पुतला जलाता और इस्तीफा मांगता दिख जाएगा। भाजपा का चरित्र इस मामले में भी आडंबरवादी है। यहां भी पार्टी उपर से नीचे तक पूरी तरह बंटी हुयी है। अटल-आडवानी के समय भी यह विभाजन था आज राजनाथ सिंह के समय भी यह और साफ नजर आता है। इस प्रकट गुटबाजी के बावजूद पार्टी में इसे मान्यता नहीं है। गुटबाजी और असहमति के स्वर के मान्यता न होने के कारण भाजपा में षडयंत्र होते रहते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार और मीडिया में आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग, कानाफूसी आम बातें हैं। उमा भारती, गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाधेला, मदनलाल खुराना, बाबूलाल मरांडी, जसवंत सिंह जैसे प्रसंगों में यह बातें साफ नजर आयीं। जिससे पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। कांग्रेस में जो गुटबाजी है वह उसे शक्ति देती है किंतु भाजपा के यही गुटबाजी , षडयंत्र का रूप लेकर कलह को स्थायी भाव दे देती है।

कुल मिलाकर आज की भाजपा न तो जनसंघ है न ही कांग्रेस। वह एक ऐसा दल बनकर रह गयी है जिसके आडंबरवाद ने उसे बेहाल कर दिया है। आडंबर का सच जब उसके काडर के सामने खुलता है तो वे ठगे रह जाते हैं। विचारधारा से समझौतों, निजी जीवन के स्खलित होते आदर्शों और पैसे की प्रकट पिपासा ने भाजपा को एक अंतहीन मार्ग पर छोड़ दिया है। ऐसे में चिट्टियां लिखने वाले महान नेताओं के बजाए भाजपा के संकट का समाधान फिर वही आरएसएस कर सकता है जिससे मुक्ति की कामना कुछ नेता कर रहे हैं। अपने वैचारिक विभ्रमों से हटे बिना भाजपा को एक रास्ता तो तय करना ही होगा। उसे तय करना होगा कि वह सत्ता की पार्टी बनना चाहती है या बदलाव की पार्टी। उसे राजनीतिक सफलताएं चाहिए या अपना वैचारिक अधिष्ठान भी। वह वामपंथियों की तरह पुख्ता वैचारिक आधार पर पके पकाए कार्यकर्ता चाहती है या कांग्रेस की तरह एक मध्यमार्गी दल बनना चाहती है जिसके पैरों में सिध्दांतो की बेड़ियां नहीं हैं। अपने पांच दशकों के पुरूषार्थ से तैयार अटलविहारी बाजपेयी और आडवानी के नेतृत्व का हश्र उसने देखा है.....आगे के दिनों की कौन जाने।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

लोकतंत्र को सार्थक बनाएगा पंचायती राज

महात्मा गांधी जिस गांव को समर्थ बनाना चाहते थे वह आज भी वहीं खड़ा है। ग्राम स्वराज्य की जिस कल्पना की बात गांधी करते हैं वह सपना आज का पंचायती राज पूरा नहीं करता। तमाम प्रयासों के बावजूद पंचायत राज की खामियां, उसकी खूबियों पर भारी हैं। जाहिर तौर पर हमें अपने पंचायती राज को ज्यादा प्रभावी, ज्यादा समर्थ और कारगर बनाने की जरूरत है। ग्राम स्वराज एक भारतीय कल्पना है जिसमें गांव अपने निजी साधनों पर खड़े होते हैं और समर्थ बनते हैं। स्वालम्बन इसका मंत्र है और लोकतंत्र इसकी प्राणवायु। महात्मा गांधी भारतीयता के इस तत्व को समझते थे इसीलिए वे इस मंत्र का इतना उपयोगी इस्तेमाल कर पाए।

गांवों में जनशक्ति का समुचित उपयोग और सामुदायिक साधनों का सही इस्तेमाल यही ग्रामस्वराज्य का मूलमंत्र है। सदियों से हमारे गांव इसी मंत्र पर काम करते आ रहे हैं। अंग्रेजी राज ने गांवों के इसी स्वालंबन को तोड़ने का काम किया। गांधी,गांव की इसी ताकत को जगाना चाहते थे। विकास से पश्चिमी माडल से अलग भारतीय गांवों के अलग विकास का सपना देखा गया और उस दिशा में चलने की इच्छाएं जतायी गयीं। अफसोस सरकारें उस दिशा में चल नहीं पायी। सरकारी तंत्र और गांव अलग-अलग सांस ले रहे थे। इस दिशा भारतीय संविधान का अनुच्छेद -40 राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश देता है। आजाद भारत का यह पहला कदम था जिससे पंचायती राज ने अपनी यात्रा शुरू की। पंचायत राज को लेकर बलवंतराय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति(1977), डा. पीवीके राव समिति ( 1985) और एलएम सिंघवी समिति (1986) ने समय- समय पर महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। इससे पंचायती राज को एक संवैधानिक मान्यता और स्वायत्तता भी मिली। इस रास्ते में नौकरशाही की अड़चनें और भ्रष्टाचार का संकट एक विकराल रूप में सामने है पर इसने लोकतंत्र का अहसास आम आदमी को भी करवाया है। अब जबकि पंचायत में महिला आरक्षण पचास प्रतिशत हो रहा है तो इसे एक नयी उम्मीद और नई नजर से देखा जा रहा है।

1993 में संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन के तहत पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो अब पचास प्रतिशत कर दी गयी है। इसी तरह केंद्रीय स्तर पर 27 मई, 2004 की तारीख एक महत्वपूर्ण दिन साबित हुआ जब पंचायत राज मंत्रालय अस्तित्व में आया। इस मंत्रालय का गठन सही मायने में एक बड़ा फैसला था। इसने भारतीय राजनीति और प्रशासन के एजेंडे पर पंचायती राज को ला दिया। इतिहास का यह वह क्षण था जहां से पंचायती राज को आगे ही जाना था और इसने एक भावभूमि तैयार की जिससे अब इस मुद्दे पर नए नजरिए से सोचा जा रहा है। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या करीब 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं। पंचायत राज का यह चेहरा आश्वस्त करने वाला है। भारत सरकार ने 27 अगस्त, 2009 को पंचायती राज में महिलाओं का कोटा 33 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का जो फैसला लिया वह भी ऐतिहासिक है। इस प्रस्ताव को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 243( डी) में संशोधन करना पड़ेगा।

जाहिर तौर पर सरकारें अब पंचायती राज के महत्व को स्वीकार कर एक सही दिशा में पहल कर रही हैं। चिंता की बात सिर्फ यह है कि यह सारा बदलाव भी भ्रष्टाचार की जड़ों पर चोट नहीं कर पा रहा है। सरकारें जनकल्याण और आम आदमी के कल्याण की बात तो करती हैं पर सही मायने में सरकार की विकास योजनाओं का लाभ लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। हम महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य की बात करें तो वे गांवों को खाद्यान्न के मामले आत्मनिर्भर बनाना, यातायात के लिए सड़क व्यवस्था करना, पेयजल व्यवस्था, खेल मैदानों का विकास, रंगशाला, अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना शामिल था। आज का पंचायती राज विकास के धन की बंदरबाट से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। कुछ प्रतिनिधि जरूर बेहतर प्रयोग कर रहे हैं तो कहीं महिलाओं ने भी अपने सार्थक शासन की छाप छोड़ी है किंतु यह प्रयोग कम ही दिखे हैं। इस परिमाण को आगे बढ़ाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़, मप्र, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार, केरल जैसे राज्यों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकारें खुद आगे आयीं,यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरूष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। तभी सही मायनों में हम पंचायती राज के स्वप्न को हकीकत में बदलता देख पाएंगें।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

इस बदलाव से क्या हासिल


केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल केंद्र के उन भाग्यशाली मंत्रियों में हैं जिनके पास कहने के लिए कुछ है। वे शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का बिल पास करवाकर 100 दिन के सरकार के एजेंडें में एक बड़ी जगह तो ले ही चुके हैं और अब दसवीं बोर्ड को वैकल्पिक बनवाकर वे एक और कदम आगे बढ़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक बड़ा सुधार माना जा रहा है और छात्रों पर एक और बोर्ड का दबाव कम होने की संभावना भी इस फैसले से नजर आ रही है। सीबीएसई में जहां इस साल से ही ग्रेडिंग प्रणाली लागू हो जाएगी वहीं अगले साल दसवीं बोर्ड का वैकल्पिक हो जाना नई राहें खोलेगा।


हालांकि इन फैसलों से शिक्षा के क्षेत्र में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएंगें ऐसा मानना तो जल्दबाजी होगी किंतु इससे सोच और बदलाव के नए संकेत तो नजर आ ही रहे हैं। सिब्बल अंततः तो यह मान गए हैं कि उनका इरादा अभी देश के लिए एक बोर्ड बनाने का नहीं है। शायद यही एक बात थी जिसपर प्रायः कई राज्यों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। बावजूद इसके मानवसंसाधन मंत्री यह मानते हैं कि छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना को विकसित किया जाना जरूरी है। जाहिर तौर शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र हमारे देश में एक ऐसी प्रयोगशाला बनकर रह गया है जिसपर लगातार प्रयोग होते रहे हैं। इन प्रयोगों ने शिक्षा के क्षेत्र को एक ऐसे अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है जहां सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं और नयी पीढी उसका खामियाजा भुगत रही है।


प्राथमिक शिक्षा में अलग-अलग बोर्ड और पाठ्यक्रमों का संकट अलग है। इनमें एकरूपता लाने के प्रयासों में राज्यों और केंद्र के अपने तर्क हैं। किंतु 10वीं बोर्ड को वैकल्पिक बनाने से एक सुधारवादी रास्ता तो खुला ही है जिसके चलते छात्र नाहक तनाव से बच सकेंगें और परीक्षा के तनाव, उसमें मिली विफलता के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को भी रोका जा सकेगा। शायद परीक्षा के परिणामों के बाद जैसी बुरी खबरें मिलती थीं जिसमें आत्महत्या के तमाम किस्से होते थे उनमें कमी आएगी। बोर्ड परीक्षा के नाम होने वाले तनाव से मुक्ति भी इसका एक सुखद पक्ष है। देखना है कि इस फैसले को शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से लिया जाता है। यह भी देखना रोचक होगा कि ग्रेडिंग सिस्टम और वैकल्पिक बोर्ड की व्यवस्थाओं को राज्य के शिक्षा मंत्रालय किस नजर से देखते हैं। इस व्यवस्था के तहत अब जिन स्कूलों में बारहवीं तक की पढ़ाई होती है वहां 10वीं बोर्ड खत्म हो जाएगा। सरकार मानती है जब सारे स्कूल बारहवीं तक हो जाएंगें तो दसवीं बोर्ड की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। माना जा रहा है धीरे-धीरे राज्य भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगें और छात्रों पर सिर्फ बारहवीं बोर्ड का दबाव बचेगा। सरकार इस दिशा में अधिकतम सहमति बनाने के प्रयासों में लगी है। इस बारे में श्री सिब्बल कहना है कि हमारे विभिन्न राज्यों में 41 शिक्षा बोर्ड हैं। अभी हम सीबीएसई के स्कूलों के लिए यह विचार-विमर्श कर रहे हैं। अगले चरण में हम राज्यों के बोर्ड को भी विश्वास में लेने का प्रयास करेंगे। उधर सीबीएसई के सचिव विनीत जोशी ने कहा कि जिन स्कूलों में केवल दसवीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं का बोर्ड तो रहेगा, पर जिन स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं के बोर्ड को खत्म करने का प्रस्ताव है।


शिक्षा में सुधार के लिए कोशिशें तो अपनी जगह ठीक हैं पर हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमने इन सालों में अपने सरकारी स्कूलों का लगभग सर्वनाश ही किया है। पूरी व्यवस्था निजी स्कूलों को प्रोत्साहित करने वाली है जिसमें आम आदमी भी आज अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना हमें आज नहीं तो कल बड़े सवाल के रूप में करना होगा। यह समस्या कल एक बड़े सामाजिक संर्घष का कारण बन सकती है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर नीतियां बनाने वाले भी इस बात से अनजान नहीं है पर क्या कारण है कि सरकार खुद अपने स्कूलों को ध्वस्त करने में लगी है। यह सवाल गहरा है पर इसके उत्तर नदारद हैं। सरकारें कुछ भी दावा करें, भले नित नए प्रयोग करें पर इतना तय है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को हम इतना खोखला बना चुके हैं कि अब उम्मीद की किरणें भी नहीं दिखतीं। ऐसे में ये प्रयोग क्या आशा जगा पाएंगें कहा नहीं जा सकता। बदलती दुनिया के मद्देनजर हमें जिस तरह के मानवसंसाधन और नए विचारों की जरूरत है उसमें हमारी शिक्षा कितनी उपयोगी है इस पर भी सोचना होगा। एक लोककल्याणकारी राज्य भी यदि शिक्षा को बाजार की चीज बनने दे रहा है तो उससे बहुत उम्मीदें लगाना एक धोखे के सिवा क्या हो सकता है। सच तो यह है कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल हल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। हमने इस मुद्दे पर सोचना शुरू न किया तो कल बहुत देर हो जाएगी।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

दुनिया के तमाम लोग अपनी भाषा खो बैठेगें



भोपाल, 6 अगस्त। हिंदी के प्रख्यात कवि-आलोचक एवं दस्तावेज पत्रिका के संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि आने वाले समय में भाषा, टेक्नालाजी में कैद हो जाएगी और दुनिया के तमाम लोग अपनी भाषा खो बैठेगें। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा मीडिया की हिंदी और हिंदी का मीडिया विषय पर छात्रों से संवाद कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि हम भाषा के महत्व को समझ रहे होते तो हालात ऐसे न होते। भाषा में ही हमारे सारे क्रियाकलाप संपन्न होते हैं। मीडिया भी भाषा के संसार का एक हिस्सा है। हम जनता से ही भाषा लेते हैं और उसे ज्यादा ताकतवर और पैना बनाकर समाज को वापस करते हैं। इस मायने में मीडियाकर्मी की भूमिका साहित्यकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यह साधारण नहीं है कि आज भी लोगों का छपे हुए शब्दों पर भरोसा बचा हुआ है। किंतु क्षरण यदि थोड़ी मात्रा में भी हो तो उसे रोका जाना चाहिए। श्री तिवारी ने कहा कि साहित्य की तरह मीडिया का भी एक धर्म है, एक फर्ज है। सच तो यह है कि हिंदी गद्य की शुरूआत ही पत्रकारिता से हुयी है। इसलिए मीडिया को भी अपनी भाषा के संस्कार, पैनापन और शालीनता को बचाकर रखना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि यदि भाषा सक्षम है तो उसमें जबरिया दूसरी भाषा के शब्दों का घालमेल ठीक नहीं है।


कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने कहा कि भाषा को लेकर पूरी दुनिया अनेक संघर्षों की गवाह है, किंतु यह दौर बहुत कठिन है जिसमें तमाम भाषाएं और बोलियां लुप्त होने के कगार पर हैं। ऐसे में हिंदी मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह अपनी बोलियों और देश की तमाम भाषाओं के संकट में उनके साथ खड़ी हो। श्री मिश्र ने कहा कि भाषा को जानबूझकर भ्रष्ट नहीं बनाया जाना चाहिए। इसके पूर्व कुलपति श्री मिश्र ने शाल और श्रीफल से डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का सम्मान किया।


कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया तथा आभार प्रदर्शन मोनिका वर्मा ने किया। इस मौके पर पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह, जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डा. पवित्र श्रीवास्तव, मीता उज्जैन, संजीव गुप्ता, डा. अविनाश वाजपेयी, शलभ श्रीवास्तव तथा विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं मौजूद थे।

आजाद अभिव्यक्ति का माध्यम है ब्लागः रतलामी



ब्लाग की दसवीं सालगिरह पर पत्रकारिता विवि का आयोजन
भोपाल,18 अगस्त। ब्लाग की दसवीं सालगिरह पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में एक समारोह का आयोजन किया गया। इस मौके पर प्रख्यात ब्लागर रवि रतलामी के मुख्यआतिथ्य़ में केक काटकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया।


कार्यक्रम को संबोधित करते हुए श्री रतलामी ने कहा कि ब्लाग आजाद अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जिसने हिंदी ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं को ताकत दी है। पावर पाइंट के माध्यम से ब्लाग के इतिहास-विकास की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि यह भविष्य का बहुत सशक्त माध्यम है। ब्लागर इसके जरिए न सिर्फ अपनी बात कह सकते हैं वरन इसे पूर्णकालिक रोजगार के रूप में भी अपना सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह ऐसा माध्यम है जिसके मालिक आप खुद हैं और इससे आप अपनी बात को न सिर्फ लोगों तक पहुंचा सकते हैं वरन त्वरित फीडबैक भी पा सकते हैं।


समारोह के अध्यक्ष पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह ने कहा कि आज भले ही इस माध्यम में कई कमजोरियां नजर आ रही हैं पर समय के साथ यह अभिव्यक्ति के गंभीर माध्यम में बदल जाएगा। कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। संचालन कृष्णकुमार तिवारी ने तथा आभार प्रदर्शन देवाशीष मिश्रा ने किया। इस मौके पर प्रवक्ता मोनिका वर्मा, शलभ श्रीवास्तव एवं विभाग के छात्र- छात्राएं मौजूद थे।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

समान शिक्षा की गारंटी से ही बचेगा देश



भोपाल,3 अगस्त। प्रख्यात शिक्षाविद प्रो. अनिल सदगोपाल का कहना है कि संसद में पेश बच्चों को अनिवार्य शिक्षा विधेयक-2008 दरअसल शिक्षा के अधिकार को छीननेवाला विधेयक है। सोमवार को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा शिक्षा का अधिकार और भारत का भविष्य विषय पर आयोजित व्याख्यान कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रो. सदगोपाल ने विधेयक की तमाम खामियों की तरफ इशारा किया। उन्होंने साफ कहा कि एक समान प्राथमिक शिक्षा की गारंटी से ही देश को बचाया जा सकता है।


उन्होंने कहा कि इस गैरसंवैधानिक, बालविरोधी और निजीकरण-बाजारीकरण के सर्मथक विधेयक से एक बार फिर प्राथमिक शिक्षा गर्त में चली जाएगी। उन्होंने साफ कहा कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। उन्होंने कहा कि यह सरकारी स्कूल शिक्षा को ध्वस्त करने और निजी स्कूलों को बढ़ावा देनी की साजिश है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विवि के इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग के अध्यक्ष डा. श्रीकांत सिंह ने कहा कि दोहरी शिक्षा प्रणाली के चलते देश में इंडिया और भारत का विभाजन बहुत साफ दिखने लगा है। इसके चलते समाज में अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। कार्यक्रम का संचालन विभाग के छात्र अंशुतोष शर्मा ने किया और आभार प्रर्दशन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। इस मौके पर जनसंपर्क विभाग की प्रवक्ता मीता उज्जैन, मोनिका वर्मा, शलभ श्रीवास्तव और विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।

कारपोरेट कम्युनिकेशन संभावनाओं से भरी दुनिया



भोपाल, 4 अगस्त। कारपोरेट कम्युनिकेशन संभावनाओं से भरी दुनिया है जिसके लिए नए विचारों से भरे युवाओं की जरूरत है। ये विचार चीन में निकाई ग्रुप आफ कंपनीज के सीनियर मैनेजर डा. अभिषेक गर्ग ने व्यक्त किए। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आयोजित एक कार्यक्रम छात्रों से संवाद कर रहे थे।


श्री गर्ग ने कहा कारपोरेट के कामकाज के तरीकों की जानकारी देते हुए विद्यार्थियों से आग्रह किया कि वे बदलती दुनिया और बदलते कारपोरेट के मद्देनजर खुद को तैयार करें। उन्होंने चीन की बाजार व्यवस्था की तमाम विशेषताओं का जिक्र करते हुए कहा कि अब दुनिया की तमाम कंपनियां भारत और चीन जैसे देशों के बड़े बाजार की ओर आकर्षित हो रही हैं और वे इन देशों के ग्रामीण बाजार में अपनी संभावनाएं तलाश रही हैं। उन्होंने कहा कि भारत जैसे विशाल, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में कारपोरेट कम्युनिकेशन का महत्व बहुत बढ़ जाता है कि क्योंकि इतने विविध स्तरीय समाज को एक साथ संबोधित करना आसान नहीं होता। ऐसे में भारतीय बाजार की संभावनाएं अभी पूरी तरह से प्रकट नहीं हुयी हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे में एडवरटाइजिंग, कम्युनिकेशन और पब्लिसिटी के तमाम नए तरीकों पर संवाद जरूरी है। नए लोग, नए विचारों के साथ आगे आते हैं और नए विचार ही नए ग्राहक को संबोधित कर सकते हैं।


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डा. पवित्र श्रीवास्तव ने कहा कि कम्युनिकेशन की किसी भी विधा में काम करने के लिए जरूरी यह है कि आप खुद को अपने परिवेश, दुनिया-जहान के संदर्भों पर अपडेट रखें, क्योंकि यही संदर्भ किसी भी कम्युनिकेटर को महत्वपूर्ण बनाते हैं। प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया। आभार प्रदर्शन जनसंचार की व्याख्याता मोनिका वर्मा ने तथा संचालन छात्रा ऐनी अंकिता ने किया। इस मौके पर जनसंपर्क विभाग की प्रवक्ता मीता उज्जैन, जया सुरजानी, शलभ श्रीवास्तव और जनसंचार तथा जनसंपर्क विभाग के छात्र-छात्राएं मौजूद थे।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

मिलावट तो होगी ही


शनिवार, 11 जुलाई 2009 को दिल्ली में पत्रकार उदयन शर्मा की पुण्‍यतिथि पर हुई पत्रकारीय महासभा में एक बहुत क़ायदे की एक बात उठायी आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने। उन्‍होंने कहा कि किसी भी उपभोक्‍ता सामग्री की गुणवत्ता के मानदंड होते हैं और कमी-बेशी होने पर उपभोक्‍ता को अपने अधिकारों को लेकर क़ानूनी लड़ाई का हक़ है। अगर तेल या दूध में मिलावट के खिलाफ़ वह दुकानदार या कंपनी के खिलाफ़ मुक़दमा कर सकता है और उनकी बैंड बजा सकता है, तो अख़बार या टीवी की ख़बरों से वह ठगा जाता है, तो कहां जाए? ख़बरों में मिलावट पाने पर उसके लिए क्‍या गुंजाइश है? क्‍यों नहीं यहां भी उपभोक्‍ता क़ानून होना चाहिए? पूरी सभा में एकमात्र नीलाभ जी की ही बात थी, जो बता रही थी कि बेमज़ा हो गयी पत्रकारिता को पटरी पर लाने का सॉल्‍यूशन एक ये हो सकता है। इस मुद्दे पर वेबसाइट http://mohallalive.com/ ने एक लंबी बहस छेड़ दी। इसमें संजय द्विवेदी http://mohallalive.com/2009/07/19/saleem-radheshyam-sanjay-nkashif-views/ ने भी हस्तक्षेप किया। उन्होंने जो लिखा वह यह है-

मिलावट तो होगी ही
मीडिया में खबरों की मिलावट पर विमर्श तो ठीक है पर जिस तरह के समाधान बताए जा रहे हैं उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। मीडिया में मिलावट के बिना कौन सी खबर बन सकती है। आज तो ठीक है किंतु जिस आजादी के पहले की पत्रकारिता के नाम पर कीर्तन किया जा रहा है उसमें कौन सा स्वनामधन्य संपादक अपनी विचारधारा के बिना लेखन कर रहा था।

खबर की पवित्रता एक ऐसा स्वप्न है जो बेमानी है क्योंकि पत्रकार की विचारधारा और संवेदना भी तब मिलावट ही मान ली जाएगी। संवेदना और वैचारिकता की मिलावट को रोकने का उपाय क्या है, यह भी सोचना होगा। जो लोग साबुन, तेल की बात कह रहे हैं, या उन्हीं मिलावट रोकने के मानकों को लागू करने की बात कर रहे हैं उनकी बात समझ में नहीं आती। क्या हम लोग परचून की दुकान पर बैठे हुए लोग हैं, जो मसाले में घोड़े की लीद मिला रहे हैं। यह शब्दों की दुनिया है वह चाहे बोले जा रहे हैं या लिखे जा रहे हैं। शब्दों और वस्तुओं का फर्क हमें समझना होगा। हम शब्दों के साथ अंर्तक्रिया करते हैं फिर लिखते या बोलते हैं। इसमें संवेदना, विचारधारा और आपका परिवेश आएगा ही। किसी को स्लम पर हो रही कार्रवाई शहर का सौंदर्यीकरण लग सकती है तो किसी को आम आदमी पर जुल्म की इंतहा। ये उसके सोच के तरीके पर निर्भर करता है। खबरों को देखने का हमारा नजरिया ही हमें खास बनाता है। खबर कम्पयूटर का साफ्टवेयर नहीं है। जो आपकी मांग और सुविधा के लिए बनाया गया है। इसलिए किसी भी तरह का मानक खबरों की सच्चाई नापने का हो नहीं सकता। आत्मनियमन और आत्मअनुशासन ही इसके मार्ग हैं। पत्रकारिता में जिस तरह की पीढी आ रही है उसके सामने जिस तरह के मूल्य रखे जा रहे हैं उससे वे हतप्रभ हैं। सिर्फ आलोचना और अपने आपको हीन और कलंकित समझने की चर्चाएं कहां तक उचित हैं। चुनावों में जो कुछ हुआ उसमें पत्रकारों की मंशा या हिस्सेदारी कितनी है। यह सारा कुछ तो मैनेजमेंट के ईशारों पर हुआ। प्रबंधन खुद बाजार में जाकर अपनी बोली लगा रहा हो तो पत्रकार की कलम को कौन सा प्रतिबंध रोक सकता है। नौकरी करने की भी अपनी जरूरतें और मजबूरियां हैं। पहले मंदी के नाम पर प्रबंधन ने हकाला, प्रताड़ित किया और चुनाव में वसूली पर उतर आया इसमें पत्रकारों का दोष क्या है,वह तो सिर्फ प्रताड़ित ही हो रहा है हर तरफ से। प्रबंधन की गलत नीतियों के खिलाफ कौन खड़ा होगा। जो अखबार वेज बोर्ड के हिसाब से तनख्वाह भी नहीं दे रहे हैं वे भी सरकारी विज्ञापनों का एक बड़ा हिस्सा ले रहे हैं। हर बार कर्मचारी नुमा पत्रकार को निशाने पर रखा जाता है उसे निशाना बनाया जाता है। खबरों की मिलावट को रोकने का यंत्र अविष्कृत होने के बाद क्या पत्रकार अपना दिल दिमाग और विचारधारा सबकुछ छोड़कर आफिस आएंगें। इस तरह की बहस के मायने क्या हैं।

पत्रकारिता य़ा मीडिया की दुनिया हमें जितनी भी बेरहम बना दे इसमें आए ज्यादातर लोग एक आर्दशवादी सोच, एक अपनी ऐसी दुनिया बनाने के सपने से ही आते हैं जहां शब्दों की सत्ता होगी और लोगों को न्याय मिल पाएगा। बहुत कम लोग ऐसे होंगें जो लूटपाट करने के इरादे से यहां आते हैं। कुछ रास्ते में आदर्शों से तौबा कर लेते हैं, रास्ता बदल लेते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रास्ता गलत है। एक ऐसी पीढ़ी भी मालिकों में आयी है जिनके लिए पैसा सबकुछ है पर कुछ अच्छे लोग भी हैं। उनका भी जिक्र कीजिए। अमर उजाला और प्रभात खबर ने इसी लूट के दौर में कहा कि वे चुनावी खबरों का पैसा नहीं लेंगें उनका भी जिक्र कीजिए। मिलावट कहां थी- चुनावी खबरें तो विज्ञापन थीं। विज्ञापन को लेकर क्या रोना। पाठक को भी सब समझ में आता है। वह इतना भोला नहीं है। राजनीति के भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी की कामना गलत है पर इसे रोका नहीं जा सकता। वे कौन से दूध के धुले लोग हैं, जो जितना भ्रष्ट हो उसे उतना अधिक मीडिया को देना पड़ा। वे सामने क्यों नहीं आए। हिंदुस्तान के कानून में बहुत से प्रावधान हैं, आप मीडिया को कठघरे में खड़ा करें, किसने रोका है। भाजपा नेता लालजी टंडन ने उप्र के सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण को पैसा नहीं दिया सार्वजनिक आलोचना की पर लखनऊ से चुनाव जीते, ऐसे प्रतिवाद राजनीति भी कर सकती है। संकट यह है कि राजनीति और मीडिया दोनों एक ही गटर में हैं। सो किसी भी तरह का नियमन संभव नहीं है। कानून, सरकार या आयोग जैसी चीजें जो खतरा आज का है उससे बड़ा घोटाला करेंगी। सो मैं ऐसे किसी भी प्रतिबंध के खिलाफ हूं जो शब्दों की सत्ता को चुनौती देता नजर आए।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

डा. रमन ने संजय द्विवेदी को दीं शुभकामनाएं



रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के नवनियुक्त विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी को अपनी शुभकामनाएं दी हैं। 10 जुलाई को सायं रायपुर स्थित मंत्रालय स्थित अपने कार्यालय में मुख्यमंत्री डा. सिंह ने संजय द्विवेदी का स्वागत किया और उम्मीद जताई कि जिस तरह छत्तीसगढ़ राज्य में उन्होंने पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को बनाए रखते हुए काम किया वैसे ही वे मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में भी यशस्वी होंगें। मुख्यमंत्री ने कहा श्री द्विवेदी छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता का एक जरूरी नाम हैं और उम्मीद है कि भोपाल में रहते हुए भी वे छत्तीसगढ़ राज्य की समस्याओं के साथ –साथ उसकी विशेषताओं और गौरव को भी रेखांकित करते रहेगें।

गुरुवार, 25 जून 2009

सप्रे संग्रहालय में जल जीवन और मीडिया पर गोष्ठी


पानी के सवाल पर सक्रियता दिखाए मीडिया
भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी का कहना है कि पानी के सवाल पर अब मीडिया को भी अपनी सक्रियता दिखानी होगी। उन्होंने भोपाल स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय में जल, जीवन और मीडिया विषय पर आयोजित संगोष्ठी में ये विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए वह वह अपनी प्रभावी भूमिका से सरकार, प्रशासन, आमजनता तीनों का ध्यान खींच सकता है। कई पत्र समूह अब पानी के सवाल पर लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं इसे मीडिया का सकारात्मक कदम माना जाना चाहिए।


संजय द्विवेदी ने कहा कि उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें।


इस महत्वपूर्ण आयोजन में मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह, नर्मदा के अनथक यात्री अमृतलाल वेगड़, जनसंपर्क प्रमुख और लेखक मनोज श्रीवास्तव, नवदुनिया भोपाल के संपादक गिरीश उपाध्याय, विजयदत्त श्रीधर सहित अनेक पत्रकारों ने संबोधित किया।

बुधवार, 24 जून 2009

नई प्रौद्योगिकी से आया हिंदी लेखन में लोकतंत्र


साहित्य और मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जनअपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी शब्दों की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी है।

साहित्य की बात करते ही उसकी हमारी चेतना में कई नाम गूंजते हैं जो हिंदी के नायकों में थे, यह खड़ी बोली हिंदी के खड़े होने और संभलने के दिन थे। वे जो नायक थे वे भारतेंदु हरिश्चंद्र हों, प्रेमचंद हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों ,माखनलाल चतुर्वेदी या माधवराव सप्रे, ये सिर्फ साहित्य के नायक नहीं थे, हिंदी समाज के भी नायक थे। इस दौर की हिंदी सिर्फ पत्रकारिता या साहित्य की हिंदी न होकर आंदोलन की भी हिंदी थी। शायद इसीलिए इस दौर के रचनाकार एक तरफ अपने साहित्य के माध्यम से एक श्रेष्ठ सृजन भी कर रहे थे तो अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना को जगाने का काम भी कर रहे थे। इसी तरह इस दौर के साहित्यकार समाजसुधार और देशसेवा या भारत मुक्ति के आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। तीन मोर्चों पर एक साथ जूझती यह पीढ़ी अगर अपने समय की सब तरह की चुनौतियों से जूझकर भी अपनी एक जगह बना पाई तो इसका कारण मात्र यही था कि हिंदी तब तक सरकारी भाषा नहीं हो सकी थी। वह जन-मन और आंदोलन की भाषा थी इसलिए उसमें रचा गया साहित्य किसी तरह की खास मनःस्थिति में लिखा गया साहित्य नहीं था। वह समय हिंदी के विकास का था और उसमें रचा गया साहित्य लोगों को प्रेरित करने का काम कर रहा था। उस समय के बेहद साधारण अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया। जबकि आज के अखबार ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह पत्रकारिता के सामने भी एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को अपने ‘खास’ अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। मुख्यधारा के मीडिया से साहित्य को लगभग बहिष्कृत सा कर दिया गया है। बाजार ने आंदोलन की जगह ले ली है। मास मीडिया के इस भटकाव का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जा रहा है। साहित्य में भी लोकप्रिय लेखन की चर्चा शुरू हो गयी है।

हिंदी साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि उसने आजादी के बाद अपनी धार खो दी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है।हिंदी का साहित्यिक जगत का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी का साहित्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करता था।

निर्बल का बल है संचार प्रौद्योगिकीः
बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने हिंदी की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। हिंदी साहित्य को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने और एक वैश्विक हिंदी समाज को खड़ा करने का काम नयी प्रौद्योगिकी कर रही है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-बुक्स का प्रचलन भी बढ़ा है और नयी पीढ़ी एक बार फिर पठनीयता की ओर लौटी है। हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। साहित्य जगत की असल चुनौती इस पीढ़ी को केंद्र में रखकर कुछ रचने और काम करने की है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया के तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है। यदि एक दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीख सकते हैं तो क्या मुश्किल है कि हिंदी में रचे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य से अन्य भाषा भाषियों में हिंदी के प्रति अनुराग न पैदा हो। वैश्विक स्तर भी आज हिंदी को सीखने-पढ़ने की बात कही जा रही है वह भले ही बाजार पर कब्जे के लिए हो किंतु इससे हिंदी का विस्तार तो हो रहा है। अमेरिका जैसे देशों में हिंदी के प्रति रूझान यही बताता है.।
दूसरी महत्वपूर्ण बात तकनीक को लेकर हो हिचक को लेकर है। यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं अपनी गुणवत्ता से जीवित रहती हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाती हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।

ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरतः
सही मायने में हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित करने की जरूरत है जिससे वह इस माध्यम का ज्यादा से ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर सके। यह प्रौद्योगिकी शायद इसीलिए निर्बल का बल भी कही जा सकती है। यह प्रौद्योगिकी उन शब्दों को मंच दे रही है जिन्हें बड़े नामों के मोह में फंसे संपादक ठुकरा रहे हैं। यह आपकी रचनाशीलता को एक आकार और वैश्विक विस्तार भी दे रही है। सही मायने में यह प्रौद्योगिकी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बल्कि सहयोगी की भूमिका में है। इसका सही और रचनात्मक इस्तेमाल साहित्य के वैश्विक विस्तार और संबंधों की सघनता के लिए किया जा सकता है। रचनाकार को उसके अनुभव समृद्ध बनाते हैं। हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज किसी भी भाषा के लिए सहयोगी साबित हो सकता है। हिंदी की अपनी ताकत पूरी दुनिया में महसूसी जा रही है। हिंदी फिल्मों का वैश्विक बाजार इसका उदाहरण है। एक भाषा के तौर हिंदी का विस्तार संतोषजनक ही कहा जाएगा किंतु चिंता में डालने वाली बात यही है कि वह तेजी से बाजार की भाषा बन रही है। वह वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा तो बनी है किंतु साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वह पिछड़ रही है। इसे संभालने की जरूरत है। साहित्य के साथ आम हिंदी भाषी समाज का बहुत रिश्ता बचा नहीं है। ऐसे में तकनीक, बाजार या जिंदगी की जद्दोजहद में सिकुड़ आए समय को दोष देना ठीक नहीं होगा। नयी तकनीक ने हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को ताकतवर ही बनाया है क्योंकि तकनीक भाषा, भेद और राज्य की सीमाओं से परे है। हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार करना होगा। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके सचेतन प्रयास करने होंगें। हिंदी हर नए माध्यम के साथ चलने वाली भाषा है। आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की यह ताकत ही है कि देश के सर्वाधिक बिकने वाले दस अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार नहीं है। ज्यादातर टीवी चैनल हिंदी या मिली जुली हिंदी जिसे हिंग्लिश कहा जा रहा है में अपनी बात कहने को कहने को मजबूर हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। हिंदी की यह ताकत उसके उस आम आदमी की ताकत है जो आज भी 20 रूपए रोज पर अपनी जिंदगी जी रहा है। उस समाज को कोई तकनीक तोड़ नहीं सकती,कोई प्रौद्योगिकी तोड़ नहीं सकती। मेहनतकश लोगों की इस भाषा की इसी ताकत को महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद ने पहचान लिया था पर कुछ लोग जानकर भी इसे नजरंदाज करते हैं। हिंदी में आज एक बड़ा बाजार उपलब्ध है वह साबुन, शैंपो का है तो साहित्य का भी है। साहित्य की चुनौती यह भी है कि वह अपने को इस बाजार में खड़ा होने लायक बनाए। हिंदी का प्रकाशन जगत लगातार समृद्ध हो रहा है। इस फलते-फूलते प्रकाशन उद्योग का लेखक क्यों गरीब है यह भी एक बड़ा सवाल है। असल चुनौती यहीं है कि हिंदी समाज में किस तरह एक व्यवासायिक नजरिया पैदा किया जाए। क्या कारण है कि चेतन भगत तीन उपन्यास लिखकर अंग्रेजी बाजार में तो स्वीकृति पाते ही हैं ही हिंदी का बाजार भी उन्हें सिर माथे बिठा लेता है। उनकी किताबों के अनुवाद किसी लोकप्रिय हिंदी लेखक से ज्यादा बिक गए। हिंदी समाज को नए दौर के विषयों पर भी काम करना होगा। ऐसी कथावस्तु जिससे हिंदी जगत अनजाना है वह भी हिंदी में आए तो उसका स्वागत होगा। चेतन भगत की सफलता को इसी नजर से देखा जाना चाहिए।

इन सारी चुनौतियों के बीच भी हिंदी साहित्य को एक नया पाठक वर्ग नसीब हुआ है, जो पढ़ने के लिए आतुर है और प्रतिक्रिया भी कर रहा है। नई प्रौद्योगिकी ने इस तरह के विर्मशों के लिए मंच भी दिया है और स्पेस भी। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसी प्रौद्योगिकी ने हिंदी में एक तरह का लोकतंत्र भी विकसित किया है। यह हिंदी और उस जैसी तमाम भाषाओं को भी समर्थ करेगा जो अन्यान्य कारणों से उपेक्षा की शिकार रही हैं या होती आयी हैं।

मंगलवार, 23 जून 2009

आइए बनाएं एक पानीदार समाज


मीडिया भी सोचे पानी के सवाल पर
मीडिया का काम है लोकमंगल के लिए सतत सक्रिय रहना। पानी का सवाल भी एक ऐसा मुद्दा बना गया है जिस पर समाज, सरकार और मीडिया तीनों की सामूहिक सक्रियता जरूरी है। कहा गया है-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष,चून।


प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ ने मनुष्यता को कई गंभीर खतरों के सामने खड़ा कर दिया है। देश की नदियां, ताल-तलैये, कुंए सब हमसे सवाल पूछ रहे हैं। हमारे ठूंठ होते गांव और जंगल हमारे सामने एक प्रश्न बनकर खड़े हैं। पर्यावरण के विनाश में लगी व्यवस्था और उद्योग हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। इस भयानक शोषण के फलित भी सामने आने लगे हैं। मानवता एक ऐसे गंभीर संकट को महसूस कर रही है और कहा जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। बारह से पंद्रह रूपए में पानी खरीद रहे हम क्या कभी अपने आप से ये सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा पानी इतना महंगा क्यों है। जब हमारे शहर का नगर निगम जलकर में थोड़ी बढ़त करता है तो हम आंदोलित हो जाते हैं, राजनीतिक दल सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन पंद्रह रूपए में एक लीटर पानी की खरीदी हमारे मन में कोई सवाल खड़ा नहीं करती। उदाहरण के लिए दिल्ली जननिगम की बात करें तो वह एक हजार लीटर पानी के लिए साढ़े तीन रूपए लेता है। यानि की तीन लीटर पानी के लिए एक पैसे से कुछ अधिक। यही पानी मिनरल वाटर की शकल में हमें तकरीबन बयालीस सौ गुना से भी ज्यादा पैसे का पड़ता है। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं। इसके खामोशी के चलते दुनिया में बोतलबंद पानी का कारोबार तेजी से उठ रहा है और 2004 में ही इसकी खपत दुनिया में 154 बिलियन लीटर तक पहुंच चुकी थी। इसमें भारत जैसे हिस्सा भी 5.1 बिलियन लीटर का है। यह कारोबार चालीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। आज भारत बोतलबंद पानी की खपत के मामले में दुनिया के दस शीर्ष देशों में शामिल है। लेकिन ये पानी क्या हमारी आम जनता की पहुंच में है। यह दुर्भाग्य है कि हमारे गांवों में मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ पहुंच गए किंतु आजतक हम आम लोंगों को पीने का पानी सुलभ नहीं करा पाए। उस आदमी की स्थिति का अंदाजा लगाइए जो इन महंगी बोलतों में बंद पानी तक नहीं पहुंच सकता।पानी का विचार करते हुए हमें केंद्र में उन देश के कोई चौरासी करोड़ लोगों को रखना होगा जिनकी आय प्रतिदिन छः से बीस रूपए के बीच है। इस बीस रूपए रोज कमानेवाले आदमी की चिंता हमने आज नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। पानी का संघर्ष एक ऐसी शक्ल ले रहा है जहां लोग एक-दूसरे की जान लेने को आमादा हैं। भोपाल में ही पानी को लेकर इसी साल शहर में हत्याएं हो चुकी हैं।


पानी की चिंता आज सब प्रकार से मानवता की सेवा सबसे बड़ा काम है। आंकड़े चौंकानेवाले हैं कितु ये खतरे की गंभीरता का अहसास भी कराते हैं। भारत में सालाना 7 लाख, 83 हजार लोंगों की मौत खराब पानी पीने और साफ- सफाई न होने से हो जाती है। दूषित जल के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को करीब पांच अरब रूपए का नुकसान हो रहा है। देश के कई राज्यों के लोग आज भी दूषित जल पीने को मजबूर हैं क्योंकि यह उनकी मजबूरी भी है।


पानी को लेकर सरकार, समाज और मीडिया तीनों को सक्रिय होने की जरूरत है। आजादी के इतने सालों के बाद पानी का सवाल यदि आज और गंभीर होकर हमारे है तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं। पानी की सीमित उपलब्धता को लेकर हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने समाज के सामने इस चुनौती का क्या समाधान रखने जा रहे हैं।


मीडिया की जिम्मेदारीः
मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए उसके सर्वव्यापी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। मीडिया सरकार, प्रशासन और जनता सबके बीच एक ऐसा प्रभावी माध्यम है जो ऐसे मुद्दों पर अपनी खास दृष्टि को संप्रेषित कर सकता है। कुछ मीडिया समूहों ने पानी के सवाल पर जनता को जगाने का काम किया है। वह चेतना के स्तर पर भी है और कार्य के स्तर पर भी। ये पत्र समूह अब जनता को जगाने के साथ उनके घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने तक में मदद कर रहे हैं। इसी तरह भोपाल की सूखती झील की चिंता को जिस तरह भोपाल के अखबारों ने मुद्दा बनाया और लोगों को अभियान शामिल किया उसकी सराहना की जानी चाहिए। इसी तरह हाल मे नर्मदा को लेकर अमृतलाल वेगड़ से लेकर अनिल दवे तक के प्रयासों को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। अपनी नदियों, तालाबों झीलों के प्रति जनता के मन में सम्मान की स्थापना एक बड़ा काम है जो बिना मीडिया के सहयोग से नहीं हो सकता।


उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें। ये कुछ बिंदु हैं जिनपर मीडिया निरंतर अभियान चलाकर पानी को बचाने में मददगार हो सकता है-


1.पानी का राष्ट्रीयकरण किया जाए और इसके लिए एक अभियान चलाया जाए।
2.छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी को एक पूंजीपति को बेचकर जो शुरूआत हुयी उसे दृष्टिगत रखते हुए नदी बेचने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए।
3. उद्योगों के द्वारा निकला कचरा हमारी नदियों को नष्ट कर रहा, पर्यावरण को भी। उद्योग प्रायः प्रदूषणरोधी संयत्रों की स्थापना तो करते हैं पर बिजली के बिल के नाते उसका संचालन नहीं करते। उद्योगों की हैसियत के मुताबिक प्रत्येक उद्योग का प्रदूषणरोधी संयत्र का मीटर अलग हो और उसका न्यूनतम बिल तय किया जाए। इससे इसे चलाना उद्योगों की मजबूरी बन जाएगा।
4. केंद्र सरकार द्वारा नदियों को जोड़ने की योजना को तेज किया जाना चाहिए।
5. बोलतबंद पानी के उद्योग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
6. सार्वजनिक पेयजल व्यवस्था को दुरुस्त करने के सचेतन और निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए।
7. गांवों में स्वजलधारा जैसी योजनाओं को तेजी से प्रचारित करना चाहिए।
8. परंपरागत जल श्रोतों की रक्षा की जानी चाहिए।
9. आम जनता में जल के संयमित उपयोग को लेकर लगातार जागरूकता के अभियान चलाए जाने चाहिए।
10. सार्वजनिक नलों से पानी के दुरूपयोग को रोकने के लिए मोहल्ला समितियां बनाई जा सकती हैं। जिनकी सकारात्मक पहल को मीडिया रेखांकित कर सकता है।
11.बचपन से पानी के महत्व और उसके संयमित उपयोग की शिक्षा नई पीढ़ी को देने के लिए मीडिया बच्चों के निकाले जा रहे अपने साप्ताहिक परिशिष्टों में इन मुद्दों पर बात कर सकता है। साथ स्कूलों में पानी के सवाल पर आयोजन करके नई पीढ़ी में संस्कार डाले जा सकते हैं।
12. वाटर हार्वेस्टिंग को नगरीय क्षेत्रों में अनिवार्य बनाया जाए, ताकि वर्षा के जल का सही उपयोग हो सके।
13.जनप्रबंधन की सरकारी योजनाओं की कड़ी निगरानी की जाए साथ ही बड़े बांधों के उपयोगों की समीक्षा भी की जाए।
15.गांवों में वर्षा के जल का सही प्रबंधन करने के लिए इस तरह के प्रयोग कर चुके विशेषज्ञों की मदद से इसका लोकव्यापीकरण किया जाए।
16. हर लगने वाले कृषि और किसान मेलों में जलप्रबंधन का मुद्दा भी शामिल किया जाए, ताकि फसलों और खाद के साथ पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों से भी अवगत हो सकें, ताकि वे सही जल प्रबंधन भी कर सकें।
17. विभिन्न धर्मगुरूओं और प्रवचनकारों से निवेदन किया जा सकता है कि वे अपने सार्वजनिक समारोहों और प्रवचनों में जलप्रबंधन को लेकर अपील जरूर करें। हर धर्म में पानी को लेकर सार्थक बातें कही गयी हैं उनका सहारा लेकर धर्मप्राण जनता में पानी का महत्व बताया जा सकता है।
18. केंद्र और राज्य सरकारें पानी को लेकर लघु फिल्में बना सकते हैं जिन्हें सिनेमाहालों में फिल्म के प्रसारम से पहले या मध्यांतर में दिखाया जा सकता है।
19. पारंपरिक मीडिया के प्रयोग से गांव-कस्बों तक यह संदेश पहुंचाया जा सकता है।
20. पत्रिकाओं के पानी को लेकर अंक निकाले जा सकते हैं जिनमें दुनिया भर पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों की जानकारी दी जा सकती है।
21.राज्यों के जनसंपर्क विभाग अपने नियमित विज्ञापनों में गर्मी और बारिश के दिनों में पानी के संदेश दे सकते हैं।


ऐसे अनेक विषय हो सकते हैं जिसके द्वारा हम जल के सवाल को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए समाज में जनचेतना फैला सकते हैं। यही रास्ता हमें बचाएगा और हमारे समाज को एक पानीदार समाज बनाएगा। पानीदार होना कोई साधारण बात नहीं है, क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं।

सोमवार, 22 जून 2009

मीडिया से छंट जायेंगे मंदी के बादल : रविकांत मित्तल


जनसंचार विभाग में आयोजित हुआ विभागाध्यक्ष दविंदर कौर उप्पल का विदाई समारोह
भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में विभाग की अध्यक्ष दविंदर कौर उप्पल का विदाई समारोह आयोजित किया गया। समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल उपस्थित थे। कार्यक्रम की शुरूआत विभाग के नवनियुक्त अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों के परिचय से की। इसके बाद विभाग के द्वितीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर के विद्यार्थियों ने मैडम उप्पल के साथ बिताये गये पलों को अपने शब्दों में व्यक्त किया।

कार्यक्रम में उपस्थित विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए श्री रविकांत मित्तल ने कहा कि मंदी के इस दौर में नौकरी पाने के लिए छात्रों को अधिक मेहनत की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि आजकल युवा मीडिया में नौकरी पाने के लिए शार्टकट रास्ता अपनाना चाहते हैं, लेकिन मेहनत का कोई विकल्प नहीं है। श्री मित्तल ने मंदी के इस दौर के बारे छात्रों से बातचीत करते हुए कहा जिस तरह से मंदी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं वो सब कुछ ही दिन में खत्म हो जाएंगी। उन्होंने छात्रों से मेहनत करने और लगन के साथ अपने कार्य में लगे रहने की अपील की। मीडिया का जिस तरह सर्वव्यापी विस्तार हो रहा है उसमें अपार संभावनाएं छिपी हुयी हैं।

कार्यक्रम में विभाग के द्वितीय सेमेस्टर के छात्र शिवेन्द्र ने मैडम उप्पल के लिए ‘‘विदा‘‘ नामक कविता का पाठ भी किया। मैडम उप्पल ने विभाग के छात्रों के उज्जवल भविष्य की कामना की और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहने को कहा।

समारोह में दृश्य-श्रव्य अध्ययन केन्द्र के विभागाध्यक्ष MkW- श्रीकांत सिंह, जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष MkW- पवित्र श्रीवास्तव, पुस्तकालय प्रभारी आरती सारंग, MkW- अविनाश बाजपेयी, मोनिका वर्मा सहित विभाग के सभी विद्यार्थी उपस्थित थे।

मंगलवार, 16 जून 2009

आरएसएस के मुस्लिम प्रेम से उपजे कुछ सवाल


यह प्यार अचानक उमड़ा क्यूं

हां, सात जून को मैं रायपुर में ही था। एक चौंकानेवाली खबर अखबारों में थी। खबर थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन शहर में हैं और वे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नामक किसी संगठन के तीन दिवसीय आयोजन में भाग लेने के लिए आए हैं। खबर में बताया गया था कि रायपुर शहर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की बैठक 4 जून को हो चुकी है और अब एक प्रशिक्षण शिविर चल रहा है जिसमें देशभर के लगभग 215 लोग भाग ले रहे हैं जो लगभग 22 राज्यों से आए हुए थे। इस आयोजन के समापन के दिन राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, आरएसएस की ओर से इस काम को देखने वाले इंद्रेश कुमार भी सुदर्शन के साथ मंच पर थे।
हालांकि आरएसएस के बारे में जैसा सुना और बताया जाता है कि वह एक हिंदू संगठन है और मुसलमानों से दूरी बनाए रखने में ही उसे मजा आता है। यह भी माना जाता है कि संघ मुस्लिम विरोधी भी है। किंतु इस प्रकार की छवि रखनेवाले संगठन की ऐसी कोशिश की तो मीडिया में जोरदार चर्चा होनी चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखा। इस आयोजन की राष्ट्रीय मीडिया में किसी तरह की भी चर्चा नहीं हुयी। जबकि लोगों को यह जानने का हक है कि जब सुर्दशन जैसे कट्टर हिंदू नेता मुस्लिम समाज के साथ होते हैं तो उनके संवाद की भाषा क्या होती है, उनकी देहभाषा क्या होती है। आरएसएस के लिए ऐसा क्या जरूरी है कि वह मुसलमानों के बीच जाए और उनकी सुने या अपनी सुनाए। यह सवाल इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है और हिंदू राष्ट्र के विचार में उसकी आस्था अविचल है। एक आरएसएस नेता कहते हैं हमने इसलिए खुद को हिंदू स्वंयसेवक संघ नहीं कहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहा। जब इस आयोजन के संयोजक डा. सलीम राज से इस अचानक पैदा हुयी मुहब्बत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि यह सच है कि आरएसएस के विरोधियों ने हमारी छवि मुस्लिम विरोधी बना दी है जबकि वास्तविकता यह नहीं है। सलीम राज मानते हैं कि उनसे देर तो हुयी है पर बहुत देर नहीं हुयी है।
मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि ‘सत्य’ दूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए ‘जनता का एजेंडा’ किसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है।
सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के अर्द्धशती भीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है। कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो ‘जिन्नावादी असहजता’ है, उस पर उन्हें लगातार ‘भारतवादी’ होने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम समाज का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता ।भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें ‘उपनिषद्’ का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है। सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि आज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेजी थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी ‘मुस्लिम कांस्टिटुएंसी’ बनानी शुरु की तो वे खुद को ‘कट्टर मुस्लिम’ प्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे थे । मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है ति भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाते हैं । आरएसएस जैसे संगठन भी यदि यह मानने लगे हैं कि देश की प्रगति बिना मुस्लिम समाज को साथ लिए संभव नहीं है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। जैसा कि रायपुर सम्मेलन का निष्कर्ष है –शिक्षा और वतनपरस्ती ही मुस्लिम समाज की मुक्ति में सहायक हो सकते हैं। यह मान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए कि आरएसएस इस पहल को यदि सच्चे दिल से कर रहा है तो इससे सही परिणाम भी दिखने लगेंगें। क्योंकि आरएसएस की निष्ठा और ईमानदारी पर शक उसके विरोधी भी नहीं करते। आरएसएस जैसा कह रहा है वैसा कर पाया तो भारतीय जनमानस में फैले असुरक्षा और अंधकार के बाद छंट सकते हैं। यही क्षण भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।