पुण्यतिथि ( 9 अप्रैल, 1991) पर विशेष
राजेंद्र माथुर यानी हिंदी पत्रकारिता का वह नाम जिसे छोड़कर हम पूरे नहीं हो सकते। उनकी बनाई राह आज उनकी अनुपस्थिति में ज्यादा व्यापक और स्वीकार्य होती जा रही है। वे सच्चे अर्थों में पत्रकार थे और उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को नए मुहावरे, शिल्प, अभिनव प्रयोगों से संवारा। वे इस सदी के एक ऐसे पत्रकार थे, जिसको एक साथ अखबार की स्वीकार्यता,विविधता और जिम्मेदारी का अहसास था। वे सिर्फ संपादक नहीं, विचारों के शिल्पी, कलाकार और इंजीनियर थे।
अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे श्री माथुर जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने विचार की पत्रकारिता की ही राह चुनी। वे खबरों के साथ- साथ विचार को भी महत्वपूर्ण मानते थे। वे घटनाओं के होने की प्रक्रिया के और उनके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे। राष्ट्रीय स्तर के पत्र-प्रतिष्ठान से जुड़े होने के बावजूद संपादक पद का रौब-रूतबा उन्हें छू तक नहीं पाया था।
अंग्रेजी में साधिकार लिखने की क्षमता के बावजूद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपना क्षेत्र बनाया। उनकी यह चिंता हमेशा बनी रही कि अखबार लोक से जुड़ें और लोकमंगल के लिए काम करें। वे हिंदी की पत्रकारिता को अंग्रेजी पत्रकारिता से हर दृष्टि से बेहतर देखना चाहते थे। उनकी नजर हमेशा इस बात पर लगी रही कि कैसे हिंदी के पाठकों को एक बेहतर अखबार दिया जा सकता है। उनका संपूर्ण अखबार कैसा होगा, यह वे काफी कुछ नई दुनिया व नवभारत टाइम्स के माध्यम से करते भी नजर आए। परंतु वे संतुष्ट होकर बैठने वाले लोगों में न थे। निरंतर बेहतर संभावनाओं की तलाश में जुटे रहे। वे बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि जिला स्तर पर अच्छे अखबार निकलने चाहिए। वे यह भी मानते थे कि हर प्रदेश के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचने पर ही कोई अखबार राष्ट्रीय हो सकता है।
अपनी इसी सोच को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने नवभारत टाइम्स के जयपुर, लखनऊ और पटना संस्करण प्रारंभ कराए। यह अलग बात है कि बाद में ये तीनों संस्करण तमाम कारणों से बंद हो गए। माथुर जी मानते थे कि राष्ट्रीय पत्रों के स्थानीय संस्करणों से प्रांतीय पत्रकारिता में निखार आएगा और राष्ट्रीय अखबारों से कुछ सीखने को मिलेगा। पर हुआ उल्टा। प्रांतीय पत्र तो आगे बढ़े और राष्ट्रीय पत्र ही फिसड्डी साबित हुए।
राजेंद्र माथुर व्यवसाय के शिल्प और कौशल से बड़ी गंभीरता से जुड़े थे। वे जब संपूर्ण पत्र की बात करते थे तो उनकी नजर में विचारों और समाचारों की मिश्रित संवेदना से जुड़ा अखबार होता था। ऐसा अखबार जिसके पाठक न सिर्फ सूचनाएं पाएं वरन विचारों की गहराइयों से भी जुड़ें। वे पत्र की विविधता, क्षेत्रीयता एवं भाषायी समझ पर अपनी निजी समझ रखते थे। दिल्ली में बैठकर भी वे मालवांचल के क्षेत्रीय शब्दों का इतना बेहतरीन इस्तेमाल करते थे कि वह सबकी समझ में आ जाता था।
वे सत्ता और पत्रकारिता की दोस्ती नहीं चाहते थे। उनकी यह धारणा हठ के स्तर पर विद्यमान थी। वे बेबाक लिखते थे। उन्हें न तो विवाद पैदा करने का शौक था न ही वे विवादों से डरते थे। अपनी बात को पूरी दृढ़ता से कहना और उसपर डटे रहना उनकी आदत में शुमार था। इसलिए पार्टी लाइन तो दूर उनके लेखन में पोलिटकल लाइन भी तलाशना मुश्किल है। अपनी गलतियों को स्वीकार करना और पूर्व लिखित को साहस के साथ गलत बताना उनके ही वश की बात थी। जहां वे गलत होते स्वीकार लेते थे। आप पूछें कि पहले तो आपने इस विषय पर यह कहा था तो वे कहते अब मेरा यह विचार है। इस सहज वृत्ति को आप अस्थिर सोच या विरोधाभास कह सकते हैं, पर माथुर जी के संदर्भ में यह कहने का साहस नहीं पालना चाहिए। अपने लेखन में बातचीत करते हुए पाठक को विचारों की भूमि पर ले जाते थे। वह उनके भाषायी सम्मोहन में बंधा चला भी जाता था। उनके लेखन से सवालों की कौंध पैदा होती थी।
राजनीति के प्रति संतुलित और संयमित दृष्टिकोण के नाते उन्हें किसी खूंटे में नहीं बांधा जा सकता। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरकर वे किसी भी पक्ष को समाज निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी होते देखना चाहते थे। उनके लिए कोई भी अश्पृश्य नहीं था। वह चाहे हिंदूवादी हो या साम्यवादी। वे जातिभेद के, वर्गभेद के लगातार उठते नारों और हुंकारों की भयावहता से परिचित थे। वे बराबर यह समझने की प्रक्रिया में लगे रहे कि सामाजिक न्याय की लड़ाई का रूप ऐसा क्यों हो रहा है। इन अर्थों में वे समाज को बांटने वाली शक्तियों के खिलाफ थे। यही कशमकश उनके लेखन में कहीं उनसे आरक्षण का सर्मथन कराती है तो कहीं थोड़ा विरोध।
वे आम नागरिक की तरह पत्रकारों से भी अपेक्षित जिम्मेदारी निभाने की गारंटी चाहते थे। वे चाहते थे कि शब्द ताकत लोंगों में नहीं, सत्ता में भय पैदा करे। ताकि सत्ता शब्द की हिंसा न कर सके। अपनी पत्रकारिता को उन्होंने लोंगों के संत्रासों से जोड़ा। आज जबकि भाषाई पत्रकारिता कई तरह की चुनौतियों से जूझ रही है राजेंद्र माथुर जैसे संपादक की याद बहुत स्वाभाविक और मामिर्क हो उठती है।
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
राजेंद्र माथुर होने का मतलब
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माटीपुत्र
प्रो.संजय द्विवेदी, देश के जाने-माने पत्रकार, संपादक, लेखक, संस्कृतिकर्मी और मीडिया गुरु हैं। दैनिक भास्कर, हरिभूमि, नवभारत, स्वदेश, इंफो इंडिया डाटकाम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाली। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष मासकम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष और विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति और रजिस्ट्रार रहे। संप्रति भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली (आईआईएमसी) के महानिदेशक हैं। 'मीडिया विमर्श' पत्रिका के सलाहकार संपादक। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन। अब तक 32 पुस्तकों का लेखन और संपादन। अनेक संगठनों द्वारा मीडिया क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित।
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