बुधवार, 27 मई 2009

कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर


इस लूट में हम सब शामिल थे। यह चोरी की बात नहीं थी, डकैती की शक्ल अख्तियार कर चुकी थी। पहले चुपचाप एकाध साथी की नीयत बिगड़ती थी, वह कुछ ले-देकर किनारे हो जाता था, अपनी थोड़ी सी बदनामी के साथ। पर इस बार तस्वीर बदली हुयी थी मीडिया के संस्थान खुद लूट पर उतारू थे। वे राजनीति के सामने खड़े होकर उनके भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा मांग रहे थे। जिस तरह की बातें और जैसे ताने मीडिया ने इस बार सुने हैं वैसा कभी अतीत में होता दिखाई-सुनाई नहीं दिया। अचानक हम इतने पतित हो गए यह मान लेना भी ठीक नहीं होगा। यह एक ऐसी गिरावट थी जो धीरे-धीरे हुयी और आज जब इतने विकृत रूप में सामने आई है तो यह सोचना मुश्किल है कि आखिर हम अपना मुंह कहां छिपाएं।

चुनाव के दौरान खबरों की जगह को बेचना अब एक ऐसे पाप के रूप में सामने है कि मीडिया की विश्वसनीयता और प्रामणिकता की बातें अब गुजरे जमाने की बात लगती है। भरोसा नहीं होता कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर खुद पर मुग्ध होने वाली जमातें इस सवाल पर मुंह क्यों चुरा रही हैं। देश की हर समस्या पर विचार करने वाले लोग अपनी खुद की समस्या पर इस कदर खामोश क्यों हैं। बाजार और नौकरी क्या इतना मजबूर बना देती है कि सच्चाई को खामोश हो जाना पड़े।

राजनीति के साथ पत्रकारिता का आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता रहा है, वह रिश्ता आज बाजार में है, कसौटी पर भी है। राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार में हम हिस्सा मांग रहे हैं, साथ ही सही और अच्छी सरकार चुनने की अपीलें भी कर रहे हैं। हमारा कौन सा चेहरा सही है जो मतदान के द्वारा अच्छी सरकारें चुनने की अपील कर रहा है या जो राजनीति की देहरी पर झोली फैलाए खड़ा है। यह तो वैसे ही जैसे- हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे। मीडिया की नंगई कोई इस चुनाव ही हुई है ऐसा नहीं है, इस चुनाव में वह लोगों के सामने आई है क्योंकि कुछ राजनेताओं ने इस बार शिकायती अंदाज में चीजें दर्ज करवा दीं। जाहिर तौर पर मीडिया के इस नए चेहरे के बारे में आम लोग नहीं जानते थे पर अब चेहरा छिपाना मुश्किल हो गया है। पहले यह बात बहुत अतिरंजित लगती थी कि राजनीति-मीडिया-उद्योग-माफिया का एक गठजोड़ बन चुका है जो चीजों को अपने हिसाब से अनुकूलित कर रहा है। लेकिन इस चुनाव ने इस सच को बहुत गंभीरता से जतला दिया है। बावजूद इसके मीडिया में इसे लेकर कोई पापबोध, प्रायश्यित नहीं दिखता। भ्रष्टाचार की उसी गंदगी में उन्हीं लोंगो के साथ लोटते हुए अब हमें कोई शर्म नहीं है जिनके खिलाफ मीडिया को सक्रिय होना चाहिए। अकबर इलाहाबादी ने न जाने क्या सोचकर लिखा था-

खींचों न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।

उन्हें क्या पता था कि आजादी के छः दशक बाद ही वे दिन आ जाएंगें जब पत्रकारिता, राजनीति और राजा की गोद में ही बैठकर स्वयं को धन्य समझेगी। यहां उसे किसी का मुकाबला नहीं करना है उसे तो सत्ता की गोद में बैठकर पैकेज प्राप्त करना है। पत्रकारिता की यह दशा देखकर जेम्स आगस्टस हिक्की की आत्मा रो रही होगी जिसने अंग्रेज होने के बावजूद अंग्रेजी शासकों के खिलाफ लिखा और अपनी पत्रकारिता को अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए समर्पित बताया। आजादी के पूर्व हमारी पत्रकारिता सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करती थी। आज वह जनांदोलनों से कटकर मात्र सत्ताधीशों की वाणी एवं सत्ता-संघर्ष का आईना भर रह गई है। बात बुरी है पर क्या पत्रकारिता का काम सिर्फ सौदों में शामिल होना नहीं रह गया है। हमें अगर लोग दलाल शब्द से संबोधित करने लगे हैं तो इसके पीछे हमारा चरित्र जरूर जिम्मेदार है। स्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक नेताओं, अफसरों, माफिया गिरोहों की सांठगांठ से सार्वजनिक धन की लूटपाट एवं बंदरबांट में देश का कबाड़ा हो गया, पर मीडिया की इन प्रसंगों पर कोई जंग या प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती। उल्टे ऐसे घृणित समूहों-जमातों के प्रति नरम रूख अपनाने एवं उन्हें सहयोग देने के आरोप पत्रकारों पर जरूर लगे। सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति ऐसी समर्पण भावना ने न सिर्फ मीडिया की गरिमा गिराई वरन पूरे व्यवसाय को कलंकित किया। इसी के चलते मीडिया में आम जनता की आवाज के बचाए सत्ता की राजनीति और उसके द्वन्द्व प्रमुखता पाते हैं। मीडिया की बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आम आदमी के पास तक पहुंचते और उनसे स्वस्थ संवाद विकसित करते । कुछ समाचार पत्रों ने ऐसे प्रयास किए भी किंतु यह हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति न बन सकी। मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता ने मूलतः शहरी मध्यवर्ग के पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना सारा ताना-बाना बुना। इसके चलते अखबार सिर्फ इन्हीं पाठकों के प्रतिनिधि बनकर रह गए और एक बड़ा तबका जो गरीबी, अत्याचार एवं व्यवस्था के दंश को झेल रहा है, मीडिया की नजर से दूर है। ऐसे में मीडिया की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवालिया निशान लगते हैं तो आश्चर्य क्या है ?

मीडिया जैसे प्रभावी जनसंचार माध्यम की सारी विधाएं प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और इंटरनेट जब एक सुर से जनांदोलनों और जिंदगी के सवालों से मुंह चुराने में लगे हों तो विकल्प फिर उसी दर्शक और पाठक के पास है। वह अपनी अस्वीकृति से ही इन माध्यमों को दंडित कर सकता है। एक जागरूक समाज ही अपनी राजनीति, प्रशासन और जनमाध्यमों को नियंत्रित कर सकता है। पर क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं। इस द्वंद को भी समझने की जरूरत है कि बकवास करते न्यूज चैनल, घर फोड़ू सीरियल हिट हो जाते हैं और सही खबरों को परोसते चैनल टीआरपी की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। वैचारिक भूख मिटाने और सूचना से भरे पूरे प्रकाशन बंद हो जाते हैं जबकि हल्की रूचियों को तुष्ट करने वाली पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन लोकप्रियता के शिखर पर है। ये कई सवाल हैं जिनमें इस संकट के प्रश्न और उत्तर दोनों छिपे हैं। यह अकारण नहीं है देश की सर्वाधिक बिकनेवाली पत्रिका को साल में दो बार सेक्स हैबिट्स पर सर्वेक्षण छापने पड़ते हैं। क्या इसके बाद यह कहना जरूरी है कि जैसा समाज होगा वैसी ही राजनीति और वैसा ही उसका मीडिया। जाहिर तौर पर इन बेहद प्रभावशाली माध्यमों के इस्तेमाल की शैली हमने अभी विकसित नहीं की है। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि – सस्ते में न तो झूठ को पढ़िए ना ही उसे खरीदिए। खबरों की नीलामी के दौर में अखबारों के दाम प्रतिस्पर्धा के चलते कम हो रहे हैं तो उनकी प्रामणिकता भी कम हो रही है। लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में जैसी अश्वलीलता का प्रर्दशन मीडिया ने खबरों को बेचकर किया है उसकी पूरी दुनिया में आज चर्चा हो रही है। ऐसे में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दम भरने वाले मीडिया ने आने वाली पीढ़ियों के सामने जो मिशाल पेश की है उसे न सिर्फ लोकतंत्र विरोधी, जनविरोधी कहा जाएगा बल्कि इतिहास में यह प्रसंग एक काले अध्याय के रूप में ही दर्ज किया जाना चाहिए। हमारी खामोशी ने इस पूरे पापाचार पर मुहर भी लगा दी है, लेकिन गर सबक की बात की जाए तो, सबक तो हमने कुछ भी नहीं सीखा है। हम तो भ्रष्टाचार के संस्थानीकरण पर मुग्ध हैं। पैकेज के इस खेल ने हमारे चेहरों पर जो कालिख पोती है उसे साफ करने में हमें बहुत दिन लगेंगें।

1 टिप्पणी:

  1. जयराम दास.31 मई 2009 को 1:40 am बजे

    दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें..किस जमाने के आदमी तुम हो.....!

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