शुक्रवार, 29 मई 2009

कैसा बन रहा है हमारा भारत

प्राथमिक शिक्षा की बदहाली पर सोचना होगा

नारे 21 वीं सदी को भारत की सदी बनाने के हैं, लेकिन हमारी प्राथमिक शिक्षा की बदहाली तो यही कहती है कि यह सपना कहीं सपना ही न रह जाए। जिस तरह से इस बार परीक्षा परिणाम आए हैं वे चौंकाते हैं, सरकारी स्कूलों में पढ़ रही नई पीढ़ी का हम कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं इस पर सवाल खड़े हो गए हैं।


परीक्षा के बिगड़े परिणामों से सरकार हैरत में है और अब इसकी समीक्षा की जा रही है। पर देखना होगा कि क्या इसके हालात सरकारी तंत्र ने ही ऐसे नहीं बना दिए हैं। आज हालत यह है कि थोड़ी सी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहते। यहां ठहरकर सोचना होगा कि आजादी के छः दशक में ऐसा क्या हुआ कि हमारे सरकारी स्कूल जहां देश का भविष्य गढ़ा जाना था वे एक अराजकता के केंद्र में तब्दील हो गए। सरकारी शिक्षकों को ऐसा क्या हुआ है कि वे सरकारी नौकरी में आकर एक ऐसे व्यक्ति में तब्दील हो जाते हैं जिसमें काम का जूनून प्रायः नहीं दिखता। सरकारी तंत्र में ऐसा क्या है कि वह व्यक्ति को अपने कर्तव्य के प्रति ही उदासीन बना देता है। मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, उप्र, बिहार जैसे तमाम राज्य जहां आज भी एक बड़ी आबादी सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर है हमें अपनी प्राथमिक शिक्षा के ढांचे पर विचार करना होगा। हमें यह मान लेना चाहिए कि हमारे स्कूल स्लम में तब्दील हो रहे हैं, जहां एक बड़ी आबादी के सपने दफन किए जा रहे हैं।


चमकीली प्रगति कई तरह का भारत रचकर नहीं हो सकती है। लेकिन सचाई यह है कि हम भारत और इंडिया के बीच की खाई और चौड़ी करते जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों से पढ़कर निकली पीढ़ी, अंग्रेजी और हिंदी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों से निकली पीढ़ी के अलावा एक बहुत हाई-फाई पीढ़ी भी हम तैयार कर रहे हैं जो आधुनिकतम सुविधाओं से लैस स्कूलों में तैयार हो रही है और लाखों रूपए सालाना फीस देकर पढ़ रही है। यह तीन तरह का भारत हम एक साथ तैयार कर रहे हैं। जिसमें पहला भारत सेवा के लिए, दूसरा बाबू बनने के लिए और तीसरा शासक बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। इससे भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवेश में बहुत गहरे विभेद पैदा हो रहे हैं जिसके नकारात्मक फलितार्थ हमें दिखाई देने लगे हैं। समाज में इस तरह के विभाजन के अपने खतरे हैं जिसे उठाने के लिए देश तैयार नहीं है। अपने सरकारी स्कूलों को इस हाल में जाता देखने के लिए सरकारें विवश हैं क्योंकि इनकी उपेक्षा के चलते ही ये स्कूल इन हालात में पहुंचे है। सरकार की शिक्षा के प्रति उदासीनता के चलते ही प्राथमिक शिक्षा का बाजार पनपा है और अब उसके हाथ उच्च शिक्षा तक भी पहुंच रहे हैं।


क्या कारण है कि ये सरकारी स्कूल बदहाली के शिकार हैं। क्या कारण है कि इनमें काम करने वाले अध्यापक आज शिक्षा कर्मी के नाम से भर्ती किए जा रहे हैं जिन्हें चपरासी से भी कम वेतन दिया जा रहा है। इसके अलावा तमाम सरकारी काम भी इसी अमले के भरोसे डाल दिए जाते हैं। मतदाता सूची के सर्वेक्षण, मतदान कराने से लेकर, सरकार की तमाम योजनाओं में इन्हीं शिक्षकों का इस्तेमाल किया जाता है। जाहिर तौर पर हमारी प्राथमिक शिक्षा इन्हीं स्थितियों में दम तोड़ रही है। हमें देखना होगा कि हम कैसे इस खोखली होती नींव को बचा सकते हैं। एक बहुत व्यावहारिक सुझाव यह है कि सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के बच्चे भी इन स्कूलों में नहीं जाते, क्या ही अच्छा होता कि यह अनिर्वायता होती कि हर सरकारी कर्मचारी का बच्चे अब सरकारी स्कूल में जाएंगें। इससे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार तो कम होगा ही सरकारी स्कूलों के हालात सुधर जाएंगें। क्योंकि प्राथमिक एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था आजतक हम लागू नहीं कर पाए, इससे हमारा लोकतंत्र बेमानी बनकर रह गया है। तमाम कमेटियों की रिपोर्ट धूल फांक रही है। बच्चे एक प्रयोग का विषय बनकर रह गए हैं। यशपाल कमेटी कहती है कि उन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा दीजिए,हम उनपर सारे विषय अंग्रेजी में पढ़ने का दबाव बनाए हुए हैं। यह शिक्षा की विसंगतियां हमारे देश के भविष्य पर ग्रहण की तरह खड़ी हैं। बच्चों के परीक्षा परिणाम बिगड़ रहे हैं। शिक्षक मनमानी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें सुविधाएं नहीं हैं। सीमित क्षमताओं के साथ ज्यादा अपेक्षाएं पाली जा रही हैं। पाठ्यक्रमों पर भी विचार का सही समय आ गया है। किताबों का बोझ और रटने वाली विद्या से तैयार हो रही पीढ़ी आज के दौर की चुनौतियों से जूझने के लिए कितनी सक्षम है यह भी देखना होगा। हालात बिगड़ने पर ही जागने वाले हम हिंदुस्तानियों ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की विसंगतियों पर आज गौर नहीं किया तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक लाचार और नाराज पीढ़ी का निर्माण करके हम अपने देश के सुखद भविष्य की कामना तो नहीं कर सकते।

3 टिप्‍पणियां:

  1. जयराम दास.31 मई 2009 को 1:36 am बजे

    कल ही पढ़ रहा था कहीं..प्राथमिक शिक्षा को मानावाधिकार के रूप मे भी स्वीकार किया है विश्व समुदाय ने...निश्चय ही आपने सही मसले को सटीक तरह से उठाया है...आशा है कर्णधारगण ध्यान देंगे.

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  2. sab dhokha hai ?
    sarkari aur niji school ki bat ki jati hai .
    sakari ka matlab kharaab aur doon school ka matlab achchha shool ...
    ye aazadi ke pahale se hi shuru ho chuka tha....
    ye bhee angrejo aur tathakathit bhartiyo ki sajish thi aur hai....
    school -school hota hai.. sarkari aur niji shabd aate hi bhed shuru ho jata hai.......
    pratiyogi parikshayen lekar samaanta ki baat ki jati hai...
    isame bhee dhookha hai......

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  3. लाखों के खर्च तो दोनों जगह हो रहे हैं चाहे सरकारी स्कूल हो या निजी, निजी स्कूल में हम फीस देकर खर्च रहे हैं तो सरकारी स्कूल में वेतन से लेकर विभिन्न मदों में. गुणवत्ता की अगर बात करें तो निसंदेह सरकार कि छाँव मिलते ही शिक्षक गण अपनी मर्यादा भूल जाते हैं और अपने कर्त्तव्य के बजाय जिस पर ध्यान देते हैं परिणाम आपके सामने है.

    अगर हम खर्च कर शिस्क्षा ले रहे हैं तो निशंदेह इसके लिए सरकार के साथ हमारी नीतियों कि गलतियां है जिसका खामियाजा हम ही भुगत रहे हैं, सरकार का मद भी हम ही पूरा करते हैं और निजी विद्यालय में फीस भी हम ही देते हैं मगर जहाँ सरकार कि बात आते ही ढुलमुल क्यूँ हो जाता है, क्यूँ नहीं हम शिक्षक के उसके परिणाम के आधार पर वेतन देते हैं, योग्यता और काबिलियत कि बजाय सरकारी ठप्पा लगते ही काबिल से काबिल लोग निकम्मे कि श्रेणी में आ जाते हैं.

    जयराम जी मानवाधिकार नमक संस्था ना ही मानव के लिए कार्य करती है और ना ही अधिकार के लिए लड़ती है, सभी ने देखा कि किस तरह इस संस्था के विवादास्पद कार्य ने मानवता के शर्मिन्दा किया है, राजनैतिक पार्टियों कि तरह अपने हित के लिए धन उगाही करना मानवाधिकार नहीं हो सकता.

    वस्तुतः हमें अपने सरंचना पर ही पुनर्विचार करने की जरुरत है.
    धन्यवाद

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