गुरुवार, 24 सितंबर 2009

पचास साल का दूरदर्शन



नए बाजार में खुद को तलाशता एक जनमाध्यम


अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना चाहिए। वह उस राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। - पीसी जोशी पैनल

आज 2009 में खड़े होकर हम इस टिप्पणी से कितना सहमत हो सकते हैं। जाहिर तौर पर यह टिप्पणी एक बड़ी बहस की मांग करती है। अब जबकि देश में प्राइवेट चैनलों की संख्या 450 के आसपास जा पहुंची है तो दूरदर्शन भी अपना परिवार बढ़ाकर 30 चैनलों के नेटवर्क में बदल चुका है। 15 सितंबर,1959 को हमारे यहां टीवी की शुरूआत हुयी। आकाशवाणी की तरह दूरदर्शन के लिए हमारी सरकारों में कोई स्वागतभाव नहीं था। भारत सरकार और वित्त मंत्रालय की यह धारणा बनी हुयी थी कि टीवी तो विलास की चीज है। शायद इसीलिए इसे रेडियो की तरह पश्चिम के साथ ही, प्रारंभ नहीं किया जा सका।

दूरदर्शन को लेकर सरकारी हिचक के कारण इसे एक माध्यम के रूप में स्थापित होने में काफी समय लगा। यह तो इस माध्यम की शक्ति ही थी कि उसने बहुत कम समय की यात्रा में खुद को न सिर्फ स्थापित किया वरन तमाम जनमाध्यमों को कड़ी चुनौती भी दी। हम देखें तो 1966 में दूरदर्शन को लेकर पहला गंभीर प्रयत्न चंदा कमेटी के माध्यम से नजर आया। जिसने उसे रेडियो के बंधन से मुक्त करने और एक स्वतंत्र माध्यम के रूप में काम करने की सलाह दी। कमेटी ने कहा- उसे (टीवी को) उस रेडियो के उपांग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जो (रेडियो)खुद आमूल परिवर्तन की दरकार रखता हो।

इसके लगभग एक दशक बाद 1977 में बनी बीजी वर्गीज कमेटी ने भी अपनी 1978 में दी गयी रिपोर्ट में भी स्वायत्तता की ही बात कही। कुल मिलाकर दूरदर्शन को लेकर सरकारी रवैये के चलते उसके स्वाभाविक विकास में भी बाधा ही पड़ी। संचार माध्यमों की विकासमूलक भूमिका को दुनिया भर में स्वीकृति मिल चुकी थी। शिक्षण और सूचना का दौर भी इसी माध्यम के साथ आगे बढ़ना था। कुल मिलाकर इस भूमिका को स्वीकृति मिल रही थी और भारत की सूचना नीति (1985) इसे काफी कुछ साफ करती नजर आती है, जिसमें दूरदर्शन व्यापक फैलाव के सपने न सिर्फ देखे गए वरन उस दिशा में काफी काम भी हुआ। हालांकि 1982 में एशियाड के आयोजन के चलते दूरदर्शन को रंगीन किया गया। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री बसंत साठे की इसमें बड़ी भूमिका रही। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हमसे पहले ही पाकिस्तान, श्रीलंका और बांगलादेश में रंगीन टीवी आ चुका था। दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक शिव शर्मा के मुताबिक एशियाड के बेहतर प्रसारण के लिए पांच ओबी वैन, और 20 कैमरे खरीदे गए, नौ लोगों की टीम दी गयी। जिस दिन एशियाड का प्रसारण प्रारंभ हुआ उस दिन वह टीम 900 लोगों की हो चुकी थी। इस प्रसारण की दुनिया भर में तारीफ हुयी।

दूरदर्शन का यह सफर जारी रहा। सही मायनों में 1982 से 1991 तक का समय भारतीय दूरदर्शन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है जिसने न सिर्फ उसके नायक गढ़े वरन एक दूरदर्शन संस्कृति का विकास भी किया। यह उसकी लोकप्रियता का चरम था जहां आम जनता के बीच उसके समाचार वाचकों, धारावाहिकों के अभिनेताओं की छवि एक नायक सरीखी हो चुकी थी। दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रमों में चित्रहार का प्रमुख स्थान था। यह आधे धटे का फिल्मी गीतों का कार्यक्रम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था। दूरदर्शन पर आने वाले शैक्षणिक कार्यक्रमों के अलावा कृषि दर्शन नाम का कार्यक्रम भी काफी देखा जाता था। इसे ऐतिहासिक विस्तार ही कहेंगें कि जहां 1962 में देश में मात्र 41 टीवी सेट थे वहीं 1985 आते-आते इनकी संख्या 67 लाख, 85 हजार से ज्यादा हो चुकी थी। रंगीन प्रसारण और सोप आपेरा ने इसे और विस्तार दिया। हमलोग, बुनियाद धारावाहिक के माध्यम से मनोहर श्याम जोशी ने एक क्रांति की। ये जो है जिंदगी, फिर वही तलाश जैसे धारावाहिक काफी पसंद किए गए। इसके बाद दूरदर्शन पर धार्मिक धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ। रामानंद सागर की रामायण और उसके चमत्कारी प्रभाव ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले। रामायण के प्रसारण के समय गांवों-शहरों में जिंदगी ठहर जाती थी। इस धारावाहिक का ही असर था कि इसके पात्र सीता और रावण दोनों लोकसभा तक पहुंच गए। आंकड़ों पर भरोसा करें तो करीब 10 करोड़ लोगों ने इसका हर एपीसोड देखा। इसके अलावा इसी कड़ी में महाभारत को भी अपार लोकप्रियता मिली। भारत एक खोज जहां एक नया स्वाद लेकर आया वहीं मुंगेरीलाल के हसीन सपने, कक्का जी कहिन, करमचंद, मुल्ला नसीरूद्दीन, वागले की दुनिया, तमस जैसे धारावाहिक अपनी जगह बनाने में सफल रहे। एकमात्र चैनल होने के नाते प्रतिस्पर्धा का अभाव तो था ही किंतु जो कार्यक्रम सराहे गए उनकी गुणवत्ता से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

सही मायनों में दूरदर्शन ने देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए एक पूरी पीढी का विकास किया। आज की बहुत विकसित हो चुकी टीवी न्यूज मीडिया के स्व. कमलेश्वर, स्व. सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रणव राय, विनोद दुआ, नलिनी सिंह, अनुराधा प्रसाद, सईद नकवी या राहुल देव, ये सभी दूरदर्शन के माध्यम से ही प्रकाश में आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह की प्रस्तुति आजतक, दूरदर्शन के मैट्रो चैनल के माध्यम से ही प्रकाश में आयी। यही आधे घंटे का कार्यक्रम बाद में टीवी टुडे कंपनी के पूर्ण चैनल आजतक के रूप में दिख रहा। प्रणव राय भी एनडीटीवी इंडिया के मालिक हैं। इसी तरह अनुराधा प्रसाद भी अब न्यूज 24 चैनल चला रही हैं। राहुल देव, सीएनईबी न्यूज चैनल के संपादक हैं। दूरदर्शन के मंच से सामने आए ये पत्रकार आज खुद उसके एक बड़े प्रतिद्वंदी के रूप में हैं, किसी माध्यम की सफलता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि टीवी मीडिया की एक पूरी पीढ़ी के विकास एवं वातावरण निर्माण का श्रेय दूरदर्शन को ही जाता है। चुनावी नतीजों के कई दिनों के प्रसारण की याद करें तो दूरदर्शन का महत्व और नेटवर्क की कार्यक्षमता याद आएगी। तब होने वाली बहसें, कई दिनों तक चलने वाली मतगणना में भी दूरदर्शन ने अपनी ताकत का अहसास कराया था। 1989 की मतगणना की याद करें दूरदर्शन ने 100 जगहों पर संवाददाताओं को रखकर चुनाव का सीधा प्रसारण कराया था। प्रणव राय और विनोद दुआ की जोड़ी का आनस्क्रीन कमाल इसमें दिखा था। क्रिकेट के खेलों के सीधे प्रसारण से लेकर, संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण का श्रेय दूरदर्शन के हिस्से दर्ज है। दूरदर्शन ने एक मास कल्चर भी रचा था। गोविंद निहलानी, माणिक सरकार, गिरीश करनाड, तपन सिन्हा, महेश भट्ट जैसे लोग दूरदर्शन से यूं ही नहीं जुड़े थे। उन दिनों मंडी हाउस देश की कला,संस्कृति और प्रदर्शन कलाओं को मंच देने का एक बड़ा केंद्र बन गया था।

सही मायने में अर्थपूर्ण कार्यक्रमों और भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए देश की भावनाओं को स्वर देने का काम दूरदर्शन ने किया है। आज जबकि 24 घंटे के तमाम निजी समाचार चैनल अपनी भाषा, प्रस्तुति और भौंडेपन को लेकर आलोचना के शिकार हो रहे हैं, तब भी दूरदर्शन का डीडी न्यूज चैनल अपनी प्रस्तुति के चलते राहत का सबब बन गया है। क्योंकि लोग कहने लगे हैं कि बाकी चैनलों में खबरें होती ही कहां हैं। दूरदर्शन आज भी अपने न्यूज नेटवर्क और तंत्र के लिहाज से बेहद सक्षम तंत्र है। उसकी पहुंच का आज भी किसी चैनल के पास तोड़ नहीं है। फिर क्या कारण है कि आज के चमकीले बाजार तंत्र में उसकी आवाज अनसुनी की जा रही है। उसके भौतिक विकास, पहुंच, सक्षम तकनीकी तंत्र के बावजूद उसके सामने चुनौतियां कठिन हैं। उसे आज के बाजारवादी तंत्र में अपनी उपयोगिता के साथ-साथ, कटेंट को सरोकारी बनाने की भी चुनौती है। नया बाजार, नए सूत्रों और नए मानदंडों के साथ विकसित हो रहा है। इसके लिए दूरदर्शन को एक नया रास्ता पकड़ना होगा। आने वाले समय में दूरदर्शन को भी हाई डिफिनिशन टीवी और मोबाइल टीवी शुरू करना होगा। इससे उसे बहुत लाभ होगा। दूरदर्शन की डायरेक्ट टू होम सेवा ने उसकी पहुंच को विस्तारित किया है। इसे और विस्तारित किए जाने की जरूरत है। इसमें पेड चैनलों को शामिल कर उसकी उपयोगिता को बढ़ाया जा सकता है। आने वाले दिनों में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में दूरदर्शन ही होस्ट ब्राडकास्टर है, इसमें उसे अपनी तकनालाजी को उन्नत करते हुए विश्वस्तरीय प्रसारण मुहैया कराने का मौका मिलेगा। एशियाड के माध्यम से उसने जो ख्याति पाई थी, राष्ट्रमंडल खेल उसमें एक अवसर ही है जब उसे अपनी सिद्धता और उपयोगिता साबित करनी है। लाख बाजारी दावों के बावजूद दूरदर्शन आज भी अपनी पहुंच, क्षमता, तकनीक में बहुत बेहतर है। पचास साल पूरे होने पर इसका संकल्प यही होना चाहिए कि वह अपने देश के विशाल जनमानस के लिए रुचिकर कार्यक्रमों का प्रसारण करे। बीबीसी को एक रोलमाडल की तरह इस्तेमाल करते हुए उस दिशा में कुछ कदम चलने का सार्थक प्रयास करे। बाजार के इस दौर में जब हर तंत्र पर बाजारी शक्तियों का कब्जा है और यह बढ़ता ही चला जाने वाला है ऐसे में आम आदमी और उसकी सरकार की बात कहने-सुनने का यह अकेला माध्यम बचा है। जिसपर आज भी बाजार की ताकतें अभी पूरी तरह काबिज नहीं हो पायी हैं। सरकार और लोकतंत्र के पहरेदारों को समझना होगा कि आज जिस तरह पूरा मीडिया बाजार और पैसे के तंत्र का गुलाम है, ऐसे में दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे तंत्र को बचाना भी जरूरी है। क्योंकि सरकारें कम से कम इन माध्यमों पर अपनी बात कह सकती हैं। अन्यथा अन्य प्रचार माध्यमों तो बिकी हुयी खबरों के ही वाहक बन रहे हैं। जो कई बार सामाजिक, सामुदायिक हितों से परे भी आचरण करते नजर आते हैं। ऐसे में सरकारी तंत्र होने के नाते जो इसकी सीमा है वही इसकी शक्ति भी है। इस कमजोरी को ताकत बनाते हुए दूरदर्शन समाचार-विचार और संस्कृति केंद्रित कार्यक्रमों का अकेला प्रस्तोता हो सकता है।

जड़ों की तरफ लौटने, जड़ों से जोड़ने, उसपर संवाद करने और सही मायने में जनमाध्यम बनने की ताकत आज भी दूरदर्शन में ही है। बड़ा सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन अपनी इस ताकत को पहचान कर आज के समय के प्रश्नों से जूझने को तैयार है। अगर नहीं तो उसे अपनी धीमी और खामोश मौत के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

भाजपा का अंतर्द्वंदः जनसंघ बने या कांग्रेस


क्या आरएसएस ढूंढ पाएगा बीजेपी के वर्तमान संकट का समाधान
अरूण शौरी ने फिर एक लेख लिखकर भाजपा के संकट को हवा दे दी है, निशाना आडवानी व पार्टी के कई वरिष्ट नेता हैं। इसपर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कहना है कि शौरी के लेखन में विद्वता की झलक होती है और इसे पढ़ा जाना चाहिए। ऐसे प्रसंग आज भाजपा का रूटीन बन गए हैं। इसके चलते भारतीय जनता पार्टी को जानने-पहचानने वाले और उसे एक उम्मीद से देखने वाले आज हैरत में हैं। एक ऐसी पार्टी जिसके पीछे एक बड़े वैचारिक परिवार का संबल हो, विचारधारा की प्रेरणा से जीने वाले कार्यकर्ताओं की लंबी फौज हो, उसे क्या एक या दो पराजयों से हिल जाना चाहिए। भाजपा आज भी अपनी संसदीय शक्ति के लिहाज से देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है पर 1952 से लेकर आजतक की उसकी यात्रा में ऐसी बदहवासी कभी नहीं देखी गयी। जनसंघ और फिर भाजपा के रूप में उसकी यात्रा ने एक लंबा सफर देखा है। चुनावों में जय-पराजय भी इस दल के लिए कोई नयी बात नहीं है। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने जिस तरह भाजपा के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है वह बात चकित करती है।

इसके पहले 2004 की पराजय ने भी पार्टी को ऐसे ही कोलाहल और आर्तनाद के बीच छोड़ दिया था। तबसे आज तक भाजपा में मचा हाहाकार कभी धीमे तो कभी सुनाई ही देता रहा है। शायद 2004 में पार्टी की पराजय के बाद लालकृष्ण आडवानी ने इसलिए कहा था कि – हम एक अलग दल के रूप में पहचान रखते हैं लेकिन जब यह कहा जाता कि हमारा कांग्रेसीकरण हो रहा तो यह बहुत अच्छी बात नहीं है। आडवानी की पीड़ा जायज थी, साथ ही इस तथ्य का स्वीकार भी कि पार्टी के नेतृत्व को अपनी कमियां पता हैं। किंतु 2004 से 2009 तक अपनी कमियां पता होने के बावजूद पार्टी ने क्या किया कि उसे एक और शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। क्या कारण है पार्टी के दिग्गज नेता आपसी संवाद के बजाए एक ऐसे पत्राचार में जुट गए जिससे पार्टी की सार्वजनिक अनुशासन की धज्जियां ही उड़ गयीं। भाजपा के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान चिंताओं को भी इसी नजर से देखा जाना चाहिए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस बीजेपी के इस संकट का समाधान तलाश पाएगा। पर इस संकट को समझने के भाजपा के असली द्वंद को समझना होगा।

भाजपा का द्वंद दरअसल दो संस्कृतियों का द्वंद है। यह द्वंद भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच का है। जनसंघ यानि भाजपा का वैचारिक अधिष्ठान। एक ऐसा दल जिसने कांग्रेस के खिलाफ एक राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात किया, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से वैचारिक प्रेरणा पाता है। भारतीय राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों, राजनीतिक क्षेत्र में एक वैकल्पिक दर्शन की अवधारणा लेकर आए जनसंघ और उसके नेताओं ने काफी हद तक यह कर दिखाया। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पं.दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बलराज मधोक, मौलिचंद शर्मा, अटलविहारी वाजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे नेताओं ने अपने श्रम से जनसंघ को एक नैतिक धरातल प्रदान किया। राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए भी जनसंघ का एक अलग पहचान का नारा इसीलिए स्वीकृति पाता रहा क्योंकि नेताओं के जीवन में शुचिता और पवित्रता बची हुयी थी। संख्या में कम पर संकल्प की आभा से दमकते कार्यकर्ता जनसंघ की पहचान बन गए।

राममंदिर आंदोलन के चलते भाजपा के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार तथा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व ने सारा कुछ बदल कर रख दिया। पहली बार भाजपा चार राज्यों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में अकेले दम पर सत्ता में आई। इस विजय ने भाजपा के भीतर दिल्ली के सपने जगा दिए। चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गयी। साधन, पैसे, ताकत,जाति के सारे मंत्र आजमाए जाने लगे। अलग पहचान का दम भरनेवाला दल परंपरागत राजनीति के उन्हीं चौखटों में बंधकर रह गया जिनके खिलाफ वह लगातार बोलता आया था। दिल्ली में पहले 13 दिन फिर 13 महीने, फिर छह साल चलने वाली सरकार बनी। गठबंधन की राजनीति के मंत्र और जमीनी राजनीति से टूटते गए रिश्तों ने भाजपा के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी। एक बड़ी राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद उसमें आत्मविश्वास, नैतिक आभा, संकट में एकजुट होकर लड़ने की शक्ति का अभाव दिखता है तो यह उसके द्वंदों के कारण ही है।

भाजपा की गर्भनाल उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी हुयी है जो राजनीति के मार्ग पर उसके मनचाहे आचरण पर एक नैतिक नियंत्रण रखता है। सो, भाजपा न पूरी तरह कांग्रेस हो पा रही है ना ही उसमें जनसंघ की नैतिक शक्ति दिखती है। वामपंथियों की तरह काडरबेस पार्टी का दावा करने के बावजूद भाजपा का काडर अपने दल की सरकार आने पर सबसे ज्यादा संतप्त और उपेक्षित महसूस करता है।
भ्रष्टाचार का सवालः
भाजपा का सबसे बड़ा संकट उसके नेताओं के व्यक्तिगत जीवन और विचारों के बीच बढ़ी दूरी है। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र में यही अंतर दोनों को अलग करता है। कांग्रेस में भ्रष्टाचार को मान्यता प्राप्त है, स्वीकृति है। वे अपने सत्ता केंद्रित, कमीशन केंद्रित कार्यव्यवहार में अपने काडर को भी शामिल करते हैं। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता बल्कि नेता और कार्यकर्ता के बीच रिश्तों को मधुर बनाता है। अरसे से सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता के रहने का एक अभ्यास भी विकसित हो गया है। सत्ता उन्हें एकजुट भी रखती है। जबकि, भ्रष्टाचार तो भाजपा में भी है किंतु उसे मान्यता नहीं है। इस कारण भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है। क्योंकि उसकी कोशिश यही होती है कि किस तरह वह अपने कार्यकर्ताओं तथा संघ परिवार के तमाम संघठनों की नजर में पाक-साफ रह सके। इस कारण वह राजनीतिक आर्थिक सौदों में अपने काडर को शामिल नहीं करता और नैतिकता की डींगें हांकता रहता है। भाजपा नेताओं के पास सत्ता के पद आते ही उनके अंदरखाने सत्ता के दलालों की पैठ बन जाती है। धन का मोह काडर से दूर कर देता है और अंततः परिवार सी दिखती पार्टी में घमासान शुरू हो जाता है। राजनीतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण ये काडर भावनात्मक आधार पर काम करते हैं और व्यवहार में जरा सा बदलाव या अहंकारजन्य प्रस्तुति देखकर ये अपने नेताओं से नाराज होकर घर बैठ जाते हैं। सत्ता जहां कांग्रेस के काडर की एकजुटता व जीवनशक्ति बनती है वहीं भाजपा के लिए सत्ता विग्रह एवं पारिवारिक कलह का कारण बन जाती है।

गुटबाजी से हलाकानः
भाजपा और कांग्रेस के चरित्र का बड़ा अंतर गुटबाजी में भी देखने को मिलता है। कांग्रेस में एक आलाकमान यानि गांधी परिवार है जिस पर सबकी सामूहिक आस्था है। इसके बाद पूरी कांग्रेस पार्टी क्षत्रपों में बंटी हुयी है। गुटबाजी को कांग्रेस में पूरी तरह मान्यता प्राप्त है। यह गुटबाजी कई अर्थों में कांग्रेस को शक्ति भी देती है। इस नेता से नाराज नेता दूसरे नेता का गुट स्वीकार कर अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है। आप आलाकमान की जय बोलते हुए पूरी कांग्रेस में धमाल मचाए रख सकते हैं। प्रथम परिवार के अलावा किसी का लिहाज करने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र ऐसा कि एक अदना सा कांग्रेसी भी,किसी दिग्गज का पुतला जलाता और इस्तीफा मांगता दिख जाएगा। भाजपा का चरित्र इस मामले में भी आडंबरवादी है। यहां भी पार्टी उपर से नीचे तक पूरी तरह बंटी हुयी है। अटल-आडवानी के समय भी यह विभाजन था आज राजनाथ सिंह के समय भी यह और साफ नजर आता है। इस प्रकट गुटबाजी के बावजूद पार्टी में इसे मान्यता नहीं है। गुटबाजी और असहमति के स्वर के मान्यता न होने के कारण भाजपा में षडयंत्र होते रहते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार और मीडिया में आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग, कानाफूसी आम बातें हैं। उमा भारती, गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाधेला, मदनलाल खुराना, बाबूलाल मरांडी, जसवंत सिंह जैसे प्रसंगों में यह बातें साफ नजर आयीं। जिससे पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। कांग्रेस में जो गुटबाजी है वह उसे शक्ति देती है किंतु भाजपा के यही गुटबाजी , षडयंत्र का रूप लेकर कलह को स्थायी भाव दे देती है।

कुल मिलाकर आज की भाजपा न तो जनसंघ है न ही कांग्रेस। वह एक ऐसा दल बनकर रह गयी है जिसके आडंबरवाद ने उसे बेहाल कर दिया है। आडंबर का सच जब उसके काडर के सामने खुलता है तो वे ठगे रह जाते हैं। विचारधारा से समझौतों, निजी जीवन के स्खलित होते आदर्शों और पैसे की प्रकट पिपासा ने भाजपा को एक अंतहीन मार्ग पर छोड़ दिया है। ऐसे में चिट्टियां लिखने वाले महान नेताओं के बजाए भाजपा के संकट का समाधान फिर वही आरएसएस कर सकता है जिससे मुक्ति की कामना कुछ नेता कर रहे हैं। अपने वैचारिक विभ्रमों से हटे बिना भाजपा को एक रास्ता तो तय करना ही होगा। उसे तय करना होगा कि वह सत्ता की पार्टी बनना चाहती है या बदलाव की पार्टी। उसे राजनीतिक सफलताएं चाहिए या अपना वैचारिक अधिष्ठान भी। वह वामपंथियों की तरह पुख्ता वैचारिक आधार पर पके पकाए कार्यकर्ता चाहती है या कांग्रेस की तरह एक मध्यमार्गी दल बनना चाहती है जिसके पैरों में सिध्दांतो की बेड़ियां नहीं हैं। अपने पांच दशकों के पुरूषार्थ से तैयार अटलविहारी बाजपेयी और आडवानी के नेतृत्व का हश्र उसने देखा है.....आगे के दिनों की कौन जाने।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

लोकतंत्र को सार्थक बनाएगा पंचायती राज

महात्मा गांधी जिस गांव को समर्थ बनाना चाहते थे वह आज भी वहीं खड़ा है। ग्राम स्वराज्य की जिस कल्पना की बात गांधी करते हैं वह सपना आज का पंचायती राज पूरा नहीं करता। तमाम प्रयासों के बावजूद पंचायत राज की खामियां, उसकी खूबियों पर भारी हैं। जाहिर तौर पर हमें अपने पंचायती राज को ज्यादा प्रभावी, ज्यादा समर्थ और कारगर बनाने की जरूरत है। ग्राम स्वराज एक भारतीय कल्पना है जिसमें गांव अपने निजी साधनों पर खड़े होते हैं और समर्थ बनते हैं। स्वालम्बन इसका मंत्र है और लोकतंत्र इसकी प्राणवायु। महात्मा गांधी भारतीयता के इस तत्व को समझते थे इसीलिए वे इस मंत्र का इतना उपयोगी इस्तेमाल कर पाए।

गांवों में जनशक्ति का समुचित उपयोग और सामुदायिक साधनों का सही इस्तेमाल यही ग्रामस्वराज्य का मूलमंत्र है। सदियों से हमारे गांव इसी मंत्र पर काम करते आ रहे हैं। अंग्रेजी राज ने गांवों के इसी स्वालंबन को तोड़ने का काम किया। गांधी,गांव की इसी ताकत को जगाना चाहते थे। विकास से पश्चिमी माडल से अलग भारतीय गांवों के अलग विकास का सपना देखा गया और उस दिशा में चलने की इच्छाएं जतायी गयीं। अफसोस सरकारें उस दिशा में चल नहीं पायी। सरकारी तंत्र और गांव अलग-अलग सांस ले रहे थे। इस दिशा भारतीय संविधान का अनुच्छेद -40 राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश देता है। आजाद भारत का यह पहला कदम था जिससे पंचायती राज ने अपनी यात्रा शुरू की। पंचायत राज को लेकर बलवंतराय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति(1977), डा. पीवीके राव समिति ( 1985) और एलएम सिंघवी समिति (1986) ने समय- समय पर महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। इससे पंचायती राज को एक संवैधानिक मान्यता और स्वायत्तता भी मिली। इस रास्ते में नौकरशाही की अड़चनें और भ्रष्टाचार का संकट एक विकराल रूप में सामने है पर इसने लोकतंत्र का अहसास आम आदमी को भी करवाया है। अब जबकि पंचायत में महिला आरक्षण पचास प्रतिशत हो रहा है तो इसे एक नयी उम्मीद और नई नजर से देखा जा रहा है।

1993 में संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन के तहत पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो अब पचास प्रतिशत कर दी गयी है। इसी तरह केंद्रीय स्तर पर 27 मई, 2004 की तारीख एक महत्वपूर्ण दिन साबित हुआ जब पंचायत राज मंत्रालय अस्तित्व में आया। इस मंत्रालय का गठन सही मायने में एक बड़ा फैसला था। इसने भारतीय राजनीति और प्रशासन के एजेंडे पर पंचायती राज को ला दिया। इतिहास का यह वह क्षण था जहां से पंचायती राज को आगे ही जाना था और इसने एक भावभूमि तैयार की जिससे अब इस मुद्दे पर नए नजरिए से सोचा जा रहा है। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या करीब 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं। पंचायत राज का यह चेहरा आश्वस्त करने वाला है। भारत सरकार ने 27 अगस्त, 2009 को पंचायती राज में महिलाओं का कोटा 33 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का जो फैसला लिया वह भी ऐतिहासिक है। इस प्रस्ताव को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 243( डी) में संशोधन करना पड़ेगा।

जाहिर तौर पर सरकारें अब पंचायती राज के महत्व को स्वीकार कर एक सही दिशा में पहल कर रही हैं। चिंता की बात सिर्फ यह है कि यह सारा बदलाव भी भ्रष्टाचार की जड़ों पर चोट नहीं कर पा रहा है। सरकारें जनकल्याण और आम आदमी के कल्याण की बात तो करती हैं पर सही मायने में सरकार की विकास योजनाओं का लाभ लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। हम महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य की बात करें तो वे गांवों को खाद्यान्न के मामले आत्मनिर्भर बनाना, यातायात के लिए सड़क व्यवस्था करना, पेयजल व्यवस्था, खेल मैदानों का विकास, रंगशाला, अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करना शामिल था। आज का पंचायती राज विकास के धन की बंदरबाट से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। कुछ प्रतिनिधि जरूर बेहतर प्रयोग कर रहे हैं तो कहीं महिलाओं ने भी अपने सार्थक शासन की छाप छोड़ी है किंतु यह प्रयोग कम ही दिखे हैं। इस परिमाण को आगे बढ़ाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़, मप्र, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार, केरल जैसे राज्यों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए राज्य सरकारें खुद आगे आयीं,यह एक बहुत ही सकारात्मक संकेत है। अब आवश्यक्ता इस बात की है कि इन सभी महिला-पुरूष प्रतिनिधियों का गुणात्मक और कार्यात्मक विकास किया जाए। क्योंकि जानकारी के अभाव में कोई भी प्रतिनिधि अपने समाज या गांव के लिए कारगर साबित नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधियों के नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और गांव के प्रतिनिधियों के प्रति प्रशासनिक अधिकारियों की संवेदनात्मक दृष्टि का विकास बहुत जरूरी है। सरकार ने जब एक अच्छी नियति से पंचायती राज को स्वीकार किया है तब यह भी जरूरी है कि वह अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल के लिए प्रतिनिधियों को प्रेरित भी करे। तभी सही मायनों में हम पंचायती राज के स्वप्न को हकीकत में बदलता देख पाएंगें।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

इस बदलाव से क्या हासिल


केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्री कपिल सिब्बल केंद्र के उन भाग्यशाली मंत्रियों में हैं जिनके पास कहने के लिए कुछ है। वे शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने का बिल पास करवाकर 100 दिन के सरकार के एजेंडें में एक बड़ी जगह तो ले ही चुके हैं और अब दसवीं बोर्ड को वैकल्पिक बनवाकर वे एक और कदम आगे बढ़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इसे एक बड़ा सुधार माना जा रहा है और छात्रों पर एक और बोर्ड का दबाव कम होने की संभावना भी इस फैसले से नजर आ रही है। सीबीएसई में जहां इस साल से ही ग्रेडिंग प्रणाली लागू हो जाएगी वहीं अगले साल दसवीं बोर्ड का वैकल्पिक हो जाना नई राहें खोलेगा।


हालांकि इन फैसलों से शिक्षा के क्षेत्र में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएंगें ऐसा मानना तो जल्दबाजी होगी किंतु इससे सोच और बदलाव के नए संकेत तो नजर आ ही रहे हैं। सिब्बल अंततः तो यह मान गए हैं कि उनका इरादा अभी देश के लिए एक बोर्ड बनाने का नहीं है। शायद यही एक बात थी जिसपर प्रायः कई राज्यों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। बावजूद इसके मानवसंसाधन मंत्री यह मानते हैं कि छात्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना को विकसित किया जाना जरूरी है। जाहिर तौर शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र हमारे देश में एक ऐसी प्रयोगशाला बनकर रह गया है जिसपर लगातार प्रयोग होते रहे हैं। इन प्रयोगों ने शिक्षा के क्षेत्र को एक ऐसे अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है जहां सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं और नयी पीढी उसका खामियाजा भुगत रही है।


प्राथमिक शिक्षा में अलग-अलग बोर्ड और पाठ्यक्रमों का संकट अलग है। इनमें एकरूपता लाने के प्रयासों में राज्यों और केंद्र के अपने तर्क हैं। किंतु 10वीं बोर्ड को वैकल्पिक बनाने से एक सुधारवादी रास्ता तो खुला ही है जिसके चलते छात्र नाहक तनाव से बच सकेंगें और परीक्षा के तनाव, उसमें मिली विफलता के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को भी रोका जा सकेगा। शायद परीक्षा के परिणामों के बाद जैसी बुरी खबरें मिलती थीं जिसमें आत्महत्या के तमाम किस्से होते थे उनमें कमी आएगी। बोर्ड परीक्षा के नाम होने वाले तनाव से मुक्ति भी इसका एक सुखद पक्ष है। देखना है कि इस फैसले को शिक्षा क्षेत्र में किस तरह से लिया जाता है। यह भी देखना रोचक होगा कि ग्रेडिंग सिस्टम और वैकल्पिक बोर्ड की व्यवस्थाओं को राज्य के शिक्षा मंत्रालय किस नजर से देखते हैं। इस व्यवस्था के तहत अब जिन स्कूलों में बारहवीं तक की पढ़ाई होती है वहां 10वीं बोर्ड खत्म हो जाएगा। सरकार मानती है जब सारे स्कूल बारहवीं तक हो जाएंगें तो दसवीं बोर्ड की व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी। माना जा रहा है धीरे-धीरे राज्य भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेंगें और छात्रों पर सिर्फ बारहवीं बोर्ड का दबाव बचेगा। सरकार इस दिशा में अधिकतम सहमति बनाने के प्रयासों में लगी है। इस बारे में श्री सिब्बल कहना है कि हमारे विभिन्न राज्यों में 41 शिक्षा बोर्ड हैं। अभी हम सीबीएसई के स्कूलों के लिए यह विचार-विमर्श कर रहे हैं। अगले चरण में हम राज्यों के बोर्ड को भी विश्वास में लेने का प्रयास करेंगे। उधर सीबीएसई के सचिव विनीत जोशी ने कहा कि जिन स्कूलों में केवल दसवीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं का बोर्ड तो रहेगा, पर जिन स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई होती है, वहाँ दसवीं के बोर्ड को खत्म करने का प्रस्ताव है।


शिक्षा में सुधार के लिए कोशिशें तो अपनी जगह ठीक हैं पर हमें यह मान लेना पड़ेगा कि हमने इन सालों में अपने सरकारी स्कूलों का लगभग सर्वनाश ही किया है। पूरी व्यवस्था निजी स्कूलों को प्रोत्साहित करने वाली है जिसमें आम आदमी भी आज अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना हमें आज नहीं तो कल बड़े सवाल के रूप में करना होगा। यह समस्या कल एक बड़े सामाजिक संर्घष का कारण बन सकती है। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर नीतियां बनाने वाले भी इस बात से अनजान नहीं है पर क्या कारण है कि सरकार खुद अपने स्कूलों को ध्वस्त करने में लगी है। यह सवाल गहरा है पर इसके उत्तर नदारद हैं। सरकारें कुछ भी दावा करें, भले नित नए प्रयोग करें पर इतना तय है कि प्राथमिक शिक्षा के ढांचे को हम इतना खोखला बना चुके हैं कि अब उम्मीद की किरणें भी नहीं दिखतीं। ऐसे में ये प्रयोग क्या आशा जगा पाएंगें कहा नहीं जा सकता। बदलती दुनिया के मद्देनजर हमें जिस तरह के मानवसंसाधन और नए विचारों की जरूरत है उसमें हमारी शिक्षा कितनी उपयोगी है इस पर भी सोचना होगा। एक लोककल्याणकारी राज्य भी यदि शिक्षा को बाजार की चीज बनने दे रहा है तो उससे बहुत उम्मीदें लगाना एक धोखे के सिवा क्या हो सकता है। सच तो यह है कि समान शिक्षा प्रणाली के बिना इस देश के सवाल हल नहीं किए जा सकते और गैरबराबरी बढ़ती चली जाएगी। हमने इस मुद्दे पर सोचना शुरू न किया तो कल बहुत देर हो जाएगी।