सोमवार, 23 नवंबर 2009

अराजक राजनीति से जूझने का समय

लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर पाबंदी जरूरी


मुंबई में एक टीवी चैनल के कार्यालय पर शिवसेना का हमला एक ऐसी घटना है जिसकी निंदा से आगे बढ़कर इस सिलसिले को रोकने के लिए पहल करने की जरूरत है। शिवसेना ने कुछ नया नहीं किया। वही किया जो वे अरसे से करते आ रहे हैं। टीवी चैनलों ने सारा कुछ इतना तुरंत और जीवंत बना दिया है कि ये चीजें अब दर्ज होने लगी हैं। शिवसेना के रास्ते पर ही चलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके मदांध नेता राज ठाकरे अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी कि बाजार में अब दो गुंडे हैं।

शिवसेना हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों का डीएनए एक है। दोनों लोकतंत्र और संविधान को न मानने वाले दल हैं। हमारे लोकतंत्र की खामियों का फायदा उठाकर वे विधानसभा और संसद तक भले पहुंच जाएं पर वे कार्य और व्यवहार दोनो से अलोकतांत्रिक हैं। बाल ठाकरे के लोग सालों से पत्रकारों और अपने विरोधी विचारों से इसी तरह निपटते आए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में भरोसा होता तो ये पार्टी या राजनीतिक दल बनाते, सेना नहीं। सही मायने में ये लोकतंत्र में बाहुबल और शक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए आए हैं। इन्हें तर्क, संवाद और बातचीत में आस्था नहीं है। ये तो शक्ति के आराधक हैं जो शिवाजी महाराज का नाम भी लेते हैं और महिलाओं पर भी हाथ उठाने से इन्हें गुरेज नहीं है। मराठा संस्कृति को आज ये जैसी पहचान दे रहे हैं उससे वह कलंकित ही हो रही है। सही मायने में यह हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलता है कि हम ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने में खुद को विफल पा रहे हैं। शिवसेना सही मायने में एक ऐसा दल है जिसके पास कोई वैचारिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है। वह शिवाजी महाराज का नाम लेकर एक भावुक अपील पैदा करने की कोशिश तो करता है पर शिवाजी के आर्दशों से उसका कोई लेना देना नहीं है। आम मजदूर और मेहनतकश आदमी के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने वाली शिवसेना और मनसे जैसे दल पूंजीपतियों से हफ्ता वसूली करके अपनी राजनीति को आधार देते रहे हैं। पैसा वसूली और भयादोहन के आधार पर अपनी राजनीति को चलाने वाले ये लोग बेहद डरे और धबराए हुए लोग हैं इसीलिए संवाद के बजाए ये हमेशा जोर आजमाइश पर उतर आते हैं।

कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों की विफलता यही है कि वे ऐसी अराजक क्षेत्रीय ताकत के साथ खड़े नजर आते हैं। भाजपा जहां शिवसेना की साझीदार है वहीं कांग्रेस के ऊपर शिवसेना और अब मनसे को फलने- फूलने के अवसर देने के आरोप हैं। कभी कांग्रेस की राजनीति में कद्दावर रहे तमाम नेताओं के साथ शिवसेना प्रमुख के रिश्तों के चलते ही उसे महाराष्ट्र की राजनीति में बढ़त मिली। आज आरोप यह है कि कांग्रेस की सरकार के ढीलेपन के चलते ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपनी गुंडागर्दी जारी रखे हुए है। उनकी हिम्मत यह है कि वे विधानसभा में भी हाथापाई कर रहे हैं और विधायकों को पत्र लिखकर धमका भी रहे हैं। अब मनसे स्टेट बैंक आफ इंडिया के अफसरों और उसके परीक्षार्थियों को धमकाने का काम कर रहा है। राज्य की यह कमजोरी ही गांवों से लेकर शहर और जंगलों तक एक अशांति का वातावरण बनाने में मदद कर रही है। क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक मचाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं। इन्हें भड़काने वाले लोंगों की जगह क्या जेल में नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोग सही मायनों में इस देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा हैं। उनसे कड़ाई से निपटना हमारे राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी है। पर हमारी सरकारें निरूपाय दिखती हैं। बलवा करने वाले और करवाने वाले दोनों को दंडित करने का साहस हम क्यों नहीं पाल पा रहे हैं। मुंबई जैसा शहर यदि ऐसी अराजकता का केंद्र बना रहा तो हम क्या मुंह लेकर दुनिया के सामने जाएंगें। मुंबई में 26.11.2008 जैसी घटनाएं हो जाती हैं तो हम यह कहते हैं कि पड़ोसी देश ने साजिश की, यह जो सड़कों पर नंगा नाच हमारे अपने लोग ही भारतीय नागरिकों के खिलाफ कर रहे हैं उसका क्या। आस्ट्रेलिया में भारतवंशी छात्रों के उत्पीड़न पर हम रोज चिंता जता रहे हैं, आस्ट्रेलिया की सरकार को लांछित कर रहे हैं। यहां अपने ही देश में प्रतियोगी परिक्षाएं दे रहे छात्रों को लोग मारते हैं तो हम क्या कर पा रहे हैं। सही मायने में भारतीय राज्य अपने नागरिकों की रक्षा और उनके शांतिपूर्ण जीवन-यापन की स्थितियां भी पैदा नहीं कर पा रहा है। कुछ मुट्टी भर लोग कभी शिवसैनिक बनकर, कभी आतंकवादी बनकर, कभी नक्सलवादी बनकर, कभी मनसे कार्यकर्ता बनकर भारतीय जनता पर अत्याचार करते रहेगें और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं।

मीडिया को भी इन स्थितियों के खिलाफ सामने आना होगा। ये सारी चुनौतियां दरअसल हमारे लोकतंत्र के खिलाफ हैं। सो हमें लोकतंत्र और देश को बचाना है तो सारे विवाद भूलकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा जो संवाद के बजाए बाहुबल या बंदूकों से फैसला करना चाहती हैं। अभी जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो यही मीडिया विधानसभा की तेरह सीटें जीतने वाले राज को हीरो बना रहा था। उन पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे। आखिर ऐसी अराजक प्रवृत्तियों का महिमामंडन करने से हम कब बाज आएंगें। कारण यही है इनके बेलगाम हाथ अब मीडिया के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं। आज हमें बहुत दर्द हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा अब हिलने लगा है। गुंडों और अराजक राजनीति को महत्वपूर्ण बनाने का जो काम मीडिया और खासकर टीवी मीडिया जिस अंदाज में कर रहा है उसपर भी सोचने की जरूरत है। मीडिया को भी ऐसे अराजक तत्वों के महिमामंडन से बाज आना होगा क्योंकि इससे इनकी धृणा की राजनीति को ही विस्तार व समर्थन मिलता है। सही मायनों में हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर तुरंत पाबंदी लगाई जानी चाहिए और इसके नेताओं को तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल देना चाहिए। इससे इस घातक प्रवृत्ति का विस्तार रोका जा सकेगा वरना भारतीय राज्य और लोकतंत्र दोनों को चुनौती देने वाली ऐसी ताकतें कई राज्यों में सिर उठा सकती हैं। क्योंकि क्षेत्रीयता और भाषा की गंदी राजनीति से देश वैसे भी काफी नुकसान उठा चुका है। हम आज भी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी।


झारखंड के दर्द को समझिए

राज्य को राजनीतिक स्थायित्व का इंतजार

एक ऐसा भूभाग जो अंतहीन उपेक्षा का शिकार है। बिहार के साथ रहते हुए उसे लगता रहा कि हमें न्याय नहीं मिलेगा। पृथक राज्य के लिए यह इलाका लंबे समय तक संधर्ष करता रहा और अब जबकि उसके राज्य बने नौ साल पूरे हो रहे हैं तो यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि आखिर उसे मिला क्या। वहां की बहुसंख्यक आदिवासी आबादी को इंतजार था एक भागीरथ का जो आए और उन्हें पिछड़ेपन, नक्सलवाद और गरीबी से मुक्त कराए। पर नजर आते हैं मधु कौड़ा, जो हजारों करोड़ के मालिक तो बन गए पर राज्य वहीं का वहीं खड़ा है। झारखंड राज्य का निर्माण एक त्रासदी बन गया है। पृथक राज्य के आंदोलन से जुड़े रहे शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, करिया मुंडा, इंदरसिंह नामधारी क्या सब अपनी आभा खो चुके हैं ? क्या होगा इस राज्य का ? यह सवाल चुनाव के मैदान में उतरे हर नेता से वहां की प्रायः खामोश रहने वाली जनता का है।

झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। सवाल बहुत हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं। जनता के सामने भरोसा जताने और जीतने लायक कोई चेहरा नहीं दिखाता। यही अविश्वास वहां त्रिशंकु विधानसभा बनवाता रहा है। कभी भाजपा के दिग्गज नेता रहे और पहले मुख्यमंत्री बने बाबूलाल मरांडी अपनी साफ छवि के बावजूद अकेले दम पर सरकार बनाने का माद्दा नहीं रखते सो कांग्रेस ने उन्हें अपने पाले में कर लिया है। वे कांग्रेस के साथ मिलकर मैदान में हैं। भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी जीत से उत्साहित है और उसे लगता है झारखंड पर असली अधिकार उसी है। सो मैदान तो इन्हीं दो ताकतों के बीच बंटा हुआ लगता है। जिसमें त्रिशंकु विधानसभा बनने पर छोटे दलों की भी भूमिका हो सकती है। किंतु झारखंड के सवाल इस चुनाव से बड़े हैं क्योंकि पिछली सरकारें और उनके चार मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन और मधु कौड़ा उनसे टकराने का साहस भी नहीं पाल पाए हैं। सो जनता को पास वोट देने की मजबूरी तो है पर वह उम्मीद से खाली है। सुबोधकांत सहाय और यशवंत सिन्हा जैसे बड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद वहां की राजनीति की सीमाएं बेहद तंग हैं। पैसे को लेकर जैसी प्रकट पिपासा झारखंड की राजनीति में दिख रही है वह चिंतन का विषय है। एक नवसृजित राज्य यदि अपनी यात्रा के प्रारंभ में ही इतना बेचारा और लाचार हो जाएगा तो वह भविष्य की सुंदर रचना के स्वप्न भी नहीं देख सकता।

झारखंड के सामने नक्सलवाद, भ्रष्टाचार राजनीतिक स्थायित्व आज सबसे बड़े प्रश्न हैं। एक ऐसा राज्य जो प्राकृतिक संसाधनों और वन संपदा से समृद्ध है क्या लोगों की लूट का इलाका बनकर रह जाएगा ? क्या यहां के निवासी जो आज भी अपनी जिंदगी को बहुत मुश्किलों से चला रहे हैं के सामने राजनीति और प्रशासन का कोई संवेदनशील चेहरा कभी सामने आएगा ? गरीब आदिवासियों का पलायन रोकने में सरकार विफल रही है। घरेलू दाई बनाकर महानगरों में भेजी जाती रही महिलाओं-युवतियों का शोषण बदस्तूर जारी है। इससे दलालों का मन बढा है। अब, वह खुल्लम-खुला मानव व्यापार करने लगे हैं। झारखंड के निवासियों का यह दर्द आज समझने की जरूरत है। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, आम लोगों की राज्य के विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे सवाल है जो झारखंड की आम जनता को मथ रहे हैं। दूरदराज अंचलों में पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के रोशनी का आज भी इंतजार हो रहा है। शोषण और देश के विभिन्न क्षेत्रों में पलायन कर रोजी रोटी कमाने के लिए मजबूर राज्य के गरीब आदमी की चिंता आखिर कौन करेगा। 22 जिलों में बसे दो करोड़, 70 लाख लोगों के भविष्य का सवाल भी अगर झारखंड राज्य के गठन के बाद भी यहां की राजनीति के केंद्र में नहीं है तो हमें सोचना होगा कि आखिर इस जनतंत्र का मतलब क्या है।

यह झारखंड की राजनीति की त्रासदी ही कही जाएगी कि शिबू सोरेन जैसे क्रांतिकारी पृष्टभूमि के नेता का पतन होते हुए हमने देखा। बाबूलाल मरांडी जैसे नेता की विफलता देखी। इन दो नेताओं की सीमाओं और असफलताओं ने राज्य को ऐसे मोड़ पर खड़ाकर दिया है जिससे निजात तो असंभव दिखती है। झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्य कई मोर्चों पर बेहतर काम करते दिख रहे हैं पर राजनीतिक अस्थिरता ने झारखंड के पैरों में बेड़ियां बांध दी हैं। आज हालात यह हैं कि बिहार जैसा राज्य भी विकास की एक नई यात्रा शुरू कर अपनी गलतियों को सुधारने के लिए आतुर दिखता है किंतु झारखंड इस उम्मीद से भी खाली दिख रहा है। राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार पूरा देश कर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य को एक स्थिर सरकार मिलेगी और झारखंड अपने सपनों में रंग भर सकेगा। विकास के मोर्चे पर तेजी से बढ़ते राज्य के रूप में अपनी पहचान बना सकेगा। नक्सलवाद की गंभीर चुनौती से जूझने का साहस जुटा सकेगा और अपनी जनता को निराशा और अवसाद से मुक्त कर सकेगा।

भाजपा तय करे शिवसेना चाहिए या राष्ट्रवाद ?

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अपनी भारी पराजय के बाद शिवसेना की बदहवाशी तो समझी जा सकती है लेकिन भाजपा को हुआ क्या है ? उसे यह तय करने का यह सबसे बेहतर समय है कि वह राष्ट्रवाद के अपने मूलविचार के साथ खड़ी है या समाज को तोड़ने में लगी शिवसेना के साथ।

विचारधारा को लेकर भ्रम से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह शिवसेना के साथ खड़ी है तो इसका कारण क्या है ? क्या भाजपा के लिए उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अब बेमानी हो गया है ? जिसके कारण वह शिवसेना जैसे दल से अपने रिश्तों को पारिभाषित नहीं कर पा रही है। क्या वृहत्तर हिंदू समाज और अन्य धार्मिक समूहों के साथ उसका संवाद शिवसेना जैसे प्रतिगामी दलों के चलते प्रभावित नहीं हो रहा है ? सही मायने में भाजपा को शिवसेना जैसे दलों से हर तरह के रिश्ते तोड़ लेने चाहिए क्योंकि शिवसेना की राजनीति का आज के भारत में कोई भविष्य नहीं है। सो उसके साथ रहकर भाजपा भी बहुत से समुदायों और समाजों के लिए खुद को अश्पृश्य ही बना रही है। शिवसेना और उसकी गर्भनाल से निकली जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह भारतीय लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका ही है।

सही मायने में शिवसेना एक अलोकतांत्रिक विचार को पोषित करने वाला दल है जिसका भारत के संविधान और कानून में भरोसा नहीं है। लंपट और अराजक तत्वों का यह गिरोह जैसी राजनीति को प्रतिष्ठा दिला रहा है वह हैरतंगेज है। हमारे राज्य की कमजोरियों का फायदा उठाकर फलफूल रहे ये लोग सही मायनों में एक सभ्य समाज में रहने लायक नहीं है। ये वे लोग हैं जो मुंबई जैसे कास्मोपोलेटिन चरित्र के शहर को भी असभ्यों की नगरी सरीखा बनाने में लगे हैं। भाजपा के बड़े नेता आज यह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। माना कि कांग्रेस ने अपनी राजनीति को बढ़ाने के लिए फूट डालो और राज करो की रणनीति पर चलना उचित माना, जिसका लाभ भी उसे साफ तौर पर मिला। किंतु क्या इससे भाजपा का पाप कम हो जाता है। भाजपा नेतृत्व को दिल पर हाथ रखकर ये सोचना होगा कि क्या किसी उत्तरभारतीय ने शिवसेना से बीजेपी के रिश्तों को देखते हुए मुंबई में बीजेपी को वोट दिया होगा? यह बात अपने आप में बहुत महत्व की है। एक राष्ट्रीय दल होने के बावजूद उसके शिवसेना जैसे साथियों के चलते भाजपा की विश्वसनीयता कम हुयी है। शिवसेना और मनसे आपसी प्रतिस्पर्धा में अभी हिंदी भाषियों और उत्तरभारतीयों के खिलाफ और विषवमन करेंगें तो क्या भाजपा, कांग्रेस की तरह इस पूरे तमाशे का आनंद ले सकती है। कांग्रेस इस पूरे तमाशे में सर्वाधिक सुविधा में है। दुविधा तो दरअसल बीजेपी की है। सो बीजेपी को शिवसेना नेतृत्व से बहुत साफ शब्दों में बात करनी चाहिए कि उसे अपना हिंदी भाषियों के खिलाफ द्वेष छोड़ना ही होगा। यदि भाजपा एक राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी दल होने के नाते अपनी विश्वसनीयता चाहती है उसे अराजक राजनीति के विषधरों से अपनी दूरी बनानी ही होगी। क्योंकि एक राष्ट्रीय दल होने के नाते उसकी जिम्मेदारियां बहुत अलग हैं। सो उसे अपने राष्ट्रीय चरित्र के साथ खड़ा होना होगा भले ही इसके लिए राजनीतिक तौर पर उसे थोड़ा नुकसान भले ही उठाना पड़े। विचारधारा से समझौतों ने भाजपा की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। सो भाजपा को हिंदी और हिंदी भाषियों के सवाल पर महाराष्ट्र के संदर्भ में अपना रूख स्पष्ट करना ही चाहिए। यह बात वाचिक आलोचना से आगे बढ़कर होनी चाहिए।

देखा जाए तो भाजपा और शिवसेना का रिश्ता इसलिए संभव हो पाया कि शिवसेना ने अपनी उग्र क्षेत्रवाद की राजनीति का विस्तार करते हुए हिंदू एकता की बात शुऱू की थी। हिंदुत्व भाजपा और शिवसेना की दोस्ती का आधार रहा है। राममंदिर के आंदोलन में दोनों दलों की वैचारिक एकता ने इस दोस्ती को परवान चढ़ाया था। भाजपा के नेता स्व. प्रमोद महाजन ने इस एकता के लिए काफी काम किया। महाजन में यह क्षमता थी वो बाल ठाकरे को सही रास्ते पर ले आते थे। अब किसी भाजपा नेता में यह क्षमता नहीं कि वह ठाकरे का जहर निकालकर उन्हें हिंदुत्व के ब्राडगेज पर ला सके। राज ठाकरे की पार्टी से गहरी प्रतिद्वंदिता के चलते शिवसेना को अपने तेवर लगातार उग्र ही रखने हैं। अब जबकि शिवसेना पुनः अपने क्षेत्रवादी, हिंदी विरोधी अपने संकीर्ण एजेंडे पर लौट आयी है तो फैसला भाजपा को करना है कि वह ऐसी ताकत के साथ खड़ी दिखकर किस तरह वृहत्तर हिंदू समाज की हितैषी होने का दावा कर सकती है। अगर वह ऐसा दावा करती है तो वह कितना विश्वसनीय है ?


बुधवार, 4 नवंबर 2009

आर्थिक पत्रकारिता: पहचान बनाने की जद्दोजहद

वैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महागठिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना की संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रूचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में अभी यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।

‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव-ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा।

भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका ‘कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले ‘कामर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से भी प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से ‘इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकानामिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में ‘व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिजनेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिजनेस चैनलों की शुरूआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। जी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज, एनडीटीवी प्राफिट आदि।

वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिजनेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है। इसकी तरह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेजी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं, जिनमें सिर्फ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध हैं। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ट पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ट’ हैं। उनके शब्दों में - ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े-बड़े पत्र वाणिज्य समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं, अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिजनेस रिपोर्टर तथा बिजनेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूंजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।

ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएं सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है। ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सके। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान-सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।