गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

इस पौरूषपूर्ण समय में

-संजय द्विवेदी
नारे हों या प्रतीक, राजनीति उन्हें इस्तेमाल कर निस्तेज होते ही कूड़ेदान में फेंक देती है। ‘राजनीति’ में ‘स्त्री’ का नारा भगवान करे वैसे ही गति को प्राप्त न हो। नारे उजास जगाते हैं, रोशनी की किरण बन जाते हैं लेकिन इस पौरुषपूर्ण समय में वे बलशाली, आक्रामक और हठी लोगों के बंधक बनकर रह जाते हैं।यह देखना कितना विचित्र है कि एक व्यक्ति जो एक घोटाले के आरोप में जेल जाते समय अपनी पत्नी को ‘मुख्यमंत्री’ की कुर्सी पर बिठा जाता है, लेकिन लोकसभा में वह महिला आरक्षण विधेयक के खिलाफ सबसे ज्यादा गला फाड़ता है।
जब स्व. फूलनदेवी को ‘अन्याय का प्रतिकार करने वाली स्त्री’ बताकर राजनीति में लाने वाले मुलायम सिंह यादव भी आरक्षण विधेयक पर अपनी शैली में लाठियां भांजते नजर आते हैं तो बात सिर्फ प्रतीकों से आगे जाती नहीं दिखती-संकट का असल कारण यही है। अधिकार और दुलार उतना ही, जितना पुरुष तय करे या पुरुषवादी तय करें। शायद इसीलिए बहुत पहले श्रीमती इंदिरा गांधी को सिरमाथे बिठाने के बावजूद हम स्त्री के लिए राजनीति को सुरक्षित और अनुकूल क्षेत्र नहीं बना पाए। इंदिरा गांधी हमारे लिए दरअसल एक स्त्री की सफलता का, उसकी जद्दोजहद का प्रतीक नहीं बन पाई । हमने उन्हें विशिष्ट परिवार से आने के कारण, खास दैवी शक्तियों से युक्त मान लिया। जबकि ऐसा मूल्यांकन स्वयं इंदिराजी और देश की महान स्त्रियों का अपमान है।
इस देश की स्त्री के लिए तंग होता दरवाजा इसे और अराजक बनाता गया। आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने जिस स्त्री में देशभक्ति,समाज सुधार का जुनून फूंका था, जिसके चलते वह आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन का हिस्सा बनी रही, आजादी मिलते ही वापस अपनी काराओं और कठघरों में कैद हो गई। सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, प्रकाशवती पाल, उषा मेंहता, निर्मला देशपांडे, तारकेश्वरी सिन्हा, कैप्टन लक्ष्मी सहगल आदि अनेक नाम थे, जिन्होंने अपना सार्थक योगदान देकर स्त्री की सामर्थ्य को साबित किया। लंबे समय तक पसरे शून्य के बाद पंचायती राय की कल्पना के क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मन में स्त्री को उचित प्रतिनिधित्व देने का का विचार आया । यह ताजा महिला आरक्षण विधेयक उसी कल्पना के महल पर खड़ा है। देखते ही देखते स्थानीय सरकारों (नगरपालिका, पंचायतों) का चेहरा बदल गया। बड़ी संख्या में औरतों ने घर से निकलकर लोक प्रशासन की कमान संभाली। इस प्रक्रिया में ‘प्रधान पति’ और ‘सभासद पति’ जैसे अघोषित पद जरूर अस्तित्व में आ गए। परिवारवाद के पसरने की बातें शुरू हुई। लेकिन यह सब बदलाव के एक ही चित्र को देखना है। जब इन पदों पर पुरुष बैठते थे तो भी लाचारियां सामने थीं। यदि पुरुष अहंकार से उपजे मानस की टिप्पणी यह है कि ‘अगर महिलाओं का दखल बढ़ा तो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा’ तो यह भी देखना होगा कि 50-52 सालों में भारत के लोकतंत्र को पुरुषों ने कितना उपयोगी, जनधर्मी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाया है ? आज राजनीति का जो ‘काजल की कोठरी’ वाला स्वरूप है, क्या उसकी जिम्मेदारी पुरुष लेना चाहेंगे ? क्या सरकारी प्रशासन में घटती संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार और नकारेपन के साथ लगभग ध्वस्त हो चुके मूलभूत ढांचे का श्रेय वे लेना चाहेंगे ? जाहिर है कि ऐसे आरोप मामले को अतिसरलीकृत करके देखने का प्रयास ही कहे जाएंगे । इनसे हटकर शिक्षा, आर्थिक समृद्धि और सत्ता में भागीदारी जैसे तीन मंत्रों से ही स्त्री मजबूत और अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। आज असली सवाल स्त्री को पुरुष बनाने का नहीं, बल्कि उसे पुरुषों के समान अधिकार देने का है। आरक्षण भी इस दिशा में सिर्फ एक कदम है, समस्या का संपूर्ण निदान नहीं है। सही मानस बनाकर स्त्री के शक्तिकरण के प्रयास न हुए तो यह भी चंद स्त्रियों के विकास और सत्ता के गलियारों में उनकी हिस्सेदारी का उपक्रम बनकर रह जाएगा। समग्र समाज को साथ लेकर प्रतीकात्मक कार्यवाइयों को आंदोलन व बदलाव की बुनियाद तक ले जाने का जज्बा न होगा तो ऐसी कार्रवाइयां कोई मतलब नहीं रखतीं, क्योंकि इस्तेमाल होने से बचने के लिए न्यूजतम शक्तियां ही स्त्री के पास हैं। आरक्षण मिलने पर भी मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी या जमीनी संघर्ष कर रही ऐसी महिलाओं को भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र संसद में लाएगा, इसकी उम्मीद न पालिए। टिकटों के बंटवारे की कुंजी तब भी आमतौर पर पुरुषों के हाथ में ही होगी। 33 प्रतिशत आरक्षण की मजबूरी में वे ‘भाभी-बहुओं’ और ‘मित्रों’ को टिकट जरूर देंगे, ताकि ‘इनके’ जरिए ‘उनका’ शासन चलता रहे। आप ध्यान दें कई बार लोकसभा चुनावों में दागी राजनेताओं का पत्ता कटने पर जिस तरह उनकी बीबियों को मैदान में उतारा गया और ‘दाग’ मिटते ही वे बीबियों को इस्तीफा दिलाकर वापस संसद में लौटने को जिस तरह बेताब हो गए वह इसी मानसिकता का एक उदाहरण है। बिहार में राबड़ी देवी इसका सबसे जीवंत प्रतीक हैं। ऐसे समय में बदलती दुनिया और अवसरों के परिप्रेक्ष्य में औरत के लिए अपनी जगह बनाना बहुत आसान नहीं है।समाज जीवन के तमाम क्षेत्रों में वे बेहतर काम कर रही हैं, किंतु राजनीति का मंच इतना साधारण नहीं है। इस मंच पर जगह पाने की भूख स्त्री में जिस परिमाण में बढ़ी है, समाज और पुरुष में उस रफ्तार से बदलाव नहीं आया है।
नई बाजारवादी व्यवस्था ने औरत की बोली लगानी शुरू की है, उसके भाव बढ़े हैं। सौंदर्य के बाजार कदम-कदम पर सज गए हैं, लेकिन बाजार का यह आमंत्रण, सत्ता के आमंत्रण जैसा नहीं है। दोनों जगहों पर उसकी चुनौतियां अलग हैं। सौंदर्य के बाजार में स्त्री विरोधी परंपराएं और नाजुकता रूप बदलकर बिक रही है, लेकिन सत्ता के मंच पर स्त्री का आमंत्रण उनके दायित्वबोध, नेतृत्वक्षमता और दक्षता का आमंत्रण है। जिस भी नीयत से हो, यह आमंत्रण सार्थक बदलाव की उम्मीद जगाता है। राजनीतिज्ञों के प्रपंचों के बावजूद यदि भारतीय स्त्री ने इस आमंत्रण को स्वीकारा और वे सिर्फ सत्ता के खेल का हाथियार न बनीं तो महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का चेहरा-मोहरा बदलकर रख देगा और तब महामानव गौतम बुद्ध द्वारा ढाई हजार साल पहले कही गई यह उक्ति के ‘स्त्री होना ही दुःख है’ शायद अप्रासंगिक हो जाए और फिर शायद किसी पामेंला बोर्डिस को यह कहने की जरूरत न पड़े कि ‘यह समाज अब भी मिट्टी-गारे की बनी झुग्गी में रहता है।’

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