शुक्रवार, 14 मई 2010

इस औरत का रास्ता मत रोकिए


ऐसे फतवे से क्या हासिल होगा समाज को
-संजय द्विवेदी


इस बार फिर एक फतवा विवादों में हैं। मुस्लिम समाज की प्रमुख संस्था दारूल उलूम, देवबंद का ने हाल में ही एक फतवा जारी करते हुए मुस्लिम महिलाओं को सलाह दी है कि वे मर्दों के साथ आफिस में काम न करें और अगर उन्हें काम करना भी तो बुर्का भी पहनें और दूरियां बनाकर रखें। जाहिर तौर पर मुस्लिम समाज से ही इस फतवे के विरोध में आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। देवबंद से जारी इस फतवे का पूरे देश में विरोध हो रहा है। महिला संगठनों ने भी देवबंद के इस फतवे को गलत बताया है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि समुदाय की बेहतरी के सवालों पर गौर करने के बजाए इस तरह के फतवों से क्या हासिल होना है। वैसे भी मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अन्य समाजों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ रही हैं। औरत को कड़े पर्दे में रखने की हिमायत के अलावा तीन तलाक जैसे प्रावधान आखिर क्या संदेश देते हैं ? इस्लाम के जानकार कई विद्वान मानते हैं कि इस्लाम को सही रूप में न जानने और गलत व्यख्याओं के चलते महिलाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं, जबकि इस्लाम में स्त्री को अनेक अधिकार दिए गए हैं। एक इस्लामी विद्वान के मुताबिक ‘वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम ने पहली बार यह महसूस किया था कि पुरुष व महिलाएं दोनों ही समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। इस्लाम संभवतः पहला मजहब था, जिसने अरब जगत में महिलाओं को अधिकार प्रदान करने का श्रीगणेश किया।’ यह वास्तविकता है कि मध्य युग में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें पिता की संपत्ति में कोई अधिकार न था। विवाह के मामले में उनकी इच्छा या स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं था। विधवा होने पर पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। शादी के बाद छुटकारे का अधिकार न था। अपनी सम्पन्नता के आधार पर पुरुष सैकड़ों औरतों को हरम में रखते थे। उलेमा आज जैसी भी व्याख्याएं करें पर औरत के सामने खड़े इन प्रश्नों पर इस्लाम ने सोचा और उसे अधिकार सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पत्ति में हिस्सा है, जिसे मां-बाप या निकट संबंधी छोड़ जाएं ।’ (अन-निसा 7) । यह निर्देश स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करते। आगे कहा गया है ‘मर्दों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है।’(इन-निसा। 32) । पिता की संपत्ति में बेटी के हक की इस्लाम ने व्यवस्था की है। विवाह के मामले में भी इस्लाम ने औरतों को आजादी दी । विधवा का विवाह उसकी सलाह से और कुंवारी का विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया। यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया । यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह के बाद यदि लड़की कहे तो शादी उसकी रजामंदी के बगैर हुई है तो निकाह टूट जाता है। लेकिन उलेमा उन्हीं आयतों को सामने लाते हैं, जहां औरत की पिटाई का हक पति को दिया गया है। मगर वे यह नहीं बताते कि पत्नी पर व्याभिचार का आरोप लगाकर पति तभी कार्यवाही कर सकता है, जब कम-से-कम 4 गवाह इस बात की गवाही दें कि पत्नी व्याभिचारिणी है। इसके अलावा तलाक के मामले की मनमानी व्याख्याओं के हालात और बुरे किए हैं। पति द्वारा पीड़ित किए जाने पर पत्नी को तलाक का हक देकर इस्लाम ने औरत को शक्ति दी थी । किंतु आज तलाक पुरुषों के हाथ का हथियार बन गया है । बहुविवाह और इस्लाम को लेकर भी खासे भ्रम और मनमानी व्याख्याएं जारी है।एक मुसलमान को चार शादियां करने का हक है, यह बात जोर से कही जाती है। इस अधिकार को लेकर मुस्लिम खासे संवेदनशील भी हैं, क्योंकि इससे प्रायः मुसलमान चार शादियां तो नहीं करते, लेकिन स्त्री पर मनोवैज्ञानिक दबाव व तनाव बनाए रखते हैं। पत्रकार डॉ. मेंहरुद्दीन खान ने अपने एक लेख में कहा है कि ‘विशेष परिस्थितियों में समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। इसमें दो बातें थीं एक तो नवाबों के हरम में असंख्य औरतें थीं, जो नारकीय जीवन बिताती थीं। दो-चार पत्नियां रखने की अनुमति का उद्देश्य हरमों से औरतों की संख्या कम हो गई थी। इस हालात में समाज में संतुलन बनाने के लिए यह उपाय लाजिमी था।’ आज देखा गया है कि विशेष परिस्थितियों में मिली छूट का लाभ उठाकर बूढ़े सम्पन्न लोग भी जवान व कुंवारी लड़कियों से विवाह कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसे प्रसंग मुस्लिम समाज के समाने एक चुनौती की तरह खड़े हैं। इसी तरह पर्दा प्रथा भी है। इस्लाम ने उच्छृंखल होने, नंगेपन पर रोग लगाई तो उसे उलेमाओं ने औरत के खिलाफ एक और हथियार बना लिया।भारत में दहेज प्रथा अभिशाप बन गई है।
मुस्लिम समाज में इस प्रकार की किसी परंपरा का जिक्र नहीं मिलता, किंतु भारतीय प्रभावों से आज उनमें भी यह बीमारी घर कर गई है। अनेक मुस्लिम औरतों को जलाकर मार डालने की घटनाएं दहेज को लेकर हुई हैं। इसमें मुस्लिम समाज का दोहरापन भी सामने आता है। ‘मेहर’की रकम तय करते समय ये शरीयत की आड़ लेकर महर तय कराना चाहता है। किंतु दहेज लेते समय सब भूल जाते हैं। अरब देशों में कमाने गए लोगों ने भी दहेज को बढ़ावा दिया है। अनाप-शनाप आय से वे पैसा खर्च कर अपना रुतबा जमाना चाहते हैं। वहां ये भूल जाते हैं कि दहेज का प्रचलन न सिर्फ गैर इस्लामी है, बल्कि किसी भी समाज के लिए चाहे वे हिंदू हो या ईसाई, शुभ लक्षण नहीं है।जाहिर है मुस्लिम महिलाओं को अपनी शक्ति और धर्म द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा कर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा । सामाजिक चेतना जगाकर ही इस प्रश्न पर सोचने के लिए लॉ बोर्ड संस्थाओं को जगाया जा सकता है । धार्मिक नेताओं को भी चाहिए कि वे इस तरह के फतवे जारी करके अपने आपको हास्यापद न बनाएं। क्योंकि मुस्लिम महिलाएं ही नहीं पूरे भारतीय समाज की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं और अपनी योग्यता से एक नया अध्याय लिख रही हैं। इस तेजी से आगे बढ़ती औरत को प्रोत्साहन देने की जरूरत है न कि उसका रास्ता रोकने की। ऐसे में बेटियों के हक और हकूक के लिए हमें अपना दिल बड़ा करना पड़ेगा क्योंकि वे हमारा परिवार बना सकती हैं तो हमारे समाज और देश को बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हें दी जा सकती है। इंदिरा गांधी से लेकर बेनजीर भुट्टो तक हमारे पास हर समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने अपने काम से औरत के वजूद को साबित किया है।औरत के हक और हुकूक का सवाल पूरी कौम की बेहतरी से जुड़ा है। यह बात मुस्लिम जगत के रहनुमा जितनी जल्दी समझ जाएंगे, मुस्लिम महिलाएं उतनी ही समर्थ होकर घर-परिवार एवं समाज के लिए अपना सार्थक योगदान दे सकेंगी।

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