शुक्रवार, 4 जून 2010

वामपंथियों के दुर्ग पर ममता का झंडा

-संजय द्विवेदी
वामपंथियों का अभेद्य गढ़ कहा जाना वाला पश्चिम बंगाल एक अलग ही करवट ले रहा है। लोकसभा फिर पंचायत और अब नगर निकायों के चुनावों का संदेश साफ है कि वहां की जनता बदलाव का मन बना चुकी है। ममता बनर्जी और उनकी पार्टी उस बदलाव का नेतृत्व कर रही है। यह देखना रोचक है कि कैसे ममता बनर्जी ने एकला चलो रे की तर्ज पर वामपंथियों की बेहद संगठित, हिंसक, वैचारिक और सांगठनिक शक्ति का मुकाबला किया। ममता ने दरअसल जनता की नब्ज को पकड़ लिया है और आज वे इसीलिए जनता की नजर में किसी भी बड़े राष्ट्रीय दल से ज्यादा विश्वसनीय और प्रामाणिक हैं। कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों को जो करना था उसे ममता ने कर दिखाया। वे यह बताने और जताने में सफल रहीं कि वे ही वाममोर्चा का प्रामाणिक विकल्प हैं।
तीन दशक से ज्यादा समय से एक राज्य की सत्ता पर कायम वाममोर्चा के लिए वास्तव में यह आजतक की सबसे बड़ी चुनौती है। जो हालात बन रहे हैं उसमें वाममोर्चा के पास अब डैमेज कंट्रोल का समय भी नहीं है। ममता बनर्जी इस मामले में वामपंथियों को उनकी ही भाषा में जवाब देकर एक ऐसी नेत्री के रूप में उभरी हैं जिसे वामदलों की हिंसक और अधिनायकवादी राजनीति का जवाब उनकी ही शैली में देना आता है। अपनी ईमानदारी, सादगी, संर्धषशीलता से उन्होंने अपने आंदोलन को विश्वसनीय आधार भी दिया है। आम आदमी के लिए लड़ने और जीने की जो यूएसपी, वामदलों को जनता के बीच आधार दिलाती थी, ममता ने उसे छीन लिया। वामदलों के नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्सों के बीच ममता अपनी सादगी के साथ मौजूद थीं। वामदलों के अतिवादी और हिंसक रवैये का जवाब देने के लिए तृणमूल कांग्रेस भी उन्हीं हथियारों के साथ मौजूद थी। यानि साम-दाम-दंड-भेद हर तरीके से तृणमूल ने अपना सांगठनिक आधार मजबूत किया और वामदलों की बोलती बंद कर दी। जाहिर तौर पर ममता यह काम कांग्रेस में रहते हुए नहीं कर सकती थीं। गुटों में बंटी कांग्रेस और आलाकमान के आसपास सक्रिय दबाव समूहों के साथ समन्वय बिठाकर काम करना बहुत मुश्किल था। ममता का निजी स्वभाव और तेवर भी इसकी अनुमति नहीं देते थे। किंतु ममता ने राजनीतिक तौर पर बेहद परिपक्वता का परिचय देते हुए केंद्रीय सरकार में अपनी जगह बनाए रखी ताकि चाहकर भी वामपंथी सरकार उनके आंदोलन को दबा न सके। एक समय जब केंद्र में भाजपा थी तो वे अटलबिहारी वाजपेयी के साथ खड़ी दिखीं और समय आते ही उनका साथ छोड़ कांग्रेस के साथ आ गयीं। इस तरह केंद्रीय मंत्री होने के नाते उनके और उनके दल पर सीधी कार्रवाई करने की स्थिति में वामपंथी सरकार नहीं थी। किंतु ममता को अपना लक्ष्य पता था वे हर काम अपने अंदाज में कर रही थीं।उनके इरादे उन्हें पता थे। वे दिल्ली में भले रहीं किंतु रायटर्स बिल्डिंग में बैठने का उनका सपना सबसे बड़ा रहा। वे रेल मंत्रालय को प्रायः कोलकाता से ही संचालित करती हैं। यह उनका अपना अंदाज है कि उन्हें सिर्फ चिड़िया की आंख दिखती है। राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपने रास्ते के कांटे हटाए और जब चाहा उन्हें उनकी हैसियत बता दी। जैसा कि हाल में हुए नगर निगम चुनावों में उन्होंने कांग्रेस से भी तालमेल नहीं किया और अपने दम पर मैदान में उतरीं। इससे आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के पास ममता से बहुत कम सीटों पर तालमेल के अलावा चारा क्या है। भाजपा का एक तो पश्चिम बंगाल में बहुत आधार नहीं है किंतु ममता ने हालात ऐसे पैदा कर दिए हैं कि भाजपा समर्थक वोट भी वाममोर्चा सरकार को गिराने के लिए ममता को ही मिलेंगें। अभी इस बात का विश्लेषण होना शेष है कि आखिर वाममोर्चा जैसी संगठित-सांगठनिक शक्ति को ममता किस तरह जनता की नजरें से गिराकर खुद स्टार बन बैठीं। देखें तो नंदीग्राम और सिंगूर की घटनाओं ने वाममोर्चा को खासा नुकसान पहुंचाया और उसके वैचारिक आधार को इससे खासी चोट पहुंची। इससे तमाम बुध्दिजीवी, कलाकार और रचनाकार ही नहीं आम लोग भी तृणमूल में अपने राज्य का भविष्य देखने लगे। बची खुची कसर लालगढ़ में मचे संग्राम ने पूरी कर दी।
अपने तीन दशकों के कार्यकाल में मची अराजकता, विकासहीनता, गुंडागर्दी और पार्टी की दादागिरी से त्रस्त लोगों के सामने माकपा हतप्रभ थी। उसके पास इन सालों में हुए अविकास और राज्य के पिछड़ेपन को लेकर कोई जवाब नहीं था। यह बात सही है कि वामदलों की सक्रियता के चलते पश्चिम बंगाल के समाज में राजनैतिक चेतना का विस्तार हुआ है, बहसें होती हैं और लोग मुद्दों पर बात करते हैं। यह जागरूकता और प्रश्न पूछने की आकुलता अब वामदलों के उपर ही भारी पड़ रही है। सिंगुर, नंदीग्राम और लालगढ़ से उठे सवालों का जवाब आज भी वामदलों के पास नहीं है। वाममोर्चा की सरकार जिस राजनीतिक प्रबंधन पर इतराया करती थी, वही प्रबंधन, वही हिंसा, वही बौद्धिक तबका अब तृणमूल के समर्थन में दिखता है। पश्चिम बंगाल में भले वामपंथी अरसे से राज कर रहे थे किंतु उनके खिलाफ गुस्सा जमा होता रहा है। यह अलग बात है कि हमारे राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा कोई विश्वसनीय विकल्प प्रस्तुत न कर सके इसलिए वामदल इतनी लंबी पारी खेल पाए। यह सच है कि ममता बनर्जी ने भी अलग रास्ता लेकर, सधी रणनीति से एक क्षेत्रीय दल बनाकर, दिल्ली में सबका सहयोग लेते हुए वामदलों के सामने एक प्रामाणिक विकल्प के रूप में खुद को प्रस्तुत न किया होता तो पश्चिम बंगाल आज भी वामदलों का अभेद्य दुर्ग ही नजर आता। किंतु यह जंग ममता ने सबको साथ लेकर अपने दम पर जीती है। वे सही मायने में वन मैन आर्मी की तरह जूझती नजर आयीं। सड़क पर लड़ने से लेकर हिंसा का सहारा लेने तक कहीं आज उनकी तृणमूल कांग्रेस पीछे नहीं है। सच कहें तो वामदलों के सारे हथियार आज ममता के पास हैं। वामपंथियों के उन्हीं अस्त्रों से ममता उन्हें पीट रही हैं। नगर निगमों के चुनाव सही मायने में वामपंथी दलों के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। इसे विधानसभा चुनावों का सेमीफायनल माना जा रहा था। ममता के इस जादू को काटने का कोई उपाय फिलहाल तो वाममोर्चा के पास नजर नहीं आता। निष्पक्ष चुनावों की परिपाटी ने वैसे भी वामपंथी चुनाव प्रबंधकों की असलियत सामने ला दी है। जनता के मन को बदलने और चुनाव जीतने का कोई मंत्र अगर वाममोर्चा के पास हो तो उसे जरूर आजमाना चाहिए। फिलहाल तो पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा सरकार की विदाई की पटकथा लिखी जा चुकी है, आगे के दिनों की कौन जाने।

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