मंगलवार, 29 जून 2010

बाजार के हवाले ‘हम भारत के लोग’


बढ़ती कीमतों ने जाहिर किया आम आदमी की चिंता किसी को नहीं
- संजय द्विवेदी

एक लोककल्याणकारी राज्य जब खुद को बाजार के हवाले कर दे तो कहने के लिए क्या बचता है। इसके मायने यही हैं कि राज्य ने बाजार की ताकतों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और जनता को महंगाई की ऐसी आग में झोंक दिया है जहां उसके पास झुलसने के अलावा कोई चारा नहीं है। पेट्रोलियम की कीमतें अगर हमारा प्रशासन नहीं, बाजार ही तय करेगा तो एक लोककल्याणकारी राज्य के मायने क्या रह जाते हैं। जनता के पास हर पांच साल पर जो लोग उसे राहत दिलाने की कसमें खाते हुए वोट मांगने के लिए आते हैं क्या वे दिल्ली जाकर अपने सपने और संकल्प भूल जाते हैं। केंद्र में सत्ताधारी दल ने चुनाव में वादा किया था – ‘कांग्रेस का हाथ,गरीब के साथ।’ जबकि उसकी सरकार का आचरण यह कहता है- ‘कांग्रेस का हाथ, बाजार के साथ।’ पिछले एक साल में तीन बार पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा चुकी सरकार आखिर आम जनता के साथ कैसा खेल, खेल रही है। महंगाई की मार से जूझ रही जनता पर ये कीमतें कैसे प्रकारांतर से मार करती हैं किसी से छिपा नहीं है। महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासन में यह हो रहा है तो जनता किससे उम्मीद करे। वो कौन सा अर्थशास्त्र है जो अपने नागरिकों की तबाही के ही उपाय सोचता है। प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषिमंत्री सब महंगाई कम होने का वादा करते रहते हैं, किंतु घर की रसोई पर भी उनकी बुरी नजर है।
जिस देश में खाने-पीने की चीजों में आग लगी हो, वहां ऐसे कदम निराश करते हैं। भुखमरी, गरीबी का सामना कर रहे लोगों को राहत देना तो दूर सरकार उनकी दुश्वारियां बढ़ाने का ही काम कर रही है। भारत जैसे देश में अगर कीमतें बाजार तय करेगा तो हम खासी मुश्किलों में पड़ेगें। हमें अपनी व्यवस्था के छिद्रों को ढूंढकर उनका समाधान करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्यक्रम बनाने के बजाए आम जनता को इसका शिकार बनाना ज्यादा आसान लगता है। नेताओं और नीति-निर्माता अधिकारियों की पैसे के प्रति प्रकट पिपासा ने देश का यह हाल किया है। हमें जनता की नहीं, उपभोक्ताओं की तलाश है। सो सारा का सारा तंत्र उपभोग को बढ़ाने वाली नीतियों के क्रियान्वन में लगा है। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट जब यह कहती है कि देश के सत्तर प्रतिशत लोग 20 रूपए से कम की रोजी पर अपना दैनिक जीवन चलाते हैं, तो सरकार इन लोगों की राहत के लिए नहीं सोचती। किंतु जब किरीट पारिख पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को बाजार के हवाले करने की बात कहते हैं तो उसे यह सरकार आसानी से मान लेती है। आर्थिक सुधारों के लिए कड़े कदम उठाने के मायने यह नहीं है जनता के जीवन जीने के अधिकार को ही मुश्किल में डाल दिया जाए। सरकार सही मायने में अपने कार्य-व्यवहार से एक जनविरोधी चरित्र का ही परिचय दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी की उन कोशिशों को क्या बेमानी नहीं माना जाना चाहिए जिसके तहत वे गांव के आखिरी आदमी को राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार का आचरण इससे ठीक उलट है। पूरा देश यह सवाल पूछ रहा है कि क्या इस सरकार की आर्थिक नीतियां उस कलावती या दलितों के पक्ष में हैं जिनके घर जाकर, रूककर राहुल गांधी, भारत को खोज रहे हैं। दरअसल यह द्वंद ही आज की राजनीति का मूल स्वभाव हो गया है।
आम आदमी का नाम लेते हुए खास आदमी के लिए यह सारा तंत्र समर्पित है। भ्रष्टाचारियों के सामने नतमस्तक यह पूरा का पूरा तंत्र आम आदमी की जिंदगी में कड़वाहटें घोल रहा है। तेल की अंर्तराष्ट्रीय बाजार में जो कीमत है उससे अधिक उसपर ड्यूटी लगती है। इसलिए अगर सरकार को तेल पर सब्सिडी देनी पड़े तो देने में हर्ज क्या है। सरकार अगर हर जगह से अपने हाथ खींच लेगी और सारा कुछ बाजार की ताकतों को सौंप देगी तो ऐसी सरकार का हम क्या करेंगें। सरकार भले अपने इस कदम को तर्कों से सही साबित करे किंतु एक जनकल्याणकारी राज्य, हमेशा अपनी जनता के प्रति जवाबदेह होता है, बाजार की शक्तियों का नहीं। किंतु ऐसा लगता है कि आज की सरकारें कारपोरेट, अमरीका और बाजार की ताकतों की चाकरी में ही अपनी मुक्ति समझती हैं। भ्रष्टाचार और जमाखोरी के खिलाफ कोई कारगर नीति बनाने के बजाए सरकारी तंत्र जनता से ही दूसरों की गलतियों की कीमत वसूलता है। आज सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि जरूरी चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रही हैं। ऐसे वक्त में सरकार कभी अंतर्राष्ट्रीय हालात का बहाना बनाती है, तो कभी पैदावार की कमी का रोना रोती है। सरकार के एक मंत्री जमाखोरी को इसका कारण बताते हैं। तो कोई कहता है राज्यों से अपेक्षित सहयोग न मिलने से हालात बिगड़े हैं। सही मायने में यह उलटबासियां बताती हैं कि किसी भी राजनीतिक दल के केंद्र में जनता का एजेंडा नहीं है। लोकतंत्र के नाम पर कारपोरेट के पुरजों और दलालों की सत्ता के गलियारों में आमद-रफ्त बढ़ी है, जो नीतियों के क्रियान्वयन में बेहद हस्तक्षेपकारी भूमिका में हैं। देश ने नई आर्थिक नीतियों के बाद जैसे भी शुभ परिणाम पाएं हों उसका आकलन होना शेष है किंतु आम जनता इसके बाद हाशिए पर चली गयी है। राजनीति के केंद्र से आम आदमी और उसकी पीड़ा का गायब होना हमारे समय की सबसे बड़ी चिंता है। देश में आंदोलनों का सिकुड़ना और तेजी से उच्चमध्यवर्ग के उदय ने चिंताएं बहुत बढ़ा दी हैं। देश में तेजी के साथ एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गरीबों और रोजमर्रा के संधर्ष में लगे लोगों को बहुत हिकारत के साथ देखता है और उन्हें एक बोझ की तरह रेखांकित है। हमारे इस कठिन समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देश के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले यह सोचना कि इसका असर आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर क्या पड़ेगा। किंतु गांधी की उसी पार्टी के आज के नायक मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और मुरली देवड़ा हैं जिनका यह मंत्र है कि कीमतें बाजार तय करेगा भले ही आम आदमी को उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। बाजारवाद के इस हो-हल्ले में अगर महात्मा गांधी की बात अनसुनी की जा रही है तो हम भारत के लोग, अपने नायकों को कोसने के सिवा क्या कर सकते हैं।

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