शुक्रवार, 18 जून 2010

नहीं संभले तो यह कालिख हमें ले डूबेगी


पेड न्यूज के सवाल पर चुनाव आयोग के रूख का स्वागत कीजिए

सच मानिए यह कालिख हमें ले डूबेगी। पेड न्यूज की खबरों ने जितना और जैसा नुकसान मीडिया को पहुंचाया है, उतना नुकसान तो आपातकाल में घुटने टेकने पर भी नहीं हुआ था। चुनावी कवरेज के नाम पर यह एक ऐसी लूट थी जिसमें हम सब शामिल थे। इस लूट ने हमारे सिर शर्म से झुका दिए थे। नौकरी की मजबूरियों में खामोश पत्रकार भी अंदर ही अंदर बिलबिला रहे थे। पर हमारे मालिकों की बेशर्मी ऐसी कि एक ने कहा कि “सबको दर्द इसलिए हो रहा है कि पैसा हिंदी वालों को मिला। ” इस गंदे पैसे से हिंदी की सेवा करने के लिए आतुर इन महान मालिकों से किसने कहा कि वे राष्ट्रभाषा में अखबार निकालें। कोई और काम या व्यापार करते हुए, जाकर उन्हीं नेताओं से पैसे मांगकर देखें, जो मजबूरी में मालिक संपादकों को सिर पर बिठाते हैं। एक बार अखबार का विजिटिंग कार्ड न होगा तो सारे काले-पीले काम बंद हो जाएंगे, यह तो उन्हें जानना ही चाहिए। अपनी विश्वसनीयता और प्रामणिकता को दांव को लगाकर सालों से अर्जित भाषाई पत्रकारिता के पुण्य पर पेड न्यूज का ग्रहण जितनी जल्दी हटे बेहतर होगा। शायद इसीलिए चुनाव आयोग ने पेड न्यूज पर मचे बवाल पर चिंता जताते हुए यह तय किया है कि अब आयोग ऐसे विज्ञापनों की निगरानी करेगा।
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पेड न्यूज का मुद्दा खासा विवादों में आया था जब तमाम समाचार पत्र समूहों और टीवी चैनलों ने मोटी रकम उम्मीदवारों से लेकर उनके पक्ष में समाचार छापे और दिखाए थे। हालात यह थे कि पैसे के आधार पर छपी खबरों में यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सा समाचार है और कौन सा विज्ञापन। यह बहुत राहत देने की बात है कि इसके खिलाफ मीडिया से जुड़े लोगों ने ही आवाज उठायी और इसे एक बड़े संकट के रूप में निरूपित किया। हमारे समय के बड़े पत्रकार स्वा. प्रभाष जोशी इस विषय पर पूरे देश में अलख जागते हुए ही विदा हुए। जाहिर तौर पर यह एक ऐसी प्रवृत्ति थी जिसका विरोध होना ही चाहिए। क्योंकि आखिर जब छपे हुए शब्दों की विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो उसका मतलब क्या है। ऐसे में तमाम राजनेता, पत्रकार, समाजसेवी, बुद्धिजीवी इस चलन के खिलाफ खड़े हुए। सत्ता और मीडिया के बीच बहुत सरस संबंधों से वैसे भी सच कहीं दुबक कर रह जाता है। भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव पर भी अगर हमारे अखबार झूठ की बारिश करेंगें तो पत्रकारिता की शुचिता, पवित्रता और प्रामणिकता कहां बचेगी। ऐसे कठिन समय में चुनाव आयोग का इस तरफ ध्यान देना बहुत स्वाभाविक था। आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यचुनाव अधिकारियों को दिए अपने निर्देश में जिला निर्वाचन अधिकारियों से इस मामले में मीडिया पर कड़ी नजर रखने को कहा है।आयोग ने कहा कि जिले में प्रसारित और प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्रों की कड़ी जांच पड़ताल के लिए चुनाव की धोषणा होते ही जिला स्तरीय समितियों का गठन जिला निर्वाचन अधिकारी कर सकते हैं। ताकि न्यूज कवरेज की आड़ में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों का पता लगाया जा सके। चुनाव आयोग ने यह भी व्यवस्था दी है कि जिला निर्वाचन अधिकारियों को करीब से प्रिंट मीडिया में जारी होने वाले विज्ञापनों पर नजर रखनी चाहिए जिनमें समाचार के रूप में छद्म विज्ञापन हों और जहां जरूरत हो उन मामलों में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को नोटिस दिए जाएं ताकि इस मद में आने वाला खर्च संबंधित उम्मीदवार या पार्टी के चुनाव खर्च में डाला जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हाल में ही उनके खिलाफ पेड न्यूज के एक मामले में नोटिस दिया गया था। चुनाव आयोग की यह सक्रियता बताती है उसका इन खतरों की तरफ ध्यान है और वह चुनावों को साफ-सुथरे ढंग से कराने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में हमारे राजनेता, राजनीतिक दलों और मीडिया समूहों तीनों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। स्वच्छ चुनावों के लिए हमारे राजनेताओं की प्रतिबद्धता के बिना प्रयास सफल न होंगें। देश के मीडिया ने तमाम राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया है। उसके सचेतन प्रयासों से लोकतंत्र के प्रति जनविश्वास बढ़ा है।
ऐसे में पेड न्यूज की विकृति स्वयं मीडिया के प्रति जनविश्वास का क्षरण करेगी। ऐसे में मीडिया समूहों को स्वयं आगे आकर अपनी प्रामणिकता और विश्वसनीयता की रक्षा करनी चाहिए। ताकि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत ही न पड़े। उम्मीद है मीडिया के हमारे नियामक इन बदनामियों से नाम कमाने के बजाए पूंजी अर्जन के कुछ नए रास्ते निकालेंगे। हमारे लोकतंत्र को नेताओं ने लोकतंत्र को लूटतंत्र में बदल दिया है, किंतु इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि नेताओं की लूट में मीडिया का भी हिस्सा है। मीडिया ने यह समझा कि नेताजी काफी कमाया है सो उस लूट के माल में हमारा भी हिस्सा है। जाहिर तौर पर इस लूट में शामिल होने के बाद आप नैतिकता और समाज के पहरूए की भूमिका खो देते हैं। मीडिया को किसी कीमत पर यह छूट नहीं दी जानी कि वह किसी तरह की सरकारी या गैर सरकारी लूट का हिस्सा बने। अगर मीडिया के मालिक ऐसा करते हैं तो वे सालों-साल से अर्जित पुण्यफल का क्षरण ही कर रहे हैं और ऐसे आचरण से उनके अखबार पोस्टर में बदल जाएंगें। उन्हें जो जनविश्वास अर्जित है उसका क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा मीडिया नई लीक पर चल अपने आत्मविश्वास को न खोते हुए अपनी आत्मनिर्भरता के लिए नए रास्ते तलाशेगा ताकि चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को इस तरह के नियमन की जरूरत न पड़े। ताकि मीडिया को लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्था के रूप में देखा जाए न की लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने वाले माध्यम के रूप में उसे आरोपित किया जाए। बेहतर होगा कि मीडिया सत्ता और सत्ता और राजनीति के साथ आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाए, क्योंकि यही बात उसके पक्ष में है और उसकी प्रामणिकता को बचाए व बनाए रखने में सहायक भी।

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