शनिवार, 28 अगस्त 2010

मैदान में उतरा ‘गांधी’ !


देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों के उत्तर भी तलाशें राहुल
-संजय द्विवेदी


पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।
वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- ‘मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।’आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ” राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री


अपनी योग्यताओं के बावजूद बहुत औसत राजनेता साबित हुए मनमोहन
-संजय द्विवेदी

मनमोहन सिंह की सफलताएं देखकर लगता है कि आखिर वे इतने बड़े कैसे हो पाए, तो फिलहाल दो ही कारण समझ में आते हैं एक उनका भाग्य और दूसरा श्रीमती सोनिया गांधी। किंतु इन दोनों कारणों से ही कुर्सी पाने के बावजूद भी वे इस अवसर को एक सौभाग्य में बदल सकते थे- इसका कारण यह है कि उनके पास ईमानदारी और विद्वता की एक ऐसी विरासत थी जिसका संयोग आज की राजनीति में दुर्लभ है। अब जबकि वे एक लंबा कार्यकाल पाने वाले देश के तीसरे प्रधानमंत्री बन चुके हैं तो भी उनके पास उपलब्धियों का खाता खाली है। पिछले चुनावों में उनकी जिस शुचिता, ईमानदारी और भद्रता पर मुग्ध देश ने भाजपा दिग्गज लालकृष्ण आडवानी के एक तर्क नहीं सुने और मनमोहन सिंह की वापसी पर मुहर लगाई, आज देश अपने प्रधानमंत्री से खासा निराश दिखता है। अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण अगर वे चाहते तो लालबहादुर शास्त्री की तरह एक बड़ी रेखा खींच सकते थे, जबकि शास्त्री जी को समय बहुत कम मिला था। किंतु मनमोहन सिंह पूरे साढ़े छः बाद भी एक बहुत औसत राजनेता के रूप में ही सामने आते हैं।
परमाणु करार बिल को पास कराने के समय और पिछले लोकसभा चुनावों में जिस तेवर का उन्होंने परिचय दिया था उससे लगता था कि मनमोहन सिंह बदल रहे हैं। पर अब यह लगने लगा है कि वे कांग्रेस के युवराज की ताजपोशी तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ही हैं, जो राज नहीं कर रहा अपना समय काट रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनमोहन सिंह की अपार योग्यताओं के बावजूद उनकी क्षमताएं किसी मोर्चे पर प्रकट होती नहीं दिखतीं। वे दुनिया को मंदी से उबरने के मंत्र बता रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कह रहे हैं कि डा. मनमोहन सिंह जब बोलते हैं दुनिया उनकी बातों को ध्यान से सुनती है। तो क्या कारण है कि यह भारतीय प्रधानमंत्री अपने देश के सवालों पर खामोश है? क्या कारण है कि हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास देश में फैली महंगाई का कोई हल, कोई समाधान नहीं है ? आखिर क्या कारण है कि कश्मीर के संकट को विकराल होते जाने देने के लगभग दो महीने बाद वे नींद से जागते हैं और स्वायत्तता का झुनझुना लेकर सामने आते हैं? क्या कारण है कि नक्सलवाद के सवाल पर सरकार के बीच ही इतने किंतु-परंतु हैं जिसका लाभ हिंसक आंदोलन से जुड़ी ताकतें उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रही हैं? कांग्रेस के कुछ दिग्गज और एक केंद्रीय मंत्री नक्सल आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बोल कह देते हैं पर हमारे प्रधानमंत्री कुछ नहीं कहते। जयराम रमेश और प्रफुल्ल पटेल की भिडंत से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। द्रुमुक के मंत्रियों के कदाचार उन्हें नहीं दिखते। क्या कारण है पूर्वांचल का एक राज्य मणिपुर महीने पर तक नाकेबंदी झेलता है पर हमारी दिल्ली की सरकार को फर्क नहीं पड़ता। क्या कारण है कि कश्मीर में सिखों को यह धमकी जा रही है कि वे इस्लाम स्वीकारें अथवा घाटी छोड़ें पर हमारी सरकार के पास इस मामले में सिर्फ आश्वासन हैं। परमाणु जवाबदेही कानून के मामले में लगता है कि राजनीतिक विमर्श के बजाए सरकार सौदेबाजी कर रही है। नहीं तो क्या कारण है कि कुछ समय पहले जब केंद्र सरकार इस विधेयक को लाई थी तो उसका कड़ा विरोध हुआ था। अब कांग्रेस-भाजपा दोनों इस विषय पर एक हो गए हैं। सबसे गंभीर एतराज संयंत्र के लिए मशीनों और कलपुर्जों की सप्लाई करने वाली विदेशी कंपनियों को जवाबदेही से मुक्त करने पर है।ऐसी ही कुछ राहत भोपाल गैस त्रासदी की आरोपी कंपनी को दी गयी है। ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों के फैसले संसद में नहीं वाशिंगटन से होते हैं। ऐसी सरकार किस मुंह से एक लोककल्याणकारी सरकार होने का दावा करती है। एक तरफ तो यह सरकार गांधी से अपना रिश्ता जोड़ते नहीं थकती वहीं गांधी जयंती के मौके पर खादी पर मिलने वाली 20 प्रतिशत सब्सिडी वापस ले लेती है। उसे खादी ग्रामोद्योग को दी जा रही सब्सिडी भारी लगती है, किंतु विदेशी कंपनियों के लिए सरकार सब तरह की छूट देने के लिए आतुर है। लगता ही नहीं कि देश में हम भारत के लोगों की सरकार चल रही है।
प्रधानमंत्री अगले माह 78 साल के हो रहे हैं, क्या ये माना जाए कि उन पर आयु हावी हो रही है या वे अब अपने आपको इस तंत्र में मिसफिट पा रहे हैं और मानने लगे हैं कि राहुल गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में अवतार ही देश के सारे संकट हल करेगा। देश की जनता ने उन्हें लगातार ‘कमजोर प्रधानमंत्री’ कहे जाने के बजाए उन पर भरोसा जताते हुए, न सिर्फ जिताया वरन वरन पिछले दो दशकों में यह कांग्रेस का बेहतरीन प्रदर्शन था। प्रधानमंत्री अपनी पहली पारी में तमाम वामपंथी दलों और नासमझ दोस्तों से घिरे थे, इस बार वह संकट भी नहीं है। आखिर फिर क्यों उन्हें फैसले लेने में दिक्कतें आ रही हैं। वे आखिर क्यों अपने आपको एक अनिर्णय से घिरे रहने वाले नेता के रूप में खुद को स्थापित कर रहे हैं। अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी के बावजूद उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है। जिन राष्ट्रमंडल खेलों में प्रकट भ्रष्टाचार हुआ उनको वे अपने भाषण में देश का गौरव बता आए। भोपाल गैस त्रासदी से लेकर जातिगण जनगणना हर सवाल पर सरकार का नेतृत्व कहीं नेतृत्वकारी भूमिका में नजर नहीं आया। यह जानते हुए भी कि यह उनके राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण पारी है, डा. मनमोहन सिंह ऐसा क्यों कर रहे हैं, यह एक आश्चर्य की बात है। यूं लगने लगा है जैसे वास्तव में उनका नौकरशाह अतीत उनपर हावी हो और अनिर्णय को ही निर्णय मानने की कुशल अफसरशाही के मंत्र को ही उन्होंने अपना आर्दश बना रखा है। यह भी संभव है कि हमारे प्रधानमंत्री क्योंकि जनता के बीच से नहीं आते और उनके सामने जनसमर्थन जुटाने की वैसी चुनौती नहीं है जो आम तौर पर नेताओं के पास होती है, तो वे जनता के प्रश्नों को बहुत महत्व का न मानते हों। क्योंकि संयोग से कांग्रेस के पास जनसमर्थन जुटाने की जिम्मेदारी वर्तमान प्रधानमंत्री की नहीं है , गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों पर है। पिछले कार्यकाल में परमाणु करार को पास कराने के प्रधानमंत्री की जो ताकत, बेताबी और उत्साह नजर आया था तो ऐसा लगा था कि डा. मनमोहन सिंह ने अपने पद की ताकत को पहचान लिया है। किंतु वह सारा कुछ करार पास होने के बाद हवा हो गया। शायद अमरीका से किए वायदे चुकाने का जोश उनमें ज्यादा था किंतु जनता से किए वायदे हमारे नेताओं को याद कहां रहते हैं। शायद यही कारण है कि आज की राजनीति में जनता का एजेंडा हाशिए पर है। मनमोहन सिंह की सरकार इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही निराश करती नजर आ रही है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा। देश को फिलहाल प्रतीक्षा ऐसे नेतृत्व की है जो उसके सामने मौजूद प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाश सके। गंभीर मसलों पर हमारा मौन देश की जनता में निराशा और अवसाद भर रहा है। क्या श्रीमती सोनिया गांधी भी इसे महसूस कर रही हैं ?

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीरः कब पिघलेगी बर्फ


-संजय द्विवेदी
इन्तहा हो गई है, कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी लगता है कि सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं। समस्या के समाधान के लिए सारी ‘पैथियां’ आजमायी जा चुकी हैं और अब वर्तमान प्रधानमंत्री ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ से इस लाइलाज बीमारी का हल करने में लगे हैं। ‘जाहिर है मामला ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों जैसा आसान नहीं है, कश्मीर में आपकी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक आपके पास है। यहां वहां से पलायन करती हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ? जाहिर है मामला धर्मांधता से प्रेरित था। उपेक्षा के सवाल नारेबाजी के लिए थे, निशाना कुछ और था। इसलिए यह कहने में हिचक नहीं बरतनी चाहिए कि सेना के अलावा आज घाटी में ‘भारत माँ की जय’ बोलने वाले शेष नहीं रह गए हैं। जिन लोगों की भावनाएं भारत के साथ जुड़ी हैं, वे भी कुछ मजबूरन-कुछ मसलहतन जुबां पर ताले लगाकर खामोश हैं। मंत्री भयभीत हैं, अफसरान दहशत जदा हैं, आतंक का राज जारी है।इन हालात में प्रधानमंत्री कश्मीर में ‘अमन का राज’ लाना चाहते हैं । लेकिन क्या इस ‘शांति प्रवचन’ से पाकिस्तान और लश्कर के गुंडे कश्मीर में आतंक का प्रसार बंद देंगे। आंखों पर पट्टी बांधकर जुनूनी लड़ाई लड़ने वाले अपने हथियार फेंक देंगे। जाहिर है ये बातें इतनी आसान नहीं दिखतीं । जब तक सीमा पार से आतंकवाद का पोषण नहीं रुकेगा, कश्मीर की समस्या का समाधान सोचना भी बेमानी है। कश्मीर की भौगोलिक स्थितियां ऐसी हैं कि घुसपैठ को रोकना वैसे भी संभव नहीं है। अन्य राष्ट्रों से लगी लंबी सीमा, पहाड़ और दर्रे वहां घुसपैठ की स्थितियों को सुगम बनाते हैं। पाक व तालिबान की प्रेरणा व धन से चल रहे कैंपों से प्रशिक्षित उग्रवादी वहां के आंतकवाद की असली ताकत हैं। सरकार को इन हालात के मद्देनजर ‘आतंकवादी संगठनों’ की कृपा पाने के बजाए उनके प्रेरणास्त्रोतों पर ही चोट करनी होगी, क्योंकि जब तक विदेशी सहयोग जारी रहेगा, यह समस्या समाप्त नहीं हो सकती । हुर्रियत या अन्य कश्मीरी संगठनों से वार्ता कर भी ये हालात सुधर नहीं सकते, क्योंकि हुर्रियत अकेली न कश्मीरियों की प्रतिनिधि है, न ही उसकी आवाज पर उग्रवादी हथियार डालने वाले हैं। जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। आबादी का संतुलन बनाना दूसरी बड़ी चुनौती है। कुछ मार्ग निकालकर घाटी के क्षेत्रों में भूतपूर्व सैनिकों को बसाया जाना चाहिए तथा कश्मीर पंडितों की घर वापसी का माहौल बनाना चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सके तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। सच्चे मन से किए गए प्रयास ही इस इलाके में जमी बर्फ को पिघला सकते हैं। यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुसी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है।

मीडिया विमर्श के वार्षिकांक में एक बड़ी बहस क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी ?


इस बार की आवरण कथा हैः हा! हा!! HINDI दुर्दशा देखि न जाई!!!
रायपुर।
मीडिया विमर्श का सितंबर, 2010 का अंक 15 अगस्त तक बाजार में आ जाएगा। इस अंक में एक बड़ी बहस है कि क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी। सितंबर के महीने की 14 तारीख को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है। इस वार्षिक कर्मकांड को जाने दें तो भी हम अपने आसपास रोजाना हिंदी की दैनिक दुर्दशा का आलम देखते हैं। ऐसे में हिंदी की ताकत, वह आम जनता ही है जो इसमें जीती, बोलती और सांस लेती है। बाजार भी इस जनता के दिल को जीतना चाहता है इसलिए वह उसकी भाषा में बात करता है। यह हिंदी की ताकत ही है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हिंदी सिर्फ वोट मांगने और मनोरंजन की भाषा रह गयी है। इन मिले-जुले दृश्यों से लगता है कि हिंदी कहीं से हार से रही है और अपनों से ही पराजित हो रही है।
इन हालात के बीच हिंदी के विख्यात लेखक एवं उपन्यासकार श्री असगर वजाहत ने हिंदी को देवनागरी के बजाए रोमन में लिखे जाने की वकालत कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। श्री वजाहत ने देश के प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता में 16 और 17 मार्च,2010 को एक लेख लिखकर अपने तर्क दिए हैं कि रोमन में हिंदी को लिखे जाने से उसे क्या फायदे हो सकते हैं। जाहिर तौर पर हिंदी का देवनागरी लिपि के साथ सिर्फ भावनात्मक ही नहीं, कार्यकारी रिश्ता भी है। श्री वजाहत की राय पर मीडिया विमर्श ने अपने इस अंक में देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों, संपादकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर असगर की बात मान लेने में हर्ज क्या है। हिंदी दिवस के प्रसंग को ध्यान में रखते हुए यह बहस एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है जिससे हम अपनी भाषा और लिपि को लेकर एक नए सिरे से विचार कर सकते हैं। इस बहस को ही हम इस अंक की आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आवरण कथा की शुरूआत में श्री असगर वजाहत का लेख जनसत्ता से साभार लिया गया है, इसके साथ इस विमर्श में शामिल हैं- वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, हिंदी के चर्चित कवि अष्टभुजा शुक्ल, दैनिक भास्कर-नागपुर के संपादक प्रकाश दुबे, देशबंधु के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी, नवभारत- इंदौर के पूर्व संपादक प्रो. कमल दीक्षित, प्रख्यात कवि-कथाकार प्रभु जोशी, हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर
इसके अलावा नक्सलवाद को बौद्धिक समर्थन पर प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय के अलावा कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद के लेख प्रकाशित किए गए हैं।जिसमें लेखकों ने पक्ष विपक्ष में अपनी राय दी है। इसके अलावा अन्य कुछ लेख भी इस अंक का आकर्षण होंगें। पत्रिका के इस अंक की प्रति प्राप्त करने के लिए 25 रूपए का डाक टिकट भेज सकते हैं। साथ ही वार्षिक सदस्यता के रूप में 100 रूपए मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट भेज कर सदस्यता ली जा सकती है। पत्रिका प्राप्ति के संपर्क है-
संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर,
फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान


बिलासपुर। पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान से सम्मानित किया गया है। यह सम्मान पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पिछले दिनों बिलासपुर के राधवेंद्र राव सभा भवन में आयोजित समारोह में छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने प्रदान किया। कार्यक्रम का आयोजन छत्तीसगढ़ साहित्यकार परिषद, बिलासपुर ने किया था। इस मौके पर परिषद ने छत्तीसगढ़ के नवरत्न के तहत हास्य-व्यंग्य कवि सुरेंद्र दुबे, लेखक गिरीश पंकज, डा.दानेश्वर शर्मा, नवभारत के संपादक श्याम वेताल, कवि त्रिभुवन पाण्डेय, कथाकार डा. परदेशीराम वर्मा, नवभारत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आर.अजीत एवं डा. विजय सिन्हा को भी सम्मानित किया गया।
आयोजन को संबोधित करते हुए विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि हमारे समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए साहित्यकारों और पत्रकारों को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी होगी। इसके लिए एक वैचारिक क्रांति की जरूरत है। कार्यक्रम के मुख्यवक्ता के पत्रकार एवं मीडिया प्राध्यापक संजय द्विवेदी ने कहा कि संवेदना के बिना न तो साहित्य रचा जा सकता है न ही पत्रकारिता की जा सकती है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवाद की है। यह एक वैचारिक संघर्ष भी है। क्योंकि हमारे जनतंत्र को यह हिंसक विचारधारा की चुनौती है। उन्होंने कहा माओवादी राज में पहला हमला कलम पर ही होता है और लेखक निर्वासन भुगतते हैं या मार दिए जाते हैं। इसलिए हमें अपने जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने के लिए सचेतन प्रयास करने होंगें ताकि जो लोग हिंसा के माध्यम से भारत की राजसत्ता पर 2050 तक कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं वे सफल न हों। आरंभ में अतिथियों का स्वागत संस्था के अध्यक्ष डा. गिरधर शर्मा ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक प्रमुख साहित्यकार एवं पत्रकार मौजूद रहे।

रचना और संघर्ष का सफरनामाः राजेंद्र माथुर


जयंती ( 7 अगस्त) पर खासः -संजय द्विवेदी


राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा एक साधारण आम आदमी की कथा है। वे इतने साधारण हैं कि असाधारण लगने लगते हैं। उन्होंने जो कुछ पाया एकाएक नहीं पाया। संघर्ष से पाया, नियमित लेखन से पाया, अपनी रचनाशीलता से पाया। इसी संघर्ष की वृत्ति ने उन्हें असाधारण पत्रकार और संपादक बना दिया। राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात से तय होता है कि आखिर उनके लेखन में विचारों की गहराई कितनी है। अपने अखबार को उंचाईयों पर ले जाने का उसका संकल्प कितना गहरा है। हमारे समय के प्रश्नों के जबाव तलाशने और नए सवाल खड़े की कितनी प्रश्नाकुलता संबंधित व्यक्ति में है। राजेंद्र माथुर का संपादकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात की गवाही है वे असहज प्रश्नों से मुंह नहीं चुराते बल्कि उनसे दो-दो हाथ करते हैं। वे सवालों से जूझते हैं और उनके सही एवं प्रासंगिक उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। वे सही मायने में पत्रकारिता में विचारों के एक ऐसे प्रतीक पुरूष बनकर सामने आते है जिसने अपने लेखन के माध्यम से एक बौद्धिक उत्तेजना का सृजन किया। हिंदी को एक ऐसी भाषा और विराट अनुभव संसार दिया जिसकी प्रतीक्षा में वह सालों से खड़ी थी। इस मायने में राजेंद्र माथुर की उपस्थिति अपने समय में एक कद्दावर पत्रकार-संपादक की मौजूदगी है। श्री सूर्यकांत बाली के मुताबिक- “ माथुर साहब जैसा बोलते थे वैसा ही लिखते थे। वे धाराप्रवाह, विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत बोलते थे, तो धाराप्रवाह विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत लिखते भी थे।”
श्री बाली लिखते हैं कि “वह एक ऐसा संपादक है जिसके मन-समुद्र में विचारों की लहरें एक के बाद एक लगातार, अनवरत उठती हैं, कोई लहर किसी दूसरी लहर को नष्टकर आगे बढ़ने के अहंकार का शिकार नहीं है। और पूनम की कोई ऐसी भली रात हर महीने आती है जब ये लहरें किसी विराट-सर्वोच्च को छू लेने को बेताब हो उठती हैं।” ऐसे में कहा जा सकता है कि राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय एवं संपादकीय व्यक्तित्व में एक बौद्धिक आर्कषण दिखता है। उनके लेखन में भारत जिज्ञासा, भारत-जिज्ञासा, भारत-अनुराग और भारत-स्वप्न पूरी समग्रता में प्रकट होता है। वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है कि –“ राजेंद्र माथुर हिंदी पत्रकारिता के उस संधिकाल में संपादक के रूप में सामने आए थे, जब हिंदी अखबार अपने पुरखों के पुण्य के संचित कोष को बढ़ा नहीं पा रहे थे। यह जमा पूंजी इतनी नहीं थी कि हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं व्यावसायिकता की बढ़ती हुयी चुनौती को स्वीकार करते हुए इसे बाजार के दबाव से बचा सकें। राजेंद्र माथुर में बौद्धिकता और सच्चरित्रता का असाधारण संगम था, इसीलिए वे हिंदी पत्रकारिता में शिखर स्थान बना सके। वे असाधारण शैलीकार थे। अंग्रेजी साहित्य से प्रकाशित उनकी हिंदी लेखन शैली बिंब प्रधान थी। उनके मुहावरे अपने होते थे। उनमें अभिव्यंजना की अद्बुत शक्ति थी। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे शैलीकार के रूप में याद किए जाएंगें। ”
राजेंद्र माथुर एक श्रेष्ठ संपादक थे। उनकी उपस्थित ही नई दुनिया और नवभारत टाइम्स को एक ऐसा समाचार पत्र बनाने में सफल हुयी जिस पर हिंदी पत्रकारिता को नाज है।नवभारत टाइम्स में श्री माथुर के सहयोगी रहे श्री विष्णु खरे ने लिखा है कि- “राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। दरअसल, लिबास से लेकर बोलचाल तक उनकी कोई शैली या लहजा नहीं था वे अपने मामूलीकरण में विश्वास करते थे वैशिष्ट्य में नहीं। उनकी संपादकी आदेशों या हुकमों से नहीं, एक गुणात्मक तथा नैतिक विकिरण से चलती थी। वे एक आणविक ताप या विद्युत संयत्र की तरह बेहद चुपचाप काम करते थे, जो अपने प्रभाव से लगभग उदासीन रहता है। लेकिन वे बेहद परिश्रमी संपादक थे और शायद एक या दो उपसंपादकों की मदद से एक दस पेज का अखबार रोज निकाल सकते थे। वे अजातशत्रु और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे थे लेकिन जरूरत पड़ने पर वज्र की तरह कठोर भी हो सकते थे।” राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व बेहद प्रेरक था। आज की पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में घुस आई तमाम बुराईयों से उनका व्यक्तित्व बेहद अलग था। संपादक की जैसी शास्त्रीय परिभाषाएं बताई गयी हैं श्री माथुर उसमें फिट बैठते हैं। उनका व्यक्तित्व बौद्धिक उंचाइयां लिए हुए था। अपनी पत्रकारिता को कुछ पाने और लाभ लेने की सीढ़ी बनाना उन्हें नहीं आता था। उनके समकक्ष पत्रकारों की राय में वे जिस समय दिल्ली में नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबार के संपादक थे तो वे सत्ता के लाभ उठा सकते थे। आज की पत्रकारिता में जिस तरह पत्रकार एवं संपादक सत्ता से लाभ लेकर मंत्री से लेकर राज्यसभा की सीटें ले रहे हैं, श्री माथुर भी ऐसे प्रलोभनों के पास जा सकते थे। किंतु उन्होंने तमाम चर्चाओं के बीच इससे खुद को बचाया। पत्रकार विष्णु खरे अपने लेख में इस बात की पुष्टि भी करते हैं। सही मायने में राजेंद्र माथुर एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने अपने पत्रकारीय व्यक्तित्व को वह उंचाई दी जिसके लिए पीढ़ियां उन्हें याद कर रही हैं।
विष्णु खरे उनके इन्हीं व्यक्तित्व की खूबियों को रेखांकित करते हुए कहते हैं- “राजेंद्र माथुर का जीवन और उनके कार्य एक खुली पुस्तक की तरह थे। कानाफूसी, चुगलखोरी, षडयंत्र, झूठ-फरेब, मक्कारी, उनके स्वभाव में थे ही नहीं। वे किसी चीज को गोपनीय रखना ही नहीं चाहते थे और अक्सर कई ऐसी सूचनाएं निहायत मामूली ढंग से देते थे, जिनपर दूसरे लोग कारोबार कर लेते हैं। इसलिए उनसे बातें करना बेहद असुविधाजनक स्थितियां पैदा कर देता, क्योंकि वे कभी भी किसी के द्वारा कही गयी बात को जगजाहिर कर देते थे और वह व्यक्ति अपना मुंह छिपाता फिरता था। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी और भारतीय तथा विश्व राजनीति में सतही और चालू दिलचस्पी न रखने के बावजूद राष्ट्रीय व विदेशी घटनाक्रम तथा इतिहास में उनकी पैठ आश्चर्यजनक थी। एक सच्चे पत्रकार की तरह उनमें जमाने भर के विषयों के बारे में जानकारी थी और वे घंटों अपने प्रबुद्ध श्रोताओं को मंत्रमुग्ध रख सकते थे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगें इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ और मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों में तक राजेंद्र माथुर एटीटर्स गिल्ड आफ इंडिया जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे।” उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी हिंदी पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंताएं हैं। वे हिंदी पत्रकारिता के एक ऐसे संपादक थे जो लगातार यह सोचता रहा कि हिंदी पत्रकारिता का विचार दारिद्रय कैसे दूर किया जाए। कैसे हिंदी में एक संपूर्ण अखबार निकले और उसे व्यापक लोकस्वीकृति भी मिल सके। नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक रहे स्व.सुरेंद्र प्रताप सिंह ने उनकी इन चिंताओं को निकटता से देखा था और वे लिखते हैं- “माथुर साहब का गहन इतिहासबोध, शुद्ध श्रध्दा और उससे उत्पन्न गरिमामय अतीत की मरीचिका पर आधारित हिंदी पत्रकारिता की कमजोर आधारभूमि के बारे में उन्हें बार-बार सचेत करता रहता था। वे भूतकाल के वायवी स्वर्णिम अतीत में जीने वाले नहीं थे। वे स्वप्नदर्शी थे और अपने सपनों की उदात्तता के साथ उन्होंने कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य उन्हें बार-बार विचलित तो कर देता था लेकिन एक कुशल अभियात्री की तरह उन्होंने अपने जहाज की दिशा को क्षणिक प्रलोभनों के लिए किसी अन्य रास्ते पर डालने के बारे में क्षणिक विचार भी नहीं किया।”
उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की विशिष्टता यह भी है कि वे अंग्रेजी प्राध्यापक और विद्वान होने के बावजूद अपने लेखन की भाषा के नाते हिंदी को चुनते हैं। हिंदी उनकी सांसों में बसती है। हिंदी पत्रकारिता को नई जमीन तोड़ने के लिए प्रेरित करने और हिंदी लेखकों एवं पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी का निर्माण करने का काम श्री माथुर जीवन भर करते रहे। इंदौर से लेकर दिल्ली तक उनकी पूरी यात्रा में एक भारत प्रेम, भारत बोध और हिंदी प्रेम साफ नजर आता है। शायद इसी के चलते वे देश की पत्रकारिता को एक नई और सही दिशा देने में सफल रहे। श्री मधुसूदन आनंद लिखते हैं- “माथुर साहब ने अंग्रेजी में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अंग्रेजी पत्रकारों को भी विस्मय में डालती थी। लेकिन उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को चुना तो शायद इसलिए कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर यह कहा जाए कि हिंदी पत्रकारों की एक पीढ़ी माथुर साहब को पढ़कर पली और बढ़ी है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। उनके असामयिक निधन के बाद नवभारत टाइम्स को देश के दूर-दूर के इलाकों से हजारों पत्र प्राप्त हुए थे। ये वे पाठक थे जो उनके उत्कट राष्ट्र-प्रेम, समाज के प्रति उनके सरोकारों, इतिहास की अतल गहराइयों से अनमोल तथ्य ढूंढ कर लाने के उनके सार्मथ्य और शालीन भाषा में राजनेताओं की खिंचाई करने के उनके साहस पर मुग्ध थे। शब्दों का कारोबार करने वाले हमारे जैसे अनपढ़ों और बौद्धिक संस्कारहीनों के साथ तो नियति ने सचमुच अन्याय किया है। उनके लेखन से हम जैसे लोगों को एक दृष्टि तो मिलती ही थी, ज्ञान का वह विपुल भंडार भी कभी बातचीत से तो कभी उनके लेखन से टुकड़ों-टुकड़ों में मिल जाता था, जो प्रायः अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और जिसे पढ़कर पचा लेना प्रायः कठिन होता है।”
पत्रकारीय सहयोगियों और मित्रों की नजर से देखें तो राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय व्यक्तित्व की कुछ खूबियां साफ नजर आती हैं। जैसे वे बेहद अध्ययनशील संपादक एवं पत्रकार हैं। उनका अध्ययन और विषयों के प्रति उनके ज्ञान की गहराई उन्हें अपने सहयोगियों के बीच अलग ही व्यक्तित्व दे देती है। दूसरे उनका लेखन भारतीयता और उसके मूल्यों को समर्पित है। तीसरा है उनके मन में किसी प्रकार की पदलाभ की कामना नहीं है। वे अपने काम के प्रति समर्पित हैं और किसी राजनीति का हिस्सा नहीं हैं। चौथा उनमें मानवीय गुण भरे हुए हैं जिसके चलते वे मानवीय कमजोरियों और पद के अहंकार के शिकार नहीं होते। इसके चलते एक बड़े अखबार के संपादक का पद, रूतबा और अहं उन्हें छू नहीं पाता। यह उनके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है जिसे उनके सहयोगी रहे सूर्यकांत बाली कहते हैं- “हमारे प्रधान संपादक को को पांचवा कोई काम आता है, इसमें तो मुझे पूरा शक हैः बस सोचना, पढ़ना, बतियाना और लिखना, उनकी सारी दुनिया इन चार कामों में सिमट चुकी थी।” श्री माथुर के व्यक्तित्व पर यह एक मुकम्मल टिप्पणी है जो बताती है कि वे किस तरह के पत्रकार संपादक थे। उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व इसीलिए एक अलग किस्म की आभा के साथ समाने आता है। जिसमें एक बौद्धिक तेज और आर्कषण निरंतर दिखता है। जाहिर तौर पर ऐसे उदाहरण आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने को तैयार किया। असहज और वैश्विक सवालों पर इतनी कम आयु में लेखन शुरू कर अपनी देशव्यापी पहचान बनाई। शायद इसीलिए देश के दो महत्वपूर्ण अखबारों नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद तक वे पहुंच पाए। यह यात्रा एक ऐसा सफर है जिसमें श्री माथुर ने जो रचा और लिखा वह आज भी पत्रकारिता की पूंजी और धरोहर है। पत्रकारिता का लेखन सामयिक होता है उसकी तात्कालिक पहचान होती है। श्री माथुर के पत्रकारीय लेखन के बहाने हर हम लगभग चार दशक की राजनीति, उसकी समस्याओं और चिंताओं से रूबरू होते हैं। यह एक दैनिक इतिहास की तरह का लेखन है जिससे हम अपने विगत में झांक सकते हैं और गलतियों से सबक लेकर नए रास्ते तलाश सकते हैं। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे एक ऐसे लेखक संपादक के तौर पर सामने आते हैं जो पूर्णकालिक पत्रकार हैं। वे किसी साहित्य की परंपरा से आने वाले संपादक नहीं थे। सो उन्होंने हिंदी पत्रकारिता पर साहित्यकार संपादकों द्वारा दी गयी भाषा और उसके मुहावरों से अलग एक अलग पत्रकारीय भाषा का अनुभव हमें दिया। हिंदी को संवाद को,संचार की, सूचना की भाषा बनाने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। सही मायने में वे एक ऐसे संपादक और लेखक के रूप में सामने आते हैं जिसने बहुत से अनछुए विषयों को हिंदी के अनुभव के विषय बनाया जिनपर पहले अंग्रेजी के पत्रकारों का एकाधिकार माना जाता था। उन्होंने भावना से उपर विचार और बौद्धिकता को महत्व दिया। जिसके चलते हिंदी को एक नई भाषा, एक नया अनुभव और अभिव्यक्ति का एक नया संबल मिला। उनकी बौद्धिकता ने हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी अखबारों के सामने सम्मान से खड़े होने लायक बनाया। इससे हिंदी पत्रकारिता एक आत्मविश्वास हासिल हुआ। उसे एक नई ऊर्जा मिली। आज हिंदी पत्रकारिता में जिस तरह बाजारवादी ताकतों का दबाव गहरा रहा है ऐसे समय में राजेंद्र माथुर के बहाने हिंदी पत्रकारिता की पड़ताल एक आवश्यक विमर्श बन गयी है। शायद उनकी स्मृति के बहाने हम कुछ रास्ते निकाल पाएं जो हमें इस कठिन समय में लड़ने और मूल्यों के साथ काम करने का हौसला दे सके।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

विचारों की पत्रकारिता के नायक थे राजेंद्र माथुर

जयंती (7 अगस्त) पर विशेषः
- संजय द्विवेदी

आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता में उन जैसा नायक खोजे नहीं मिलता। राजेंद्र माथुर सही अर्थों में एक ऐसे लेखक, विचारक और संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने हिंदी पत्रकारिता को समकालीन विमर्श की एक सार्थक भाषा दी। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को वह ऊंचाई दी जिसका वह एक अरसे से इंतजार कर रही थी। राष्ट्रीय एवं वैश्विक संदर्भों में जिस तरह से उन्होंने हिंदी को एक सामर्थ्य का बोध कराया वह उल्लेखनीय है। 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में जन्मे राजेंद्र माथुर की प्राथमिक शिक्षा धार में ही हुई। इंदौर से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। श्री माथुर को अंग्रेजी साहित्य और दर्शन में बहुत रूचि थी। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही 1955 से उन्होंने इंदौर के अखबार नई दुनिया में लिखना शुरू कर दिया था। साठ के दशक में उनका स्तंभ 'पिछला सप्ताह' काफी लोकप्रिय हो गया था। 1970 तक वे इंदौर के एक कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करते रहे और फिर पूरी तरह से पत्रकारिता के प्रति समर्पित हो गए। 1980 में वे द्वितीय प्रेस आयोग के सदस्य मनोनीत किए गए। 1981 में वे नई दुनिया का प्रधान संपादक बने। इसी तरह एक सफल पारी का निर्वहन करने के बाद अक्टूबर 1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स के संपादक बने। राजेंद्र माथुर की पूरी पत्रकारीय यात्रा में विचारों की जगह साफ दिखाई देती है।
साहित्य और पत्रकारिता की जिस तरह की जुगलबंदी आजादी के आंदोलन के दौरान ही कायम हो गयी थी। प्रायः वे ही पत्रकार एवं संपादक हिंदी की मुख्यधारा की पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे थे जो साहित्यकार भी थे। हिंदी पत्रकारिता के नायकों में इसीलिए साहित्यकार पत्रकारों की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है। इसके चलते तमाम संपादकों ने गति न होते हुए भी साहित्य लिखने की कोशिश की, जबकि यह कर्म एक विशेष कौशल की मांग करता है। राजेंद्र माथुर का ऐसे समय में राष्ट्रीय पत्रकारिता के फलक पर अवतरण एक ऐसे नायक की तरह हुआ जिसने साहित्य से इतर पत्रकारिता की भाषा को न सिर्फ संबल दिया वरन यह साबित भी किया कि पत्रकारिता एक अलग किस्म का कौशल है और यशस्वी संपादक होने के लिए साहित्य में गति होना अनिवार्य नहीं है। इस संदर्भ में राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जहां विचार की पत्रकारिता के वाहक बने वहीं हिंदी को सूचना की ताकत का अहसास एसपी सिंह ने कराया। ये तीन नायक हमें न मिलते तो यह कहना कठिन है कि हिंदी पत्रकारिता का चेहरा- मोहरा आज कैसा होता। हिंदी पत्रकारिता यदि अंग्रेजी पत्रकारिता के अनुगमन से मुक्त होकर अपनी खास भाषा और शैली के साथ आत्मविश्वास पा सकी तो इसके लिए इन नायकों के कार्यों का मूल्यांकन जरूरी होगा। तो बात राजेंद्र माथुर की। माथुर साहब ने जिस तरह भारत के इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, समाज और राजनीति में रुचि दिखायी, वह प्रेरणा का बिंदु है। उनका विश्लेषण जिस तरह की बौद्धिक उत्तेजना पैदा करता है, हिंदी के पाठक ऐसी सामग्री पहली बार अपनी भाषा में पा रहे थे। वे एक ऐसे पत्रकार थे जो लगातार अपने देश को जानने की कोशिश कर रहा था। उनकी देश के प्रति जिज्ञासा, भारत प्रेम उनके लेखन में सदैव महसूस होता है, वे अपने पाठकों को अपने साथ लेने की कोशिश करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के वैचारिक दारिद्रय को लेकर वे बहुत सजग थे। राजेंद्र माथुर ने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ ने उनके सरोकार व्यापक किए। वे चाहते तो आसानी से किसी मुख्यधारा के अंग्रेजी अखबार में अपनी सेवाएं दे सकते थे। किंतु उन्होंने हिंदी को अपनाया। जाहिर तौर पर वे ज्यादातर लोगों से संवाद करना चाहते थे। अंग्रेजी साहित्य और विश्व की तमाम नई जानकारियों से वे लैस रहा करते थे। विदेशों में छप रही नई किताबों पर उनकी नजर रहती थी और वे उन्हें पढ़कर अपने पाठकों तक उसका आस्वाद पहुंचाते थे। प्रोफेसर ए. एल. बाशम की किताब- 'द वंडर दैट वाज इंडिया' पर उन्होंने 'क्या बतलाता है हमें बाशम का अदभुत भारत' नामक लेख लिखा। उन्होंने लिखा-“यह किताब उन लोंगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो विद्वान बने बगैर भारत के बारे में एक दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। ”
राजेंद्र माथुर हिंदी अखबारों की विचारहीनता को लेकर लगातार सोचते रहे। एक संपूर्ण अखबार के बारे में भी उन्होंने सोचने की शुरुआत की। आज जब हिंदी की पत्रकारिता एक उंचाई ले रही है और विविध सामग्री अखबारों में जगह पा रही, तब राजेंद्र माथुर की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। राजेंद्र माथुर की भारत की तरफ देखने की एक खास नजर थी। वे देश के महान नेताओं महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू से खासे प्रभावित थे। बावजूद इसके, उनका लेखन तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करता है। तमाम तरह के विचार उनके लेखन को प्रभावित करते हैं। अपने एक लेख 'गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश' में माथुर साहब भारत की अदभुत व्याख्या करते हैं। वे भारतीय राज्य-राष्ट्र की एक नई व्याख्या करते नजर आते हैं। वे आज के एक बेहद विवादित विषय पर लिखते हैं कि – “दरअसल जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, वह इस लेख में वर्णित अर्थों में धर्म है ही नहीं। वह मिथक- संचय की भारतीय प्रक्रिया का नाम है। इस संचय–प्रक्रिया को त्यागकर कोई देश नहीं बन सका, तो हिंदुस्तान कैसे बनेगा, जिसकी निरंतरता तीन हजार साल से नहीं टूटी है। आशंका इस बात की है कि सिंहासन के झगड़ों के कारण और आसपास के दबावों के कारण कहीं यह संचय प्रक्रिया समाप्त न हो जाए और हिंदुत्व सचमुच एक धर्म न बन जाए। आज हिंदुत्व पर भारी दबाव है कि वह संकीर्ण, एकांगी और असहिष्णु बने।”
राजेंद्र माथुर संभावनाओं और खतरों को भांपकर चलनेवाले दूरदर्शी पत्रकार थे। उनकी पंक्तियां जाहिर तौर पर भविष्य को व्यक्त कर देती हैं, एक लेख में वे लिखते हैं- “राज्य के छोटे टुकड़े होने पर स्वराज्य का पारिभाषित अंतर समाप्त हो जाएगा, यह मानने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। यदि गाय मांस नहीं खाती तो छोटे-छोटे टुकड़े कर देने से उसकी खून की उल्टियां रूक नहीं जाएंगी। इसी लेख में वे लिखते हैं- चालीस साल से कभी अपने निजत्व से राज्य को क्षत-विक्षत करते कभी राज्य के खातिर अपने निजत्व लहूलुहान होते हुए देखते हुए हम चल रहे हैं। कोई संभावना नहीं है कि इस त्रास से निकट भविष्य से हमें मुक्ति मिलेगी। जब मिलेगी, तब तक हम बदल चुके होंगें और हमारा राज्य भी। ”
कुल मिलाकर राजेंद्र माथुर का लेखन और चिंतन हमें प्रेरित करता है और प्रभावित भी। राजेंद्र माथुर सही मायनों में एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने समूची हिंदी पत्रकारिता को आंदोलित किया। वे अपने समय में एक लेखक और संपादक के रूप में ऐसी मिसाल कायम करते हैं जिसपर आज भी हिंदी पत्रकारिता को गर्व है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर कई तरह के संकट सवाल की तरह खड़े हैं, श्री माथुर की स्मृति एक संबल की तरह हमारे साथ है।

इस कठिन समय में राजेंद्र माथुर की याद

जयंती 7 अगस्त पर विशेषः
-संजय द्विवेदी

राजेंद्र माथुर की पत्रकारिता, लेखन के प्रति एक गंभीर अभिरूचि के चलते परवान चढ़ी। वे अध्ययन-मनन के साथ-साथ अपने प्राध्यापकीय व्यवसाय के चलते एक अपेक्षित गंभीरता को लेकर पत्रकारिता में आए थे। वे खबरों को दर्ज करने वाले साधारण खबरनवीस नहीं खबरों के घटने की प्रक्रिया और उसके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे।आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता यदि अपने नायकों की तलाश करने निकले तो वह इतिहास प्रख्यात पत्रकार और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक रहे राजेंद्र माथुर के नाम के बिना पूरा नहीं हो सकता। राजेंद्र माथुर की जिंदगी ऐसे जुझारू पत्रकार का सफर है जिसने मध्यप्रदेश के मालवा की माटी से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनकी बनाई लीक आज भी हिंदी पत्रकारिता का एक ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर हम मीडिया की पारंपरिक शैली के साथ अधुनातन विमर्शों को भी साथ लेकर चल सकते हैं। वे सही मायने में परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधने वाले नायक थे। हिंदी और अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार, मालवांचल के लोक का संस्कार, इंदौर और दिल्ली जैसे शहरों ने मिलकर उन्हें जैसा गढ़ा वह हिंदी की पत्रकारिता में एक अलग स्वाद, रस और गंध पैदा करने में समर्थ रहा। अपने दोस्तों के बीच रज्जू बाबू के नाम से मशहूर राजेंद्र माथुर ने जो रचा और लिखा उसपर हिंदी ही नहीं संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता को गर्व है।
मध्यप्रदेश के धार जिले के बदनावर कस्बे में 7 अगस्त, 1935 को जन्मे राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी शिक्षा उज्जैन, मंदसौर, धार तथा इंदौर में हुयी। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य और दर्शन उनके प्रिय विषय थे। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही उन्होंने इंदौर से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार नई दुनिया में लिखना प्रारंभ कर दिया था। शायद इसीलिए वे एक स्तंभ लेखक के रूप में जिस पत्र (नई दुनिया, इंदौर) से जुड़ते हैं वहीं पर वह एक प्रधान संपादक के रूप में स्थापित हो पाते हैं। एक ऐसी लीक बनाते हैं जिससे नई दुनिया ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को आंदोलित, प्रेरित और प्रभावित कर पाते हैं। सही मायने में वे अपनी पत्रकारिता में एक नई दुनिया बनाने और स्थापित करने वाले नायक के रूप में सामने आते हैं जिसने जो लीक बनाई वह दूसरों के लिए उदाहरण बन गयी। इंदौर का नई दुनिया भारतीय पत्रकारिता एक ऐसा मानक बना तो उसके संपादकों राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के कारण ही यह संभव हो पाया। ऐसे परिवेश को उपलब्ध कराने वाले नई दुनिया के प्रबंधकों और संपादक के रूप में राजेंद्र माथुर को प्रेरित करने वाले राहुल बारपुते के उल्लेख के बिना बात पूरी न होगी।
सही मायने में श्री माथुर, नई दुनिया से स्वतंत्र लेखक के रूप में ही जुड़ते हैं। श्री राजेंद्र माथुर की नई दुनिया के प्रधान संपादक श्री राहुल बारपुते से मुलाकात पहली बार 1955 में हुयी और उनसे हुयी चर्चा के बाद माथुर जी ने अपना स्तंभ नई दुनिया में प्रारंभ किया। प्रारंभ में श्री माथुर ने तीन लेख दिए जिनके शीर्षक थे- पख्तून राष्ट्रीयता, यूगोस्लाव विदेशनीति और हिंद अफ्रीका।यह उनके स्वतंत्र लेखन की शुरूआत थी। 2 अगस्त, 1955 को श्री माथुर का पहला स्तंभ ‘अनुलेख’ नाम से नई दुनिया में छपा। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे इस कालम को अपने नाम से नहीं लिखते थे। एक फ्रीलांसर के रूप में राजेंद्र माथुर ने अनेक महत्वपूर्ण कामों को अंजाम दिया जो उन्हें नई दुनिया के संपादक के नाते राहुल जी से प्राप्त होते थे। जब उन्होंने नई दुनिया में लिखना प्रारंभ किया तो उस समय उसकी प्रसार संख्या पांच हजार थी।
फिर 1965 में उन्होंने ‘पिछला सप्ताह’ नाम से नई दुनिया इंदौर में ही एक कालम लिखना शुरू किया। यह स्तंभ बीते सप्ताह की घटनाओं की विश्लेषण होता था। इस तरह एक गुजराती कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के साथ-साथ श्री माथुर का लेखन चलता रहा। वे अगस्त, 1955 तक नई दुनिया में पूर्णकालिक रूप में 1970 में आने तक स्वतंत्र रूप से लेखन करते रहे। 1963 से लेकर 1969 तक के उनके लेखों का संकलन ‘राजेंद्र माथुर संचयन’ नाम से मप्र सरकार ने प्रकाशित किया है जिसमें श्री माथुर के 208 लेख संकलित हैं। यह संचयन मप्र सरकार ने 1996, जुलाई में प्रकाशित किया। जिसका संपादन मधुसूदन आनंद ने किया है। इसमें श्री माथुर के 1963 से लेकर 1969 तक के लेख हैं जिस समय वे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में नई दुनिया से जुड़े थे और लेखन कर रहे थे। इनके आरंभिक लेखन की यह बानगी बताती है उनमें उसी समय ही एक महान लेखक और संपादक की झलक मिलती है। उनके लेखन में भरपूर विविधता है और कहीं भी उथलापन नहीं दिखता। पुस्तक के संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है-“ माथुर साहब ने बड़ी ईमानदारी, बौद्धिक तैयारी और विलक्षणता के साथ उपलब्ध सच को लिखा है उसकी चीरफाड़ की है और बाकायदा एक रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरकर किन्हीं नतीजों पर पहुंचे हैं। इसलिए ये लेख महज अखबारी लेख नहीं हैं इतिहास और दर्शन के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। ” उनके प्रारंभिक लेख भाषा की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। संपादक मधुसूदन आनंद इसी भूमिका में लिखते हैं- “ माथुर साहब के लेखों की भाषा का तो कहना ही क्या है उन्होंने पत्रकारिता को नई भाषा दी है। हिंदी में आधुनिक विचार के लिए सम्मानजनक जगह बनाई है और विचार के लिए नई भाषा शैली का निर्माण किया है। कई लेखों में लगता है कि जैसे कि माथुर साहब रूपकों में फंसकर रह गए हैं लेकिन लेख के अंत में आप पाते हैं कि ये रूपक चीजों को समझाने का उनका सशक्त हथियार है। ”
श्री आनंद ने अपनी इस भूमिका में उनके विषयगत दक्षता का भी जिक्र किया है वे लिखते हैं-“ माथुर साहब के सरोकार जितने राष्ट्रीय थे उतने ही उनमें अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को समझने की बेचैनी थी। अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर उन्होंने सीमित सूचना तंत्र के बावजूद जितना लिखा है, वह अप्रतिम है और उनकी जागरूकता का नमूना है।”
श्री माथुर का आरंभिक स्वतंत्र लेखन नई दुनिया, इंदौर के पन्नों पर बिखरा पड़ा है। यह सारी सामग्री राजेंद्र माथुर संचयन के रूप में उपलब्ध है। इस दौर के लेखन का विश्लेषण करें तो श्री माथुर खासे प्रभावित करते हैं। अपने आरंभिक दिनों के लेखन में भी श्री माथुर देश की समस्याओं पर तो संवाद करते ही हैं विदेशी सवालों को भी बहुत प्रमुखता से उठाते हैं। अक्टूबर,1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने। यह एक बेहद गौरव का क्षण था। मप्र की कलम पर एक राष्ट्रीय कहे जाने अखबार की मोहर लग रही थी। वे श्री अक्षय कुमार जैन जैसे वरिष्ठ पत्रकार के उत्तराधिकारी बनकर आए थे। जाहिर तौर पर उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थी। इस अखबार के संपादकों में हिंदी के प्रख्यात संपादक एवं लेखक अज्ञेय जी भी रह चुके थे। जाहिर तौर पर श्री माथुर का चयन एक बेहतर संभावना का चयन तो था ही किंतु माथुर जी के लिए यह समय एक बड़ी चुनौती भी था।
प्रख्यात पत्रकार विष्णु खरे इंदौर छोड़कर श्री माथुर के दिल्ली जाने की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है- “ यह अपरिहार्य था कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी पत्रकारिता के तकाजे राजेंद्र माथुर को इंदौर छोड़ने पर बाध्य करते, हालांकि जो जानते हैं वे जानते हैं कि उन्होंने नई दुनिया, इंदौर, मालवा और मध्यप्रदेश को बहुत मुश्किल से छोड़ा। नवभारत टाइम्स उनके संपादक बनने से पहले ही एक सफल दैनिक था, लेकिन राजेंद्र माथुर ने उसे इस सदी के आठवें और नवें दशक के तेवर दिए। उनकी वजह से बीसियों ऐसे युवा तथा प्रौढ़ पत्रकार एवं लेखक तथा स्तंभकार नवभारत टाइम्स से जुड़े, जो शायद किसी और के संपादन में न जुड़ पाते। कोई भी अखबार अपने संपादकों से ही अपना व्यक्तित्व हासिल करता है और बदलता है। संपादक वही काम करता है जो एक कंडक्टर अपने आर्केस्ट्रा के लिए करता है। राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। ” 9 अप्रैल, 1991 को दिल का दौरा पड़ने से दिल्ली में उनका निधन हो गया। आज जबकि हिंदी मीडिया पर बाजारवाद, पेडन्यूज के साथ ही उसकी प्रामणिकता एवं विश्वसनीयता का गंभीर खतरा मंडरा रहा है, श्री राजेंद्र माथुर की जयंती पर उनकी याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।