गुरुवार, 5 अगस्त 2010

इस कठिन समय में राजेंद्र माथुर की याद

जयंती 7 अगस्त पर विशेषः
-संजय द्विवेदी

राजेंद्र माथुर की पत्रकारिता, लेखन के प्रति एक गंभीर अभिरूचि के चलते परवान चढ़ी। वे अध्ययन-मनन के साथ-साथ अपने प्राध्यापकीय व्यवसाय के चलते एक अपेक्षित गंभीरता को लेकर पत्रकारिता में आए थे। वे खबरों को दर्ज करने वाले साधारण खबरनवीस नहीं खबरों के घटने की प्रक्रिया और उसके प्रभावों के सजग व्याख्याता थे।आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता यदि अपने नायकों की तलाश करने निकले तो वह इतिहास प्रख्यात पत्रकार और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक रहे राजेंद्र माथुर के नाम के बिना पूरा नहीं हो सकता। राजेंद्र माथुर की जिंदगी ऐसे जुझारू पत्रकार का सफर है जिसने मध्यप्रदेश के मालवा की माटी से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनकी बनाई लीक आज भी हिंदी पत्रकारिता का एक ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर हम मीडिया की पारंपरिक शैली के साथ अधुनातन विमर्शों को भी साथ लेकर चल सकते हैं। वे सही मायने में परंपरा और आधुनिकता को एक साथ साधने वाले नायक थे। हिंदी और अंग्रेजी भाषा पर समान अधिकार, मालवांचल के लोक का संस्कार, इंदौर और दिल्ली जैसे शहरों ने मिलकर उन्हें जैसा गढ़ा वह हिंदी की पत्रकारिता में एक अलग स्वाद, रस और गंध पैदा करने में समर्थ रहा। अपने दोस्तों के बीच रज्जू बाबू के नाम से मशहूर राजेंद्र माथुर ने जो रचा और लिखा उसपर हिंदी ही नहीं संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता को गर्व है।
मध्यप्रदेश के धार जिले के बदनावर कस्बे में 7 अगस्त, 1935 को जन्मे राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष की यात्रा है। उनकी शिक्षा उज्जैन, मंदसौर, धार तथा इंदौर में हुयी। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य और दर्शन उनके प्रिय विषय थे। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही उन्होंने इंदौर से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार नई दुनिया में लिखना प्रारंभ कर दिया था। शायद इसीलिए वे एक स्तंभ लेखक के रूप में जिस पत्र (नई दुनिया, इंदौर) से जुड़ते हैं वहीं पर वह एक प्रधान संपादक के रूप में स्थापित हो पाते हैं। एक ऐसी लीक बनाते हैं जिससे नई दुनिया ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को आंदोलित, प्रेरित और प्रभावित कर पाते हैं। सही मायने में वे अपनी पत्रकारिता में एक नई दुनिया बनाने और स्थापित करने वाले नायक के रूप में सामने आते हैं जिसने जो लीक बनाई वह दूसरों के लिए उदाहरण बन गयी। इंदौर का नई दुनिया भारतीय पत्रकारिता एक ऐसा मानक बना तो उसके संपादकों राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के कारण ही यह संभव हो पाया। ऐसे परिवेश को उपलब्ध कराने वाले नई दुनिया के प्रबंधकों और संपादक के रूप में राजेंद्र माथुर को प्रेरित करने वाले राहुल बारपुते के उल्लेख के बिना बात पूरी न होगी।
सही मायने में श्री माथुर, नई दुनिया से स्वतंत्र लेखक के रूप में ही जुड़ते हैं। श्री राजेंद्र माथुर की नई दुनिया के प्रधान संपादक श्री राहुल बारपुते से मुलाकात पहली बार 1955 में हुयी और उनसे हुयी चर्चा के बाद माथुर जी ने अपना स्तंभ नई दुनिया में प्रारंभ किया। प्रारंभ में श्री माथुर ने तीन लेख दिए जिनके शीर्षक थे- पख्तून राष्ट्रीयता, यूगोस्लाव विदेशनीति और हिंद अफ्रीका।यह उनके स्वतंत्र लेखन की शुरूआत थी। 2 अगस्त, 1955 को श्री माथुर का पहला स्तंभ ‘अनुलेख’ नाम से नई दुनिया में छपा। यह भी महत्वपूर्ण है कि वे इस कालम को अपने नाम से नहीं लिखते थे। एक फ्रीलांसर के रूप में राजेंद्र माथुर ने अनेक महत्वपूर्ण कामों को अंजाम दिया जो उन्हें नई दुनिया के संपादक के नाते राहुल जी से प्राप्त होते थे। जब उन्होंने नई दुनिया में लिखना प्रारंभ किया तो उस समय उसकी प्रसार संख्या पांच हजार थी।
फिर 1965 में उन्होंने ‘पिछला सप्ताह’ नाम से नई दुनिया इंदौर में ही एक कालम लिखना शुरू किया। यह स्तंभ बीते सप्ताह की घटनाओं की विश्लेषण होता था। इस तरह एक गुजराती कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के साथ-साथ श्री माथुर का लेखन चलता रहा। वे अगस्त, 1955 तक नई दुनिया में पूर्णकालिक रूप में 1970 में आने तक स्वतंत्र रूप से लेखन करते रहे। 1963 से लेकर 1969 तक के उनके लेखों का संकलन ‘राजेंद्र माथुर संचयन’ नाम से मप्र सरकार ने प्रकाशित किया है जिसमें श्री माथुर के 208 लेख संकलित हैं। यह संचयन मप्र सरकार ने 1996, जुलाई में प्रकाशित किया। जिसका संपादन मधुसूदन आनंद ने किया है। इसमें श्री माथुर के 1963 से लेकर 1969 तक के लेख हैं जिस समय वे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में नई दुनिया से जुड़े थे और लेखन कर रहे थे। इनके आरंभिक लेखन की यह बानगी बताती है उनमें उसी समय ही एक महान लेखक और संपादक की झलक मिलती है। उनके लेखन में भरपूर विविधता है और कहीं भी उथलापन नहीं दिखता। पुस्तक के संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है-“ माथुर साहब ने बड़ी ईमानदारी, बौद्धिक तैयारी और विलक्षणता के साथ उपलब्ध सच को लिखा है उसकी चीरफाड़ की है और बाकायदा एक रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरकर किन्हीं नतीजों पर पहुंचे हैं। इसलिए ये लेख महज अखबारी लेख नहीं हैं इतिहास और दर्शन के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। ” उनके प्रारंभिक लेख भाषा की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। संपादक मधुसूदन आनंद इसी भूमिका में लिखते हैं- “ माथुर साहब के लेखों की भाषा का तो कहना ही क्या है उन्होंने पत्रकारिता को नई भाषा दी है। हिंदी में आधुनिक विचार के लिए सम्मानजनक जगह बनाई है और विचार के लिए नई भाषा शैली का निर्माण किया है। कई लेखों में लगता है कि जैसे कि माथुर साहब रूपकों में फंसकर रह गए हैं लेकिन लेख के अंत में आप पाते हैं कि ये रूपक चीजों को समझाने का उनका सशक्त हथियार है। ”
श्री आनंद ने अपनी इस भूमिका में उनके विषयगत दक्षता का भी जिक्र किया है वे लिखते हैं-“ माथुर साहब के सरोकार जितने राष्ट्रीय थे उतने ही उनमें अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को समझने की बेचैनी थी। अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर उन्होंने सीमित सूचना तंत्र के बावजूद जितना लिखा है, वह अप्रतिम है और उनकी जागरूकता का नमूना है।”
श्री माथुर का आरंभिक स्वतंत्र लेखन नई दुनिया, इंदौर के पन्नों पर बिखरा पड़ा है। यह सारी सामग्री राजेंद्र माथुर संचयन के रूप में उपलब्ध है। इस दौर के लेखन का विश्लेषण करें तो श्री माथुर खासे प्रभावित करते हैं। अपने आरंभिक दिनों के लेखन में भी श्री माथुर देश की समस्याओं पर तो संवाद करते ही हैं विदेशी सवालों को भी बहुत प्रमुखता से उठाते हैं। अक्टूबर,1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बने। यह एक बेहद गौरव का क्षण था। मप्र की कलम पर एक राष्ट्रीय कहे जाने अखबार की मोहर लग रही थी। वे श्री अक्षय कुमार जैन जैसे वरिष्ठ पत्रकार के उत्तराधिकारी बनकर आए थे। जाहिर तौर पर उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थी। इस अखबार के संपादकों में हिंदी के प्रख्यात संपादक एवं लेखक अज्ञेय जी भी रह चुके थे। जाहिर तौर पर श्री माथुर का चयन एक बेहतर संभावना का चयन तो था ही किंतु माथुर जी के लिए यह समय एक बड़ी चुनौती भी था।
प्रख्यात पत्रकार विष्णु खरे इंदौर छोड़कर श्री माथुर के दिल्ली जाने की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है- “ यह अपरिहार्य था कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी पत्रकारिता के तकाजे राजेंद्र माथुर को इंदौर छोड़ने पर बाध्य करते, हालांकि जो जानते हैं वे जानते हैं कि उन्होंने नई दुनिया, इंदौर, मालवा और मध्यप्रदेश को बहुत मुश्किल से छोड़ा। नवभारत टाइम्स उनके संपादक बनने से पहले ही एक सफल दैनिक था, लेकिन राजेंद्र माथुर ने उसे इस सदी के आठवें और नवें दशक के तेवर दिए। उनकी वजह से बीसियों ऐसे युवा तथा प्रौढ़ पत्रकार एवं लेखक तथा स्तंभकार नवभारत टाइम्स से जुड़े, जो शायद किसी और के संपादन में न जुड़ पाते। कोई भी अखबार अपने संपादकों से ही अपना व्यक्तित्व हासिल करता है और बदलता है। संपादक वही काम करता है जो एक कंडक्टर अपने आर्केस्ट्रा के लिए करता है। राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। ” 9 अप्रैल, 1991 को दिल का दौरा पड़ने से दिल्ली में उनका निधन हो गया। आज जबकि हिंदी मीडिया पर बाजारवाद, पेडन्यूज के साथ ही उसकी प्रामणिकता एवं विश्वसनीयता का गंभीर खतरा मंडरा रहा है, श्री राजेंद्र माथुर की जयंती पर उनकी याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

1 टिप्पणी:

  1. संजय जी
    , इस दुनिया में व्यक्ति के चले जाने के बाद ही उसके काम की उसके गुणों की बात की जाती है लेकिन कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते है की जो जीते जी भी और चले जाने पर भी अपने कार्यों की खुशबु महकाते रहते है -- आपकी भावनाओं ने लेख को जीवंत कर दिया -mamta

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