शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

भाजपा क्यों जीती, कांग्रेस क्यों हारी ?


- बिखराव के चलते उपचुनावों में कांग्रेस की परंपरागत सीटें भी भाजपा को मिलीं

- संजय द्विवेदी

देश के पांच राज्यों की छः विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के संदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं। मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात की पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस ने कई राज्यों में मैदान उसके लिए छोड़ दिया है। यह एक संयोग ही है कि इन सभी राज्यों में भाजपा ही सत्तारूढ़ दल है। झारखंड की खरसांवा सीट की बात न करें, जहां राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा खुद उम्मीदवार थे तो बाकी सीटों पर बड़े अंतर से भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस इन चुनावों में गहरे विभ्रम का शिकार थी जिसके चलते मध्यप्रदेश की दोनों सीटें कुक्षी और सोनकच्छ दोनों उसके हाथ से निकल गयीं। ये दोनों कांग्रेस की परंपरागत सीटें थीं,जहां कांग्रेस का लंबे अंतर से हारना एक बड़ा झटका है। मध्यप्रदेश की ये दोनों सीटें हारना दरअसल कांग्रेस के लिए एक ऐसे झटके की तरह है जिस पर उसे गंभीरता से विचार जरूर करना चाहिए।

भाजपा के लिए मुस्कराने का मौकाः

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत के मायने तो यही हैं कि राज्यों में उसकी सरकारों पर जनता का भरोसा कायम है। यह चुनाव भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं वही कांग्रेस के लिए एक सबक भी हैं कि उसकी परंपरागत सीटों पर भी भाजपा अब काबिज हो रही है। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपने संगठन कौशल को प्रभावी बनाते हुए मतभेदों पर काबू पाने की कला सीखनी होगी। भाजपा के लिए सही मायने में यह मुस्कराने का क्षण है। इस संदेश को पढ़ते हुए भाजपा शासित जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। उन्हें समझना होगा कि इस समय कांग्रेस की दिल्ली की सरकार से लोग खासे निराश हैं और उम्मीदों से खाली हैं। भाजपा देश का दूसरा बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के पहले स्थान की स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। ऐसे में अपने कामकाज से जनता के दिल के जीतने की कोशिशें भाजपा की सरकारों को करनी होगीं। उपचुनाव यह प्रकट करते हैं भाजपा की राज्य सरकारों के प्रति लोगों में गुस्सा नहीं है। किंतु सरकार में होने के नाते उनकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर भाजपा ने यह साबित किया है उसे जनभावनाओं का साथ प्राप्त है। अब उसे तीसरी पारी के लिए तैयार होना है। अतिआत्मविश्वास न दिखाते हुए अपने काम से वापसी की राह तभी आसान होगी, जब जनभावना इसी प्रकार बनी रहे। क्योंकि राजनीति में सारा कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। भाजपा के पीछे संघ परिवार की एक शक्ति भी होती है। मध्यप्रदेश का जीवंत संगठन भी एक बड़ी ताकत है, इसका विस्तार करने की जरूरत है। सत्ता के लिए नहीं विचार और जनसेवा के लिए संगठन सक्रिय रहे तो उसे चुनावी सफलताएं तो मिलती ही हैं। अरसे बाद देश की राजनीति में गर्वनेंस और विकास के सवाल सबसे प्रभावी मुद्दे बन चुके हैं। भाजपा की सरकारों को इन्हीं सवालों पर खरा उतरना होगा।

खुद को संभाले कांग्रेसः

कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति बेहतर न होने के कारण वह मुकाबले से बाहर होती जा रही है। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस को भी अपने पस्तहाल पड़े संगठन को सक्रिय करते हुए जनता के सवालों पर ध्यान दिलाते हुए काम करना होगा। क्योंकि जनविश्वास ही राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। हमें देखना होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रबंधन पहले दिन से बदहाल था। भाजपा संगठन और सरकार जहां दोनों चुनावों में पूरी ताकत से मैदान में थे वहीं कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की छग और मप्र के इन चुनावों में बहुत रूचि नहीं थी। इससे परिवार की फूट साफ दिखती है। कांग्रेस का यह बिखराव ही भाजपा के लिए विजयद्वार खोलता है। कुक्षी और सोनकच्छ की जीत मप्र में कांग्रेस की बदहवासी का ही सबब है। जहां जमुना देवी जैसी नेता की पारंपरिक सीट भी कांग्रेस को खोनी पड़ती है। अब सांसद बन गए सज्जन सिंह वर्मा की सीट भी भाजपा छीन लेती है। कांग्रेस को कहीं न कहीं भाजपा के चुनाव प्रबंधन से सीख लेनी होगी। खासकर उपचुनावों में भाजपा संगठन जिस तरह से व्यूह रचना करता है। उससे सबक लेनी लेने की जरूरत है। वह एक उपचुनाव ही था जिसमें छिंदवाड़ा जैसी सीट भी भाजपा ने अपनी व्यूहरचना से दिग्गज नेता कमलनाथ से छीन ली थी।

राज्यों में समर्थ नेतृत्वः

मप्र भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए इन चुनावों की जीत वास्तव में एक बड़ा तोहफा है। संगठन की शक्ति और सतत सक्रियता के इस मंत्र को भाजपा ने पहचान लिया है। मप्र में जिस तरह के सवाल थे, किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने थे, पाले से किसानों की बर्बादी के किस्सों के बीच भी शिवराज और प्रभात झा की जोड़ी ने करिश्मा दिखाया तो इसका कारण यही था कि प्रतिपक्ष के नाते कांग्रेस पूरी तरह पस्तहाल है। राज्यों में प्रभावी नेतृत्व आज भाजपा की एक उपलब्धि है। इसके साथ ही सर्वसमाज से उसके नेता आ रहे हैं और नेतृत्व संभाल रहे हैं। भाजपा के लिए साधारण नहीं है कि उसके पास आज हर वर्ग में सक्षम नेतृत्व है। उसके सामाजिक विस्तार ने अन्य दलों के जनाधार को भी प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश कभी एक भूगोल के हिस्से थे, दोनों क्षेत्रों से एक सरीखी प्रतिक्रिया का आना यह संकेत भी है कि ये इलाके आज भी एक सा सोचते हैं और अपने पिछड़ेपन से मुक्त होने तथा तेजी से प्रगति करने की बेचैनी यहां के गांवों और शहरों में एक जैसी है। ऐसे समय में नेतृत्वकर्ता होने के नाते शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं। क्योंकि इस क्षेत्रों में बसने वाले करोड़ों लोगों के जीवन और इन राज्यों के भाग्य को बदलने का अवसर समय ने उन्हें दिया है। उम्मीद है कि वे इन चुनौतियों को स्वीकार कर ज्यादा बेहतर करने की कोशिश करेंगें।

कुल मिलाकर ये उपचुनाव देश के मानस का एक संकेत तो देते ही हैं। एक अकेली सीट सूदूर मणिपुर की भी कांग्रेस को नहीं मिली है, वहां भी इस उपचुनाव से तृणमूल कांग्रेस का खाता खुल गया है। वहां तृणमूल प्रत्याशी ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर यह सीट जीती है। ऐसे में कांग्रेस को निश्चय ही अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। अपने विभ्रमों और बेचैनियों से आगे आकर उसे जनता के सवालों पर सक्रियता दिखानी होगी। क्योंकि हालात यह हैं कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का काम विरोधी दल और उससे जुड़े संगठन ही करते दिख रहे हैं। जैसे मध्यप्रदेश में किसानों के सवाल पर भारतीय किसान संध ने ही सरकार की नाक में दम किया और एक बड़े सवाल को कांग्रेस के खाते में जाने से बचा लिया। ये जमीनी हकीकतें बताती हैं कि कांग्रेस के लिए अभी इन राज्यों में मेहनत की दरकार है तभी वह अपनी खोयी हुयी जमीन बचा पाएगी।

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