शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कांग्रेसः बदहाली से उबरने की चुनौती

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में दरकते जनाधार को बचाना आसान नहीं
भूरिया और पटेल पर कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की बड़ी जिम्मेदारी

- संजय द्विवेदी

कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि उसे,उसके कार्यकर्ता नहीं, नेता हराते हैं। पिछले दस सालों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पस्तहाल पड़ी कांग्रेस के लिए भी यह टिप्पणी नाजायज नहीं है। लंबी खामोशी के बाद आखिरकार आलाकमान ने दोनों सूबों में नए प्रदेश अध्यक्षों को कमान दे दी है। मध्यप्रदेश में वरिष्ठ आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया और छत्तीसगढ़ में पूर्व गृहमंत्री , वरिष्ठ विधायक नंदकुमार पटेल की ताजपोशी की गयी है। दोनों राज्यों में कांग्रेस का संगठन पस्तहाल है इसलिए दोनों प्रदेश अध्यक्षों के सामने चुनौतियां कमोबेश एक सरीखी ही हैं।मप्र और छत्तीसगढ़ दोनों राज्य कांग्रेस के परंपरागत गढ़ रहे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं रविशंकर शुक्ल, द्वारिका प्रसाद मिश्र से लेकर श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह, अरविंद नेताम, कमलनाथ, स्व.माधवराव सिंधिया तक एक लंबी परंपरा है जिसने अविभाजित मध्यप्रदेश को कांग्रेस का गढ़ बनाए रखा। खासकर आदिवासी इलाकों में कांग्रेस का जनाधार अविचल रहा है। पर कहानी इस एक दशक में बहुत बदल गई है। कांग्रेस के परंपरागत गढ़ों में भाजपा की घुसपैठ ने उसे हाशिए पर ला दिया है। राज्य विभाजन के बाद के बाद नए बने छत्तीसगढ़ राज्य में भी भाजपा की तूती बोलने लगी। जबकि छत्तीसगढ़ का परंपरागत वोटिंग पैर्टन हमेशा कांग्रेस के पक्ष में रहा है। आखिर इन सालों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को कांग्रेस के गढ़ों में बड़ी सफलताएं मिलने लगीं। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की हो, सरगुजा इलाके की या मप्र के आदिवासी क्षेत्रों की, भाजपा हर जगह अपना जनाधार बढ़ाती नजर आ रही है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत के मायने तो यही थे कि राज्यों में उसकी सरकारों पर जनता का भरोसा कायम है। यह चुनाव भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं वही कांग्रेस के लिए एक सबक भी हैं कि उसकी परंपरागत सीटों पर भी भाजपा अब काबिज हो रही है। कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति बेहतर न होने के कारण वह मुकाबले से बाहर होती जा रही है। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस को भी अपने पस्तहाल पड़े संगठन को सक्रिय करते हुए जनता के सवालों पर ध्यान दिलाते हुए काम करना होगा। क्योंकि जनविश्वास ही राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। हमें देखना होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रबंधन पहले दिन से बदहाल था। भाजपा संगठन और सरकार जहां दोनों चुनावों में पूरी ताकत से मैदान में थे वहीं कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की छग और मप्र के इन चुनावों में बहुत रूचि नहीं थी। इससे परिवार की फूट साफ दिखती रही। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपने संगठन कौशल को प्रभावी बनाते हुए मतभेदों पर काबू पाने की कला सीखनी होगी।शायद इसी के मद्देनजर इस बार मप्र कांग्रेस संगठन की कमान एक आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को दी गयी है।मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता में हैं। इन राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह दोनों जनता के बीच एक लोकप्रिय नाम बन चुके हैं। जनता ने दोनों को दोबारा चुनकर दो संदेश दिए हैं एक तो इन मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता कायम है दूसरा कांग्रेस का संगठन दुरूस्त नहीं है। कांग्रेस के दोनों नवनिर्वाचित अध्यक्षों को इस मामले में बहुत काम करने हैं। दोनों राज्यों में विपक्ष की आवाज बहुत दबी-दबी सी लगती है। विधानसभा से लेकर सड़क तक एक सन्नाटा है। मध्यप्रदेश में विधानसभा के नए नेता प्रतिपक्ष बने अजय सिंह राहुल ने भी माना है कि पार्टी का प्रदर्शन विधानसभा में बहुत अच्छा नहीं रहा और इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं। अब यह देखना है कि मध्यप्रदेश जहां नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष दोनों पदों पर नया नेतृत्व दिया गया है, वहां किस तरह से कांग्रेस अपनी ताकत का विस्तार करती है। माना जा रहा है कि ये दोनों नेता दिग्विजय सिंह के समर्थक हैं और इस बहाने राज्य में अब पूर्व मुख्यमंत्री का संगठन और विधानसभा में एक बार फिर प्रभाव बढ़ेगा। सुरेश पचौरी के अध्यक्ष रहते दिग्विजय सिंह ने अपने आप को मध्यप्रदेश संगठन से अलग सा कर लिया था। इस बिखराव का ही कारण था कि कांग्रेस को हाल के विधानसभा उपचुनावों में अपनी कुक्षी और सोनकच्छ जैसी परंपरागत सीटें भी गंवानी पड़ीं। जाहिर तौर पर यह एक बड़ा झटका था। जहां वरिष्ठ नेता स्व. जमुना देवी की परंपरागत सीट भी कांग्रेस के हाथ से निकल गयी। तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन होगा। अब जबकि कांतिलाल भूरिया के रूप में पार्टी को एक नया अध्यक्ष मिला है तो देखना है कि गुटों में बिखरी कांग्रेस को वे कैसे एक सूत्र में बांधकर उसे राज्य में पुर्नजीवन देते हैं। मप्र का संकट यह है कि यह राज्य अनेक दिग्गज कांग्रेस नेताओं की लीलाभूमि है। सो इतने बड़े राज्य को एक साथ संबोधित करने वाला नेतृत्व आसान नहीं है। इनमें शायद दिग्विजय सिंह ही अकेले हैं जो पूरे मप्र में अपनी पहचान रखते हैं। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरूण यादव केंद्रीय मंत्री जरूर हैं किंतु इनकी अपने क्षेत्रों को छोड़कर राज्य में बहुत सीमित रूचि है। बावजूद इसके इनके आसपास सक्रिय लोग एक गुट या दबाव समूह तो बना ही लेते हैं। ऐसे में यह बहुत साफ है मध्यप्रदेश की राजनीति अब दिग्विजय सिंह के हिसाब से चलेगी। कई मायनों में यह कांग्रेस के लिए ठीक भी है।इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की स्थितियां बहुत बेहतर नहीं हैं। यहां भी कांग्रेस गुटों में बंटी हुयी है। अजीत जोगी समर्थक विधायक विधानसभा में अलग सुर में दिखते हैं तो नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे अलग-थलग पड़ जाते हैं। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे धनेंद्र साहू भी इस बिखरे परिवार में कोई उत्साह नहीं फूंक सके, बल्कि खुद भी विधानसभा का चुनाव हार गए। हाल में हुए दो विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भी कांग्रेस को मात खानी पड़ी। ऐसे में भाजपा का उत्साह चरम पर है। अब पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल जो पिछड़ा वर्ग से आते हैं और खरसिया क्षेत्र से लगातार पांचवी बार विधायक बने हैं, से बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। भाजपा ने इस कांग्रेस प्रभावित इलाके में तेजी से अपनी संगठनात्मक शक्ति का विस्तार किया है। खासकर आदिवासी इलाकों में उसे बड़ी सफलताएं मिली हैं, जो कभी कांग्रेस के गढ़ रहे हैं। इन दिनों चल रहा बस्तर लोकसभा का उपचुनाव भी इसकी एक परीक्षा साबित होगा। यह सीट भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के निधन से खाली हुयी है। यहां भाजपा ने बलिराम कश्यप के बेटे दिनेश कश्यप और कांग्रेस ने अपने वर्तमान विधायक कवासी लखमा को चुनाव मैदान में उतारा है। देखना है कि इस उपचुनाव के संकेत क्या आते हैं। कुल मिलाकर नंदकुमार पटेल के सामने चुनौतियां बहुत हैं और कांग्रेस संगठन को खड़ा करना आसान नहीं है। बावजूद इसके वे अगर अपने दल में प्राण फूंककर उसे पुर्नजीवन दे पाते हैं तो ये बड़ी बात होगी। छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी यहां एक बड़ी ताकत हैं। मुश्किल यह है कि उनके विरोधी भी उतने ही एकजुट हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा भी इसी राज्य से हैं। सो दिल्ली में दोनों गुटों को पैरवीकार मिल ही जाते हैं। इस जंग में कांग्रेस आपसी सिर फुटौव्वल से काफी नुकसान उठाती है। यह साधारण नहीं था कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कई दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बधेल चुनाव हार गए। जिसका श्रेय कांग्रेस की आपसी गुटबाजी को ही दिया गया। सन 2000 में नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ के समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। राज्य का परंपरागत नेतृत्व पूरी तरह हाशिए पर है। नए नेतृत्व ने राज्य में अपनी जगह बना ली है। कांग्रेस में अजीत जोगी और भाजपा में डा. रमन सिंह दोनों ही राज्य गठन के बाद बहुत महत्वपूर्ण हो उठे। इन नेताओं के विकास ने राज्य में सक्रिय रहे परंपरागत नेतृत्व को झटका दिया और सारे समीकरण बदल दिए। भाजपा संगठन केंद्रित दल था सो उसे तो बहुत झटके नहीं लगे किंतु कांग्रेस इस बदलाव को स्वीकार नहीं पायी और उसकी रही-सही ताकत भी दो चुनाव हारने के बाद जाती रही। अब नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नंदकुमार पटेल के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। एक तो उन्हें बिखरे परिवार को एकजुट करना है साथ ही भाजपा की संगठित शक्ति का मुकाबला भी करना है। नंदकुमार पटेल को जानने वाले जानते हैं कि वे कभी बहुत हाईप्रोफाइल नेता नहीं रहे, किंतु यह उनकी बड़ी ताकत भी है। कांग्रेस को इस समय राज्य में एक ऐसे नेता की जरूरत है जो राज्य भर में पहचान रखता हो, सबको साथ लेकर चल सके और कांग्रेस के खत्म हो चुके आत्मविश्वास को भर सके। नंदकुमार पटेल, जहां राज्य के ताकतवर अधरिया समाज से आते हैं,जो आता तो पिछड़ा वर्ग में है किंतु संपन्न किसान है। साथ ही मप्र और छत्तीसगढ़ में गृहमंत्री रहते हुए उनका चेहरा जाना-पहचाना है। एक विधायक के नाते लंबी पारी ने उनके संसदीय अनुभव को भी समृद्ध किया है। उनके पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि वे उस खरसिया इलाके से चुनकर आते हैं जो कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग है। जहां कभी दिग्गज नेता अर्जुन सिंह और दिलीप सिंह जूदेव की चुनावी जंग हुयी है और अर्जुन सिंह को काफी पसीना बहाना पड़ा था। उसके बाद से यह सीट पटेल के पास है। भाजपा सारा दम लगाकर इस सीट को जीत नहीं पाई, उसके दिग्गज नेता स्व.लखीराम अग्रवाल भी नंदकुमार पटेल को चुनाव न हरा सके। इसलिए खरसिया का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है और यह संकेत भी पटेल अपने इलाके से फ्री होकर बाकी राज्य में समय दे सकते हैं। जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में तो यह हुआ कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष (घनेंद्र साहू) और कार्यकारी अध्यक्ष (सत्यनारायण शर्मा) दोनों चुनाव हार गए। विधानसभा में तो,एक विधायक के नाते नंदकुमार पटेल सरकार को अक्सर घेरने में सफल रहते हैं किंतु एक संगठन के मुखिया के तौर उनकी परीक्षा अभी शेष है। यह कहने में संकोच नहीं कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश अभी तक प्रतिपक्ष विहीन ही हैं। यह बदलाव अगर इन प्रदेशों में प्रतिपक्ष की वापसी का संकेत बन सके तो यह दोनों राज्यों की जनता और उनके सवालों के लिए शुभ होगा। फिलहाल तो मध्यप्रदेश और छ्त्तीसगढ़ राज्यों में बदले नेतृत्व से कांग्रेस को क्या हासिल होगा इस पर अभी कुछ कहना बहुत आसान नहीं है।