गुरुवार, 1 सितंबर 2011

बाजार के खिलाफ प्रतिरोध की शक्ति बने मीडिया


लोक को संरक्षित करने से ही बचेगा भारत

-संजय द्विवेदी

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो मृत्युंजय है। विश्व के अनेक विद्वानों, रहस्यदर्शियों, वैज्ञानिकों और प्रतिभावान शोधार्थियों ने भारत की अमरता को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी कहा। किसी ने यहां आत्मिक पिपासा बुझाई तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ। कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा। ऐसी महान संस्कृति का आंगन भारत है, जिसकी हर सांस में ही पूरी वसुधा को एक कुटुम्ब मानने की आकांक्षा है। अपनी इसी आकांक्षा के नाते यह देश कह पाया कि- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। दरअसल इसीलिए भारत मृत्युंजय है। वह वसुधा पर ऐसी संस्कृति का संवाहक है जो प्रेम, करूणा, संवेदना के भावों से भरी है और समूची मानवता के कल्याण के बात करती है।

ऐसी महान संस्कृति हमारे लिए प्रेरणा का कारण बनना चाहिए। किंतु गुलामी के लंबे कालखंड और विदेशी विचारों ने हमारे अपने गौरव ग्रंथों, मानबिंदुओं पर गर्द की चादर डाल दी। इस पूरे दृश्य को इतना धुंधला दिया गया कि हमें अपने गौरव का, अपने मान का, अपने ज्ञान का आदर ही न रहा। यह हर क्षेत्र में हुआ। हर क्षेत्र को विदेशी नजरों से देखा जाने लगा। हमारे अपने पैमाने और मानक भोथरे बना दिए गए। स्वामी विवेकानंद को याद करें वे उसी स्वाभिमान को जगाने की बात करते हैं। महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण ने हमें उसी स्वत्व की याद दिलायी। सोते हुए भारत को जगाने और झकझोरने का काम किया।

ऐसे समय में जब एक बार फिर हमें अपने स्वत्व के पुर्नस्मरण की जरूरत है तो पत्रकारिता इसमें एक बड़ा साधन बन सकती है। हम देश में अपने नायकों की तलाश कर रहे हैं। वे हमारी जमीन के नायक हैं,इस देश के इतिहास के नायक हैं। पत्रकारिता की अपनी एक संस्कृति है। खासकर भारत के संदर्भ में पत्रकारिता लोकजागरण का ही अनुष्ठान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ही देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ और इसके चलते देशभक्ति, जनजागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आए और आज बाजारवादी शक्तियों का प्रभाव इस माध्यम पर काफी देखा जा रहा है। फिर भी सबसे प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया को इस तरह छोड़ देना संभव नहीं है। हमें उसकी भूमिका पर विचार करना ही होगा। हमें तय करना होगा किस तरह मीडिया लोकसंस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रह सके। साहित्य हो या मीडिया दोनों का काम है, लोकमंगल के लिए काम करना। राजनीति का भी यही काम है। लोकमंगल हम सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब लोक हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। लोक हमारे संस्कारों का प्रवक्ता है वह हमें बताता है कि क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है। इसलिए लोकमानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है।

मीडिया दरअसल एक ऐसी ताकत के रूप में उभरा है जो प्रभु वर्गों की वाणी बन रहा है, जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। जाहिर तौर पर समय के प्रवाह में समाज जीवन के हर क्षेत्र में कुछ गिरावट दिख रही है। किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोक का प्रवक्ता होना चाहिए पर वह कारपोरेट और प्रभु वर्गों का प्रवक्ता बन जाता है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार करें।

भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं है। संवाद की परंपराएं हैं। शास्त्रार्थ हमारे लोकजीवन का हिस्सा है। समाज में विविध समाजों और रिश्तों के बीच संवाद की परंपराएं हैं। हमें उनपर ध्यान देने की जरूरत है। सुसंवाद से ही सुंदर समाज की रचना संभव है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज खासकर दृश्य मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि समाज में तनाव बढ़ता है। इसका भारतीयकरण करने की जरूरत है। हमारे जनमाध्यम ही इस जिम्मेदारी को निभा सकते हैं। वे समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को एक सहज संवाद में बदल सकते हैं।

कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोकमें ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं।

किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। संस्कृति अलग से कोई चीज नहीं होती, वह हमारे समाज के सालों से अर्जित पुण्य का फल है। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेगें, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी।

1 टिप्पणी:

  1. आप सही लिख रहे हैं मैंने अपने प्रारंभिक पोस्ट में इसी पर केन्द्रित किया है।

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