रविवार, 4 सितंबर 2011

गुरू-शिष्य संबंधः नए रास्तों की तलाश


शिक्षक दिवस ( 5 सितंबर) पर विशेषः

अध्यापकों का विवेक और रचनाशीलता भी है कसौटी पर

-संजय द्विवेदी

शिक्षक मनुष्य का निर्माता है। एक शिक्षक की भूमिका बच्चों को साक्षर करने से ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि वह अपने छात्रों में आत्मबल, आदर्श, नैतिक बल, सच्चाई, ईमानदारी, लगन और मेहनत की वह मशाल भी जलाता है जो उसे पूर्ण मनुष्य बनाते हैं। - सर जान एडम्स

जब हर रिश्ते को बाजार की नजर लग गयी है, तब गुरू-शिष्य के रिश्तों पर इसका असर न हो ऐसा कैसे हो सकता है ? नए जमाने के, नए मूल्यों ने हर रिश्ते पर बनावट, नकलीपन और स्वार्थों की एक ऐसी चादर डाल दी है, जिसमें असली सूरत नजर ही नहीं आती। अब शिक्षा बाजार का हिस्सा है, जबकि भारतीय परंपरा में वह गुरू के अधीन थी, समाज के अधीन थी।

बाजार में उतरे शातिर खिलाड़ीः

पूंजी के शातिर खिलाड़ियों ने जब से शिक्षा के बाजार में अपनी बोलियां लगानी शुरू की हैं तबसे हालात बदलने शुरू हो गए थे। शिक्षा के हर स्तर के बाजार भारत में सजने लगे थे। इसमें कम से कम चार तरह का भारत तैयार हो रहा था। आम छात्र के लिए बेहद साधारण सरकारी स्कूल थे जिनमें पढ़कर वह चौथे दर्जे के काम की योग्यताएं गढ़ सकता था। फिर उससे ऊपर के कुछ निजी स्कूल थे जिनमें वह बाबू बनने की क्षमताएं पा सकता था। फिर अंग्रेजी माध्यमों के मिशनों, शिशु मंदिरों और मझोले व्यापारियों की शिक्षा थी जो आपको उच्च मध्य वर्ग के करीब ले जा सकती थी। और सबसे ऊपर एक ऐसी शिक्षा थी जिनमें पढ़ने वालों को शासक वर्ग में होने का गुमान, पढ़ते समय ही हो जाता है। इस कुलीन तंत्र की तूती ही आज समाज के सभी क्षेत्रों में बोल रही है। इस पूरे चक्र में कुछ गुदड़ी के लाल भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इसमें दो राय नहीं किंतु हमारी व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था के हिसाब से ही शिक्षा को भी चार खानों में बांट दिया है और चार तरह के भारत बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। जाहिर तौर पर यह हमारी एकता- अखंडता और सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक है।

उच्चशिक्षा के क्षेत्र में बदहालीः

हालात यह हैं कि कुल 54 करोड़ का हमारा युवा वर्ग उच्च शिक्षा के लिए तड़प रहा है। उसकी जरूरतों को हम पूरा नहीं कर पा रहे हैं। सरकारी क्षेत्रों की उदासीनता के चलते आज हमारे सरकारी विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय लगभग स्लम में बदल रहे हैं। एक लोककल्याणकारी सरकार जब सारा कुछ बाजार को सौंपने को आतुर हो तो किया भी क्या जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा का बाजार अब उन व्यापारियों के हवाले है, जिनको इससे मोटी कमाई की आस है। जाहिर तौर पर शिक्षा अब सबके लिए सुलभ नहीं रह जाएगी। कम वेतन और सुविधाओं में काम करने वाले शिक्षक आज भी गांवों और सूदूर क्षेत्रों में शिक्षा की अलख जगाए हुए हैं। किंतु यह संख्या निरंतर कम हो रही है। सरकारी प्रोत्साहन के अभाव और भ्रष्टाचार ने हालात बदतर कर दिए हैं। इससे लगता है कि शिक्षा अब हमारी सरकारों की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं रही।

बढ़ गयी है जिम्मेदारीः

ऐसे कठिन समय में शिक्षक समुदाय की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। क्योंकि वह ही अपने विद्यार्थियों में मूल्य व संस्कृति प्रवाहित करता है। आज नई पीढ़ी में जो भ्रमित जानकारी या कच्चापन दिखता है, उसका कारण शिक्षक ही हैं। क्योंकि अपने सीमित ज्ञान, कमजोर समझ और पक्षपातपूर्ण विचारों के कारण वे बच्चों में सही समझ विकसित नहीं कर पाते। इसके कारण गुरू के प्रति सम्मान भी घट रहा है। रिश्तों में भी बाजार की छाया इतनी गहरी है कि वह अब डराने लगी हैं। आज आम आदमी जिस तरह शिक्षा के प्रति जागरूक हो रहा है और अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के आगे आ रहा है, वे आकांक्षांए विराट हैं। उनको नजरंदाज करके हम देश का भविष्य नहीं गढ़ सकते। सबसे बड़ा संकट आज यह है कि गुरू-शिष्य के संबंध आज बाजार के मानकों पर तौले जा रहे हैं। युवाओं का भविष्य जिन हाथों में है, उनका बाजार तंत्र किस तरह शोषण कर रहा है इसे समझना जरूरी है। सरकारें उन्हें प्राथमिक शिक्षा में नए-नए नामों से किस तरह कम वेतन पर रखकर उनका शोषण कर रही हैं, यह एक गंभीर चिंता का विषय है। इसके चलते योग्य लोग शिक्षा क्षेत्र से पलायन कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जीवन को ठीक से जीने के लिए यह व्यवसाय उचित नहीं है।

नई पीढ़ी की व्यापक आकांक्षांएः

शहरों में पढ़ रही नई पीढ़ी की समझ और सूचना का संसार बहुत व्यापक है। उसके पास ज्ञान और सूचना के अनेक साधन हैं जिसने परंपरागत शिक्षकों और उनके शिक्षण के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है। उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है। नए जमाने ने श्रद्धाभाव भी कम किया है। उसके अनेक नकारात्मक प्रसंग हमें दिखाई और सुनाई देते हैं। गुरू-शिष्य रिश्तों में मर्यादाएं टूट रही हैं, वर्जनाएं टूट रही हैं, अनुशासन भी भंग होता दिखता है। नए जमाने के शिक्षक भी विद्यार्थियों में अपनी लोकप्रियता के लिए कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो उन्हें लांछित ही करते हैं। सीखने की प्रक्रिया का मर्यादित होना भी जरूरी है। परिसरों में संवाद, बहसें और विषयों पर विमर्श की धारा लगभग सूख रही है। परीक्षा को पास करना और एक नौकरी पाना इस दौर की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी है। ऐसे में शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस पीढ़ी की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की है। साथ ही उनमें विषयों की गंभीर समझ पैदा करना भी जरूरी है। शिक्षा के साथ कौशल और मूल्यबोध का समावेश न हो तो वह व्यर्थ हो जाती है। इसलिए स्किल के साथ मूल्यों की शिक्षा बहुत जरूरी है। कारपोरेट के लिए पुरजे और रोबोट तैयार करने के बजाए अगर हम उन्हें मनुष्यता,ईमानदारी और प्रामणिकता की शिक्षा दे पाएं और स्वयं भी खुद को एक रोलमाडल के प्रस्तुत कर पाएं तो यह बड़ी बात होगी। शिक्षक अपने विद्यार्थियों के लिए एक दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में सामने आते है। वह उसका रोल माडल भी हो सकते हैं।

सही तस्वीर गढ़ने की जरूरतः

गुरू-शिष्य परंपरा को समारोहों में याद की जाने वाली वस्तु के बजाए अगर हम उसकी सही तस्वीरें गढ़ सकें तो यह बड़ी बात होगी। किंतु देखा यह जा रहा है गुरू तो गुरूघंटाल बन रहे हैं और छात्र तोममोल करने वाले माहिर चालबाज। काम निकालने के लिए रिश्तों का इस्तेमाल करने से लेकर रिश्तों को कलंकित करने की कथाएं भी हमारे सामने हैं, जो शर्मसार भी करती हैं और चेतावनी भी देती है। नए समय में गुरू का मान- स्थान बचाए और बनाए रखा जा सकता है, बशर्ते हम विद्यार्थियों के प्रति एक ईमानदार सोच रखें, मानवीय व संवेदनशील व्यवहार रखें, उन्हें पढ़ने के बजाए समझने की दिशा में प्रेरित करें, उनके मानवीय गुणों को ज्यादा प्रोत्साहित करें। भारत निश्चय ही एक नई करवट ले रहा है, जहां हमारे नौजवान बहुत आशावादी होकर अपने शिक्षकों की तरफ निहार रहे हैं, उन्हें सही दिशा मिले तो आसमान में रंग भर सकते हैं। हमारे युवा भारत में इस समय दरअसल शिक्षकों का विवेक, रचनाशीलता और कल्पनाशीलता भी कसौटी पर है। क्योंकि देश को बनाने की इस परीक्षा में हमारे छात्र अगर फेल हो रहे हैं तो शिक्षक पास कैसे हो सकते हैं ?

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