रविवार, 23 दिसंबर 2012

अटलजीः सत्ता साकेत का एक वीतरागी



           जन्मदिन (25 दिसंबर) पर विशेषः 
  हिंदुस्तानी राजनीति के आखिरी करिश्माई राजनेता हैं वाजपेयी
                         -संजय द्विवेदी
       
  अटलबिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्में इस राजनेता ने अपनी भाषण कला, भुवनमोहिनी मुस्कान, लेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।
   एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है। जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बने, जिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया, जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना। याद कीजिए अटल जी की कविता तन-मन हिंदू मेरा परिचय। वे अपनी कविताओं, लेखों ,भाषणों और जीवन से जो कुछ प्रकट करते रहे उसमें इस मातृ-भू की अर्चना के सिवा क्या है। वे सही मायने में भारतीयता के ऐसे अग्रदूत बने जिसने न सिर्फ सुशासन के मानकों को भारतीय राजनीति के संदर्भ में स्थापित किया वरन अपनी विचारधारा को आमजन के बीच स्थापित कर दिया।
समन्वयवादी राजनीति की शुरूआतः
सही मायने में अटलबिहारी वाजपेयी एक ऐसी सरकार के नायक बने जिसने भारतीय राजनीति में समन्वय की राजनीति की शुरूआत की। वह एक अर्थ में एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार थी जिसमें विविध विचारों, क्षेत्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले तमाम लोग शामिल थे। दो दर्जन दलों के विचारों को एक मंत्र से साधना आसान नहीं था। किंतु अटल जी की राष्ट्रीय दृष्टि, उनकी साधना और बेदाग व्यक्तित्व ने सारा कुछ संभव कर दिया। वे सही मायने में भारतीयता और उसके औदार्य के उदाहरण बन गए। उनकी सरकार ने अस्थिरता के भंवर में फंसे देश को एक नई राजनीति को राह दिखाई। यह रास्ता मिली-जुली सरकारों की सफलता की मिसाल बन गया। भारत जैसे देशों में जहां मिली-जुली सरकारों की सफलता एक चुनौती थी, अटलजी ने साबित किया कि स्पष्ट विचारधारा,राजनीतिक चिंतन और साफ नजरिए से भी परिवर्तन लाए जा सकते हैं। विपक्ष भी उनकी कार्यकुशलता और व्यक्तित्व पर मुग्ध था। यह शायद उनके विशाल व्यक्तित्व के चलते संभव हो पाया, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की भावना थी। देशप्रेम था, देश का विकास करने की इच्छाशक्ति थी। उनकी नीयत पर किसी कोई शक नहीं था। शायद इसीलिए उनकी राजनीतिक छवि एक ऐसे निर्मल राजनेता की बनी जिसके मन में विरोधियों के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं था।
आम जन का रखा ख्यालः
 उनकी सरकार सुशासन के उदाहरण रचने वाली साबित हुई। जनसमर्थक नीतियों के साथ महंगाई पर नियंत्रण रखकर सरकार ने यह साबित किया कि देश यूं भी चलाया जा सकता है। सन् 1999 के राजग के चुनाव घोषणापत्र का आकलन करें तो पता चलता है कि उसने सुशासन प्रदान करने की हमारी प्रतिबद्धता जैसे विषय को उठाने के साथ कहा-लोगों के सामने हमारी प्रथम प्रतिबद्धता एक ऐसी स्थायी, ईमानदार, पारदर्शी और कुशल सरकार देने की है, जो चहुंमुखी विकास करने में सक्षम हो। इसके लिए सरकार आवश्यक प्रशासनिक सुधारों के समयबद्ध कार्यक्रम शुरू करेगी, इन सुधारों में पुलिस और अन्य सिविल सेवाओं में किए जाने वाले सुधार शामिल हैं राजग ने देश के सामने ऐसे सुशासन का आदर्श रखा जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, संघीय समरसता, आर्थिक आधुनिकीकरण, सामाजिक न्याय, शुचिता जैसे सवाल शामिल थे। आम जनता से जुड़ी सुविधाओं का व्यापक संवर्धन, आईटी क्रांति, सूचना क्रांति इससे जुड़ी उपलब्धियां हैं।
एक भारतीय प्रधानमंत्रीः
   अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पार कर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया। उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया। मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।
  आज जबकि राष्ट्रजीवन में पश्चिमी और अमरीकी प्रभावों का साफ प्रभाव दिखने लगा है। रिटेल में एफडीआई के सवाल पर जिस तरह के हालात बने वे चिंता में डालते हैं। भारत के प्रधानमंत्री से लेकर बड़े पदों पर बैठे राजनेता जिस तरह अमरीकी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में खड़े दिखे वह बात चिंता में डालती है। यह देखना रोचक होता कि अगर सदन में अटलजी होते तो इस सवाल पर क्या स्टैंड लेते। शायद उनकी बात को अनसुना करने का साहस समाज और राजनीति में दोनों में न होता। सही मायने में राजनीति में उनकी अनुपस्थिति इसलिए भी बेतरह याद की जाती है, क्योंकि उनके बाद मूल्यपरक राजनीति का अंत होता दिखता है। क्षरण तेज हो रहा है, आदर्श क्षरित हो रहे हैं। उसे बचाने की कोशिशें असफल होती दिख रही हैं। आज भी वे एक जीवंत इतिहास की तरह हमें प्रेरणा दे रहे हैं। वे एक ऐसे नायक हैं जिसने हमारे इसी कठिन समय में हमें प्रेरणा दी और हममें ऊर्जा भरी और स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरी राजनीति का पाठ पढ़ाया। हमें देखना होगा कि यह परंपरा उनके उत्तराधिकार कैसे आगे बढाते हैं। उनकी दिखायी राह पर भाजपा और उसका संगठन कैसे आगे बढ़ता है।
   अपने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता साकेत में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा। स्वतंत्र भारत के इस आखिरी  करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ  करते हैं और यह पंक्तियां गाते हुए आगे बढ़ते हैं चल रहे हैं चरण अगणित, ध्येय के पथ पर निरंतर

 ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

शनिवार, 24 नवंबर 2012

मीडिया विमर्श का नया अंकः सिनेमा विशेषांक


पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान


हिंदी में प्रकाशित उर्दू सहाफत के मुस्तकबिल पर एक मुकम्मल



हिंदी में प्रकाशित उर्दू सहाफत के मुस्तकबिल पर एक मुकम्मल किताब
उर्दू पत्रकारिता का भविष्य
संपादकः संजय द्विवेदी
जिनके खूबसूरत लेखों से सजी है यह किताबः शाहिद सिद्दीकी, असद रजा,रघु ठाकुर,राजेश रैना, मासूम मुरादाबादी, धनंजय चोपड़ा,तहसीन मुनव्वर, डा.माजिद हुसैन,शारिक नूर,एहतेशाम अहमद खान, डा.ए. अजीज अंकुर,आरिफ अजीज,डा. मरजिया आरिफ,डा. हिसामुद्दीन फारूखी, फिरोज अशरफ,डा. अख्तर आलम, फिरदौस खान, इशरत सगीर,ए.एन शिबली,एजाजुर रहमान, संजय कुमार, आरिफ खान मंसूरी,डा. जीए कादरी आदि। साथ में देश के सात महत्वपूर्ण उर्दू पत्रकारों के साक्षात्कार, जिन्हें पढ़ने से पता चलती है उर्दू सहाफत की महक और उसकी खूशबू।
एक ऐसा दस्तावेज जिसे आप संभालकर रखना चाहेगें।
मूल्यः295 रूपए मात्र                           पृष्ठः144
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स
1/10753 गली नंबर-3,सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर,
दिल्ली-110032
फोनः 09899938522
ईमेलः yashpublicationdelhi@gmail.com

शनिवार, 10 नवंबर 2012

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें

दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

पुष्य नक्षत्र की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

पुष्य नक्षत्र की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

भारत के हर ‘संसाधन’ पर हक है मेरा!



अदालती फैसले को सही संदर्भ में समझने की जरूरत
                  -संजय द्विवेदी
    राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए संदर्भ पत्र पर उच्चतम न्यायालय की राय को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी विजय के रूप में प्रचारित करने में लगी है। जबकि यह मामले को आधा समझना है। ऐसी आधी-अधूरी समझ से ही संकट खड़े होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसके मूलभाव को समझे बिना- भारत के खनिज संसाधनों पर भी हक है मेरा का गायन ठीक नहीं कहा जा सकता। देश में मची संसाधनों की लूट को कैग ने सही तरीके से समझा है किंतु सरकार इन गंभीर विषयों पर नीति बनाने के बजाए सारा कुछ बाजार और स्वविवेक पर सौंपने की नीति पर चलने के लिए आतुर है।
   देश के राष्ट्रपति महोदय के संदर्भ पत्र पर पांच जजों की संविधान पीठ का फैसला दरअसल सरकार के कामकाज में दखल न देने की भावना ज्यादा है। वैसे भी सरकार का काम नीति बनाना है और नीति बनाते समय यह सावधानी रखना भी है कि इसे लूटतंत्र में न बदला जा सके। केंद्र सरकार को तय करना है कि आखिर देश के प्राकृतिक संसाधनों के मामले में क्या नीति बनाई जाए। किंतु उसे अपनी मनमानियों को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल करना उचित नहीं कहा जा सकता। फैसला बहुत व्यापक संदर्भ की बात करता है और उसने सिर्फ संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने साफ कहा है कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नीतिगत मामला है और यह सरकार का अधिकार है कि वह इसका तरीका तय करे। इसके साथ ही अदालत ने यह भी माना है कि नीलामी बेहतर विकल्प है। अदालत का कहना है कि आबंटन हर हाल में पारदर्शी होना चाहिए। अगर आबंटन का तरीका मनमाना है तो अदालत उसकी समीक्षा करेगी।
   इस फैसले की आड़ लेकर कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता और मंत्री जिस तरह कैग को नसीहतें देने में और की गयी लूटपाट को वैधानिक बताने में जुटे हैं, वह ठीक नहीं है। उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे नेतागण संसाधनों की इस लूट को जारी रखने के पक्ष में हैं और किसी नीति-नियम के खिलाफ है। कैग के खिलाफ उनकी उलटबासियां बताती हैं कि वे नहीं चाहते कि उनके कामों की किसी प्रकार से समीक्षा हो। कोई एजेंसी उनके कामों का आंकलन करे इसके लिए भी वे तैयार नहीं हैं। जबकि यह समझना होगा कि सरकार पर आपका हक होने से संसाधनों पर भी आपका हक नहीं  हो जाता बल्कि ये संसाधन देश के हैं। इनका उचित प्रकार दोहन करके प्राप्त राशि को विकास के काम में लगाया जाना चाहिए। यह साधारण नहीं है कि जिन इलाकों से ये खनिज संसाधन निकाले जा रहे हैं वहां रहने वाली आबादी सबसे गरीब है। ये वही इलाके हैं जहां गरीबी, मुफलिसी और बेचारगी फैली हुयी है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ये संसाधन जिन लोगों के इलाकों से निकाले जा रहे हैं क्या उनका इन पर कोई हक नहीं हैं। अगर है तो क्यों न इन इलाकों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा सरकारें इन पर खर्च करें। खनिज संसाधनों से युक्त अमीर घरती पर अगर देश के सबसे गरीब लोग बसते हैं तो यह हमारे लोकतंत्र की बिडंबना ही कही जाएगी। ऐसे में इस विरोधाभास को हटाने और खत्म करने की भी जरूरत महसूस की जा रही है।
   खुद मंत्रिमंडलीय समूह ने कोयला खदानों के आबंटन में हुई अनियमितताओं को उचित पाया है और तमाम आबंटन रद कर दिए हैं। अगर नीलामी के जरिए ये आबंटन हुए होते तो निश्चय ही सरकार को ज्यादा फायदा हुआ होता। कम से कम नकली कंपनियां और फर्जी पतों का इस्तेमाल कर अनुभवहीन कंपनियां तो मैदान में नहीं कूदतीं,वही कंपनियां सामने आती जिनकी व्यवसाय में रूचि है। निश्चित रूप से नीलामी के बजाए कथित विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को ही जन्म देगा और घोटालों को एक संस्थागत रूप मिल जाएगा। जिस चावला समिति का गठन सरकार ने किया था, उसने भी प्रतिस्पर्धी बोली के पक्ष में सिफारिश की थी। हालांकि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसने चावला समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं हैं। ऐसे में इस फैसले की आड़ लेकर सरकार अगर पुरानी नीति को जारी रहने देती है तो निश्चय ही देश के राजस्व को चूना ही लगेगा। हमारे खनिज संसाधनों की लूट यूं ही होती रहेगी और हम इस घाटे के नाते पैदा हालतों में एफडीआई जैसे टोटकों से अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने का जतन करते रहेंगें।
   यह दुखद ही है कि आला अदालत ने जाने क्यों सरकारों की मनमानियों को देखते हुए भी उन पर भरोसा किया है जबकि क्या ही बेहतर होता कि वह सरकार को एक मुकम्मल नीति बनाने का सुझाव देती और उसे विधायिका से स्वीकृत लेकर लागू करने की बात कहती। हमारी आला अदालत ने भले ही सरकार के सम्मान को बहाल रखते हुए एक सकारात्मक फैसला सुनाया है, किंतु टूजी स्पेक्ट्रम से लेकर कोलगेट तक जो राह हमारी राजनीति ने चुनी है, उसे देखने के बाद देश भरोसे से खाली है। आज वह सिर्फ सुप्रीम कोर्ट पर ही भरोसा करने के लिए विवश है। ऐसे में अदालत का भी सरकार को बेलगाम छोड़ देना, बड़े संकट रच सकता है। बावजूद इसके यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री इस संबंध में नीतियां बनाने में वही उत्साह दिखाएंगें जैसा वे आर्थिक सुधारों के लिए दिखा रहे हैं। भरोसे से खाली देश में नीतियां ही हमारी मार्गदर्शक बन सकती हैं। हर अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं और इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि देश के संसाधनों की तरफ ललचाई नजरों से देखती हुयी राजनीति कम से यह तो न कहे कि भारत के हर प्राकृतिक संसाधन पर हक है मेरा।

हिन्दी विकास के लिए व्यवस्थित योजना जरूरीः प्रो. कुठियाला






भोपाल, 2अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि हिन्दी के विकास के लिए एक व्यवस्थित योजना और लक्ष्य तय करने होंगे। इस लक्ष्य को पेशेवर विपणन रणनीति के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में आयोजित नवें अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेकर भोपाल लौटे प्रो. कुठियाला विश्वविद्यालय परिवार के साथ अपनी यात्रा के अनुभवों को साझा कर रहे थे। गांधी, हिन्दी और अफ्रीकाविषय पर आयोजित इस व्याख्यान का आयोजन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग ने किया था।
    प्रो. कुठियाला ने कहा कि हिन्दी के विकास में बाधा उसकी कट्टरता है। अगर हम हिन्दी ही की जगह हिन्दी भी का रवैया अपना लें और उसका अन्य भारतीय भाषाओं के साथ बड़ी बहन की जगह बहनापा बने तो वह अपने विकास में खुद सक्षम है और उसको किसी की मदद की जरुरत नहीं है। उन्होंने सम्मेलन के नौ सत्रों में हुई चर्चा का सार संक्षेप और पारित किये गये प्रस्तावों तथा बहस के प्रमुख बिन्दुओं के बारे में भी चर्चा की। हिंदी सम्मेलन में लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रुप में हिन्दीके सत्र में वक्ता के रुप में श्री कुठियाला ने सम्मेलन में लोकतंत्र, मीडिया और हिन्दी पर बुनियादी सवाल उठाए। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि आखिर आज कम्प्यूटर पर हिन्दी में वर्तनी जांचनेऔर सर्च इंजन बनाने का काम क्यों नहीं हो सका।
    अपने वक्तव्य में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के समाज, मीडिया और कानून व्यवस्था पर भी रोशनी डाली। कई देशों की यात्रा कर चुके प्रो. कुठियाला ने कहा कि दक्षिण अफीका के आदमी में एक संतोष दिखता है जो अन्य देशों में दुर्लभ है।उन्होंने भारतीय परिवेश के साथ ही वहां के अनुभवों की रोचक तुलना की। कार्यक्रम का संचालन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव प्रो. रामदेव भारद्वाज, विभागाध्यक्षगण सर्वश्री संजय द्विवेदी, पुष्पेंद्रपाल सिंह,ड़ा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी शशिकला सहित अनेक शिक्षक, अधिकारी और विद्यार्थी मौजूद थे। अंत में आभार प्रदर्शन प्रदीप डहेरिया ने किया।