शुक्रवार, 14 मार्च 2014

अवसरवाद और परिवारवाद के बीच जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में हो रहे तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारी राजनीति और राजनीतिक दल इससे मुक्त दिखते हैं। उनको किसी भी तरह से नैतिक नियमों में बांधना हमें और आपको निराश ही करेगा। वे गिरते हुए ही स्वाभाविक दिखते हैं।यह गिरावट चौतरफा है। एक नयी पार्टी जिसने आम आदमी को उम्मीदों को पंख लगा दिए थे, उसने भी गिरावट में होड़ सी ले ली है, शायद यह कहते हुए कि हम किसी से कम नहीं। टिकट वितरण से लेकर मतदान तक जिस तरह के खेल होंगें, उन्हें कई बार देखा और परखा गया है। यहां विचारधाराएं और वाद ठिठके हुए खड़े हैं। हर दिन एक नायक एक नई धारा का हिस्सा बन जाता है। पिछले दिन कही गयी बातों और आचरण से ठीक विपरीत बात कहता और आचरण करता हुआ। क्या ये भारतीय राजनीति के सबसे बेचारगी भरे दिन नहीं हैं? क्या ये दिन हमें यह नहीं बताते कि अब हमें राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालना बंद कर देना चाहिए? किसी एक घटना या एक बात से एक आदमी पूरा का पूरा खारिज और एक बेहतर खबर से वह आसमान पर। इस टीवी समय ने मूल्यांकन के ऐसे ही तुरंतवादी रवैये हमें दिए हैं। हम लोटपोट हो जाते हैं या खारिज कर देते हैं। सुनने, सहने, पढ़ने और समझने का अवकाश इतना कम क्यों होता जा रहा है?
  पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हमारे नायक बदलते रहे हैं। कभी मोदी, कभी केजरीवाल तो कभी राहुल गांधी। टीवी को नाटक चाहिए। उसे ड्रामा चाहिए पर क्या समाज को भी ड्रामा चाहिए? या समाज को उस ड्रामे का हिस्सा होना चाहिए? ऐसे सवाल हम सबको मथ रहे हैं। राजनीति कभी इतनी सच्ची और अच्छी नहीं थी किंतु कुछ मूल्य थे, विचार थे, आंदोलन थे और उन सबके साथ कुछ लोग थे, जिन पर समाज भरोसा कर सकता था। इस भरोसे की डोर से बहुत कुछ टूटने से बचा रहता था। लेकिन देखिए सीटों को लेकर भाजपा के प्रथम पंक्ति के नायकों के बीच कैसा हाहाकार, दैन्य और विलाप नजर आया। वानप्रस्थ में भी सीट न छोड़ने के तैयार लोग भी यह कहते हैं कि पाप किया जो संसद में आया। भाजपा के लौहपुरूष ने तो अपने हाथों ही जो रचा उस पर आप सहानुभूति के अलावा क्या जता सकते हैं। कांग्रेस ही अच्छी थी जिसके प्रधानमंत्री बिना कोई लोकसभा टिकट मांगें और किसी की सीट छीने दस साल राज कर गए। यहां नरेंद्र मोदी जी की सीट ही कई चैनलों के लिए दिन-रात का चना-चबैना बन गयी। राजनीति और लोकतंत्र की चुनौतियों के बजाए आला एंकर भी मोदी की सीट पर ज्वलंत विमर्श कर रहे हैं। इधर केजरीवाल के साथ भोजन करने वाले जनतंत्र के प्रेमियों को नागपुर में सिर्फ दस हजार रूपए प्लेट पर भोजन उपलब्ध था। 
अवसरवाद एक विचारधाराः अवसरवाद राजनीतिक क्षेत्र में सबसे बड़ी विचारधारा के नाते उभरा है। मौका देखकर चौका लगाने वालों की बन आई है। सत्ता मिलने की आस हो तो कोई अछूत नहीं रह जाता। भाजपा के साथ खड़े तमाम चेहरों को देखकर आपको सत्ता फेवीकोल की तरह नजर आएगी। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, रामकृपाल यादव,जगदंबिका पाल, भागीरथ प्रसाद, उदयप्रताप राव, बृजभूषण शरण सिंह, वायको और रामदास जैसे तमाम नाम हैं, जिन्हें अचानक भाजपा और उसके नेता मोदी में तमाम सकारात्मक बदलाव नजर आने लगे। इस जूलूस में तमाम पुराने कांग्रेसी, समाजवादी सब शामिल हैं। राजनीति की निर्ममता ही देखिए कि जीवन भर का तप, एक टिकट की बलिबेदी पर चढ़ जाता है। भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रहीं, अटलजी की भतीजी करूणा शुक्ला की बेबसी देखिए वे बिलासपुर से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। मूल्य इस तरह भी शीर्षासन कर रहे हैं। सफलता का मूल्य है, राजनीति में प्रतिशोध के गहरे भाव हैं। ऐसे ही हिंदुस्तानी राजनीति फल-फूल रही है। लोकतंत्र का पर्व सही मायने में किसी बदलाव की सूरते हाल को बताने वाला होने के बजाए अवसरवादियों की प्रतिष्ठा का मंच बन गया है। यहां अवसरवाद एक विचार बनकर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छाया हुआ है। बदलाव और परिवर्तन का दम भरने वाली ताकतें भी यहीं आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। इसलिए चुनाव के बाद कोई क्रांतिकारी परिर्वतन समाज जीवन या राजनीति में देखने को मिलेंगें, सोचना बेमतलब लगता है।

परिवारवाद बना शक्तिः नई पीढ़ी परिवारों से आ रही है। सुविधाओं की कोख से आ रही है और जनसंर्घषों को घता बताकर आ रही है। राजपुत्रों की पूरी एक पीढ़ी पिछले सदन में लोकसभा पहुंची और इस बार भी उसकी बड़ी संख्या में आमद संभावित है। राजनीति का इस तरह घरानों में कैद हो जाना बताता है कि सारा कुछ बहुत सहज नहीं है। देश के लाखों-करोड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष को घता बताकर जब कोई राजपुत्र सत्ता की देहरी पर चढ़ जाता है तो दिल टूटते हैं। किंतु एक समय में कार्यकर्ताओं को परखकर उनका निर्माण करने वाली राजनीतिक परंपराएं भी अपने घरों में से ही उत्तराधिकारी खोज रही हैं। परिवार से बाहर न निकलने वाली राजनीति, आखिर कैसे जनधर्मी हो सकती है ? कैसे वह सरोकारों से जुड़ सकती है? ऐसे में हमारी नयी राजनीतिक जमात के पास जमीन के अनुभव और संघर्ष की कथाएं अनुपस्थित हैं। वे अपने पिता की लंबी छाया में स्थापित जरूर हो जाते हैं किंतु जनता से रिश्ता नहीं बना पाते। परिवारवाद की इस बीमारी से अब सारे दल ग्रस्त हैं। किसी भी दल को यह कहने का अधिकार नहीं बचा है कि वह जनता के बीच से नेतृत्व को विकसित कर रहा है। इसके साथ ही दलों की विचारधारात्मक दूरी समाप्त हो चुकी है। विचारधारा के अंत की भविष्यवाणियों के बीच राजनीतिक दल इसके जीवंत प्रतीक दिखते हैं। दलों की पहचान करने वाले विचार अब नहीं बचे हैं, सिर्फ झंडे बचे हैं जिनसे दलों को अलग किया जा सकता है। ऐसे कठिन समय में आत्मविश्वास से भरे एक राजनेता की तलाश पूरा हिंदुस्तान कर रहा है। जिसका जीवन निष्कलंक हो और उसके मन में एक आग हो। बदलाव और परिर्वतन की वह आग ही इस देश के राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को बदल सकती है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस बदलाव का प्रतीक बनकर उभरे हैं। उनकी सोच और काम करने के तरीके की प्रस्तुति अहंकारजन्य भले दिखती हो किंतु वे युवा भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन सकते हैं। अरविंद केजरीवाल भी एक ऐसे ही प्रतीक बन सकते थे किंतु चीजों का गलत आकलन और सत्ता पाने की हड़बड़ी ने उन पर अविश्वास गहरा किया है। राहुल गांधी एक ऐसी पार्टी के नायक हैं, जिसने पिछले 10 सालों में देश को खासा निराश किया है। ऐसे में उन अकेले के भरोसे हिंदुस्तानी मतदाता छले जाने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कठिन समय में मतदाताओं को इस चुनाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी सरकार चुननी है जो भारत की आकांक्षाओं, उसके सपनों को उसके नजरिए से देख और पूरा कर सके। जनता का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है। लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए यह जरूरी भी है कि जनता इस इम्तहान में दिल से ज्यादा दिमाग से काम ले।

बुधवार, 12 मार्च 2014

इस लहूलुहान लोकतंत्र में!

माओवादी आतंक के सामने सरकारों के घुटनाटेक रवैये से बढ़ा खतरा
-संजय द्विवेदी


वो काली तारीख भूली नही हैं अभी, 25 मई,2013 की शाम जब जीरम घाटी खून से नहा उठी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सहित 30 लोगों की निर्मम हत्या के जख्म अभी भरे नहीं थे कि जीरम घाटी एक बार फिर खून से लथपथ है। 11 मार्च,2014 की तारीख फिर एक काली तारीख के रूप में दर्ज हो गयी, जहां 16 जवानों की निर्मम हत्या कर नक्सली नरभक्षी अपनी जनक्रांति का उत्सव मनाने जंगलों में लौट गए। आखिर ये सिलसिला कब रूकेगा।
    माओवादी आतंकवाद के सामने हमारी बेबसी की हकीकत क्या है? साथ ही एक सवाल यह भी क्या भारतीय राज्य माओवादियों से लड़ना चाहता है? वह इस समस्या का समाधान चाहता है? खून बहाती जमातों से शांति प्रवचन की भाषा, संवाद की कोशिशें तो ठीक हैं किंतु खून का बहना कैसे रूकेगा? किसके भरोसे आपने एक बड़े इलाके की जनता और वहां तैनात सुरक्षा बलों को छोड़ रखा है। माओवाद से लड़ने की जब हमारी कोई नीति ही नहीं है तो कम वेतन पर काम करने वाले सुरक्षाकर्मियों और पुलिसकर्मियों को हमने इन इलाकों में मरने के लिए क्यों छोड़ रखा है? उनकी गिरती लाशों से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे किन्हीं और कामों में लगी हैं। राजनीति और नेताओं  के पास पांच साल की ठेकेदारी के सपनों के अलावा सोचने के लिए वक्त कहां हैं? वे चुनाव से आगे की नहीं सोचते। चुनाव नक्सली जिता दें या बंग्लादेशी घुसपैठिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे खतरनाक समय में भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ घोषित युद्ध लड़ रहे माओवादी विचारकों के प्रति सद्भावना रखने वाले विचारकों की भी कमी नहीं है। उन्हें बहता हुआ खून नहीं दिखता क्योंकि वे विचारधारा के बंधुआ हैं। उन्हें लाल होती जमीन के पक्ष में कुतर्क की आदत है। इसलिए वे नरसंहारों के जस्टीफाई करने से भी नहीं चूकते। जबकि यह बात गले से उतरने वाली नहीं है कि माओवादी जनता के साथ हैं। ताजा मामले में भी हुयी घटना विकास के कामों को रोकने के लिए अंजाम दी गयी है।
   माओवादी नहीं चाहते कि भारतीय राज्य, राजनीति, राजनीतिक दलों की उपस्थिति उनके इलाकों में हो। वे किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक और विकास की गतिविधि से डरते हैं। वे अंधेरा बनाने और अंधेरा बांटने में ही यकीन रखते हैं और सही मायने में भय के व्यापारी हैं। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने जंगलों में अपनी सक्रियता से एक बड़े समाज को भारतीय राज्य के विरूद्ध कर दिया है। जो बंदूकें लेकर हमारे सामने खड़े हैं। किंतु उनकी इस साजिश के खिलाफ हमारी विफलताओं का पाप कहीं बड़ा है। यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता ही है कि माओवादी हमारे बीच इतने शक्तिवान होते जा रहे हैं। हम न तो उनके सामाजिक आधार को कम कर पा रहे हैं न ही भौगोलिक आधार को। यह बात चिंता में डालने वाली है कि जो माओवादी निरंतर भारतीय राज्य को चुनौती देते हुए हमले कर रहे हैं उसके प्रतिकार के लिए हम क्या कर रहे हैं? अकेले छत्तीसगढ़ को लें तो वे 6 अप्रैल,2010 को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। 25 मई,2013 को उनका दुस्साहस देखिए वे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार सहित 30 लोगों की घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं और उसके बाद भी हम चेतते नहीं हैं। देश के 9 राज्य और 88 जिले आज माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं। वर्ष 2013 में 1136 माओवादी आतंक की घटनाएं हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर हमारी सरकारों का रवैया घुटनाटेक ही रहा है। इससे माओवादियों के मनोबल में वृद्धि हुयी है और वे ज्यादा आक्रामक तरीके से सामने आ रहे हैं। यह भी गजब है राजनीति ऐसे तत्वों और अभियानों से लड़ने के बजाए उनको पाल रही है। माओवादियों को सूचना, हथियार और मदद देने वालों में राजनीतिक दलों के लोग शामिल रहे हैं। कई ने तो चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया है। किंतु सवाल यह उठता है जो काम हम पंजाब में कर चुके हैं। आंध्र में कर चुके हैं, पश्चिम बंगाल में ममता कर चुकी हैं, उसे करने में छत्तीसगढ़ में परेशानी क्या है। क्या कारण है सशस्त्र बलों की क्षमता बढ़ाने पर हमारा जोर नहीं है। अब तक सैनिक मरते थे तो सरकारें लापरवाह दिखती थीं। अब जब हमारे बड़े राजनेताओं तक भी माओवादी आतंक पहुंच रहा है, तब राजनीति की निष्क्रियता आशंकित करती है। भारतीय राज्य की दिशाहीनता और कायरता ने ये दृश्य रचे हैं। इसे कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि जब कोई राज्य अपने लोगों की रक्षा न कर सके तो उसके होने के मायने क्या हैं।

   आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे भी हिंसक गतिविधियों को रोकें और अपने लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाएं। जनजातीय समाज इस पूरे युद्ध का सबसे बड़ा शिकार है। वे दोनों ओर से शोषण के शिकार हो रहे हैं। सही मायने में यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता है कि हमने प्रकृति से आच्छादित सुंदर क्षेत्रों को रणक्षेत्र बना रखा है। ये इलाके जहां नीरव शांति, प्रेम, सहजता और सरल संस्कृति के प्रतीक थे आज अविश्वास,छल और मरने-मारने के खेल का हिस्सा बन गए हैं। सच तो यह है कि हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं है वे घटना होने के बयानबाजी के बाद फिर अपने नित्यकर्मों में लग जाती हैं। सही मायने में वे आतंकवाद से लड़ना नहीं चाहती हैं। उनमें इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि वे देश के सामने उपस्थित ज्वलंत सवालों पर बात कर सकें। सरकारों का खुफिया तंत्र ध्वस्त है और पुलिस बल हताश। ऐसे में बस्तर जैसे इलाके एक खामोश मौत मर रहे हैं। यहां दिन-प्रतिदिन कठिन होती जिंदगी बताती है, ये युद्ध रूकने के आसार नहीं हैं। हिंसा और आतंक के खिलाफ खड़े हुए सलवा जूडुम जैसे आंदोलन भी अब खामोश हैं। माओवादी आतंक के खिलाफ एक प्रखर आवाज महेंद्र कर्मा अब जीवित नहीं हैं। माओवाद के खिलाफ इस इलाके में बोलना गुनाह है। कहीं कोई भी दादा लोगों (माओवादियों) का आदमी हो सकता है। पुलिस के काम करने के अपने अजीब तरीके हैं जिसमें निर्दोष ही गिरफ्त में आता है। न जाने कितने निर्दोष माओवादियों के नाम पर जेलों में हैं लेकिन माओवादी आंदोलन बढ़ रहा है क्योंकि सरकारें मान चुकी हैं यह युद्ध जीता नहीं जा सकता है। किंतु इस न जीते जाने युद्ध के चलने तक सरकार कितनी लाशों, कितनी मौतों, कितने जन-धन और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद मैदान में उतरेगी, कहना कठिन है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

चुनावी समर में भाजपा की सोशल इंजीनिरिंग

-संजय द्विवेदी
 देश की हर पार्टी को यह हक है कि वह अपने सामाजिक और भौगोलिक विस्तार के न सिर्फ सपने देखे, बल्कि उसे हकीकत में बदलने के जतन भी करे। राष्ट्रीय रंगमंच पर जैसे-जैसे चुनावी गतिविधियां तेज हो रही हैं, भाजपा में अपने सामाजिक आधार के विस्तार की तड़प साफ दिख रही है। लगभग आधे भारत में अनुपस्थित भाजपा की समस्या यह है कि वृहत्तर हिंदू समाज की रहनुमाई का दम भरने वाली इस पार्टी के छाते के नीचे अभी भी एक बड़ा समाज नहीं है। खासकर दलितों ,आदिवासियों और पिछड़ों के बीच इसे अपनी स्थाई जगह अभी बनानी है। शायद इसी को भांपते हुए पार्टी ने ताबड़तोड़ ऐसे फैसले लिए हैं जिससे एक वातावरण बने कि भाजपा के छाते के नीचे वृहत्तर हिंदू समाज एकत्र तो हो ही रहा है और बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक भी उसके छाते के नीचे आ रहे हैं। पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मुसलमानों से माफी मांगने के बयान को इस रोशनी में देखा जा सकता है।
दलितों की जगहः भाजपा और संघ परिवार की लाख कोशिशों के बावजूद दलित नेतृत्व का अभाव पार्टी को हमेशा महसूस होता रहा है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण सरीखे एकाध नेताओं को छोड़ दें तो भाजपा के दलित नेता राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी जगह नहीं बना पाए। वहीं दूसरे दलों से आए संघप्रिय गौतम जैसे नेता भी भाजपा में उस तरह रच-बस नहीं पाए कि वे दल को कोई शक्ति दे पाते। अब भाजपा ने इसकी तोड़ के लिए एक बार फिर जतन शुरू किए हैं। इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता उदित राज को भाजपा में शामिल कर इस ओर एक बड़ा कदम उठाया है। संजय पासवान जैसे बिहार भाजपा के दलित नेता इस दिशा में निरंतर प्रयास कर रहे हैं। वे बाबा साहेब अंबेडकर से लेकर कांशीराम और जगजीवन राम के चित्र अपने कार्यालय में लगाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा दलितों के सवालों पर गंभीर है। यहां बौद्ध और हिंदु एकता के प्रयास भी देखे जा रहे हैं। जैसे भाजपा शासित मध्यप्रदेश में बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना कर वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक बड़ा कदम उठाया है। जिससे दुनिया भर के बौद्ध धर्मावलंबी देश आकर्षित हुए हैं। बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना सांची(मप्र) में करने का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है। उदित राज भी एक ऐसे नेता हैं जो हिंदु समाज की तमाम रीति-नीति पर सवाल खड़े करते हुए बौद्ध बन गए थे। उनका भाजपा में आना एक संकेत जरूर है कि राजनीति में बदलाव आ रहा है। भाजपा का दिल भी बड़ा हो रहा है और उसमें अन्य विचारों के लिए भी जगह बन रही है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के नेता रामदास आठवले आज राजग गठबंधन के एक बड़े नायक बन चुके हैं। भाजपा ने अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर के स्थान पर उन्हें समर्थन देकर राज्यसभा में भेजा है। जाहिर तौर पर भाजपा की यह उदारता अकारण नहीं है। वह अपने सामाजिक विस्तार की पीड़ा में बहुत से कदम उठाते हुए, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा व्यापक बनने की कोशिशों में लगी है। इसी तरह रामविलास पासवान की पार्टी को सप्रयास राजग में लाना साधारण नहीं है। इस फैसले से बिहार के राजनीतिक समीकरणों में अकेली पड़ी भाजपा को जहां राहत मिलेगी, वहीं दलितों के बीच एक राष्ट्रीय अपील भी बनेगी। इसमें दो राय नहीं कि देश में मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवले और उदितराज ऐसे नाम हैं, जिन्हें दलित नेता के नाते जाना-पहचाना जाता है। इनमें मायावती को छोड़कर तीनों आज राजग और भाजपा के मंच पर हैं।हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई के साथ गठबंधन बना हुआ है। इसी तरह तमिलनाडु में वायको का साथ आना भी भाजपा की राजनीति को सफल बनाता है। जयललिता के तीसरे मोर्चे के मंच पर जाने से भाजपा का अकेलापन तमिलनाडु में वायको निश्चित ही भरने में सफल होंगें। वैसे भी वे वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री का नाराः भाजपा लंबे समय तक पिछड़ों में लोकप्रिय रही है। किंतु 1990 के बाद हुए सामाजिक बदलावों ने भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया। पूरा उत्तर भारत सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बन गया, जिसमें समाजवादी विचारधारा से आने वाले पिछड़े वर्गों के अनेक नेता प्रभावी हो गए।  वहीं रही सही कसर भाजपा के कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे नेताओं की नाराजगी ने पूरी कर दी। इससे सबक लेकर भाजपा ने पहले अपने नाराज नेताओं को मनाया और आज कल्याण सिंह व उमा भारती दोनों पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में पुनः दल में शामिल हो चुके हैं। वहीं उप्र में स्व.सोनेलाल पटेल जो अपना दल बनाकर कुर्मियों में खास आधार रखते थे, की बेटी अनुप्रिया पटेल का समर्थन भाजपा ने हासिल कर लिया है। बिहार में कुशवाहा समाज के प्रमुख नेता  उपेंद्र कुशवाहा का तालमेल भी भाजपा से हो चुका है।इसके साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछड़ा वर्ग से आने के कारण मिलने वाले लाभ पर भी भाजपा की नजर है। मोदी अपने भाषणों में अपनी जाति और काम (चाय बेचना) दोनों की याद दिलाना नहीं भूलते हैं। निश्चित ही इसके अपने अर्थ हैं और यह नाहक कही जा रही बात तो कतई नहीं है। पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उप्र में अजीत सिंह के साथ तालमेल किया था, किंतु सत्ता आते ही वे कांग्रेस के गठबंधन में शामिल हो गए। इस बार भाजपा अपने साथियों के चुनाव में सर्तकता तो बरत रही है किंतु वह इस चुनाव को लेकर खासी गंभीर भी है। दो चुनावों की हार ने उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है, यही कारण है उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मप्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती,कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस येदुरप्पा, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल जैसे तमाम नेताओं को साथ लेकर वह परिवार की एकता और पिछड़ा वर्गों के नेतृत्व की एकजुटता का संदेश देना चाहती है। आज देश में उसके पास कर्ई पिछड़ा वर्ग के नेता हैं जो उसका आधार बढ़ाने में सहायक हैं। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, बिहार के नेता प्रतिपक्ष सुशील कुमार मोदी जैसे चेहरे भाजपा को राहत देते नजर आते हैं। भाजपा की इस सोशल इंजिनियरिंग में अकेले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी शेष हैं। बाकी अपने सारे बागियों को भाजपा अपने मंच पर वापस ला चुकी है। यह साधारण नहीं है कि भाजपा से बगावत करने वाले ज्यादातर बड़े नेताओं में आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के नेता ही शामिल थे। इस पर भाजपा को विश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर वह क्या कारण है कि पार्टी इन वर्गों के नेताओं की शक्ति और जनाधार का सही उपयोग नहीं कर पाती और वे बगावत की सीमा तक चले जाते हैं। कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, प्रहलाद पटेल, वीएस येदुरप्पा, शंकर सिंह बाधेला, केशूभाई पटेल जैसे तमाम नाम इसी परंपरा में आते हैं। भाजपा में मोदी युग का आरंभ होने के बाद एक बार फिर बिखरा भाजपा परिवार एक हो रहा है। देखना है कि यह एकता और नए समीकरण चुनाव को किस तरह प्रभावित करते हैं।