गुरुवार, 15 मई 2014

मीडिया में दिख रहा है किस औरत का चेहरा ?

-संजय द्विवेदी
      मेरे सामने इंडिया टुडे का 18 दिसंबर,2013 का अंक है। जिसकी आवरण कथा एक सेक्स सर्वे पर आधारित है और उसका शीर्षक है- महिलाओं का मन मांगे मोर। एक मुख्यधारा की समाचार पत्रिका में प्रकाशित यह आवरण कथा बताती है कि आखिर स्त्री की तरफ देखने की मीडिया की दृष्टि क्या है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है, उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चैनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। मीडिया ने उदारीकरण के बाद बाजार में एकदम नई औरत उतार दी है, जो आत्मविश्वास से भरी है और तमाम वर्जित क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए उत्सुक है। इस सबके बीच मीडिया की कुछ सकारात्मक भूमिका भी है जो रेखांकित की जानी चाहिए। औरत की एक नई पहचान बनाने और स्थापित करने में उसने एक बड़ी भूमिका निभाई है। सौंदर्य एवं आकर्षण से इतर एक महत्वाकांक्षी और कर्मठ छवि बनाने में मदद की है। महिला अधिकार और स्वतंत्रता के साथ-साथ परिवार के अंदर वह एक निर्णायक भूमिका में नजर आ रही है। महिला उद्ममिता के साथ-साथ समाज में महिलाओं के संघर्ष को भी मीडिया ने स्वर दिया है। किंतु कुछ सकारात्मक पक्षों के साथ उसका महिला को एक सेक्स आब्जेक्ट के रूप में पेश करने का रवैया सबसे खतरनाक है, जो उसके सभी पुण्यकर्मों पर पानी फेर देता है।
दैहिक विमर्शों का वाहकः
      प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेरा रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।  इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चैनलों ने आँधी में बदल दिया है। प्रिंट मीडिया अब इससे होड़ ले रहा है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया । पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण विश्व कप फुटबाल में देखने को मिला। मीडिया रिपोर्ट से ही हमें पता चला कि जर्मनी के तमाम वेश्यालय इसके लिए तैयार थे और दुनिया भर से वेश्याएं वहाँ पहुंचीं। कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते थे मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए। जाहिर है मीडिया ने हर मामले को ग्लोबल बना दिया है।हमारे गोपन विमर्शोंकोओपनकरने में मीडिया का एक खास रोल है। शायद इसीलिए मीडिया के कंधों पर सवार यह सेक्स कारोबार तेजी से ग्लोबल हो रहा है।  महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है । वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं । दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ हैं । ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है ।
बाजार की बाधाएं हटा रहा है मीडियाः
    सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं । इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद उतना नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं । कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती । मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की । उसका विमर्श है-देह जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म, गोलियों की रासलीला जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है । जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है । अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का डै । कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है, जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है। वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि आज भी पत्रकारिता में महिलाओं का प्रतिशत भले बढ़ गया हो किंतु महिला मुद्दों के प्रति संवेदना की बहुत कमी है। अधिकांश महिलाएं पुरूष मानसिकता से भरी हुई हैं, और ऐसी महिलाओं के संवेदना का स्तर अधिक जागरूक नहीं है।”1
    अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देह राग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं । भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए । अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया ।  एलफिन की संपादक रेखा तनवीर कहती हैं कि आज औरत का ग्लैमरस हिस्सा बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है।...औरत को असली रूप में प्रस्तुत करना अभी बाकी है जिससे उसकी पहचान बने।2   पत्रकार कुमकुम शर्मा भी इस बात से एक साक्षात्कार में सहमति दिखाती हैं- वे कहती हैं-मीडिया आज स्त्री की छवि को बहुत विकृत करके परोस रहा है। उनकी पहचान स्त्री देह के नाते बन रही है। औरतें लगातार समझौते कर रही हैं और अपने आप को पहचान नहीं पा रही हैं।”3
     इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं । हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं । कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है । अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमें बिना बात नहीं बनती । कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे मर्दकी आंख का आकर्षण बनें यही पहिला पत्रकारिता का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब लाइफ स्टाइलमें बदल गया है । बाजारवाद के मुख्य हथियार विज्ञापनअब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलता मीडिया एक ऐसी दुनिया रच रहा है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग । इस समूचे परिदृश्य को हम भौंचक होकर देख रहे हैं। लेखिका और उपन्यासकार जया जादवानी लिखती हैं-कौन सी औरत खड़ी है इस स्क्रीन पर –वह जो आइटम गर्ल है, छोटे कपड़े पहनती है, बड़े-बड़े पर्स, हाईहील के शू पहनती है। एक-एक लाख का माल शरीर पर...घर बनाती नहीं, तोड़ती है..। वैसै घरों का जो हाल है, टूट ही जाने चाहिए।...स्त्रियों की मीडिया में सोचनीय भूमिका के लिए सिर्फ मीडिया ही जिम्मेदार है क्या? खुद स्त्री? इस तमाम चेहरों में उसका असली चेहरा कौन सा है? कब आएगी वह मुखौटों के पीछे से अपने वास्तविक रूप में?”4
न हो औरत की शक्ति का बाजारीकरणः
    इन तमाम संकटों के बीच भी स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। प्रख्यात आलोचक विजयबहादुर सिंह लिखते हैं कि-इसमें संदेह नहीं कि मीडिया ने स्त्री केलिए संभावनाओं के सैकड़ों गवाक्ष खोल दिए हैं। ये जितने रूपहले और चमकीले हैं, उतने ही आत्मस्मृतिमूलक(यानी कि अपने को पहचानने की सुविधा प्रदान करने वाले) और आत्मनिखार के मौके देने वाले भी। हम अगर उसे सिर्फ बाजार मान लें,तब भी एक यह गुंजाइश बची ही रहती है कि हम वहां एक प्रतिस्पर्धी उपस्थिति के लिए स्वाधीनता के साथ संघर्षरत रहें। गायन,नृत्य, अभिनय, कला-कौशल की अन्य भूमिकाओं में मीडिया ने स्त्री के लिए लगभग युगान्तर ही उपस्थित  कर दिया है।5
    मीडिया के इस उजले पक्ष की व्यापक उपस्थिति भी दिखती है। टीवी माध्यम के विस्तार ने युवतियों और महिलाओं को एक नई शक्ति दी है। न्यूज रूम जो प्रिंट मीडिया की शाहंशाही में पुरूषों से भरे थे, अब टीवी मीडिया दौर में न्यूज रूम औरतों की उपस्थिति से ही नई पहचान अर्जित कर रहे हैं। टीवी पर दिखने के अलावा उसके पीछे भी स्त्रियों की एक बड़ी शक्ति ही काम कर रही है। मनोरंजन जगत में एकता कपूर जैसे तमाम उदाहरण दिखते हैं तो न्यूज मीडिया में अनुराधा प्रसाद जैसी हस्तियां भी हैं, जो स्वयं कई चैनलों और रेडियो स्टेशनों की मालकिन हैं। बावजूद इसके मीडिया की तरफ देखने की दृष्टि क्या है इसका उल्लेख करते हुए विजयबहादुर सिंह लिखते हैं कि औसत निम्न मध्यवर्गीय और कभी-कभी मध्यवर्गीय दिमाग भी यह सोचा करता है कि मीडिया स्त्रियों के लिए एक संदिग्ध और खतरनाक क्षेत्र है। ऐसे मित्रों से यह कहना जरूरी है शिक्षा और नौकरशाही के क्षेत्र में ये अपवाद पहले से जारी है। फिर स्त्री अब खुद पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रताप्रिय  और आत्मविश्वासी हुयी है। वहीं प्रख्यात लेखिका डा.कमल कुमार का कहना है कि –सेक्स की उन्मुक्त अभिव्यक्ति,स्त्री शरीर के नग्न प्रदर्शन की वृद्धि। इंटरनेट, डिजिटल टेक्नालाजी, मोबाइल,कैमरा, वीडियो पर पोर्नोग्राफी का समर्थन पर हिंसा नहीं तो क्या है ?....भोग विलास और सुख सुविधा को जीवन का लक्ष्य बना देना, सूचनाओं को सत्ता बना देना और बाजार को समाज बना लेने का काम मीडिया कर रहा है। 7
    इसमें दो राय नहीं की नई बाजारवादी व्यवस्था से प्रेरित मीडिया ने औरत की बोली लगानी शुरू की है, उसके भाव बढ़े हैं। सौंदर्य के बाजार कदम-कदम पर सज गए हैं, लेकिन बाजार का यह आमंत्रण, मीडिया के आमंत्रण जैसा नहीं है। दोनों जगहों पर उसकी चुनौतियां अलग हैं। सौंदर्य के बाजार में स्त्री विरोधी परंपराएं और नाजुकता रूप बदलकर बिक रही है, लेकिन मीडिया के मंच पर स्त्री का आमंत्रण उनके दायित्वबोध, नेतृत्वक्षमता और दक्षता का आमंत्रण भी है। जिस भी नीयत से हो, यह आमंत्रण सार्थक बदलाव की उम्मीद जगाता है। भारतीय स्त्री ने इस आमंत्रण को स्वीकारा है भारतीय मीडिया का चेहरा-मोहरा बदलकर रख दिया है। मीडिया में भी अब वे अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार के विरूद्ध भी खड़ी हो रही हैं( प्रसंगःतरूण तेजपाल)।तब महामानव गौतम बुद्ध द्वारा ढाई हजार साल पहले कही गई यह उक्ति के स्त्री होना ही दुःख हैशायद अप्रासंगिक हो जाए और फिर शायद किसी पामेंला बोर्डिस को यह कहने की जरूरत न पड़े कि यह समाज अब भी मिट्टी-गारे की बनी झुग्गी में रहता है।  1990 के बाद आई भूमंडलीकरण और उदारीकरण की आंधी ने सही मायने में भारतीय समाज को सब क्षेत्रों में प्रभावित किया है। मीडिया में प्रवेश कर आई विदेशी पूंजी ने हमारे मीडिया को भी प्रभावित किया। जिसे हमारे समय के श्रेष्ठ संपादक प्रभाष जोशी कभी गुस्से या क्षोभ से आवारा पूंजी भी कहते रहे। भारतीय मीडिया के इस सर्वव्यापी और सर्वग्रासी प्रभाव की ओर समाज भौंचक होकर देख रहा है। इसके व्यापक उठा रहे भारतीय मीडिया में आत्मालोचन की प्रवृत्ति के बावजूद वह सही और सरोकारी विकल्पों की ओर देख नहीं पा रहा है। शायद इसीलिए मीडिया प्राध्यापक मीता उज्जैन को लगता है कि मीडिया में स्त्री की चेहरा है उसके मुद्दे नहीं। अपने लेख में वे लिखती हैं- 90 का दशक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की आंधी के बीच एक नई चुनौती लेकर आया। जहां बाजार ने भारत और इंडिया की विभाजन रेखा को और गहरा कर दिया। वहीं दूसरी ओर महिलाओं को संभावनाओं का नया आकाश प्रदान किया। यह दौर था भारत से विश्वसुंदरियां निकलने का, जिसमें हर क्षेत्र में औरतें अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रही थीं। इसमें उनका आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता दोनों बढ़ते दिख रहे थे।... उदारीकरण ने जहां महिलाओं के लिए नए अवसर दिए वहीं उनके शोषण के रास्ते भी खोल दिए।”8 उदारीकरण के असर ने जहां मीडिया में महिलाओं की भौतिक मौजूदगी को बढ़ा दिया वहीं देखें तो उनके शोषण के अनेक रास्ते भी खोल दिए। इस बात का अध्ययन किया जाना शेष है कि उदारीकरण की इस आंधी के बाद औरतों के खिलाफ जुल्म बढ़े हैं या कम हुए हैं। उनके प्रति अपराध शहरों भी पनप रहे हैं। मुंबई-दिल्ली जैसै शहर भी औरतों के खिलाफ जुल्म ढाते नजर आ रहे हैं। सामूहिक बलात्कार, स्त्री के प्रति हिंसा की खबरों से समाचार माध्यम पटे पड़े हैं। मीता लिखती हैं-इन सारी परिस्थितियों में एक नया प्रश्न खड़ा हुआ है कि महिला या उससे जुड़े मुद्दों की जगह मीडिया में कहां है, किस पेज पर है। मीडिया महिलाओं के चेहरों से सुशोभित है, मगर महिला मुद्दों से मुंह चुराता है।9
   समूचा परिदृश्य बताता है कि मुख्यधारा के मीडिया में स्त्री के सवाल उस तरह से स्थापित नहीं हो सके हैं जिस परिमाण में स्त्री शक्ति का प्रकटीकरण हुआ है। उसके पूरे चरित्र में आज भी एक असंतुलन है। यह एक मीडिया की नाकामी ही है, जिस पर उसे निरंतर आत्मालोचन की जरूरत है।1949 में सिमोन द बोवुआर ने अपनी किताब द सेकंड सेक्स में स्थापना दी थी कि औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है। उनकी बात आज भी प्रासंगिक है क्योंकि हमारे तमाम भौतिक विकास के बावजूद हम मानसिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री को वह जगह नहीं दे पाए हैं जिसकी वह हकदार है। मीडिया भी इससे मुक्त नहीं है क्योंकि वह भी इसी सामाजिक व्यवस्था से खाद-पानी पीकर बनता और प्रभावी होता है।
1.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-217
2.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-222
3.      शुक्ला सुधाः महिला पत्रकारिता,प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन, दिल्ली,पृष्ठ-240
4.      जादवानी जयाः कौन हो तुम पतित पावन पूज्या? मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः19
5.      सिंह विजयबहादुरः एक युगांतर है मीडिया स्त्री के लिएः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः14
6.      वही
7.      कुमार कमलः स्त्री की बहुतेरी छवियाः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक)अक्टूबर-दिसंबर,2009 भोपाल, पृष्ठः10
8.      उज्जैन मीताः यहां स्त्री का चेहरा है, उसके सवाल नहीः मीडिया विमर्श(त्रैमासिक),अप्रैल-जून,2012,पृष्ठः90
9.      वही



लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं तथा मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं।

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