शनिवार, 28 जून 2014

कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी में हैं मोदी के आलोचक !


-संजय द्विवेदी
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनाकांक्षाओं के उस उच्च शिखर पर विराजे हैं जहां से उन्हें नीचे ही आना है। चुनावी सभाओं में उनकी वाणी पर मुग्ध राष्ट्र उन्हें मुक्तिदाता मानकर वोट कर चुका है। किंतु हमें समझना होगा कि यह टीवी समय है। इसमें टीवी को हर दिन एक शिकार चाहिए। टीवी चैनलों को मैदान में गए बिना और कोई खर्च किए बिना बन जाने वाली उत्तेजक टीवी बहसें चाहिए, जो निश्चय ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती और उनका एजेंडा पहले से सेट होता है। इसमें अतिथि वक्ता और एंकर की जुगलबंदियां भी अब दिखने लगी हैं। जाहिर तौर इन बहसों का सबसे आसान शिकार सरकार ही होती है। कल तक जो सत्ता में थे वे इसके शिकार बने और अब नरेंद्र मोदी सरकार इसके निशाने पर है।
   आप देखें तो नरेंद्र मोदी जिन ताकतों के घता बताकर दिल्ली के शासक वर्गों को चुनौती देते हुए वहां पहुंचे हैं। वे आसानी से उन्हें स्वीकार कहां करने वाले हैं। भाजपा और संघ परिवार का संकट यह है कि उनके पास न तो बौद्धिक योद्धाओं की लंबी-चौड़ी जमात है, न ही राजनीतिक-सामाजिक-मीडिया विमर्श को नई राह दिखाने वाले व्याख्याकार। ये व्याख्याकार और टिप्पणीकार वही हैं जिन्हें मोदी और उनकी सरकार पहले दिन से नापसंद है। वे उस सिर्फ उस विचार से नफरत नहीं करते जिसे नरेंद्र मोदी मानते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत धृणा भी है।  शायद इसीलिए सरकार के साधारण फैसलों पर जैसा मीडिया हाहाकार व्याप्त है, वह आश्चर्य में डालता है। नई सरकार भी इससे घबराई हुयी लगती है और उसका प्रबंधन कमजोर नजर आता है। क्या ही अच्छा होता कि रेलभाड़ा बजट में ही बढाया जाता और यदि तुरंत बढ़ाना जरूरी था तो सरकार समूचे तर्कों के साथ जनता के बीच आती और बताती कि रेलवे के आर्थिक हालात यह हैं, इसलिए किराया वृद्धि जरूरी है और किराया बढ़ाने से जो धन आ रहा है उससे सरकार क्या करने जा रही है। नरेंद्र मोदी का सम्मोहन अभी टूटा नहीं है, जनता उनकी हर बात को स्वीकार करती। वे टीआरपी दिलाते हैं, इसलिए उनकी बात जनमाध्यमों से अक्षरशः लोगों को पहुंचती। किंतु मोदी ने भी लंबी खामोशी की चादर ओढ़ ली और लंबे समय बाद एक बयान ट्विटर पर दिया जिसमें समाधान कम तल्खी और दुख ज्यादा था। नरेंद्र मोदी को यह समझना होगा कि वे वास्तव में इस देश के प्रभुवर्गों, शासक वर्गों, वैचारिक दुकानें चलाने वाले बहसबाजों, नामधारी और स्वयंभू बौद्धिकों और टीवी चर्चाओं में मशगूल दिल्लीवालों के नेता नहीं है, वे उन्हें नेता मान भी नहीं सकते क्योंकि मोदी उनकी सारी समझ को चुनौती देकर यहां पहुंचे हैं। मोदी को जनता को प्रधानमंत्री चुन लिया है किंतु यह वर्ग उन्हें मन से स्वीकार नहीं कर पाया है। इसलिए मोदी सही कहते हैं कि उन पर 100 घंटे में हमले तेज हो गए। लोकतंत्र की इस त्रासदी से उन्हें कौन बचा सकता है? जबकि उनके पास सांसदों का संख्या बल और जनसमर्थन तो है किंतु बौद्धिकों का खेमा जो यूपीए-3 के इंतजार में बैठा था, उसे मोदी कहां सुहाते हैं।
   यह सोचना कितना रोमांचक है कि यूपीए-3 की सरकार केंद्र में बन जाती तो उसके नेताओं की देहभाषा और प्रतिक्रिया क्या होती? जिस लूट तंत्र और दंभी शासन को उन्होंने दस साल चलाया और मान-मर्यादाओं की सारी हदें तोड़ दीं, उसके बावजूद वे सरकार बना लेते तो क्या करते? यह सोच कर भी रूहें कांप जाती हैं। किंतु जनता का विवेक सबसे बड़ा है वो टीवी बहसबाजों और बौद्धिक जमातों पर भारी है। जनता के केंद्र में भारत है, उसके लोग हैं, उनका हित है किंतु हमारी बौद्धिक जमातों के लिए उनकी कथित विचारधारा, सेकुलरिज्म का नित्य आलाप, उनकी समाज तोड़क सोच देश से बड़ी है। वे ही हैं जो कश्मीर में देशतोड़कों के साथ खड़े हैं, वे ही हैं जो माओवादी आतंक के साथ खड़े हैं, वे ही हैं जो जातियों,पंथों की जंग में अपने राजनीतिक विचारों को पनपते हुए देखना चाहते हैं, वे ही हैं जो यह मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे इसे अंग्रेजों द्वारा बनाया गया राष्ट्र मानते हैं। इसलिए उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे शब्दों से नफरत है। वे गांधी, लोहिया, दीनदयाल और जयप्रकाश के सपनों का देश बनते नहीं देखना चाहते। उन्हें पता है कि भारत का अगर भारत से परिचय होता है तो उनके समाज तोड़क नकारात्मक विचारों की दूकान बंद हो जाएगी। इसलिए वे मोदी के चुनावी नारे अच्छे दिन आने वाले हैं का मजाक इसलिए बनाते हैं क्योंकि कुछ जरूरी चीजों के दाम बढ़ गए हैं। किसे नहीं पता था कि चुनाव के बाद चीजों के दाम बढ़ेंगें? किसे नहीं पता था कि सरकारों को देश चलाने के लिए कुछ अप्रिय कदम उठाने पड़ते हैं? किसे नहीं पता था कि चुनावी नारे और सरकारें चलाने कि वास्तविकता में अंतर होता है? सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना और अपने रचे नकारात्मक विचारों के संसार में विचरण करने वालों की चिंताओं को छोड़िए। यह भी देखिए कि सरकार के कदम उसकी नीयत कैसे बता रहे हैं। कोई सरकार कैसे काम करेगी, उसके प्राथमिक यह कदम बता देते हैं। मोदी का पहला महीना चीनी, रेलवे भाड़ा बढ़ाने वाला साबित हुआ है किंतु हमें यह भी सोचना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था को अभी लंबी यात्रा तय करनी है। देश का बजट ही उसकी दिशा तय करेगा। वित्तमंत्री अरूण जेतली के बजट का अभी सभी को इंतजार है। उससे ही सरकार के सपनों और उम्मीदों की दिशा तय होगी। इतना तय है कि सरकार की नीयत पर अभी शक नहीं किया जा सकता। मोदी ने जिस तरह प्रधानमंत्री पद संभालते ही काले धन  का पता लगाने के लिए  विशेष जांच दल का गठन किया वह बताता है कि सरकार को अपने संकल्प याद हैं और वह सत्ता पाकर सब कुछ भूल नहीं गयी है। इसके साथ ही मंत्रियों और अपने सांसदों को नियंत्रित करने के लिए, उनके सार्वजनिक व्यवहार व आचरण को ठीक रखने के लिए जो प्रयत्न किए जा रहे हैं वे साधारण नहीं हैं और शायद भारतीय राजनीति में यह पहली बार हैं। पिछली सरकार में प्रधानमंत्री कुछ करने और कहने के पहले को कहीं और से सिग्नल का इंतजार करना पड़ता था। शासक की यह दयनीयता तो मोदी सरकार में शायद ही दिखे।

  कमजोर मानसून को लेकर सरकार की चिंताएं लगातार हो रही बैठकों से व्यक्त हो रही है। यह बात बताती है कि सरकार को अपनी चिंताओं का पूर्व में ही आभास है। कृषि मंत्रालय ने देश के 500 जिलों के लिए आकस्मिक योजना तैयार की है। खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिए राज्यों को तीन माह का वक्त और दिया गया है। इसके साथ ही जमाखोरी को रोकने के लिए राज्यों को त्वरित अदालतें गठित करने को कहा गया है। मोदी सरकार के एक महीने आधार पर उनकी सरकार के बारे में कोई राय बना पाना संभव नहीं दिखता। किंतु जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उन्हें पता है कि मोदी जल्दी ही दिल्ली को समझ जाएंगें और सत्ता के सूत्रों को पूरी तरह नियंत्रण में ले लेगें। गुजरात जैसे छोटे राज्य में शासन करना और दिल्ली की सरकार चलाना दोनों एक ही चीज नहीं हैं। संघीय ढांचे में केंद्र की ज्यादातर योजनाओं का क्रियान्वयन राज्यों की मिशनरी ही करती है। जाहिर तौर पर मोदी राज्यों को विश्वास में लेकर एक वातावरण बना रहे हैं, जो विकास और सुशासन की ओर जाता हुआ दिखता है। एक ऐसे समय में जब देश निराश-हताश हो चुका था, दिल्ली की राजसत्ता पर मोदी का आना निश्चय ही नई सरकार के साथ ढेर सारी अपेक्षाओं को बढ़ाता है। जाहिर तौर पर यह यूपीए-3 नहीं है, इसलिए इससे उम्मीदें ज्यादा हैं और यह आशा भी है कि कम से कम यह सरकार भ्रष्ट और जनविरोधी नहीं होगी। इतना तो देशवासी भी मानते हैं कि यह सरकार फैसले लेने वाली और सपनों की ओर दौड़ लगाने वाली सरकार होगी। यह भी अच्छा ही है कि नरेंद्र मोदी के आलोचक इतने सशक्त हैं कि वे उन्हें भटकने भी नहीं देंगें।

रविवार, 22 जून 2014

स्त्रियों के खिलाफ बुरी खबरों का समय



-संजय द्विवेदी

  यह शायद बेहद खराब समय है, जब औरतों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की खबरें रोजाना हमें हैरान कर रही हैं। भारत में औरतों के खिलाफ हो रहे ये अत्याचार बताते हैं कि प्रगति और विकास के तमाम मानकों को छू रहे इस देश का मन अभी भी औरत को एक खास नजर से ही देखता है। स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विस्तार अभी न समाज में हुआ है, न पुलिस में, न ही परिवारों में। सोचने का विषय यह भी है कि नवरात्रि के साल में दो बार आने वाले पर्व में कन्या पूजन करने वाला समाज स्त्री के प्रति इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है? इसके साथ ही घरेलू हिंसा का एक अलग संसार है, जहां परिजन और रक्त संबंधी ही स्त्री के खिलाफ अत्याचार करते हुए दिखते हैं।
   स्त्री के खिलाफ हो रही हिंसा में स्त्री की भी उपस्थिति चौंकाने वाली है। यानि स्त्री भी अपने ही वर्ग के खिलाफ हो रही हिंसा में उसी उत्साह से शामिल है जैसे पुरूष। यह देखना और सुनना दुखद है किंतु सच है कि स्त्री के खिलाफ हिंसा की जड़ें समाज में बहुत गहरी जम चुकी हैं। आर्थिक स्वालंबन और प्रतिकार कर रही स्त्री के इस अनाचार के विरूद्ध खड़े होने से ये मामले ज्यादा संख्या में सामने आने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त कोमलता और कमजोरियों के नाते स्त्री के खिलाफ समाज का इस तरह का रवैया ही था, जिसके नाते सरकार को घरेलू हिंसा रोकथाम के लिए 2006 में एक कानून लाना पड़ा। इसके बाद दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने सारे देश को झकझोरकर रख दिया। इस बीच बदांयू और उप्र के अनेक स्थानों से बेहद शर्मनाक खबरें आईं। निर्ममता और वहशियत की ये कहानियां बताती है समाज आज भी उसी मानसिकता में जी रहा है जहां औरतें को इस्तेमाल की वस्तु समझा जाता है। हम देखें तो हमारे पूरे परिवेश में ही स्त्री को एक कमोडिटी की तरह स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं। मनोरंजन, फिल्मों और विज्ञापनों की दुनिया में ये सच्चाई और नंगे रूप में सामने आती है। जहां औरतें एक वस्तु की तरह उपस्थित हैं। उन्हें सेक्स आब्जेक्ट की तरह प्रस्तुत करने पर जोर है। वे विज्ञापनों में ऐसी वस्तुएं भी बेचती नजर आ रही हैं जिसका वे स्वयं इस्तेमाल नहीं करतीं। रूपहले स्क्रीन के बाजार में उतरी इस बोल्ड-बिंदास-लगभग निर्वसन स्त्री ने, समाज में रह रही स्त्री का जीना मुहाल कर दिया है।

   पल-पल सजे बाजार में उपस्थित स्त्री के सपने और उसकी दुनिया को इस समय ने बेहद सीमित कर दिया है। उसके लिए अवसर बढ़े हैं, किंतु सुरक्षा घट रही है। वह चमकते परदे पर बेहद शक्तिशाली दिखती है, किंतु उसके घर पहुंचने तक चिंतांएं उतनी ही गहरी हैं, जितनी पहले हुए करती थीं। द सेंकेंड सेक्स की लेखिका सिमोन लिखती हैं कि स्त्री बनती नहीं है, उसे बनाया जाता है। जाहिर है सिमोन के समय के अनुभव आज भी बदले नहीं हैं। बदलते समय ने स्त्री को अवसरों के तमाम द्वार खोले हैं, किंतु उसकी तरफ देखने का नजरिया अभी बदलना शेष है। आवश्यक्ता इस बात की है कि हम परिवार से ही इसकी शुरूआत करें। पितृसत्ता की निर्मम छवियों से मुक्त हमें एक ऐसा समाज बनाने की ओर बढ़ना है जहां स्त्री को समान अवसर और समान सम्मान हासिल हैं। तमाम परिवारों में नारकीय जीवन जी रही स्त्रियां हैं, वैसा ही सीखते युवा हैं। बदलती दुनिया में औरतें हर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं साबित कर चुकी हैं। वे कठिन कामों को अंजाम दे रही हैं और कहीं भी पुरूषों से कमतर नहीं हैं। शैक्षणिक परिणामों से लेकर मैदानी कामों में उनका हस्तक्षेप कहीं भी अप्रभावी नहीं है। वे जिम्मेदार,कुशल, ज्यादा संवेदनाओं से युक्त और ज्यादा मानवीय हैं। परिवारों में आज स्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की क्षमता और उसकी संवेदना को आदर मिल रहा है, वे अवसर पाकर आकाश नाप रही हैं। तमाम परिवारों में अकेली लड़की पैदा करके पुत्र न करने के फैसले भी लिए हैं। यह बदलती दुनिया का एक चेहरा है। किंतु हमें देखना होगा कि एक बहुत बड़ा समाज आज भी अंधेरे में हैं। वह अपनी बनी-बनी धारणाओं को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। जहां आज भी पुत्री के जन्म पर दुख के बादल छा जाते हैं। स्त्री को सम्मान नहीं हैं और उसे ही पहला शिकार बनाया जाता है। मध्ययुगीन बर्बरता के निशान आज भी हमारे मनो में हैं। इसलिए हम स्त्री को सबसे पहले और आसान निशाना बनाते हैं, क्योंकि वह कमजोर तो है ही, घर की इज्जत भी है। प्रतिष्ठा से जुड़े होने के नाते तमाम क्षेत्रों में आपसी रंजिशों में भी पहला शिकार औरत को बनाया जाता है। इसलिए लगता है कि एक मानवीय समाज बनाने और औरतों के प्रति संवेदना भरने में हम विफल ही रहे हैं। यहां अंतर गांव और शहर का नहीं समझ और मान्यताओं का भी है। गांवों में भी आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगें जहां स्त्रियों को बेहद सम्मान से देखा जाता है और फैसलों में वे ही निर्णायक होती हैं। शहरों में भी ऐसे परिवार मिलेंगें जहां औरतें कोई मायने नहीं रखतीं हैं। हमें यह भी समझना होगा कि स्त्री का सशक्तिकरण पुरूष के विरूद्ध नहीं है। पुरूषों के सम्मान के विरूद्ध नहीं है, वरन वह समाज के पक्ष में है। परिवार और समाज को चलाने की एक धुरी स्त्री है तो दूसरा पुरुष है। दोनों के समन्वित सहभाग से ही एक सुंदर समाज की रचना हो सकती है। स्त्रियों ने इस समय में अपनी शक्ति को पहचान लिया है। वे बेहतर कर रही हैं और आगे आसमां छूने की कोशिशों में हैं। यहां भी पुरूष सत्ता चोटिल होती हुयी लगती है। उसके प्रति सम्मान और संवेदनशीलता के बजाए, किस्से बनाने और उसे कमतर साबित करने की कोशिशें हर स्तर हो रही हैं। तेज होते सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के इस दौर में सिर्फ कानून ही स्त्री के साथ खड़े हैं। कई जगह तो स्त्रियां भी, स्त्रियों के खिलाफ खड़ी हैं। यह एक संक्रमण काल है, स्त्री को अपने वजूद को साबित करते हुए निरंतर आगे बढ़ने का समय है। वह जीत रही है और आगे बढ़ रही है। अपने सपनों में रंग भर रही है। आसान शिकार होने के नाते कुछ शिकारी उसकी घात में हैं किंतु आज की औरत इससे डरती नहीं, घबराती नहीं, वह बने-बनाए कठघरों को तोड़कर आगे आ रही है। मीडिया, महिला आयोग, पुलिस और सरकार सहित तमाम स्वयंसेवी संगठन रात दिन इस काम में लगे हैं कि कैसे औरतें ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा अधिकार सम्पन्न हों। यह काम अगर इनके बस का होता तो हो गया होता, सबसे जरूरी है परिवारों में बच्चों को सही संस्कार। वे घर से औरतों का सम्मान करना सीखें। वे अपनी बहन-मां का आदर करना सीखें। वे यह देख पाएं कि उनके पिता और मां दोनों बराबरी के हैं, कोई किसी से कम नहीं हैं। वे परिवार की धुरी हैं। वे यह भी सीखें की कि हमारी संस्कृति में कन्या पूजन जैसे विधान क्यों रखे गए हैं? क्योंकि हमारी सभी विद्याओं की मालिका देवियां हैं? क्यों हम दुर्गा से शक्ति, सरस्वती से बुद्धि और लक्ष्मी से वैभव की मांग करते हैं? क्यों हमें यह पढ़ाया और बताया गया कि जहां स्त्रियां की पूजा होती है देवता वहीं निवास करते हैं। जाहिर तौर पर संस्कृति का हर पाठ स्त्री के सम्मान और उसकी शुचिता के पक्ष में है, किंतु जाने किन प्रभावों में हम अपनी ही सांस्कृतिक मान्यताओं और संदेशों के खिलाफ खड़े हैं। स्त्री को आदर देता समाज ही एक संवेदनशील और मानवीय समाज कहा जाएगा।अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपनी महान संस्कृति पर गर्व करने का अभिनय और ढोंग बंद कर देना चाहिए।

सोमवार, 16 जून 2014

लंबे समय के बाद एक सरकार!


-संजय द्विवेदी
       हिंदुस्तानी मन की आकांक्षाएं बहुत अलग हैं। वह बहुत कम प्रतिक्रिया करके भी ज्यादा कहता है। 2014 के चुनाव इस बात की गवाही देते हैं कि जनता के मन में चल रही हलचलों का भान हमें कहां हो पाया। हम सब सेकुलरिज्म की ढोल बजाते रहे और ऐसे लोग सरकार में आ गए जिनके सेकुलर होने पर लगभग सभी राजनीतिक दलों को सामूहिक शक है। तो क्या देश की जनता अब सेकुलर नहीं रही? या उसकी पंथनिरपेक्षता को एक संकल्प नहीं, बल्कि राजनातिक नारे के रूप में इस्तेमाल करने वालों को उसने पहचान लिया है। उसने जता दिया कि काम कीजिए तभी भरोसा बनेगा और तभी आपकी राजनीति चलेगी। सिर्फ नारे पर अब वोट बरसने वाले नहीं हैं। ये भरोसा तब और गहरा होता है जब नवीन पटनायक (उड़ीसा), जयललिता (तमिलनाडु) और ममता बनर्जी (बंगाल) जैसे नेताओं की जमीन बनी रहती है, किंतु तमाम भूमिपुत्रों के पैर जमीन से उखड़ जाते हैं।
   एक सक्षम विकल्प बनी भाजपा के लिए भी संदेश साफ हैं कि सारा कुछ नारों से हासिल नहीं हो सकता। विकास-सुशासन और नकली पंथनिरपेक्षता नारों की स्पर्धा के बीच लोगों ने विकास-सुशासन को जगह दी है। लोग उम्मीद से खाली नहीं हैं। एक राजनेता के तौर नरेंद्र मोदी ने फिर एक हारे हुए देश की उम्मीदों को जगा दिया है।  आप अन्ना हजारे के आंदोलन में रामलीला मैदान में जमे लोगों को याद कीजिए। उनकी भाषा को सुनिए- मध्यवर्ग के वे चेहरे किस तरह राजनीति और राजनेताओं से खिसियाए हुए थे। किस तरह वे हमारी राजनीति और संसद के खिलाफ एकजुट थे। संसद और सरकार मिमिया रही थी। वक्त की उस तारीख ने आज काफी कुछ बदल दिया है। राजनेताओं के प्रति घृणा का स्तर, एक अकेले नेता ने कम कर दिया है। आज लोगों का जनतंत्र पर भरोसा बढ़ा है तो राजनीतिक नेतृत्व पर भी। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति लोकधृणा का वह स्तर आज नहीं है। इसके लिए निश्चय ही देश के राजनेताओं को रामलीला मैदान के दृश्यों को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी को बधाई देनी चाहिए। यह बात बताती है कि कम काम और कम सफलताओं के बावजूद अगर आपके जीवन और मन में सच्चाई है। आप ईमानदार प्रयत्न करते हुए भी दिखते हैं तो लोग आपको सिर-माथे बिठाते हैं। किंतु जब आप अहंकार भरी देहभाषा से जनतंत्र में जनता को प्रजा समझने की भूल करते हैं, तो वह भारी पड़ती है।
संवाद से सार्थक होता जनतंत्रः
सत्ताधीशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे संवाद से भागते हैं। जनता के सवालों पर बातचीत करने के बजाए असुविधाजनक प्रश्नों से वे बचना चाहते हैं। पिछली सरकार ने इसी संवादहीनता के फल अर्जित किए हैं। वहां खामोशी एक रणनीति की तरह इस्तेमाल की जा रही थी। सरकार के मुखिया खामोश थे तो शेष पार्टी नेतृत्व दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने में व्यस्त था। असुविधाजनक सवालों पर गहरी और लंबी चुप्पी उनकी रणनीति बन गयी थी। यूपीए के दुबारा चुनाव जीतने के बाद यह चुप्पी, अहंकार में बदल गयी। पांच साल तक जनता द्वारा दी गयी सत्ता को जागीर मानने की भ्रम भी पैदा हुआ। रामलीला मैदान के सभी प्रतिरोधों में सरकार का जवाब यही होता था कि हमें पांच साल का जनादेश मिला है। जनादेश को जागीर और उपनिवेश में बदलने की शैली भारी पड़ी। कांग्रेस की त्यागमूर्ति अध्यक्षा ने प्रधानमंत्री का पद तो चाहे-अनचाहे छोड़ दिया किंतु सत्ता के मोह से वे बच नहीं पाईं। भरोसा न हो तो संजय बारू की किताब जरूर देखिए। सत्ता पर नाजायज नियंत्रण और जनता से संवादहीनता दोनों ही खबरें हवा में रहीं और समय ने इसे सच साबित किया। नरेंद्र मोदी यहीं बाजी मार ले गए। वे जनता के बीच रहे और संवाद में कोई कमी नहीं की। लगातार बातचीत करते हुए मोदी ने जनता के दिलों में उतरकर वो उम्मीदें जगा दीं, जिनके इंतजार में लोग लंबे अरसे से प्रतिक्षारत थे। संवाद की शैली, संचार माध्यमों के सही इस्तेमाल ने उन्हें नायक से महानायक बना दिया।
सपनों के सौदागरः
इस पूरे दौर में नरेंद्र मोदी सपनों के सौदागर की तरह प्रकट हुए हैं। हताश-निराश देश और उम्मीद तोड़ती राजनीतिक धाराओं के बीच वे एक नई और ताजा विचारधारा तथा एक ठंडी हवा के झोंके की तरह हैं। भारत जैसे महादेश को संभालने और उससे संवाद करने के लिए उनके पीछे एक चमकदार अतीत है। संघर्ष है और त्याग से उपजी सफलताएं हैं। जनमानस के बीच वे एक ऐसे धीरोदात्त नायक की तरह स्थापित हैं, जो बदलाव ला सकता है। परिवारवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी राजनीति के पैरोकारों के लिए वे सचमुच एक चुनौती की तरह हैं। उनकी वाणी और कृति में बहुत कुछ साम्य दिखता है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। उन्होंने गुजरात दंगों के लिए माफी न मांगकर और टोपी पहनने के सवाल पर जो स्टैंड लिया है वह बताता है कि वे इस नकली राजनीति में एक असली आदमी हैं। सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करने वाले मोदी, अगर जाति-धर्म के बंटवारे से अलग सबको एक मानने की बात कर रहे हैं तो उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी। यह पारंपरिक राजनीति से अलग है और अच्छा भी। कश्मीर जैसे संवेदनशील सवालों पर कश्मीर पंडितों को उनकी जमीन पर वापस ले जाने की पहल एक नई तरह की शुरूआत है। अपने शपथ ग्रहण से लेकर भूटान यात्रा तक जो भी संदेश उन्होंने दिए हैं वह एक बेहतर शुरूआत तो है ही। इसके अलावा सांसदों-मंत्रियों को निजी स्टाफ में रिश्तेदारों को न रखने की हिदायत, है तो छोटी पर इसके मायने बहुत बड़े हैं। राजनीतिक क्षेत्र में आज मोदी का कद अपने समतुल्य नेताओं में सबसे बड़ा है तो इसके पीछे उनके सुनियोजित प्रयास,निजी ईमानदारी,कर्मठता और निरंतर कुछ करते रहने की भावना ही है। वे सही मायने में एक ऐसे राजनेता हैं जो परिवारवाद की राजनीति को घता बताकर मैदान में उतरा है।
सुशासन नारा नहीं एक संकल्पः

जिसके लिए सुशासन एक नारा नहीं पवित्र संकल्प है। उसने देश की नौकरशाही को शक्ति देने की बात कही ताकि वे तेजी से फैसले ले सकें। राजनीति में पारदर्शिता और संवाद से ही वे आगे बढ़ने की सोचते हैं। ऐसा व्यक्ति कोई भी हो, लोगों का दुलारा बन जाता है। वे सिर्फ नायक हैं नहीं, नायक सरीखा आचरण भी कर रहे हैं। देश की जनता बहुत भावुक है। लंबी गुलामी ने उसके मन में यह बैठा दिया है कि केंद्र कमजोर होगा, शासक कमजोर होगा तो देश टूट जाएगा। इस निराशाजनक समय में मोदी को लाकर जनता ने एक मजबूत केंद्र और मजबूत शासक देकर दरअसल अपने मन में पल रहे अज्ञात भयों से मुक्ति पायी है। उसे अब सेकुलरिज्म के बदले अराजकता, सार्वजनिक धन की लूट, वंशवाद की लहलहाती बेलें नहीं चाहिए- उसे एक ऐसा भारत चाहिए जिसमें सम्मान,सुरक्षा,रोजगार और आर्थिक प्रगति के अवसर हों। नरेंद्र मोदी जब अपनी सरकार को गरीबों को समर्पित करते हैं तो इसके मायने बहुत अलग हैं। वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के हालात क्या हैं। इनके बरबाद होने के मायने क्या हैं। वे यह भी जानते हैं कि गरीब आदमी के हक में कोई खड़ा है तो वह सिर्फ सरकार है। इसलिए सरकारी तंत्र को अपेक्षित संवेदना से युक्त करना जरूरी है। सरकारी तंत्र की संवेदनशीलता ही इस जनतंत्र की जड़ों को मजबूती देगी। संसाधनों की लूट में लगी कंपनियों और रोज और विकराल होती गैरबराबरी के बीच भी उम्मीदों का एक दिया टिमटिमा रहा है कि आखिर कभी तो हम अपने लोकतंत्र को न्यायपूर्ण और संवेदनशील होता देख पाएंगें। एक सक्षम सरकार को लगभग तीन दशक बाद पाकर लोगों में आशाएं जगी हैं। राजनीति से भी कुछ बदल सकता है, यह भरोसा भी जगा है। लोगों की आशाएं पूर्ण हों इसके लिए सरकार के साथ आम लोगों को भी अपनी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ानी होगी। समाज एक दंडशक्ति के रूप में, निगहबानी के लिए सरकारी तंत्र पर नजर रखे तभी जनतंत्र अपने को सार्थक होता हुआ देख पाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए आमजन भी चुनाव के बाद अपने कठघरों में बंद होने के बजाए सरकार और उसके तंत्र पर चौकस निगाहें रखेंगें। 

गुरुवार, 12 जून 2014

कापी के मास्टर

                             


                          -         संजय द्विवेदी

हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता की तरह कापी संपादन का बहुत रिवाज नहीं है। अपने लेखन और उसकी भाषा के सौंदर्य पर मुग्ध साहित्यकारों के अतिप्रभाव के चलते हिंदी पत्रकारिता का संकोच इस संदर्भ में लंबे समय तक कायम रहा। जनसत्ता और इंडिया टुडे (हिंदी) के दो सुविचारित प्रयोगों को छोड़कर ये बात आज भी कमोबेश कम ही नजर आ रही है। वैसे भी जब आज की हिंदी पत्रकारिता भाषाई अराजकता और हिंग्लिश की दीवानी हो रही है ऐसे समय में हिंदी की प्रांजलता और पठनीयता को स्थापित करने वाले संपादकों को जब भी याद किया जाएगा, जगदीश उपासने उनमें से एक हैं। वे कापी संपादन के मास्टर हैं। भाषा को लेकर उनका अनुराग इसलिए और भी महत्व का हो जाता है कि मूलतः मराठीभाषी होने के नाते भी उन्होंने हिंदी की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका इंडिया टुडे को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। 
   जनसत्ता, युगधर्म, हिंदुस्तान समाचार जैसे अखबारों में पत्रकारिता करने के बाद जब वे इंडिया टुडे पहुंचे तो इस पत्रिका का दावा देश की भाषा में देश की धड़कन बनने का था। समय ने साबित किया कि इसे इस पत्रिका ने सच कर दिखाया। छत्तीसगढ़ के बालोद और रायपुर शहर से अपनी पढ़ाई करते हुए छात्र आंदोलनों और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े जगदीश उपासने ने विधि की परीक्षा में गोल्ड मैडल भी हासिल किया। अखिलभारतीय विद्यार्थी परिषद, मप्र के वे प्रमुख कार्यकर्ताओं में एक थे। आपातकाल के दौरान वे तीन माह फरार रहे तो मीसा बंदी के रूप में 16 महीने की जेल भी काटी ।उनके पिता और माता का छत्तीसगढ़ के सार्वजनिक जीवन में खासा हस्तक्षेप था। मां रजनीताई उपासने 1977 में रायपुर शहर से विधायक भी चुनी गयी। उनके छोटे भाई सच्चिदानंद उपासने आज भी छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। राजनीतिक परिवार और एक खास विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता में अपेक्षित संतुलन बनाए रखा। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को एक ऐसी भाषा दी जिसमें हिंदी का वास्तविक सौंदर्य व्यक्त होता है।
  उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया है जिनमें दस खंडों में प्रकाशित सावरकर समग्र काफी महत्वपूर्ण है। टीवी चैनलों में राजनीतिक परिचर्चाओं का आप एक जरूरी चेहरा बन चुके हैं। गंभीर अध्ययन, यात्राएं, लेखन और व्याख्यान उनके शौक हैं। आज जबकि वे मीडिया में एक लंबी और सार्थक पारी खेल कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नोयडा परिसर के प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं तो भी वे रायपुर के अपने एक वरिष्ठ संपादक दिगंबर सिंह ठाकुर को याद करते हैं, जिन्होंने पहली बार उनसे एक कापी तीस बार लिखवायी थी। वे प्रभाष जोशी, प्रभु चावला और बबन प्रसाद मिश्र जैसे वरिष्ठों को अपने कैरियर में दिए गए योगदान के लिए याद करते हैं, जिन्होंने हमेशा उन्हें कुछ अलग करने को प्रेरित किया।


बुधवार, 11 जून 2014

अच्युतानंद मिश्र -एक असली आदमी


                                  -संजय द्विवेदी
हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण संपादक, पत्रकार, लेखक, पत्रकार संगठनों के अगुआ, शिक्षाविद्, आयोजनकर्ता, और सामाजिक कार्यकर्ता जैसी अच्युतानंद मिश्र की अनेक छवियां हैं। उनकी हर छवि न सिर्फ पूर्णता लिए हुए है वरन् लोगों को जोड़ने वाली साबित हुयी है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानव की सहज कमजोरियां भी उनके आसपास से होकर नहीं गुजरी हैं। राग-द्वेष और अपने- पराए के भेद से परे जैसी दुनिया उन्होंने रची है उसमें सबके लिए आदर है, प्यार है, सम्मान है और कुछ देने का भाव है। देश के आला अखबारों जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, लोकमत समाचार के संपादक के नाते उन्हें हिंदी की दुनिया ने देखा और पढ़ा है।

  6 मार्च, 1937 को गाजीपुर के एक गांव में जन्मे श्री मिश्र पत्रकारों के संघर्षों की अगुवाई करते हुए संगठन को शक्ति देते रहे हैं तो एक शिक्षाविद् के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते उन्होंने पत्रकारिता शिक्षा और शोध के क्षेत्र में नए आयाम गढ़े। स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता पर शोध परियोजना के माध्यम से उन्होंने जो काम किया है वह आने वाली पीढियों के लिए एक मानक काम है, जिसके आगे चलकर और भी नए रास्ते निकलेंगें। लोगों को जोड़ना और उन्हें अपने प्रेम से सींचना, उनसे सीखने की चीज है। उनके जानने वाले लोगों से आप मिलें तो पता चलेगा कि आखिर अच्युतानंद मिश्र क्या हैं। वे कितनी धाराओं, कितने विचारों, कितने वादों और कितनी प्रतिबद्धताओं के बीच सम्मान पाते हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर उठता है। उनका कवरेज एरिया बहुत व्यापक है, उनकी मित्रता में देश की राजनीति, मीडिया और साहित्य के शिखर पुरूष भी हैं तो बेहद सामान्य लोग और साधारण परिवेश से आए पत्रकार और छात्र भी। वे हर आयु के लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। उनके परिधानों की तरह उनका मन, जीवन और परिवेश भी बहुत स्वच्छ है। यह व्यापक रेंज उन्होंने सिर्फ अपने खरे पन से बनाई है, ईमानदारी भरे रिश्तों से बनाई है। लोगों की सीमा से बाहर जाकर मदद करने का स्वभाव जहां उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है, वहीं रिश्तों में ईमानदारी उनके खांटी मनुष्य होने की गवाही देती है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। इस बेहद चालाक और बनावटी समय में वे एक असली आदमी हैं। अपनी भद्रता से वे लोगों के मन, जीवन और परिवारों में जगह बनाते गए। खाने-खिलाने, पहनने-पहनाने के शौक ऐसे कि उनसे हमेशा रश्क हो जाए। जिंदगी कैसे जीनी चाहिए उनको देख कर सीखा जा सकता है। डायबिटीज है पर वे ही ऐसे हैं जो खुद न खाने के बावजूद आपके लिए एक-एक से मिठाईंयां पेश कर सकते हैं। उनका आतिथ्यभाव,स्वागतभाव, प्रेमभाव मिलकर एक अहोभाव रचते हैं।  

ह्रदयनारायण दीक्षितः प्रखर राष्ट्रवादी स्वर

                                     


                                        - संजय द्विवेदी

वे हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रवाद का सबसे प्रखर स्वर हैं। दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा समेत देश के अनेक प्रमुख अखबारों में उनकी पहचान एक प्रख्यात स्तंभलेखक की है। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर चल रही उनकी कलम के मुरीद आज हर जगह मिल जाएंगें। उप्र के उन्नाव जिले में जन्में श्री ह्दयनारायण दीक्षित मूलतः एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उनका सार्वजनिक जीवन और पत्रकारिता एक दूसरे ऐसे घुले-मिले हैं कि अंदाजा ही नहीं लगता कि उनका मूल काम क्या है। उनका सार्वजनिक जीवन उन्नाव जिले की सामाजिक समस्याओं, जनसमस्याओं से जूझते हुए प्रारंभ हुआ। वे अपने जिले में पुलिस अत्याचार, प्रशासनिक अन्याय लेकर लगातार आंदोलनरत रहे। इसी ने उन्हें राज्य की राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बना दिया। जनता के प्रति यही संवेदनशीलता उनके पत्रकारीय लेखन में भी झांकती है।

    सन् 1972 में जिला परिषद, उन्नाव के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ करने वाले श्री दीक्षित आपातकाल के दिनों में 19 महीने जेल में भी रहे। उप्र की विधानसभा में लगातार चार बार चुनाव जीतकर पहुंचे। राज्यसरकार में पंचायती राज और संसदीय कार्यमंत्री भी रहे। इन दिनों विधानपरिषद के सदस्य और भाजपा की उप्र इकाई में उपाध्यक्ष हैं। उनके पत्रकारीय जीवन पर एक पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। 1978 में उन्होंने कालचिंतन नाम से एक पत्रिका निकाली। जिसे  2004 तक चलाया। इसके साथ ही राष्ट्रवादी विचारधारा के अखबारों-पत्रिकाओं पांचजन्य और राष्ट्रधर्म में लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। आज तो वे देश के सबसे बड़े हिंदी अखबार दैनिक जागरण के नियमित स्तंभलेखक हैं। अब तक उनके चार हजार से अधिक लेख अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा के लेखक होने के नाते उनके सामने तमाम ऐसे सवाल जो मुख्यधारा की मीडिया को असहज लगते हैं उनपर भी उन्होंने खूब लिखा। उन्होंने उस दौर में राष्ट्रवादी पत्रकारिता का झंडा उठाया, जब इस विचार को मुख्यधारा की पत्रकारिता में बहुत ज्यादा स्वीकृति नहीं थी। दीनदयाल उपाध्याय पर लिखी गयी उनकी किताब-भारत के वैभव का दीनदयाल मार्गतथा दीनदयाल उपाध्यायः दर्शन, अर्थनीति और राजनीति खासी चर्चा में रही। इसके अलावा भगवदगीता पर भी उनकी एक किताब को सराहा गया। उनकी किताबसांस्कृतिक राष्ट्रदर्शन भारतीय राष्ट्रवाद के मूलस्रोत,विकास, राष्ट्रभाव और राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्वों का विवेचन करती है। अब तक दो दर्जन पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और उसकी समाजोपयोगी भूमिका का ही आपने रेखांकन किया है। संसदीय परंपराओं और राजनीतिक तौर-तरीकों पर उनका लेखन लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती देने वाला है। एक लोकप्रिय स्तंभकार के नाते मध्य प्रदेश सरकार ने उनके पत्रकारीय योगदान को देखते हुए उन्हें गणेशशंकर विद्यार्थी सम्मान से अलंकृत किया। इसके अलावा राष्ट्रधर्म पत्रिका की ओर से भी उनको भानुप्रताप शुक्ल पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।  

शनिवार, 7 जून 2014

सोशल मीडिया जिसका है नाम !


सामाजिक परिवर्तन और बदलाव की संभावनाओं का प्रेरक है यह माध्यम
-संजय द्विवेदी
   भारतीय समाज में किसी नए प्रयोग को लेकर इतनी स्वीकार्यता कभी नहीं थी, जितनी कम समय में सोशल मीडिया ने अर्जित की है। जब इसे सोशल मीडिया कहा गया तो कई विद्वानों ने पूछा अरे भाई क्या बाकी मीडिया अनसोशल है? अगर वे भी सामाजिक हैं,तो यह सामाजिक मीडिया कैसे? किंतु समय ने साबित किया कि यह वास्तव में सोशल मीडिया है।
   पारंपरिक मीडिया की बंधी-बंधाई और एकरस शैली से अलग हटकर जब भारतीय नागरिक इस पर विचरण करने लगे तो लगा कि रचनात्मकता और सृजनात्मकता का यहां विस्फोट हो रहा है। दृश्य, विचार, कमेंट् और निजी सृजनात्मकता के अनुभव जब यहां तैरने शुरू हुए तो लोकतंत्र के पहरूओं और सरकारों का भी इसका अहसास हुआ। आज वे सब भी अपनी सामाजिकता के विस्तार के लिए सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं भी कहा कि सोशल मीडिया नहीं होता तो हिंदुस्तान की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता। सोशल मीडिया अपने स्वभाव में ही बेहद लोकतांत्रिक है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग की सीमाएं तोड़कर इसने न सिर्फ पारंपरिक मीडिया को चुनौती दी है वरन् यह सही मायने में आम आदमी का माध्यम बन गया है। इसने संवाद को निंरतर, समय से पार और लगातार बना दिया है। इसने न सिर्फ आपकी निजता को स्थापित किया है वरन एकांत को भी भर दिया है।
   सूचनाएं आज मुक्त हैं और वे इंटरनेट के पंखों पर उड़ रही हैं। सूचना 21 वीं सदी की सबसे बड़ी ताकत बनी तो सोशल मीडिया, सभी उपलब्ध मीडिया माध्यमों में सबसे लोकप्रिय माध्यम बन गया। सूचनाएं अब ताकतवर देशों, बड़ी कंपनियों और धनपतियों द्वारा चलाए जा रहे प्रचार माध्यमों की मोहताज नहीं रहीं। वे कभी भी वायरल हो सकती हैं और कहीं से भी वैश्विक हो सकती हैं। स्नोडेन और जूलियन असांजे को याद कीजिए। सूचनाओं ने अपना अलग गणतंत्र रच लिया है। निजता अब सामूहिक संवाद में बदल रही है। वार्तालाप अब वैश्विक हो रहे हैं। इस वचुर्अल दुनिया में आपका होना ही आपको पहचान दिला रहा है। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय कहने वाले देश में अब एक वाक्य का विचार क्रांति बन रहा है। यही विचार की ताकत है कि वह किताबों और विद्वानों के इंतजार में नहीं है।
   सोशल साइट्स का समाजशास्त्र अलग है। यहां ट्वीट फैशन भी है और सामाजिक काम भी। फेसबुक और ट्विटर नए गणराज्य हैं। इस खूबसूरत दुनिया में आपकी मौजूदगी को दर्ज करते हुए गणतंत्र। एक नया भूगोल और नया प्रतिपल नया इतिहास रचते हुए गणतंत्र। निजी जिंदगी से लेकर जनांदोलन और चुनावों तक अपनी गंभीर मौजूदगी को दर्ज करवा रहा ये माध्यम, सबको आवाज और सबकी वाणी देने के संकल्प से लबरेज है। कंप्यूटर से आगे अब स्मार्ट होते मोबाइल इसे गति दे रहे हैं। इंटरनेट की प्रकृति ही ऐसी है कि वह डिजीटल गैप को समाप्त करने की संभावनाओं से भरा –पूरा है। यहां मनुष्य न तो सत्ता का मोहताज है, न ही व्यापार का। कोई भी मनुष्यता सहअस्तित्व से ही सार्थक और जीवंत बनती है। यहां यह संभव होता हुआ दिख रहा है।
  अपने तमाम नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके उपयोग के प्रति बढ़ती ललक बताती है कि सोशल मीडिया का यह असर अभी और बढ़ने वाला है। 2014 के अंत तक मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले साढे सात करोड़ हो जाएंगें। यह विस्तार इस माध्यम को शक्ति देने वाला है। इसे टाइम किलिंग मशीन और धोखे का बाजार कहने वाले भी कम नहीं हैं। अपसंस्कृति के विस्तार का भी इसे दोषी माना जाने लगा है। व्यक्ति का हाइपरऐक्टिव होना, उसकी एकाग्रता में कमी,अवसाद और एबिलिटी में कमी जैसे दोष भी इस माध्यम को दिए जाने लगे हैं। इसके स्वास्थ्यगत प्रभावों, मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर बातचीत तेज हो रही है। ऐसे में यह मान लेने में हिचक नहीं करनी चाहिए कि यहां मोती भी हैं और कीचड़ भी। झूठ, बेईमानी, अपराध और बेवफाई के किस्से हैं तो दूसरी तरफ निभ रही दोस्तियों की लंबी कहानियां हैं। हो चुकी और चल रही शादियों की लंबी श्रृंखला है। आज जबकि अस्सी प्रतिशत युवा सोशल नेटवर्क पर हैं, तो शोध यह भी बताते हैं कि दिन में इन माध्यमों के अभ्यासी 111 (एक सौ ग्यारह) बार मोबाइल चेक करते हैं। जाहिर तौर पर यह सच है तो एकाग्रता में कमी आना संभव है। आज देश के लगभग 22 करोड़ लोग इंटरनेट पर हैं। आप देखें तो कभी किसी भी माध्यम के प्रति इतना स्वागत भाव नहीं था। फिल्में आई तो अच्छे घरों के लोग न इसमें काम करते थे, ना ही वे फिल्में देखने जाते थे। मां-पिता से छिपकर युवा सिनेमा देखने जाते थे। टीवी आया तो उसे भी इडियट बाक्स कहा गया। टीवी को लगातार देखते हुए भी हिंदुस्तान उसके प्रति आलोचना के भाव से भरा रहा और आज भी है। किंतु सोशल मीडिया के प्रति आरंभ से ही स्वागत भाव है। इसके प्रति समाज में अस्वीकृति नहीं दिखती क्योंकि यह कहीं न कहीं संबंधों का विस्तार कर रहा है। संवाद की गुंजाइश बना रहा है। रहिए कनेक्ट के नारे को साकार कर रहा है। इसके सही और सार्थक इस्तेमाल से छवियां गढ़ी जा रही हैं, चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं। समाज में पारदर्शिता का विस्तार हो रहा है। लोग कहने लगे हैं। प्रतिक्रिया करने लगे हैं।
  इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा किसी भी माध्यम का गलत इस्तेमाल हमें संकट में ही डालता है। यह समय इंफारमेशन वारफेयर का भी है और साइको वारफेयर का भी। इस दौर में सूचनाएं मुक्त हैं और प्रभावित कर रही हैं। यहां संपादक अनुपस्थित है और रिर्पोटर भी प्रामाणिक नहीं हैं। इसलिए सूचनाओं की वास्तविकता भी जांची जानी चाहिए। कई बार जो संकट खड़े हो रहे हैं, वह वास्तविकता से दूर होते हैं। सोशल मीडिया की पहुंच और प्रभाव को देखते हुए यहां दी जा रही सूचनाओं के सावधान इस्तेमाल की जरूरत भी महसूस की जाती है। इसे अफवाहें, तनाव और वैमनस्य फैलाने का माध्यम बनाने वालों से सावधान रहने की जरूरत है। हमारे साईबर कानूनों में भी अपेक्षित गंभीरता का अभाव है और समझ की भी कमी है। इसके चलते तमाम स्थानों पर निर्दोष लोग प्रताड़ित भी रहे हैं। पुणे में एक इंजीनियर की हत्या सभ्य समाज पर एक तमाचा ही है। ऐसे में हमें एक ऐसा समाज रचने की जरूरत है जहां संवाद कड़वाहटों से मुक्त और निरंतर हो। जहां समाज के सवालों के हल खोजे जाएं न कि नए विवाद और वितंडावाद को जन्म दिया जाए। सोशल मीडिया में समरस और मानवीय समाज की रचना की शक्ति छिपी है। किंतु उसकी यह संभावना उसके इस्तेमाल करने वालों में छिपी हुयी है। इसका सही इस्तेमाल ही हमें इसके वास्तविक लाभ दिला सकता है। सामाजिक सवालों पर जागरूकता और जनचेतना के जागरण में भी यह माध्यम सहायक सिद्ध हो सकता है। आम चुनावों में राजनीतिक दलों ने इस माध्यम की ताकत को इस्तेमाल किया और समझा है। आज युवा शक्ति के इस माध्यम में बड़ी उपस्थित के चलते इसे सामाजिक बदलाव और परिवर्तन का वाहक भी माना जा रहा है। सकात्मकता से भरे-पूरे युवा और सामाजिक सोच से लैस लोग इस माध्यम से उपजी शक्ति को भारत के निर्माण में लगा सकते हैं। ऐसे समय में जब सोशल मीडिया की शक्ति का प्रगटीकरण साफ है, हमें इसके सावधान, सर्तक और समाज के लिए उपयोगी प्रयोगों की तरफ बढ़ने की जरूरत है। यदि ऐसा संभव हो सका तो सोशल मीडिया की शक्ति हमारे लोकतंत्र के लिए वरदान साबित हो सकती है।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 1 जून 2014

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक

अरविंद केजरीवालः भरोसा तोड़ता नायक
-संजय द्विवेदी
   हमारे जैसे देश के तमाम लोग अरविंद केजरीवाल से नाराज हैं। देश की जनता की उम्मीदों का चेहरा और एक समय में मध्यवर्ग के हीरो बन चुके इस आदमी को आखिर हुआ क्या है? शायद ही कोई हो जो अपनी मेहनत से अर्जित सार्वजनिक छवि को खुद मटियामेट करे। आज लोगों को यह सवाल मथ रहा है कि क्या अरविंद केजरीवाल अंततः और प्रथमतः एक आंदोलनकारी ही बनकर रह जाएंगें? सवाल यह भी उठता है कि जिन सवालों को लेकर उनका आंदोलन खड़ा हुआ और वह बाद में एक पार्टी में तब्दील हुआ,वे सवाल तो आज भी जस के तस हैं। अरविंद सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने लोगों में सपने जगाए भी और उन्हें अपने हाथों से तोड़ा भी।
     अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करते हुए दिल्ली की जनता ने जिस तरह से उनके पक्ष में अपनी एकजुटता दिखाई, वह अभूतपूर्व थी। किंतु लगता है कि इस सफलता ने उनमें विनम्रता के बजाए अहंकार ही भरा। सत्ता को छोड़कर भागना और बाद में उसके लिए पछताना। साथियों का एक-एक कर अलग होते जाना, यह बताता है कि वे कहीं न कहीं अपनी कार्यशैली से लोगों को आहत कर रहे थे। उनके नासमझ फैसले बताते हैं कि राजनीति में अपनी जमीन छोड़ना कितना खतरनाक होता है। दिल्ली, हरियाणा,पंजाब जैसे राज्यों को केंद्र बनाकर अपनी एक ठोस राजनीतिक जमीन बनाने के बजाए उनका वामन से विराट बनने का सपना, उनकी रणनीतिक  विफलता तो है ही दिल तोड़ने वाली भी है। दिल्ली में एक आंदोलन से उपजी पार्टी ने जिस तरह का वातावरण बनाकर राजधानी में अपनी पैठ बनाई, उसके नेताओं का बनारस, अमेठी की ओर पलायन बताता था कि वे एक गहरे भ्रम के शिकार हैं। अरविंद इसलिए दोषी नहीं हैं कि वे राजनीतिक तौर पर असफल हो गए। यह कोई बड़ी बात नहीं है। वे असफल इसलिए हुए हैं कि उन्होंने जो जनविश्वास अर्जित किया था वह खो दिया। लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया और उन्हीं कठघरों में कैद होकर रह जाए जिसमें भारतीय राजनीति अब तक कैद है और उसे वहां से निकालने की जरूरत लोग गहरे महसूस करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने दल के विस्तार का सपना देखना गुनाह नहीं है, किंतु विस्तार एक चरणबद्ध और सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा है। टीवी पर बनी आत्मछवि से मुग्ध होकर देश के सभी मैदानों में कमजोर सिपाही उतारने के बजाए कुछ ठोस जगहों पर ठोस काम करके दिखाया जाए। अरविंद यहीं चूक गए। उनके सलाहकार जो उन्हें प्रधानमंत्री का राजपथ दिखा रहे थे, उनसे भी गहरी चूक हुई है। लगता है कि वे इस देश के भौगोलिक-सामाजिक व्याप और आकांक्षाओं को नहीं समझते। आम आदमी पार्टी अंतिम दिनों तक मीडिया के केंद्र में रही। ये देखना आश्चर्यजनक था कि मीडिया के सभी आयोजनों में देश में अनेक प्रमुख दलों की उपस्थिति के बावजूद अगर तीन प्रतिनिधि बुलाए जाते थे उनमें एक कांग्रेस, एक भाजपा और एक आम आदमी पार्टी का होता था। टीवी मीडिया के सभी चुनावी प्रोमो में राहुल,मोदी और केजरीवाल की छवि रहती थी। जबकि देश में तमाम ऐसे नेता और दल हैं जो केजरीवाल से बड़ा सामाजिक और भौगोलिक आधार रखते हैं। मीडिया कवरेज में विसंगति थी। हर क्षेत्र में लड़ रहे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के बारे में दो प्रमुख दलों के साथ जरूर बताया जाता था। यह बात बताती है मीडिया में इस दल की मौजूदगी कैसी थी। अरविंद ने कई बार मीडिया पर भी गुस्सा जताया लेकिन देखा जाए तो आम आदमी पार्टी को उसकी हैसियत से ज्यादा जगह मीडिया में मिली। शायद उनका दिल्लीपति होना इसका कारण रहा हो। आप देखें तो मीडिया का असंतुलन इसी से पता चलता है कि इस विकराल चुनावी शोर में सीमांध्र, तेलंगाना, उड़ीसा के विधानसभा परिणामों को बिल्कुल जगह नहीं मिली। इसी तरह ममता बनर्जी और जयललिता का की भारी विजय पर बात कहां हो रही है। आप कल्पना करें ममता और जयललिता सरीखी लोकसभा सीटें आम आदमी पार्टी को मिली होतीं तो मीडिया में बैठे उनके क्रांतिकारी दोस्त मोदी की जीत को भी पराजय में बदल देते और केजरीवाल को भविष्य का प्रधानमंत्री घोषित कर देते। लेकिन देश की जनता बहुत समझदार है। वह आपके आचरण, देहभाषा, वादों और इरादों को तुरंत स्कैन कर लेती है।
   इसमें भी कोई दो राय नहीं कि देश में जो बैचैनियां पल रही थीं। जो अंसतोष मन में पनप रहा था, उसे स्वर देने का प्रारंभिक काम अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव जैसे लोगों ने किया। सही मायने में ये लोग ही संसद में न होने के बावजूद वास्तविक प्रतिपक्ष बन गए थे। साहस के साथ मंत्रियों, सरकार और गांधी परिवार पर जैसे हमले इन्होंने किए, उसने सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का वातावरण तैयार किया। भारतीय मध्यवर्ग और आम लोगों में एक भरोसा बनाया कि कुछ बदल सकता है। इतना ही नहीं उदास और हताश लोगों को राजनीतिक विमर्श में शामिल करने का श्रेय भी काफी हद तक इस समूह को जाता है। किंतु इन बैचैनियों, आलोड़नों को संभालने के आत्मविश्वास से अरविंद खाली थे। आगे उनके दल और उनकी राह क्या होगी कहना कठिन है। जनांदोलनों की धार को लंबे समय के लिए कुंद और भोथरा बनाकर वे चले गए हैं, यह कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। देश में उपस्थित तमाम चुनौतियों के मद्देनजर जनांदोलन और सामाजिक शक्तियों की एकजुटता जरूरी है। जनता के एजेंडे पर बात और सरकारों की निगहबानी जरूरी है। किंतु अरविंद ने जनांदोलनों की विश्वसनीयता को जो क्षति पहुंचाई है, उसकी मिसाल खोजे नहीं मिलेगी। अन्ना हजारे का आंदोलन दरअसल उनके चेहरे और निष्पाप भोलेपन के नाते एक विश्वसनीयता अर्जित कर सका। दूसरी बात उसकी टाईमिंग बहुत सटीक थी। यह ऐसा समय था जब बाबा रामदेव बुरी तरह पिटकर वापस जा चुके थे। देश में सरकारविहीनता के खिलाफ गुस्सा फैल रहा था और ऐसे समय में अन्ना और उनके समर्थकों ने एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया जिसमें आम आदमी उम्मीदें देखने लगा। बाद की कथाएं सबको पता हैं। राजनीतिक दल बनाने का अरविंद का फैसला और दिल्ली के चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों ने यह संदेश भी दिया कि कांग्रेस के दिन अब लद गए हैं। बावजूद इसके दिल्ली में सरकार बनाना आम आदमी पार्टी के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्या ही अच्छा होता कि अरविंद भाजपा को समर्थन देकर उन्हें ज्यादा विधायक होने के नाते सरकार बनाने का मौका देते और उसकी निगहबानी करते। राजनीतिक प्रशिक्षण का एक दौर इससे पूरा होता और कम सीटों पर लोकसभा का चुनाव लड़कर वे बेहतर संभावनाओं को जन्म दे सकते थे। समाज के पढ़े-लिखे वर्ग, मध्य वर्ग और तमाम संवेदनशील लोगों ने आम आदमी पार्टी में एक वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें देखनी शुरू कर दी थीं। इन उम्मीदों को इस दल के नेताओं ने स्वयं घराशाही कर दिया। दिल्ली की सफलता को पचा न पाने और बड़े सपनों ने छोटी सफलताएं भी छीन लीं। उनके द्वारा खड़े किए गए प्रखर आंदोलन और मुखर राजनीति का काफी लाभ नरेंद्र मोदी और उनके दल को मिला। एक देशव्यापी संगठन आधार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेटवर्क ने इस असंतोष और पीड़ा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। जिस काम को अन्ना हजारे ने शुरू किया उसे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों ने अंजाम तक पहुंचाया। अपने 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल की विश्लसनीयता उनके साथ थी। काम करने वाले व्यक्ति की छवि, विकास व सुशासन के मुद्दे उन्हें मदद दे रहे थे। एक तरफ सरकार से भागता नायक था दूसरी तरफ आशाएं जगाता हुआ हीरो, लोगों ने दूसरे पर भरोसा जताया। वाराणसी और अमेठी की जंग ने सारा कुछ बहुत साफ-साफ कह दिया है। इन परिणामों के बावजूद आम आदमी पार्टी के चरित्र में बहुत परिवर्तन आता नहीं दिख रहा है। वहां मंथन और चिंतन के बजाए इस्तीफों का दौर जारी है। जबकि सच्चाई यह है कि राजनीति में कुछ भी खत्म नहीं होता। एक नवोदित पार्टी  होने के नाते उसे मिले वोट और सफलताएं बेमानी नहीं हो जाते हैं। राजनीतिक विमर्श में चाहे-अनचाहे आम आदमी पार्टी एक खास जगह घेर रही है। मीडिया, लेखक समुदाय में उसके प्रति सदभाव रखने वाले क्रांतिकारियों की कमी भी नहीं है। किंतु सत्ता जाने की विकलता और सत्ता पाने लिप्सा को आज भी यह दल छिपा नहीं पा रहा है। जब कांग्रेस के खिलाफ जनरोष था तो वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़े रहे थे, अब मोदी सरकार की निगहबानी का समय है तो वे आपस में लड़ रहे हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी को अपनी कार्यशैली और फैसलों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। वरना भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह वे भी ऐतिहासिक भूलें करते और उनके लिए क्षमा मांगते रह जाएंगें।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)