बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

जमीन छीन लीजिए पर संवाद तो कीजिए

                               -संजय द्विवेदी

                                     


     भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आते ही जिस तरह भूमि अधिग्रहण को लेकर एक अध्यादेश प्रस्तुत कर स्वयं को विवादों में डाल दिया है, वह बात चौंकाने वाली है। यहां तक कि भाजपा और संघ परिवार के तमाम संगठन भी इस बात को समझ पाने में असफल हैं कि जिस कानून को लम्बी चर्चा और विवादों के बाद सबकी सहमति से 2013 में पास किया गया, उस पर बिना किसी संवाद के एक नया अध्यादेश और फिर कानून लाने की जरूरत क्या थी? इस पूरे प्रसंग में साफ दिखता है कि केन्द्र सरकार के अलावा कोई भी पक्ष इस विधेयक के साथ नहीं है। हिन्दुस्तान के विकास के सपनों के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जाती है कि वह बहुमत के अंहकार के बजाय जनमत के सम्मान का रास्ता अख्तियार करे। प्रधानमंत्री और उनके मंत्री इस मामले में एक रणनीतिक चूक का शिकार हुए हैं। जिसके चलते पूरे देश में भ्रम, निराशा और आक्रोश का वातावरण बन गया है। शायद सरकार के आकलन में कुछ भूल थी जिसके चलते किसी स्तर पर भी संवाद किए बिना इस बने-बनाए कानून से छेड़खानी की गई।
खाली जमीनों का कीजिए उपयोगः
    केंद्र सरकार इस विषय में संवादहीनता के आरोप से नहीं बच सकती, भले ही वह सत्ता की ताकत और अपने मैनेजरों के कुशल प्रबंधन से विधेयक को पास भी करा ले जाए। जाहिर तौर पर इस विधेयक का विरोध करने वाले लोग विकास विरोधी ही कहे जाएंगे और सरकार उन्हें विकास के रास्ते में रोड़े अटकाने वाले पत्थरों के रूप में ही आरोपित करना चाहेगी। लेकिन जहां छह करोड़ परिवारों के पास आज भी इंच भर जमीन नहीं है, वहां ऐसी बातें चिंता में डालती हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि इस देश में लड़ा गया सबसे बड़ा युद्ध महाभारत, दुर्योधन के द्वारा पांडवों को पांच गांव भी न देने की महाजिद के चलते शुरू हुआ था। दुर्योधन अपनी सत्ता की अकड़ में श्री कृष्ण से कहता है कि हे केशव मैं युद्ध के बिना सूर्ई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा। भारत की सरकार 1894 के अंग्रेजों के काले कानून को 2013 में बदल पाई और अब फिर वह इतिहास को पीछे ले जाने की तैयारी है। देश में आज भी तमाम उद्योगों के नाम पर आरक्षित 50 हजार एकड़ भूमि खाली पड़ी है। कुल कृषि योग्य भूमि का 20 प्रतिशत बंजर पड़ी है। इन जमीनों के बजाय नई सरकार बहुउपयोगी और सिंचित भूमि का अधिग्रहण करने को लालायित है। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या किसानों के हित और देश के हित अलग-अलग हैं? यह सच्चाई सबको पता है कि किस तरह सार्वजनिक कामों के लिए जमीनों का अधिग्रहण कर उनका लैंड यूज चेंज किया जाता है। 2010-11 में जो सवाल उठे थे, वे आज भी जिंदा हैं। सिंगूर, नंदीग्राम और भट्टापारसाल से लेकर मथुरा तक ये कहानियां बिखरी पड़ी हैं। सरकार ने हालात न सम्भाले तो टप्पल किसान आंदोलन जैसी स्थितियां दोबारा लौट सकती हैं।
इतनी हड़बड़ी में क्यों है सरकारः
            वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के समय श्रीमती सुषमा स्वराज, श्री विनय कटियार और रविशंकर प्रसाद ने संसद में जो कुछ कहा था, वे भाषण फिर से सुने जाने चाहिए और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उनके सत्ता में रहने के और विपक्ष में रहने के आचरण में इतना द्वंद्व क्यों है? जिस कानून को बने साल भर नहीं बीता उस पर अध्यादेश और उसके बाद एक नया कानून लाने की तैयारी सरकार की विश्वसनीयता और हड़बड़ी पर सवाल खड़े करती है। एक साल के भीतर ही नया कानून लाने की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं। सरकार के प्रबंधकों को इस व्यापक विरोध की आशंका जरूर रही होगी। बावजूद इसके किसानों को साथ लेने की कोशिश क्यों नहीं की गई? यह एक बड़ा सवाल है। सरकार का कहना है कि उसने कई गैर-भाजपा राज्यों के सुझावों पर बदलाव करते हुए यह अध्यादेश जारी किया है। सवाल यह उठता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने विरोधी राजनीतिक दलों के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की सलाह पर इतनी मेहरबान क्यों है कि उसे अपनी छवि की भी चिंता नहीं है। दिल्ली का चुनाव इन्हीं अफवाहों और भ्रमों के बीच हारने के बावजूद बीजेपी खुद को कॉरपोरेट और उद्योगपतियों के समर्थक तथा किसानों और आम आदमियों के विरोधी के रूप में स्थापित क्यों करना चाहती है?  यह आश्चर्य ही है कि लोगों को भरोसे में लिए बिना कोई राजनीतिक दल अपनी छवि को भी दांव पर लगाकर विकास की राजनीति करना चाहे। ऐसे विकास के मायने क्या हैं, जिसका लोकमत विरोधी हो? जिन कांग्रेसी और अन्य दलों के मित्रों के सुझाव पर भाजपा सरकार यह अध्यादेश लाई है, वे सड़क पर सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण तो ठीक भूमि-वितरण पर भी सोचिएः
   किसी भी भूमि अधिग्रहण के पहले, जिस सार्वजनिक सर्वेक्षण की वकालत पुराना कानून करता है, उसे हटाना भी खतरनाक है। इस कानून की स्टैंडिंग कमेटी की चेयरमैन रहीं श्रीमती सुमित्रा महाजन आज लोकसभा की अध्यक्ष हैं। जाहिर तौर पर 2013 में बने कानून के प्रभावों का साल-दो साल अध्ययन करने के बाद सरकार किसी नये कानून की तरफ लोगों से व्यापक विमर्श के बाद आगे बढ़ती तो कितना अच्छा होता। इस देश में भूमि अधिग्रहण की घटनाएं अनेक बार हुई हैं, विकास के नाम पर लगभग छह करोड़ लोगों का विस्थापन आजादी के बाद हुआ है। लेकिन, आप देखें तो केवल 17 प्रतिशत लोगों का हमारी सरकारें पुनर्वास कर सकी हैं। भाखड़ा नांगल बांध से लेकर नर्मदा के विस्थापित आज भी अपने बुनियादी अधिकारों के लिए मोहताज हैं। आजादी के बाद ऐसी स्थितियां हमें बताती हैं कि आज भी आखिरी आदमी सत्ताधीशों की चिंताओं से बहुत दूर है। देश में भूमिहीनों की एक बड़ी संख्या के बाद भी भूमि सुधार की दिशा में सरकारों ने बहुत कम काम किया है। सरकारें भूमि अधिग्रहण पर बातें करती हैं लेकिन भूमिहीनों को भूमि वितरण के सवाल पर खामोशी ओढ़ लेती हैं। जनहित क्या सिर्फ अमीरों को जमीन देना है या गरीबों को जमीनों से महरूम रखना?  संसद में एक समय श्री विनय कटियार और श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि 70 या 80 नहीं बल्कि 100 प्रतिशत किसानों की सहमति होने पर ही भूमि का अधिग्रहण किया जाना चाहिए। क्या राजनीति सत्ता में होने की अलग है और विपक्ष में होने की अलग?
क्या सरकारें ही देशहित में सोचती हैः
 किसानों की आत्महत्याओं की निरंतर खबरों के बीच सरकार बता रही है कि कब, किसकी सरकार के समय कितने अध्यादेश आए थे। आखिर इस तरह के कुतर्कों का मतलब क्या है?  आप हजार अध्यादेश लाएं वह एक संवैधानिक व्यवस्था है, किंतु क्या ये अध्यादेश बहुत जरूरी था, क्या इसके पक्ष में जनमत है? इन प्रश्नों का विचार जरूर करना चाहिए। या फिर जनमत बनाने की ओर बढ़ना चाहिए। केंद्र के एक माननीय मंत्री कहते हैं कि हमारा बहुमत है, हम कानून पास करेंगे। सत्ता की ऐसी भाषा न तो लोकतांत्रिक है, न ही स्वीकार्य। इसी तरह की देहभाषा और वाचालता जब यूपीए के मंत्री दिखाते थे, तो देश ने उसे दर्ज किया और समय पर प्रतिक्रिया भी की। हमारे वर्तमान राष्ट्रपति स्वयं ही एक अनुभवी राजनेता हैं। वे केंद्र की बहुमत प्राप्त सरकार को यह आगाह कर चुके हैं कि वह अध्यादेशों से बचे और लोगों की सहमति से कानून बनाए। बेहतर होगा कि सरकार इस पूरे मामले पर लोगों से सुझाव मांगे क्योंकि इस सरकार ने वोट अच्छे दिनों के लिए मांगे थे। अगर सरकार के किसी कदम से समाज के किसी वर्ग में यह आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं कि वह उनके खिलाफ कानून बना रही है तो प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने मन की बात लोगों से सीधे करें, न कि संसद के फ्लोर मैनेजर के भरोसे देश को छोड़ दें। यह कैसे माना जा सकता है कि सरकारें ही राष्ट्रहित में सोचती हैं? अगर ऐसा होता तो सरकारों के खिलाफ इतने बड़े-बड़े आंदोलन न खड़े होते और सरकारें न बदलतीं।

   आज देश में लगभग 350 जगहों पर भूमि को लेकर टकराव दिख रहे हैं। एक जमाने में भाजपा ने खुद स्पेशल एकॉनोमिक जोन का विरोध किया था। सेज के नाम पर लगभग सात राज्यों में 38 हजार 245 हेक्टेयर जमीन सरकार ने किसानों से ली, उनमें से ज्यादातर खाली पड़ी हैं। पुनर्वास और उजड़ते किसानों की चिंताओं के बावजूद सरकारें एक सरीखा चरित्र अख्तियार कर चुकी हैं। जिनमें अच्छे दिनों की उम्मीदें दम तोड़ रही हैं। 1947 में जहां 20 करोड़ लोग खेती पर निर्भर थे, वहीं आज 70 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। ऐसे में अगर शरद यादव राज्यसभा में यह कहते हैं कि खेती से बड़ा कोई उद्योग नहीं है तो हमें इस बात पर विवाद नहीं करना चाहिए। बेहतर होगा कि हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री स्वयं आगे आकर देश के किसानों और आमजन की शंकाओं का समाधान करें। देश उनके मुंह से सुनना चाहता है कि आखिर यह कानून कैसे लोगों का उद्वार करेगा? वे कहेंगे तो लोग जमीनें छोड़ सकते हैं, लेकिन शर्त है कि सरकार संवाद तो करे। 

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों का विमोचन

एक पुस्तक पत्रकार अच्युतानंद मिश्र और दूसरी मीडिया पर केन्द्रित



भोपाल, 7 फरवरी। मीडिया विमर्श के तत्वावधान में आयोजित समारोह में लेखक एवं मीडिया गुरु संजय द्विवेदी द्वारा संपादित दो पुस्तकों 'अजातशत्रु अच्युतानंद और 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज का विमोचन किया गया। इस मौके पर संपादक श्री द्विवेदी ने कहा कि दोनों पुस्तकें रचनात्मक और सृजनात्मक पत्रकारिता के पुरोधाओं को समर्पित हैं। पुस्तकों का विमोचन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जो इन दिनों देश के विभिन्न मीडिया माध्यमों में कार्यरत हैं। कार्यक्रम का आयोजन सात फरवरी को भोपाल स्थित गांधी भवन में किया गया। इस मौके पर दिल्ली, छत्तीसगढ़, पंजाब, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, बिहार और उत्तरप्रदेश सहित अन्य शहरों से आए मीडियाकर्मी, बुद्धिजीवी एवं पत्रकारिता के विद्यार्थी मौजूद थे।
   लेखक एवं संपादक श्री संजय द्विवेदी लगभग दो दशक से पत्रकारिता एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं तथा कई मीडिया संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं। श्री द्विवेदी निरंतर लेखन और संपादन में कार्यरत हैं। उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक 'अजातशत्रु अच्युतानंद का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया, जिनमें आर जे अनादि (रेड एफएम, भोपाल), प्राची मजूमदार (हिंदुस्तान टाइम्स, भोपाल), राहुल चौकसे( पीपुल्स समाचार, भोपाल),पंकज कुमार साव( भास्कर डाट काम, रांची), मनीष अग्रवाल (नई दुनिया, इंदौर), हेमंत पाणिग्राही (जगदलपुर) और पंकज गुप्ता (जनजन जागरण, भोपाल) शामिल हैं।
   इसी तरह दूसरी किताब 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाज  का विमोचन सर्वश्री का लोकार्पण संयुक्त रूप से सात पूर्व विद्यार्थियों ने किया जिनमें संयुक्ता बनर्जी( भास्कर डिजिटल, भोपाल), अमित सिंह (आजतक,दिल्ली) चैतन्य चंदन ( डाउन टू अर्थ, दिल्ली),  राजीव कुमार गांधी (साधना टीवी, रायपुर), कौशल वर्मा (दिल्ली), प्रेम राम त्रिपाठी (स्टार समाचार, सतना), दीपक कुमार (बिहार पुलिस) शामिल हैं। दोनों पुस्तकें नई दिल्ली के प्रकाशक यश पब्लिकेशंस ने प्रकाशित की हैं। 'अजातशत्रु अच्युतानंदपुस्तक जनसत्ता के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के लिखे 30 आलेख शामिल हैं। सर्वश्री रामबहादुर राय, विश्वनाथ सचदेव, पद्मश्री रमेशचंद्र शाह, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत, रघु ठाकुर, प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रमेश नैयर, डॉ. सच्चिदानंद जोशी, अभय प्रताप, संत समीर सहित कई प्रमुख लोगों ने अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। 
   दूसरी पुस्तक 'मीडिया, भूमण्डलीकरण और समाजसमूची पत्रकारिता के क्षेत्र में आए बदलावों को उजागर करती हुई दिखती है। संपादक संजय द्विवेदी कहते हैं कि भूमण्डलीकरण के बाद देश के मीडिया की स्थितियों में बहुत बदलाव आए हैं। सच कहें तो पूरी दुनिया ही बदल गई है। ऐसे में भूमण्डलीकरण के चलते विविध क्षेत्रों में पड़े प्रभावों का आकलन मीडिया प्राध्यापकों, पत्रकारों, चिंतकों और विद्वानों ने इस पुस्तक में किया है। पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के 34 आलेख 203 तीन पृष्ठों में समाहित हैं। डॉ. रामगोपाल सिंह, पी. साईंनाथ, अष्टभुजा शुक्ल, प्रो. कमल दीक्षित, डॉ. सुशील त्रिवेदी, आनंद प्रधान, डॉ. श्रीकांत सिंह, डॉ. वर्तिका नंदा, अनिल चमडिय़ा, डॉ. हरीश अरोड़ा, डॉ. सुभद्रा राठौर, अंकुर विजयवर्गीय, लोकेन्द्र सिंह और ऋतेश चौधरी सहित अन्य विद्वानों ने इस पुस्तक में मीडिया में आए बदलावों को रेखांकित किया है। दोनों पुस्तकें निश्चित ही पत्रकारिता से जुड़े बौद्धिक जगत और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साबित होंगी। 
पुस्तक परिचयः
1.      अजातशत्रु अच्युतानंद, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 395/-   पृष्ठः144
2.      मीडिया, भूमंडलीकरण और समाज, संपादकः संजय द्विवेदी,
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस, 1 /11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032
मूल्यः 495/-   पृष्ठः207



राष्ट्र के बौद्धिक विकास में भूमिका निभाए मीडिया


-संजय द्विवेदी

   राष्ट्र के बौद्धिक विकास में मीडिया एक खास भूमिका निभा सकता है। वह अपनी सकारात्मक भूमिका से राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित अनेक चुनौतियों के समाधान खोजने की दिशा में वह एक अभियान चला सकता है। दुनिया के अनेक विकसित देशों में वहां के मीडिया ने सामुदायिक विकास में अपना खास योगदान दिया है। भारत का मीडिया तो इस गौरव से युक्त है कि उसने आजादी की लड़ाई में अपना विशेष योगदान दिया। आजादी के बाद भारत के नवनिर्माण में भी उसने भूमिका निभाई। सामाजिक भेदभाव-गैरबराबरी को दूर करने से लेकर अन्याय और शोषण के विरूद्ध पत्रकारिता का इस्तेमाल        
हमेशा एक लोकतंत्र में हथियार की तरह होता रहा है।
  आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को एक नई उम्मीद से देख रहे हैं। भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की एक नई शुरूआत हुयी है। भारत की पहचान बदल रही है और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी मात्र नहीं बल्कि तेजी से सब क्षेत्रों में विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। ऐसे समय में भारतीय मीडिया का आकार-प्रकार और शक्ति भी बढ़ी है। भारत में मीडिया का इस्तेमाल और उपयोग करने वाले लोग भी बढ़े हैं। तमाम संचार माध्यमों से विविध प्रकार की सूचनाएं समाज के सामने उपस्थित हो रही हैं। इसमें सूचनाओं की विविधता भी है और विकृति भी। अधिक सूचनाओं से संपन्न दुनिया बनाने के बजाए हमें सार्थक सूचनाओं की दुनिया बनानी होगी।
     भारत जैसे विविधता और बहुलता के वाहक देश में कोई एक माध्यम या कोई एक बाहरी विचार थोपा नहीं जा सकता। भारत के पास स्वयं का विचार ही इसे जोड़ने और शक्ति देने का काम कर सकता है। हमारे पास दुनिया को देने के लिए श्रेष्ठतम विचार हैं। श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है। श्रेष्ठतम सांस्कृतिक धारा है। जिसमें दूसरों का भी स्वीकार है। दूसरों के लिए भी जगह है। भारतीय सांस्कृतिक धारा और उसके विविध पहलुओं पर संवाद के माध्यम से स्वीकृति बनाने का यह उपयुक्त समय है।
   मीडिया इस देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है। गणतंत्र दिवस पर इस शक्ति का प्रगटीकरण हमने होते हुए देखा। भारत की सांस्कृतिक विविधता और शक्ति के दर्शन हमें पहली बार इतने प्रकट रूप में देखने को मिले क्योंकि मीडिया की शक्ति और उसकी उपस्थिति ने पूरे देश को दिल्ली के राजपथ से जोड़ दिया। इसके पूर्व ऐसे आयोजन कई सालों से एक औपचारिकता बनकर रह गए थे जिसे मीडिया भी बहुत महत्व नहीं देता था। इस बार के आयोजन में एक राष्ट्र की शक्ति और उसकी एकता महसूस की गयी। ऐसे अवसरों पर मीडिया की शक्ति प्रकट रूप में दिखती है।
  हमारे देश की ताकत यह है कि हम संकटों में शीघ्र ही एकजुट हो जाते हैं। किंतु संकट टलते ही वह भाव नहीं रहता। हमें इस बात को लोगों के मनों में स्थापित करना है कि वे हर स्थिति में साथ हैं और अच्छे दिनों में साथ मिलकर चल सकते हैं। यही एकात्म भाव है। यही जुड़ाव जिसे जगाने की जरूरत है। बौद्धिकता सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे आम-आदमी के विचार का हिस्सा बनना चाहिए। मीडिया अपने लोगों को प्रबोधन करने में भूमिका निभा सकता है। मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं है अपने पाठकों की रूचि परिष्कार तथा उन्हें बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। हमें ऐसे मीडिया प्रोफेशनलों की पौध तैयार करनी होगी जो, अपने पाठकों की रूचियों का संसार विस्तृत तो करें हीं उनका परिष्कार भी करें। भौतिक विकास के साथ बुद्धि का स्तर भी बढ़ना जरूरी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है। सार्थक होता है। अतः जनता से जुड़े मुद्दे और देश के सवालों की गंभीर समझ पाठकों और दर्शकों में पैदा करना मीडिया की जिम्मेदारी है।

   भारत जैसे देश में मीडिया का प्रभाव पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ा है। वह तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल करता हुआ एक बड़े उद्योग में भी बदल गया है। बावजूद हमें यह मानना पड़ेगा कि मीडिया का व्यवसाय अन्य व्यवसायों या उद्योगों सरीखा नहीं है। इसके साथ सामाजिक दायित्वबोध गुंथे हुए हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व से रहित मीडिया किसी काम का नहीं है। मीडिया के इसी चरित्र का विकास हमारा दायित्व है। मीडिया के नए बदलावों पर आज सवाल उठने लगे हैं। बाजार के दबावों ने मीडिया प्रबंधकों की रणनीति बदल दी है और बाजार के मूल्यों पर आधारित मीडिया का विकास भी तेजी से हो रहा है। जहां खबरों को बेचने पर जोर है। यहां मूल्य सकुचाए हुए दिखते हैं। समझौते और समर्पण के आधार पर बनने वाला मीडिया किसी भी तरह राष्ट्रीय संकल्पों का वाहक नहीं बन सकता। हमें अपने मीडिया की जड़ों को देखना होगा। वह परंपरा से ही व्यवस्था विरोधी और सामाजिक मूल्यों का संरक्षक और प्रेरक है। इसलिए हमें यह देखना होगा कि हम अपनी जड़ों से अलग न हों। पारंपरिक मूल्यों के आधार पर हम अपने मीडिया का विकास और विस्तार करें। आज मीडिया के प्रभाव के चलते इस क्षेत्र में तमाम तरह ऐसे लोग भी शामिल हुए हैं जिनके सामाजिक सरोकार शून्य हैं। वे विविध साधनों से धन कमाकर मीडिया में अचानक अवतरित हो गए हैं। उनका मुख्य उद्देश्य मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करना है। इसके चलते मूल्यों में चौतरफा गिरावट देखने को मिल रही है। घने अंधेरे में रौशनी की चाह और प्रबल होती है। लगातार सच्चाई और अच्छाई की भूख बढ़ रही है। समाज तेजी से बदल रहा है। राजनीति, समाज हर जगह आज शुचिता और सच्चाई की भूख की इच्छा बढ़ रही है। यह इच्छा ही बदलाव की वाहक बनेगी। नए मीडियकर्मियों पर यह दायित्व है कि वे इस जनाकांक्षा को मूर्त रूप देने में सहायक बनें।

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

भाजपा की हार या आप की जीत !

-संजय द्विवेदी


   दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम में भाजपा की पराजय की चर्चा हर जुबान पर है। जाहिर तौर पर इस हार ने भाजपा के अश्वमेघ के अश्व को रोक दिया है और नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी के जलवे में भी कमी आई है। दिल्ली का चुनाव सही मायने में बहुत छोटा चुनाव है, किंतु इसके संदेश बहुत बड़े हैं। मुंबई के मेयर से ज्यादा दिल्ली के मुख्यमंत्री का न कार्यक्षेत्र है, न ही बजट। किंतु राज्य तो राज्य है और महापालिका एक छोटी इकाई है। दिल्ली के चुनाव दरअसल जिस वातावरण और हाईपिच पर लड़ा गया, उसने इस छोटे से राज्य की राजनीतिक महत्ता को बहुत बढ़ा दिया है।
अप्रासंगिक कांग्रेसः
   आंदोलन से उपजी एक पार्टी के सामने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का जो हाल हुआ, उसके सदमे से उबर पाना दोनों के लिए आसान नहीं होगा। पंद्रह साल तक दिल्ली में राज करने वाली कांग्रेस का खाता भी न खुलना और भाजपा का तीन सीटों पर सिमट जाना कोई साधारण सूचना नहीं है। यह बात बताती है कि जनता के बीच किस तरह हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की हैसियत दिल्ली के अंदर घटी है। जहां तक कांग्रेस की बात है वह दिल्ली के चुनावों में अप्रासंगिक हो चुकी थी। अपने परंपरागत वोट प्रतिशत को भी वह, आप के खाते में जाने से रोक नहीं पाई। वहीं दिल्ली में भाजपा की हार के जो मोटे कारण समझ में आते हैं, वह सब लोगों की समझ में हैं। पता नहीं क्यों यह बात भाजपा का आलाकमान नहीं समझ सका।
काडर की नाराजगीः
भाजपा एक काडर बेस पार्टी है। सालों साल से उसके कार्यकर्ता और संघ परिवार के समविचारी संगठन उसका वोट आधार हैं। यह काडर इस चुनाव में अपने नेताओं के फैसलों से हैरान दिखा। दिल्ली एक बिखरा हुआ राज्य नहीं है, वह एक इकाई है और एक सरीखा सोचती है। वह इतनी बड़ी भी नहीं कि एक जगह का प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। दिल्ली भाजपा की उपेक्षा इस चुनाव का सबसे बड़ा कारण है। इसकी शुरूआत हुई दिल्ली भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरे डा. हर्षवर्धन के स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाए जाने से। यह क्रम जारी रहा। आयातित नेताओं को टिकट देना, मुख्यमंत्री का प्रत्याशी भी आयात करना और स्थानीय नेताओं को घर बिठाना। यहां तक की दिल्ली भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय खुद भी टिकट नहीं ले पाए। लेकिन कृष्णा तीरथ और विनोद कुमार बिन्नी जैसों को घर बैठे टिकट मिल गया। यह उत्तर प्रदेश जैसा राज्य नहीं कि पूरब की घटनाएं पश्चिम को, पूर्वांचल की घटनाएं बुंदेलखंड और रूहेलखंड को प्रभावित न करें। एक इकाई होने के नाते चीजों को होता हुआ देखकर कार्यकर्ता अवाक थे किंतु कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। मीडिया और पैसे के रूतबे की सवारी गांठ रहे आलाकमान के पास कार्यकर्ताओं को सुनने-गुनने का अवकाश भी नहीं था। कई राज्यों की विजय ने उनके चुनावी प्रबंधन के कौशल को स्थापित कर दिया था। यानी कार्यशैली पर सवाल नहीं उठ सकते थे, क्योंकि सफलता साथ-साथ थी। यह अकेली बात कार्यकर्ताओं को अवसाद में डाल चुकी थी।
  भाजपा और संघ परिवार के कार्यकर्ता आज भी भावनात्मक आधार पर कार्य करने वाला समूह है, यहां यह कहने में संकोच नहीं है कि वे राजनीतिक रूप से उतना विचार नहीं करते। राजनीतिक तरीके से चीजों को न सोचने के कारण वे भावनात्मक आधार पर फैसले करते हैं, जिसका भाजपा को अकसर नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में निराशा की स्थिति में वे घर बैठना पसंद करते हैं। दिल्ली में जहां आप के कार्यकर्ता राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित और आक्रामक थे, घर-घर संवाद कर रहे थे। वहीं भाजपा का कार्यकर्ता चुनाव के करीब आते-आते उदासीन होता गया। चुनाव जब प्रारंभ हुए उस समय का टेम्पो भी भाजपा अंत तक कायम नहीं रख सकी। भाजपा का पूरा चुनाव अभियान मीडिया शोर, साधनों की बहुलता और देश भर के सांसदों, संगठन की सक्रियता के बावजूद, इसी उदासीनता का शिकार हो गया। शायद यह पहली बार था जब टीम मोदी को पराजय हाथ लगी है। यह संवाद आम है कि मोदी-शाह-जेटली ही भाजपा बन गए हैं और भाजपा का शेष नेतृत्व स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा है। चुनावी प्रबंधन, धनशक्ति, दल से बड़ी होती हुई दिखती है। जाहिर तौर पर दिल्ली के चुनावों को इससे अलग करके देखना संभव नहीं है।
आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा चुनावः
 कहते हैं दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम जहां सीधे संपर्क, संवाद और बातचीत में संयम का परिचय दे रही थी, वहीं भाजपा का प्रचार अभियान आक्रामक और शब्द की हिंसा से भरा था। लोकतंत्र में हिस्सा ले रहे लोग नक्सली हैं या बदनसीब हैं, यह बात समझ से परे है। फिर अरविंद केजरीवाल ने उपद्रवी गोत्र को जिस तरह व्याख्यायित किया, वह बात भी भाजपा के खिलाफ गयी। विज्ञापनों में अन्ना की फोटो पर माला, केजरीवाल के परिवार का जिक्र, सब उल्टे पड़े। केजरीवाल एक ऐसे बेचारे की तरह प्रस्तुत होने लगे जैसे भारत की सरकार ने दिल्ली के लोगों पर हमला कर दिया हो। गुजराती अस्मिता की बात करनेवाले प्रधानमंत्री इस बात को गहरे समझ रहे होंगे। बाहरी लोगों, बाहरी ताकतों और बाहरी नेताओं ने इस पूरे चुनाव में भाजपा की एक बड़ी पराजय की भूमिका तैयार की। इस चुनाव में लालकृष्ण आडवानी से लेकर विजय कुमार मल्होत्रा जैसे नेताओं की भूमिका क्या थी? यह भी सवाल पूछे जा रहे हैं। जबकि ऐसे नेता दिल्ली की रगों को जानते हैं, पहचानते हैं। क्योंकि इन सबने नगर निगम से लेकर लोकसभा की राजनीति इसी शहर में की है।
हारे को हरिनामः
 अब जबकि भाजपा यह चुनाव हार चुकी है। भाजपा के ताकतवर समूह के सामने चुप रहने वाले लोग भी आवाजें जरूर उठाएंगे। प्रधानमंत्री ने इस चुनाव में स्वयं को झोंककर खुद इस चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल में बदल दिया था। इससे पार्टी यह भले कहती रहे कि यह मोदी की हार नहीं है, इसके कोई मायने नहीं हैं। सच्चाई यह है कि दिल्ली के लोग भाजपा के साथ चलने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने एक चमकीली प्रगति का आश्वासन दे रही राजसत्ता के बजाए एक भगोड़े मुख्यमंत्री के इस आश्वासन पर भरोसा किया है कि वह अब नहीं भागेगा।
कैसे बनी अमीरों की पार्टीः

आखिर आठ महीनों में ऐसा क्या हुआ कि भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी जहां हर भारतीय के आशा के केंद्र बने हुए थे, दिल्ली वालों के लिए वे अमीरों की पार्टी और अमीरों के नेता बन गए। यह आम आदमी पार्टी का संवाद कौशल ही कहा जाएगा कि उन्होंने एक चायवाले से अपना जीवन शुरू करने वाले प्रधानमंत्री को कारपोरेट और अमीरों के नेता के रूप में स्थापित कर दिया। मफलर और प्रधानमंत्री के 10 लाख के कोट की कहानियां कैसे जन-मन में स्थापित कर दी गयीं, इस पर भी भाजपा के कम्युनिकेशन विभाग को सोचना चाहिए। एक ऐसी पार्टी जिसने अभी कुछ समय पूर्व, पूरे देश का प्यार पाया है, उसे दिल्ली में एक नई-नवेली पार्टी अगर पराजित करती है, तो यह साधारण नहीं है। इस चुनाव से भाजपा का कुछ नहीं बिगड़ा है, वह बहुत बड़ी पार्टी है और अगले पांच सालों के लिए देश की राजसत्ता के लिए जनादेश से संयुक्त है। किंतु भाजपा का जो बिगड़ा है, वह है उसकी और उसके नेता की छवि, जिसकी भरपाई के लिए उसने आज से कोशिशें शुरू नहीं कीं, तो कल बहुत देर हो जाएगी। सत्ता, संगठन, प्रभावी नेतृत्व और धन तो ठीक है किंतु जनता का भरोसा भी चाहिए। बहुत कम समय में मोदी- शाह और भाजपा को यह संदेश दिल्ली की जनता ने दिया है, यह उनके ऊपर है कि वे दिल्ली को सिर्फ एक राज्य का संदेश मानते हैं या देश की जनता का संयुक्त संदेश... मरजी टीम मोदी की।

संवेदनाएं हो रही हैं खत्म : तेजिन्दर

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में वरिष्ठ पत्रकार विनय उपाध्याय का सम्मान


भोपाल, 07 फरवरी। हम बहुत ही कठिन समय में जी रहे हैं, यह हमें याद रखना चाहिए। वर्तमान समय में लोगों की संवेदनाएं खत्म हो रही हैं, यह गंभीर बात है। मीडिया की भी यही स्थिति है। मीडिया के लिए भूख और गरीबी कोई खबर नहीं है। उसकी सारी खबरें राजनीति, क्रिकेट, बॉलीवुड और फैशन के इर्द-गिर्द हैं। ये विचार प्रख्यात उपन्यासकार तेजिन्दर ने व्यक्त किए। मीडिया विमर्श के तत्वावधान में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में वे बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद जगदम्बिका पाल भी विशिष्ट अतिथि के नाते उपस्थित थे। सम्मान समारोह में आठवां पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2015 'कला समय' और 'रंग संवाद' के संपादक विनय उपाध्याय को दिया गया।
            साहित्यकार श्री तेजिन्दर ने कहा कि बाजारवाद के प्रभाव से साहित्य को किनारे किया जा रहा है। हमारी भाषा, शैली और शब्दों पर कार्पोरेट ने कब्जा कर लिया है। कार्पोरेट बड़ी चालाकी से साहित्य का इस्तेमाल अपने उत्पाद को बेचने में कर रहा है, लेकिन उसे साहित्यकार की संवेदनाओं की परवाह नहीं है। आज शब्द की सत्ता पर सबसे अधिक खतरा है। साहित्यिक पत्रिकाओं के मुकाबले फैशन की पत्रिकाएं अधिक हैं। आर्थिक पत्रिकाओं की भी संख्या ज्यादा है। उन्होंने बताया कि प्रकाशकों और पूंजीपतियों ने लेखकों की संवेदनाओं का दुरुपयोग करने के नए तरीके इजाद कर लिए हैं। उनके जाल में मध्यमवर्गीय लेखक धंसता जा रहा है। ऐसे दौर में मीडिया विमर्श पत्रिका ने साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मान कर एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की है।
संसद नहीं कर सकती, वे काम मीडिया ने किए : सांसद जगदम्बिका पाल
उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सांसद जगदम्बिका पाल ने कहा कि पत्रकारिता के उद्देश्य से भटकने की बहस के बीच आज भी पत्रकारिता की भूमिका और प्रभाव को उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। जनधारणा है कि आज भी जो काम संसद नहीं कर सकी है, वे सब काम पत्रकारिता ने किए हैं और कर रही है। संसद की कार्यवाही के एजेंडा तक पत्रकारों के समाचार और लेख से तय हो जाते हैं। भोपाल को कला-संस्कृति का केन्द्र बताते हुए उन्होंने कहा कि देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली है, आर्थिक राजधानी मुम्बई है तो सांस्कृतिक राजधानी भोपाल है। उन्होंने कहा कि आज के समय में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है। आप किसी भी प्रकार के ट्रायल से बच सकते हैं लेकिन मीडिया ट्रायल से नहीं। भारतीय पत्रकारिता ने कई घोटाले उजागर किए हैं। समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण भी मीडिया कर रहा है। 
विमर्श से समाज का बौद्धिक विकास : प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि समाज का बौद्धिक विकास विमर्श से होता है। लेकिन, विमर्श की दिशा क्या हो, यह साहित्यकारों और प्रबुद्धवर्ग को गंभीर चिंतन कर तय करनी चाहिए। शब्द ब्रह्म भी है और भ्रम भी। विमर्श के माध्यम से हमें समाज में ऐसा जागरण लाना चाहिए कि लोग शब्द के भ्रम से बच सकें। शब्द के माध्यम से जोडऩे का प्रयास होना चाहिए, तोडऩे का नहीं। बौद्धिक विमर्शों के माध्यम से हमें यह प्रयास करना चाहिए कि शब्द भ्रम का मायाजाल खड़ा न हो पाए। उन्होंने कहा कि शब्द का व्यापार होने लगे तो कहीं न कहीं समाज का नुकसान है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि बौद्धिक पत्रिकाओं की आज भी जरूरत है। शोध ने यह सिद्ध किया है कि 70 प्रतिशत परिवारों में साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ा जा रहा है।
सार्थक कोशिशों का सम्मान है : वरिष्ठ पत्रकार विनय उपाध्याय
समारोह में वरिष्ठ साहित्यिक पत्रकार विनय उपाध्याय को शॉल-श्रीफल और सम्मान निधि से सम्मानित किया गया। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित होने के अवसर पर श्री उपाध्याय ने कहा कि यह मेरा नहीं बल्कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सार्थक कोशिशों का सम्मान है। उन्होंने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता के पुरोधा माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मभूमि खण्डवा में पढ़ाई के दौरान साहित्यिक पत्रकारिता के बीज मेरे हृदय में पड़े। भोपाल आकर मैंने असल मायने में साहित्यिक पत्रकारिता को जाना। शुरुआत में मुझे हतोत्साहित करने का प्रयास भी किया गया लेकिन बाद में सबने मेरे प्रयासों की सराहना की। श्री उपाध्याय ने बताया कि पहले मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता के लिए पर्याप्त स्थान दिया जाता था, जो वर्तमान में गायब हो गया है। यह समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है।
सरकार करे साहित्यिक पत्रकारिता का संरक्षण : वरिष्ठ पत्रकार कमल भुवनेश
कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के सम्पादक कमल भुवनेश ने कहा कि पत्रकारिता में खबरों को उत्पाद की तरह बेचने की जो प्रवृत्ति आई है, उसने कहीं न कहीं पत्रकारिता और समाज दोनों का नुकसान किया है। इलेक्ट्रोनिक चैनल्स की बाढ़ आ गई है। लेकिन, इन चैनल्स का दृष्टिकोण राष्ट्रहित न होकर व्यावसायिक हित तक ही सीमित है। किस खबर को बेचा जा सकता है, यह ही ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि पूंजीपतियों ने समाचार पत्र-पत्रिकाओं को उत्पाद बनाकर बेचने पर जोर दिया है, इसीलिए उन्होंने अपनी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाएं बंद कर दी हैं। श्री भुवनेश ने कहा कि समाज हित में सरकार को साहित्यिक पत्रकारिता का संरक्षण करना चाहिए। साहित्यिक पत्रिकाओं को मुख्यधारा के समाचार पत्रों की तरह सुविधाएं देनी चाहिए।
परंपराओं और लोक कलाओं पर आक्रमण का समय : साहित्यकार गिरीश पंकज
    वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज ने कहा कि यह हमारी परंपराओं, संस्कृति और लोक कलाओं पर आक्रमण का समय है। पेरिस में चार्ली एब्दो पर हमला वैश्विक आतंकवाद का सबसे घृणित चेहरा है। यह बताता है कि किस तरह अभिव्यक्ति पर खतरा है। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। हम जिस प्रकार की पत्रकारिता करें, उसके केन्द्र में मनुष्य होना चाहिए। समाज में सकारात्मक विचारों को बढ़ाने के लिए हमें कलम चलानी चाहिए। उन्होंने पश्चिम के नाम पर चल रही अंधानुकरण पर भी सवाल खड़े किए। श्री पंकज ने कहा कि अब बस्तर में भी बाजार घुस आया है। जिसके कारण हमारी मौलिकता खत्म हो रही है। पारंपरिक गीत-संगीत गायब हो गया है। पहनावा भी पश्चिमी हो गया है। कार्यक्रम में स्वागत भाषण पत्रिका के संपादक डॉ. श्रीकांत सिंह ने भी दिया। निर्णायक मण्डल की ओर से प्रतिवेदन सृजनगाथा डॉट कॉम के सम्पादक जयप्रकाश मानस ने पढ़ा। उन्होंने कहा कि बाजार और वैश्वीकरण के इस दौर में साहित्यिक पत्रकारिता को बचाने का प्रयास है, पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक सम्मान। पत्रकारिता की मुख्यधारा की पत्रिका होकर मीडिया विमर्श के इन प्रयासों से साहित्यिक पत्रकारिता को बढ़ावा मिल रहा है।  

    कार्यक्रम का संचालन डॉ. सुभद्रा राठौर ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया। पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट किए। इस मौके पर डा. विजयबहादुर सिंह, प्रो, रमेश दवे, कैलाशचंद्र पंत, सुबोध श्रीवास्तव, शिवकुमार अर्चन, डा. रमाकांत श्रीवास्तव, महेश सक्सेना, अनिल चौबे, मधुकर द्विवेदी, डा.सुनीता खत्री, महेंद्र गगन, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी.शशिकला, डा. अविनाश वाजपेयी सहित भोपाल के अनेक प्रबुद्ध लोग मौजूद थे।