रविवार, 29 मार्च 2015

नरेंद्र मोदीः देश ने मान लिया दिल्ली कब मानेगी

-संजय द्विवेदी

   जमीन की जंग में नरेंद्र मोदी उलझ से गए लगते हैं। इसने पूरे विपक्ष को एकजुट तो किया ही है, साथ ही यह छवि भी प्रक्षेपित कर दी है कि सरकार को किसानों की चिंता नहीं है। अध्यादेशी आतुरता ने सरकार को दर्द के उस चौराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां से आगे जाने और पीछे जाने दोनों में खतरा है। सरकार चलाना इसीलिए संख्या बल से ज्यादा सावधानी का खेल है। जमीन को लेकर कौन क्या कहता रहा है, इसे छोड़कर वे सब सरकार के खिलाफ एकजुट हैं, जिन्होंने यूपीए के भूमिअधिग्रहण कानून पर ही सवाल उठाए थे। यह बात बताती है कि सारा कुछ इतना सरल और साधारण नहीं है, जैसा समझा जा रहा है।
दिल्ली में पराए हैं वेः
    साधारण सी राजनीतिक समझ रखने वाला भी जान रहा है कि गुजरात से दिल्ली की यात्रा नरेंद्र मोदी ने, जनता के अपार प्रेम के चलते पूरी जरूर कर ली है पर लुटियंस की दिल्ली में अभी वे पराए ही हैं। टीवी चैनलों के बहसबाजों, अखबारों के विमर्शकारों, दिल्ली में बसने वाले बुद्धिवादियों के लिए नरेंद्र मोदी आज भी स्वीकार्य कहां हैं? मोदी आज भी इस कथित बौद्धिक समाज द्वारा स्वीकारे नहीं जा सके हैं। इस छोटे से वर्ग का विमर्श सीमित, आत्मकेंद्रित, दिल्लीकेंद्रित और भारतविरोधी है। इसे न तो वे छिपाते हैं, न ही उन्हें एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन के बाद अपने विमर्शों में संशोधन की जरूरत लगती है। नरेंद्र मोदी जिस विचार परिवार के नायक हैं, वह विचार परिवार ही इस वर्ग के लिए स्वीकार्य नहीं है बल्कि उसकी निंदा के आधार पर ही इन सबकी राजनीति बल पाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विचार परिवार की यात्रा ने जो लोकस्वीकृति प्राप्त की है वह चौंकाती जरूर है, किंतु हमारे बुद्धिजीवी उस संदेश को पढ़कर खुद में बदलाव लाने के बजाए मोदी की सरकार को नाहक सवालों पर घेरने में लगे हैं। शायद इसीलिए सरकार बनते ही मोदी पर जो हमले शुरू हुए तो मोदी ने इस खेल को समझकर ही कहा था- जिन्होंने साठ साल तक कुछ नहीं किया वे हमसे पांच महीने का हिसाब मांग रहे हैं।
भारतद्वेषी बुद्धिजीवियों के निशाने परः
मोदी का संकट लुटियंस की दिल्ली में बसने वाले भारतद्वेषी बुद्धिजीवी तो हैं ही, उनके अपने परिवार में भी संकट कम नहीं हैं। दिल्ली में आए मोदी की स्वीकार्यता स्वयं दिल्ली के भाजपाई दिग्गजों में भी नहीं थी। परिवार की एक लंबी महाभारत के बाद वे दिल्ली की गद्दी पर आसीन तो हो गए पर परिणाम देने की चुनौती अभी भी शेष है। आज भी दिल्ली के टीवी चैनलों का विमर्श क्या है, वही निरंजन ज्योति या हिंदू महासभा के कुछ नेताओं के बयान। यह आश्चर्यजनक है कि एक ऐसा संगठन हिंदू महासभा, जिसकी कोई आवाज नहीं है। उसका कोई आधार शेष हो, इसकी जानकारी नहीं। किंतु किस आधार पर हिंदू महासभा को बीजेपी से जोड़कर मोदी से जवाब मांगे जाते हैं, यह समझना मुश्किल है। इतिहास में भी हिंदू महासभा और आरएसएस के रास्ते अलग-अलग रहे हैं। साध्वी निरंजन ज्योति के बारे में अशोक सिंहल कह चुके हैं वे विश्व हिंदू परिषद से संबंधित नहीं हैं। आखिर क्यों देश के प्रधानमंत्री को इन सबके बयानों के कठघरे में खड़ा किया जाता है? अपने चुनाव अभियान से आज तक नरेंद्र मोदी ने कोई कटु बात किसी भी समुदाय के बारे में नहीं कही है। वे आरएसएस से जुड़े हैं, इसे उन्होंने नहीं छिपाया है। स्वयं संघ के नेतृत्व ने ज्यादा बच्चों के बयान पर आगे आकर यह कहा कि हमारी माताएं बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं। वे बच्चों के बारे में स्वयं निर्णय करेंगीं।
 संघ परिवार का राजनीतिक विवेक है कसौटी परः
जाहिर तौर पर नरेंद्र मोदी को विफल करने के लिए एक बड़ा कुनबा लगा हुआ है। जिसमें राजनीतिक दलों के अलावा, प्रशासन के आला अफसर, वैचारिक दिवालिएपन के शिकार बुद्धिजीवी, मीडिया के लोग भी शामिल हैं। यह एक सरकार का बदलना मात्र नहीं है। एक राजनीतिक संस्कृति का बदलाव भी है। देश की बेलगाम नौकरशाही यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वे मोदी को सफल होने देंगे इसमें संदेह है। सरकार की प्रशासनिक मिशनरी पर किस मन और मिजाज के लोग हैं, कहने की आवश्यक्ता नहीं है। मोदी उन्हें कस रहे हैं किंतु वे चपल-चालाक लोग हैं, जिन्होंने मनमोहन सिंह जैसे पढ़े-लिखे आदमी का सत्यानाश कर दिया। 10-जनपथ और प्रधानमंत्री निवास की जंग में देश ने अपने इतिहास के सबसे बुरे दिन देखे, किंतु नौकरशाही मस्त रही। आज वही नौकरशाही नरेंद्र मोदी के रास्ते में इतिहास का सबसे बेहतर प्रधानमंत्री हो सकने की संभावना में बाधक है। मोदी के आलोचक सड़कों पर उतर आए हैं और उनके समर्थक बिना किसी गलती के खुद को अपराधी समझने की मनोभूमिका में आ गए हैं। इस अवसाद को हटाना भाजपा संगठन की जिम्मेदारी है। राजनीतिक क्षेत्र में बदलाव के लिए लोग बैचेन हैं। बहुत उम्मीदों से वे नरेंद्र मोदी को एक असंभव सी दिखने वाली जीत दिला चुके हैं, किंतु अब डिलेवरी का वक्त है। इतिहास नरेंद्र मोदी, भाजपा, आरएसएस सबसे हिसाब मांगेगा। यह नहीं चलेगा कि कड़वा-कड़वा थू और मीठा-मीठा गप। इसलिए संघ परिवार का राजनीतिक विवेक भी कसौटी पर है। उन सबकी पहली जिम्मेदारी सरकार को हमलों से बचाने की है। छवि को बनाए रखने की है और अपनी ओर से ऐसा कोई काम न करने की है, जिससे सरकार की गरिमा को ठेस लगे। संघ परिवार और भाजपा में बेहतर समन्वय के लिए अभी और प्रयासों की जरूरत है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर भरोसा करते हुए उसकी निगहबानी की जरूरत है। भारत जैसे देश में जहां पिछले तीन दशकों से मिलीजुली सरकारों के प्रयोग हो रहे हैं, वहां पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आना एक उपलब्धि से ज्यादा जिम्मेदारी है। नरेंद्र मोदी इतिहास के इस क्षण में अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। वे संवाद कुशल हैं। संवाद के माध्यम से उन्होंने एक गांव बड़नगर से दिल्ली तक की यात्रा तय की है। अब उनके सामने कुछ कर दिखाने का समय है। उन्हें बताना होगा कि जनता ने अगर उन पर भरोसा किया है तो यह गलत नहीं है। उन्हें अपने विरोधियों, आलोचकों को गलत साबित करना होगा। क्योंकि अगर उनके आलोचक गलत साबित होते हैं, तो देश जीतता हुआ दिखता है। उनके आलोचकों की पराजय दरअसल भारत की जीत होगी। भारत ने भारत की तरह देखना और सोचना शुरू कर दिया है। पर ये अभी पहला मुबारक कदम है नरेंद्र मोदी को अभी इस देश के सपनों में रंग भरने हैं। उम्मीदों से खाली देश में फिर से उम्मीदों का ज्वार भरना है। चुनावों के बाद नए चुनाव आते हैं, इनमें हार या जीत होती है। किंतु देश का नेता उम्मीदों और सपनों की तरफ जनप्रवाह प्रेरित करता है। मोदी में वह शक्ति है कि वे यह कर सकते हैं। नीतियों के तल पर, डिलेवरी के मोर्चे पर अभी बहुत कुछ होना शेष है। एक बड़ा हिंदुस्तान अभी भी अभावों से घिरा है। असुरक्षा से घिरा है। रोजाना रोटी के संघर्षों में लगा है। उसकी उम्मीदें हर नई सरकार के साथ उगती हैं और फिर कुम्हला जाती हैं। सत्ता के आतंक और सत्ता के दंभ के किस्से इस देश ने साठ सालों में बहुत देखे-सुने हैं। गुस्से में आकर सरकारें बदली हैं। मोदी ने भी इस गुस्से का लाभ लेकर अच्छे दिनों का वादा कर राजसत्ता पाई है। उन्हें हर पल यह सोचना होगा कि वे दिल्ली में आकर दिल्ली वालों सरीखे तो नहीं हो जाएंगे। उनके विरोध में आ रहे तर्क बताते हैं कि नरेंद्र मोदी बदले नहीं हैं। वे कुछ करेंगे यह भरोसा भी है। किंतु सबसे जरूरी यह है कि उनके अपने तो उन पर भरोसा रखें और थोड़ा धीरज भी धरें।  

मंगलवार, 24 मार्च 2015

भाषाई सद्भावना के लिए काम रही मीडिया विमर्शः बृजमोहन

गुजराती पत्रकारिता विशेषांक का विमोचन
रायपुर। भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में छत्तीसगढ़ प्रदेश के कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने अपने निवास पर जनसंचार के सरोकारों पर केन्द्रित पत्रिका मीडिया विमर्श के गुजराती पत्रकारिता विशेषांक का विमोचन किया। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, पत्रिका के प्रबंध सम्पादक प्रभात मिश्र, संपादक मंडल की सदस्य डॉ सुभद्रा राठौर,वरिष्ठ पत्रकार अनिल द्विवेदी सहित युवा पत्रकार हेमंत पाणिग्रही, बिकास कुमार शर्मा, मनीष शर्मा एवं रोहित साहू उपस्थित थे।
   इस अवसर पर बृजमोहन अग्रवाल उपस्थित जनों को नववर्ष की बधाई देते हुए कहा कि मीडिया विमर्श पत्रिका लगातार मीडिया के विभिन्न विषयों पर सामग्री उपलब्ध करा रही है जो मीडिया से जुड़े लोगों एवं मीडिया छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। भारत में हिंदी भाषा के साथ साथ समस्त क्षेत्रीय भाषाओँ एवं स्थानीय बोलियों का अपना अलग महत्त्व है,हमें सभी भाषाओं समृद्ध करने की दिशा में कार्य करना चाहिये।मीडिया विमर्श का प्रयास इस दिशा में सराहनीय है। उन्होंने कहा कि उर्दू पत्रकारिता के बाद पत्रिका ने गुजराती पत्रकारिता का विशेषांक प्रकाशित है। इससे देश में भाषाई सद् भाव पैदा होगा और भारतीय भाषाओं में अंतरसंवाद भी होगा। उन्होंने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं मातृभाषाएं भी हैं इसलिए इनके लिए आपसी संवाद के क्षेत्र तलाशे जाने चाहिए।
    पत्रिका के प्रबंध सम्पादक प्रभात मिश्र ने इस विशेषांक के संबंध में जानकारी देते हुए बताया कि हिंदी पत्राकारिता के साथ-साथ अन्य क्षेत्रीय भाषायी पत्रकारिता पर भी मीडिया विमर्श सामग्री उपलब्ध करा रही है। पत्रिका अपने प्रकाशन का एक दशक जल्द ही पूरा करने जा रही है। पत्रकार श्री रमेश नैयर ने कहा कि पत्रिका सही मायने में मीडियाकर्मियों के आत्मचिंतन और आत्ममंथन का मंच बन गयी है, इसका हर अंक संग्रहणीय और पठनीय है,साथ ही विमर्श के नए द्वार खोलता है।
क्या है गुजराती पत्रकारिता अंक मेः
    मीडिया विमर्श के गुजराती पत्रकारिता पर आए विशेषांक में समूची गुजराती पत्रकारिता पर पठनीय और संग्रहणीय सामग्री है। गुजराती पत्रकारिता के दिग्गज पत्रकारों के अलावा अन्य मीडिया विशेषज्ञों ने गुजराती पत्रकारिता पर अपनी कलम चलाई है। गुजराती पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों, टेलीविजन चैनल्स, वेब मीडिया के साथ ही गुजराती फिल्मों के संबंध में भी मीडिया विमर्श का यह अंक महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है। इसमें शशिकांत वसानी, पिंकी दलाल, भगवती कुमार शर्मा, मनीष मेहता, किरीट गणात्रा, कौशिक मेहता, काना बाटवा, डा.महेश परिमल और आशीष जोशी के साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं। खण्ड नया दौर, नई चुनौतियां के अंतर्गत शैलेष रावल, पिंकी दलाल, कुलवंत हैप्पी, जयेश चितलिया, अर्चना गुसाणी, तुषार त्रिवेदी, विक्रम वकील, जयेश ठकरार और डॉ. यासीन दलाल के लेख प्रकाशित हैं। स्वर्णिम अध्याय खण्ड में कमल शर्मा, कौशिक मेहता, डॉ. किषोर दवे और बादल पंड्या के लेख शामिल हैं। अजय नायक, हिमांशु किकाणी और कल्याणी देशमुख ने गुजरात की वेब पत्रकारिता को रेखांकित किया है।



शुक्रवार, 20 मार्च 2015

मुस्लिम मानसः बात निकली है तो दूर तलक जाएगी

-संजय द्विवेदी


  संवाद के अवसर हों, तो बातें निकलती हैं और दूर तलक जाती हैं। मुस्लिम समाज की बात हो तो हम काफी संकोच और पूर्वग्रहों से घिर ही जाते हैं। हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूर्निवर्सिटी में पिछली 17 और 18 मार्च को मुस्लिम, मीडिया और लोकतंत्र विषय पर हुए सेमीनार के लिए हमें इस संस्था का आभारी होना चाहिए कि उसने इस बहाने न सिर्फ सोचने के लिए नए विषय दिए बल्कि यह अहसास भी कराया कि भारत-पाकिस्तान की सामूहिक इच्छाएं शांति से जीने और साथ रहने की हैं।
    भारत और पाकिस्तान के लगभग तीस महत्वपूर्ण पत्रकारों, 20 से अधिक मीडिया अध्यापकों की मौजूदगी ने इस सेमीनार को जहां सफल बनाया। वहीं लार्ड मेघनाद देसाई, एन.राम, वैदप्रताप वैदिक, नजम सेठी, शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, स्वपनदास गुप्ता, सीमा मुस्तफा, जफर आगा, विनोद शर्मा, शाहिद सिद्दीकी, सतीश जैकब, सैय्यद फैसल अली, कमाल खान, अंजुम राजाबली, हिलाल अहमद, शेषाद्रि चारी, किंशुक नाग,कुमार केतकर, जावेद नकवी, अकू श्रीवास्तव, मासूम मुरादाबादी, तहसीन मुनव्वर, अबदुस्स सलाम असिम जैसे पत्रकारों- बुद्धिजीवियों की मौजूदगी ने इस आयोजन में विमर्श के नए सूत्र दिए। पाकिस्तान से आए तीन पत्रकारों नजम सेठी, महमल सरफराज और इम्तियाज आलम के भाषणों से साफ पता चलता है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ आम लोगों में खासा आक्रोश है और वे इस खूनी खेल से तंग से हैं। भारत के लोगों के संदेश देते हुए इनका साफ कहना था कि वे चाहें तो पाकिस्तान जैसे हो जाएं पर इससे उनकी जिंदगी नरक हो जाएगी। इन पत्रकारों का मानना था कि पिछले छः दशक तक वे जिस रास्ते पर चले हैं वह गलत है और मजहब और राजनीति के घालमेल से हालात बदतर ही हुए हैं।   
उर्दू और पापुलर कल्चरः
  हिंदुस्तानी मुसलमानों की मीडिया में उपस्थिति और उनकी प्रक्षेपित की जा रही छवि भी चर्चा के केंद्र में रही। वैश्विक मीडिया में मुसलमानों को लेकर जो कुछ बताया और छपाया जा रहा है उस पर काफी बातें हुयीं। आमतौर पर रूझान यही रहा कि जो कहा और बताया जा रहा है उसमें पूरा सच नहीं है। राजदीप सरदेसाई और कमाल खान के संयुक्त संचालन में हुए मीडिया कान्क्लेव में यह बातें उभरकर सामने आई कि मुसलमानों को इन सवालों पर सोचने और आत्ममंथन करने की जरूरत है। यदि वे अपने अंदर झांककर खुद को नहीं बदलते हैं तो यह छवि तोड़नी मुश्किल है। मुस्लिम मानस की चिंताओं के साथ वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने उर्दू की भी बात छेड़ी। उनका कहना था कि हिंदुस्तान में पापुलर कल्चर को उर्दू ने ही जिंदा रखा है। उन्होंने कहा वैश्विक आतंकवाद का चेहरा फिल्मों में भी दिख रहा है, इससे मुस्लिम समाज को जोड़कर देखने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा भारत की परिस्थितियां अलग हैं। यहां लोकतंत्र है और लोग अपने हकों के लिए आगे आ सकते हैं। अरब देशों से आतंकवादी अधिक इसलिए निकलते हैं क्योंकि वहां पर विरोध करने के अवसर नहीं हैं। इसलिए विरोध आतंकवाद की शक्ल में ही सामने आता है। उनका मानना था कि इस्लामोफोबिया से भारतीय मीडिया को बचाने की जरूरत है। मीडिया और मीडिया शिक्षण से जुड़े लोगों ने इस मौके पर भारतीय उपमहाद्वीप में उपस्थित चुनौतियों पर लंबी बातचीत की। उर्दू और उसकी समस्याओं पर भी चर्चा की।
अलग नहीं हैं मुसलमानों की चिंताएः
   मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैंपर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्दउनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र हैअतएव इसे हिंदूमुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिएजनता का एजेंडा’ किसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखालेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती बेरोजगारीअशिक्षाअंधविश्वासगंदगीपेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है। जाहिर है मूल प्रश्नों से भटकाव और भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द समूची राजनीति का ताना बुना जाता है।
बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त होः
   सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के साढ़े छः दशक बीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो जिन्नावादी असहजता’ हैउस पर उन्हें लगातार भारतवादी’ होने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम राजनीति का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है।
  एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता हैवहीं दूसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। आज की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता । भारतीय समाज में ही नहीं,हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआजिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर,नजीर अकबरवादीअब्दुर्रहीम खानखानारसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी थाजिसनें उपनिषद्’ का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी हैसंवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थीआज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है।
जरूरी है संवाद और सांस्कृतिक आवाजाहीः
      वीर सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि नमाज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्नाजो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेज थे,मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए ।

      मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैंजहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है। मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिकआर्थिकसमाज सुधारशिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है।मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगीसमाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाहीसांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है।जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ालिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है तो भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । हैदराबाद में हुयी बातचीत मुसलमान, उर्दू के इर्द-गिर्द जरूर हुयी पर उसने एक बहस शुरू की है जिसमें हिंदुस्तानी मुसलमान की उम्मीदें दिखती हैं और यही उनके बेहतर भविष्य और सार्थक लोकतंत्र की राह बनाएगी।

आम’ नहीं ‘खास’ हो गए ‘आप


-संजय द्विवेदी


   आम आदमी पार्टी के साथ जो हो रहा है उसे लेकर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में खासी प्रसन्नता है। राजनीति के क्षेत्र में ऐसा कम ही होता है जब कोई नया दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इस तरह हिलाकर रख दे। राजनीति के बने-बनाए तरीके से अलग काम करने और उसके अनुरूप आचरण से किसी को समस्या नहीं होती किंतु जब कोई दल नए विचारों के साथ सामने आता है तो समस्या खड़ी होती है।
   आम आदमी पार्टी ने जिस तरह जाति, धर्म, क्षेत्र की बाड़बंदी तोड़कर दिल्ली चुनाव में सबका समर्थन प्राप्त किया, वह बात चौंकानेवाली थी। यह बात बताती है कि उम्मीदों और उजले सपनों की उम्मीद अभी भी देश की जनता में बाकी है। लोग चाहते हैं कि बदलाव हों और सार्थक बदलाव हों। लोग साथ आते हैं और साथ भी देते हैं। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल निश्चय ही इस सपने को जगाने और भुनाने में सफल रहे हैं। किंतु यह मानना कठिन है, यह अकेले अरविंद का करिश्मा है। यह उस समूह का करिश्मा है, जिसने जड़ता को तोड़कर एक नई राजनीतिक शैली का वादा किया। इसमें अरविंद के वे साथी जो दृश्य में हैं शामिल हैं, वे भी हैं जो अदृश्य हैं। वे लोग भी हैं, जिन्होंने अनाम रहकर इस दल के लिए समर्थन जुटाया। वह समर्थन सड़क पर हो, सोशल मीडिया में हो या कहीं और। ऐसे में अरविंद केजरीवाल को अपने इन साथियों की उम्मीदों को तोड़ने का हक नहीं है। प्रशांत भूषण,योगेंद्र यादव, मयंक गांधी से लेकर अंजलि दमानिया के सवाल असुविधाजनक जरूर हो सकते हैं, पर अप्रासंगिक नहीं हैं। क्योंकि यह आदत स्वयं आम आदमी पार्टी ने उनमें जगाई है। आम आदमी पार्टी  का चरित्र ही पहले दिन से ऐसा है कि वहां ऐसे सवाल उठेंगें ही। रोके जाने पर और उठेंगें। आम आदमी पार्टी का सच यह है कि वह अभी पार्टी बनी नहीं है। वह दल बनने की प्रक्रिया में है। उसका वैचारिक मार्ग भी अभी स्वीकृत नहीं है।वह विविध विचारों के अनुयायियों का एक ऐसा क्लब है, जिसने भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए सपना देखा और एकजुट हुआ। अब इस समूह ने आंदोलन की सीमाएं देखकर खुद सत्ता के सपने देखने शुरू किए हैं और बहुत आसानी से बड़ी सफलताएं पाई हैं। जाहिर है कि उन्हें इसका हक है कि वे सपने देखें और उनकी ओर दौड़ लगाएं। वाराणसी से लेकर अमेठी तक युद्धघोष करने वाली टीम अब दिल्ली की सत्ता में है और संभलकर चलना चाहती है। संभलकर चलना ऐसा कि दिल्ली देखें या देश यहां इसका सवाल भी अहम है।
    राजनीतिक दलों में ऐसे वैचारिक द्वंद कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो सब दलों में होता है। किंतु अरविंद केजरीवाल ने इन सवालों से निपटने का जो तरीका अपनाया वह सवालों के घेरे में है। मुखिया मुख सो चाहिए खान-पान में एक की उक्ति को केजरीवाल सार्थक नहीं कर पाए। उन्हें समस्या से निपटने के लिए व्यक्तिगत संवाद का तरीका अपनाना चाहिए था। वे यहीं चूक गए, उन्होंने अपने गणोंको यह काम सौंप दिया जो अपने नेता की भक्ति में इतने बावले हुए कि उनको मर्यादाओं का ख्याल भी न रहा। सत्ता और ऐसी बहुमत वाली सरकार किसी में भी अहंकार भर सकती है। अब सही मायने मेंपांच साल केजरीवाल का नारा एक हकीकत है। देखें तो किसी भी सत्ता को सवाल खड़े करने वाले लोग नहीं सुहाते, इसलिए व्यक्तिगत आरोपों की लीला चरम पर है। अरविंद केजरीवाल के खेमे के माने जाने वाले मित्रों ने भी पत्र लिखे, ट्यूटर-फेसबुक पर कमेंट किए, टीवी इंटरव्यू दिए और पार्टी की बातें बाहर ले गए। इसी काम के लिए एक पक्ष को सजा और दूसरे पक्ष को मजा लेने की आजादी कैसे दी जा सकती है। यह ठीक है कि अरविंद बीमार हैं, उन्हें अपना स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए बाहर जाने की आजादी है। किंतु वह विवादित बैठक भी टाली जा सकती थीं और संवाद के लिए नए रास्ते खोजे जा सकते थे। क्या ही अच्छा होता कि प्रशांत-योगेंद्र यादव का सर कलम करने से पहले अरविंद इस बैठक को स्थगित करते, स्वास्थ्य लाभ लेने बंगलौर जाते और वहां एक-एक को बुलाकर सीधी बात कर लेते। इससे संवाद के सार्थक क्षण बनते और एक- दूसरे के प्रति प्रायोजित सद्भाव मीडिया में भी दिखता। इससे निश्चित ही रास्ते निकलते। किंतु अरविंद के उत्साही मैनेजरों ने पार्टी को 8-11 में बंटा हुआ साबित कर दिया और यह भी साबित किया कि उनको संवाद नहीं मनमानी में यकीन है।
  यह आश्चर्य ही है कि पार्टी के भीतर आपसी संवाद से ज्यादा संवाद नेताओं ने टीवी चैनलों पर किया। आम आदमी पार्टी की यह टीवी चपल और वाचाल टीम आज बेकार वक्तव्यों, ट्वीट्स व आरोपों-प्रत्यारोंपों के बीच फंसी हुयी है।यह बात उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता को ही प्रकट करती है। अरविंद केजरीवाल निश्चय ही पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं। वे इस दल की धुरी हैं किंतु कोई भी संगठन एक नेता की छवि पर नहीं चलता, उसे ताकत देने वाले लोग बड़ी संख्या में पीछे काम करते हैं। नेपथ्य में काम कर रहे लोगों की एक शक्ति होती है और वे दल का आधार होते हैं। आम आदमी पार्टी ने स्टिंग के जो खेल खेले, आज उस पर भारी पड़ रहे हैं। हर व्यक्ति एक- दूसरे को अविश्वास से देख रहा है। एक दल का मुख्यमंत्री और विधायक भी अगर संवाद के तल पर आशंकाओं से घिरे हों तो क्या कहा जा सकता है। विधायक स्टिंग कर रहे हैं और अपने नेताओं को बेनकाब कर रहे हैं। यह अविश्वास राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इस रूप में प्रकट होकर जगह पा रहा है। एक राजनीतिक दल के नाते ही नहीं, एक मनुष्य होने के नाते हमारे सारे क्रिया-व्यापार भरोसे की नींव पर चलते हैं किंतु आम आदमी पार्टी इन स्टिंग आपरेशनों की प्रणेता के रूप में उभरी हैं- जहां अविश्वास ही केंद्र में है। भरोसे का यह संकट बताता है कि अभी भी आम आदमी पार्टी को एक दल की तरह, एक परिवार की तरह व्यवहार करना सीखना है। वे सब आंदोलन के साथी हैं, पर लगता है कि इतनी जल्दी सफलताओं ने उन्हें बौखला दिया है। क्या वे जीत को स्वीकार कर विनयी भाव से जनसेवा की ओर अग्रसर होगें या उनकी परिवार की महाभारत और नए रंग दिखाएगी कहना असंभव है।
    ऐसे कठिन समय में अरविंद केजरीवाल की यह जिम्मेदारी है कि वे जब स्वस्थ होकर लौटें तो कारकूनों के बजाए संवाद की बागडोर स्वयं लें। आज भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है और लड़कर सबने अपनी हैसियत भी बता दी है कि हमाम में सब नंगें हैं। इन्हें फिर एक मंच पर लाना आम आदमी पार्टी के नेता होने के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी अरविंद केजरीवाल की ही है। वे माफी मांगकर दिल्ली का दिल जीत चुके हैं, साधारण संवाद से फिर से अपनों का दिल भी जीत सकते हैं। किंतु इसके लिए उन्हें खुद का दिल भी बड़ा करना पड़ेगा। उम्मीद तो की जानी चाहिए कि वे बंगलौर से कुछ ऐसी ही उम्मीदें जगाते हुए दिल्ली लौटेंगें।

गुरुवार, 5 मार्च 2015

कश्मीरः इतिहास में अटकी सूईयां

भाजपा-पीडीपी के सामने हालात को बदलने की चुनौती
-संजय द्विवेदी

  कश्मीर में भाजपा ने जिस तरह लंबे विमर्श के बाद पीडीपी के साथ गठबंधन की सरकार बनाई, उसकी आलोचना के लिए तमाम तर्क गढ़े जा सकते हैं। किसी भी अन्य राजनीतिक दल ने ऐसा किया होता तो उसकी आलोचना या निंदा का सवाल ही नहीं उठता, किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो महापाप हो गया। यहां तक कि कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी लग रहा है कि भाजपा के इस कदम से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आत्मा को ठेस लगी होगी।
   यह समझना बहुत मुश्किल है कि भाजपा जब एक जिम्मेदार राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करते हुए विवादित सवालों से किनारा करते हुए काम करती है तब भी वह तथाकथित सेकुलर दलों की निंदा की पात्र बनती है। इसके साथ ही जब वह अपने एजेंडे पर काम कर रही होती है, तब भी उसकी निंदा होती है। यह गजब का द्वंद है, जो हमें देखने को मिलता है। अगर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सम्मान और 370 की चिंता भाजपा को नहीं है तो उमर या फारूख क्या इस सम्मान की रक्षा के लिए आगे आएंगें? जाहिर तौर पर यह भाजपा को घेरने और उसकी आलोचना करने का कोई मौका न छोड़ने की अवसरवादी राजनीति है। क्यों बार-बार एक ऐसे राज्य में जहां भाजपा को अभी एक बड़े इलाके की स्वीकृति मिलना शेष है कि राजनीति में उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह इतिहास को पल भर में बदल देगी।
साहसिक और ऐतिहासिक फैसलाः
    भाजपा का कश्मीर में पीडीपी के साथ जाना वास्तव में एक साहसिक और ऐतिहासिक फैसला है। यह संवाद के उस तल पर खड़े होना है, जहां से नई राहें बनाई जा सकती हैं। भाजपा के लिए कश्मीर सिर्फ जमीन का टुकड़ा नहीं, एक भावनात्मक विषय है। भाजपा के पहले अध्यक्ष(तब जनसंघ) ने वहां अपने संघर्ष और शहादत से जो कुछ किया वह इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। भाजपा के लिए यह साधारण क्षण नहीं था, किंतु उसका फैसला असाधारण है। सरकार न बनाना कोई निर्णय नहीं होता। वह तो इतिहास के एक खास क्षण में अटकी सूइयों से ज्यादा कुछ नहीं है। किंतु साहस के साथ भाजपा ने जो निर्णय किया है, वह एक ऐतिहासिक अवसर में बदल सकता है। आखिर कश्मीर जैसे क्षेत्र के लिए कोई भी दल सिर्फ नारों और हुंकारों के सहारे नहीं रह सकता। इसीलिए संवाद बनाने के लिए एक कोशिश भाजपा ने चुनाव में की और अभूतपूर्व बाढ़ आपदा के समय भी की। यह सच है कि उसे घाटी में वोट नहीं मिले, किंतु जम्मू में उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। यह क्षण जब राज्य की राजनीति दो भागों में बंटी है, अगर भाजपा सत्ता से भागती तो वहां व्याप्त निराशा और बंटवारा और गहरा हो जाता। भाजपा ने अपने पूर्वाग्रहों से परे हटकर संवाद की खिड़कियां खोलीं हैं। अलगाववादी नेता स्व.अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद लोन को अपने कोटे से मंत्री बनवाया है। यह बात बताती है कि अलगाववादी नेता भी लोकतंत्र का हमसफर बनकर इस देश की सेवा कर सकते हैं।
यहां पराजित हुआ है पाक का द्विराष्ट्रवादः
  कश्मीर की स्थितियां असाधारण हैं। पाकिस्तान का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कश्मीर में ही पराजित होता हुआ दिखता है। हमने सावधानी नहीं बरती तो कश्मीर का संकट और गहरा होगा। आज सेना के सहारे देश ने बहुत मुश्किलों से घाटी में शांति पाई है। कश्मीर का इलाज आज भी हमारे पास नहीं है। देश के कई इलाके इस प्रकार की अशांति से जूझ रहे हैं किंतु सीमावर्ती कश्मीर में पाक समर्थकों की उपस्थिति और पाकिस्तान के समर्थन से हालात बिगड़े हुए हैं। कश्मीर के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े बिना यहां कोई पहल सफल नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को जानते हैं कि वहां के लोगों की स्वीकृति और समर्थन भारत सरकार के लिए कितनी जरूरी है। हमारे पहले प्रधानमंत्री की कुछ रणनीतिक चूकों की वजह से आज कश्मीर का संकट इस रूप में दिखता है। ऐसे में भाजपा का वहां सत्ता में होना कोई साधारण घटना और सूचना नहीं है। घाटी और जम्मू के बेहद विभाजित जनादेश के बाद दोनों दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे अपने-अपने लोगों को न्याय दें। केंद्र की सत्ता में होने के नाते भाजपा की यह ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी थी।
उन्हें क्यों है 370 पर दर्दः
जिन लोगों को 370 दर्द सता रहा है वे दल क्या भाजपा के साथ 370 को हटाने के लिए संसद में साथ आएंगें, जाहिर तौर पर नहीं। फिर इस तरह की बातों को उठाने का फायदा क्या है। इतिहास की इस घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐतिहासिक अवसर मिला है, जाहिर है वे इस अवसर का लाभ लेकर कश्मीर के संकट के वास्तविक समाधान की ओर बढ़ेंगें। संवाद से स्थितियां बदलें तो ठीक अन्यथा अन्य विकल्पों के लिए मार्ग हमेशा खुलें हैं। देश को एक बार कश्मीर के लोगों को यह अहसास तो कराना होगा कि श्रीनगर और दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जो उनके दर्द को कम करना चाहती है। जिसके लिए सबका साथ-सबका विकास सिर्फ नारा नहीं एक संकल्प है। यह अहसास अगर गहरा होता है, घाटी में आतंक को समर्थन कम होता है, वहां अमन के हालात लौटते हैं और सामान्य जन का भरोसा हमारी सरकारें जीत पाती हैं तो स्थितियां बदल सकती हैं। आज कश्मीर के लोग भी भारत में होने और पाकिस्तान के साथ होने के अंतर को समझते हैं।

    कोई भी क्षेत्र अनंतकाल तक हिंसा की आग में जलता रहे तो उसकी चिंताएं अलग हो जाती हैं। भारत सरकार के पास कश्मीर को साथ रखना एकमात्र विकल्प है। इसलिए उसे समर्थ और खुशहाल भी बनाना उसकी ही जिम्मेदारी है। 370 से लेकर अन्य स्थानीय सवालों पर विमर्श खड़ा हो, उसके नाते होने वाले फायदों और नुकसान पर संवाद हो। फिर लोग जो चाहें वही फैसला हो, यही तो लोकतंत्र है। भाजपा अगर इस ओर बढ़ रही है तो यह रास्ता गलत कैसे है।