बुधवार, 24 जून 2015

मोदी मुहिम से पड़ोसियों के दिलों में उतरता भारत

-संजय द्विवेदी
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफल बंगलादेश यात्रा ने यह साबित कर दिया है कि अगर नेतृत्व आत्मविश्वास से भरा हो तो अपार सफलताएं हासिल की जा सकती हैं। बंगलादेश से लेकर नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका तक अब नरेंद्र मोदी की यशकथा कही और सुनी जा रही है। ढाका के विश्वविद्यालय में उनका संबोधन वास्तव में उन्हें एक ऐसी ऊंचाई और गरिमा प्रदान करता है, जिसके वे हकदार हैं। उनके संबोधन ने भारत और बंगलादेश रिश्तों में एक नए युग की शुरुआत की है। एक राष्ट्रनायक सरीखी छवि और वाणी उनके पूरे व्यक्तित्व से झलकती है।
   समूचा भारतीय उपमहाद्वीप एक साझी विरासत और रिश्तों का उत्तराधिकारी है। बावजूद इसके भारत के रिश्ते अपने पड़ोसियों से बहुत सहज नहीं रहे। इस दर्द को भारत ने हमेशा महसूस किया है, किंतु साझा नहीं किया। पाकिस्तान और चीन ही इस इलाके में हमारे समूचे विदेश विमर्श का हिस्सा बने रहे। अपने अन्य पड़ोसियों से हमारे रिश्ते सहज ही रहे किंतु उन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता। हम पाकिस्तान और चीन से रिश्ते सुलझाने में ही लगे रहे, बाकी कहीं झांककर नहीं देखा। ऐसे में यह बात महत्व की है कि हमें लंबे अरसे बाद एक ऐसा नेता मिला है जो संवाद में रूचि रखता है और अपने पड़ोसियों से सहज रिश्ते बनाना चाहता है। नेपाल के भूकंप में मानवीय सहायता उपलब्ध कराकर जिस तरह से उन्होंने सारे विषय पर अपेक्षित संवेदना का संचार किया वह उनकी मानवीय दृष्टि का परिचायक है। इस काम से जहां नेपाल-भारत के रिश्ते और सहज हुए वहीं नेपाल में सक्रिय भारतविरोधी शक्तियों को भी सीख मिली। नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के प्रमुखों को ससम्मान बुलाकर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। वे पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह रणनीति अब अमल में दिखने लगी है। वे निरंतर प्रवास और संपर्क से इसे साध रहे हैं। भारत का पाकिस्तान के साथ रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। भारतीय मीडिया और पाकिस्तानी मीडिया में भी यह रोजाना की खास खबर है। नरेंद्र मोदी इतिहास की इस घड़ी में रुकना नहीं चाहते, वे जहां जैसे रिश्ते बनाए और बचाए जा सकते हैं, उसके प्रयासों में लगे हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज जैसी अनुभवी और दक्ष विदेशमंत्री का लाभ भी इस पूरी मुहिम को मिल रहा है। भारतवंशियों की शक्ति को एकत्र कर दुनिया के हर देश में नरेंद्र मोदी एक अलग वातावरण बनाने का काम कर रहे हैं। अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक उनका यह रूप लोगों ने देखा है। यह वैश्विक स्तर पर भारत के उठ खड़े होने का समय भी है। अपने पहले भाषण में ही मोदी ने साफ किया कि वे न तो आंख झुकाकर बात करना चाहते हैं न ही चाहते हैं कि कोई देश सिर झुकाकर बात करे। एक-दूसरे की अस्मिता का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना प्रारंभ से भारत की नीति रही है। नरेंद्र मोदी इसे साकार करते हुए दिखते हैं। नेपाल,म्यांमार, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव जैसे अपेक्षाकृत आकार में छोटे देश हों या चीन जैसे विशाल देश मोदी ने सबको साथ लेने का प्रयास किया है। वे चाहते हैं कि इस उपमहाद्वीप में शांति का वातावरण बने और आतंकवाद समाप्त हो। सबसे बड़ी बात वे इन देशों में आर्थिक प्रगति को होते हुए देखना चाहते हैं। एक-दूसरे के सहयोग से बड़ी आर्थिक बनकर अपने देश का गौरव बनाना उनका उद्देश्य दिखता है।
 मोदी एक अच्छे वक्ता और आक्रामक शैली में संवाद करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा में गर्मजोशी और ठहराव है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद शायद वे सबसे प्रभावी राजनेता हैं जिसकी देश की जनता और विदेश के जनमानस पर पकड़ बनती हुई दिख रही है। उन्हें इवेंट मैनेजर कहकर उनकी ताकत को कम करने, कम आंकने के सुनियोजित यत्न भी चल रहे हैं किंतु दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को एकजुट कर एक सकारात्मक दबाव समूह खड़ा करना उनकी एक सोची समझी नीति है। वे इस पर अरसे से काम भी कर रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे वैश्विक संवाद करते रहे हैं। उद्योगों और निवेश के लिए अनुकूल वातावरण बनाना ऐसे ही संवादों से संभव है। वे भारत को एक ब्रांड में तब्दील करने की कोशिशों में लगे हैं। उनको देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि वे इसे संभव बनाने में सफल रहेंगे।

  राजनीति की पिच पर वे एक ऐसे राजनेता हैं जो हर सभा में शतक बनाते ही हैं। लोगों के दिलों को छूती हुयी उनकी आवाज उन्हें विश्वसनीय बनाती है। रिश्तों में वे दिलदार दिखते हैं। पड़ोसियों के संकट में खड़े होना या उन्हें उनके विकास में मदद करना दोनों मोर्चों पर वे अपनी दरियादिली दिखा चुके हैं। उनके इन तेवरों से पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की प्रतिक्रियाएं समझी जा सकती हैं। म्यांमार में जंगलों में जिस तरह भारतीय सेना ने आपरेशन किया और विद्रोही आतंकियों को मार गिराया, वह एक ऐतिहासिक सूचना है। इस घटना पर पाकिस्तान की असेंबली में प्रस्ताव पास करने से लेकर वहां के नेताओं की बौखलाहट बताती है कि इस क्षेत्र में भारत की बढ़ती स्वीकृति से वे खासे परेशान हैं। यह बात साबित करती है कि किस तरह पाकिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह बना हुआ है। वरना एक दूसरे देश के साथ अच्छे रिश्तों के नाते हुए भारतीय सेना के आपरेशन पर इतना हायतौबा मचाने की जरूरत क्या है। पाकिस्तान को यह समझना होगा कि भारत का राजनैतिक नेतृत्व अधिनायकवादी नहीं है। वह अपने पड़ोसियों को आदर देने वाला और उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला देश है। भारत की विदेशनीति भी इन्हीं आदर्शों पर आधारित है। लाइन आफ कंट्रोल का आए दिन उल्लंघन करने वाले पाकिस्तान के प्रति भारत की सदाशयता का उसने सदा फायदा उठाया है। भारत में आतंकवाद को पोषित करना और कश्मीर में रोजाना संकट खड़े करना पाकिस्तान की नीति रही है। कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है। बावजूद भारत उसके साथ शांति का ही राग गाता रहा है। उसकी तमाम नादानियों और साजिशों के बाद भी भारत ने हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी हमेशा ये कहते ही थे कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। एक सुखी, समृद्ध पाकिस्तान भारत के लिए भी अच्छा होगा। किंतु पाकिस्तान की सूइयां अटकी हुयी हैं। कश्मीर उसकी दुखती रग बन गया है और भारतविरोध वहां की राजनीति की प्राणवायु। कश्मीर के नाम पर की जा रही पाकिस्तानी हरकतें इस देश को हमेशा दुखी करती हैं। अब जबकि एक सरकार कश्मीर में बनी है जिसमें भाजपा भी हिस्सेदार है तो पाकपरस्त ताकतें खुद को असहाय पा रही हैं। मोदी ने इसे समझते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया है। पाक पर अपनी ज्यादा ताकत लगाने के बजाए वे पूरी दुनिया को साथ लाना और सबके साथ बढ़ना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह नीति भारत के भविष्य को भी रेखांकित करती है। वे विश्वमंच पर भारत को स्थापित करने के प्रयत्नों में लगे हैं ऐसे में जरूरी है उनकी इस यात्रा में उनके पड़ोसी भी साथ हों। पाकिस्तान को छोड़कर उन्होंने लगभग सभी पड़ोसियों से रिश्ते सहज किए हैं। इसका लाभ भारत को आर्थिक रूप से भले न हो किंतु मानवीय दृष्टि और वैश्विक दृष्टि से जरूर मिलेगा।

गुरुवार, 4 जून 2015

भाजपा के लिए कठिन परीक्षा हैं उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव

-संजय द्विवेदी

   लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का सिरमौर बनकर भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र की सत्ता पर तो काबिज हो गयी है पर अब इन दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी साख दांव पर है। लोकसभा चुनावों के परिणामों के आधार पर तो दोनों राज्यों में उसकी सरकार बननी तय है किंतु दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया कि कहानियां दोहराई नहीं जाती हैं।

   उत्तर प्रदेश और बिहार पिछले तीन दशकों से सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने हुए हैं और इन शक्तियों ने अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को बार-बार कराया है। उप्र और बिहार में कांग्रेस किस हाल में है किसी से छिपा नहीं है तो भाजपा भी उप्र में लंबे समय से सत्ता से बाहर है। विधानसभा चुनावों का मैदान उप्र में सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ है। लोकसभा चुनावों का कोई असर मैदान में नहीं है यह उप्र में हुए विधानसभा उपचुनावों से साफ जाहिर है। इसी तरह बिहार में भाजपा एक बड़ी शक्ति है किंतु विधानसभा में यह शक्ति उसे एक मजबूत गठबंधन का हिस्सा होने के नाते हासिल हुयी थी। ऐसे में उत्तर भारत के ये दो राज्य मोदी लहर की असलियत भी सामने लाने वाले हैं। यह भी गजब है कि दोनों राज्यों में भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक भी लोकप्रिय चेहरा नहीं है। यानि यह तय है कि ये चुनाव भी मोदी की आदमकद छाया में ही लड़े जाएंगें। जिस तरह स्मृति ईरानी को उप्र का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है, वह प्रयोग दिल्ली चुनाव में किरण बेदी प्रयोग की तरह भारी पड़ सकता है। अमेठी के चुनाव समर में पराजित स्मृति ईरानी के साथ उप्र के कार्यकर्ता कोई रिश्ता जोड़ पाएंगें ऐसा संभव नहीं लगता। ऐसे में उप्र की डगर कठिन है और मोदी का नाम ही वहां एक सहारा रहेगा। अमित शाह की सारी रणनीतिक कुशलता के बावजूद चुनाव अंततः कार्यकर्ता लड़ता है और वही अपने वोटर को घर से निकाल कर मतदान केंद्र तक पहुंचाता है। बिहार में चुनाव पहले हैं इसलिए बिहार का प्रभाव उप्र के चुनावों पर भी पड़ना तय है। आप देखें तो बिहार में जनता परिवार की एकता पर ही भाजपा की रणनीति और नजरें टिकी हुयी हैं। दलित नेता जीतन राम मांझी से प्रधानमंत्री की मुलाकात साधारण घटना नहीं है। यानि प्रधानमंत्री भी इस चुनाव के मायने समझ रहे हैं और अपने तरीके से कदम उठा रहे हैं। जनता परिवार की एकता अगर टूटती है तो भाजपा को इस बहुकोणीय मुकाबले में ज्यादा लाभ मिल सकता है किंतु आज भी वहां का संगठन अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने के आत्मविश्वास से खाली है। दूसरी ओर भाजपा के दिग्गज नेताओं की आपसी स्पर्धा और अविश्वास भी एक बड़ी  चुनौती हैं। कभी स्टार प्रचारक रहे शत्रुध्न सिन्हा जैसे नेताओं की नाराजगी समय-समय पर मीडिया के माध्यम से मुखरित होती रहती है। ऐन चुनाव के वक्त ऐसी उलटबासियों को रोकना और नियंत्रित करना जरूरी है। बिहार की सामाजिक-राजनीतिक संरचना और वहां के समाज की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हमेशा ही राजनीतिक विज्ञानियों और समाज शास्त्रियों के चिंतन-मनन और अनुशीलन का विषय रही हैं। कोई एक सबसे बड़ा कारक इस राज्य की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है तो वह आज भी जाति ही है। जाति के इस समीकरण को समझकर जो दल गठबंधन करते हैं और उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करते हैं वो मैदान मार ले जाते हैं। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे स्थानीय क्षत्रपों से तालमेल कर एक सोशल इंजीनिरिंग की और उसे इसका लाभ भी मिला। आने वाले चुनावों में ये दो नेता अपने दल के साथ भाजपा के साथ हैं और उम्मीद है कि जीतनराम मांझी भी भाजपा के साथ आ जाएं। मोदी सरकार के साल भर के कामकाज और उसके प्रभावों का आकलन भी इस चुनावों में एक बड़ा कारक रहेगा। भूमि अधिग्रहण कानून पर बना वातावरण जिसे अभी भी भाजपा जनता के गले नहीं उतार पाई है चिंता का कारण बन सकता है। बिहार के लोग अपनी राजनीतिक समझ और पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं। उनकी राजनीतिक समझ पूरे देश के सामने एक उदाहरण की तरह सामने आती रही है। क्रांतिकारी विचारों और आंदोलनों के बीज इस धरती से फूटते रहे हैं और पूरा देश यहां से आंदोलित होता रहा है। पटना का गांधी मैदान ऐसी तमाम रैलियों का गवाह है, जिनसे देश की राजनीति में परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। ऐसे में मोदी और उनकी टीम के लिए बिहार एक चुनौती की तरह है। यदि भाजपा बिहार के मैदान को फतह करती है तो उसे उप्र की जीत के लिए एक नया आत्मविश्वास मिलेगा, जो दिल्ली की पराजय से कहीं न कहीं कमजोर पड़ा है। नरेंद्र मोदी के सेनापति अमित शाह की कठिन परीक्षा इस राज्य में होनी है क्योंकि उनकी भी रणनीतिक कुशलता एक बार सवालों के दायरे में हैं। बिहार में भाजपा के पास प्रखर नेताओं की एक पूरी जमात है जिसमें सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, गिरिराज सिंह, शत्रुध्न सिन्हा, सीपी ठाकुर, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूढ़ी आदि शामिल हैं। ये सारे नेता अगर एक होकर बिहार के मैदान में उतरते हैं तो एनडीए में शामिल रामविलास पासवान और उपेंद्र सिन्हा को मिलाकर भाजपा की ताकत बहुत बढ़ जाती है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने स्वयं के चेहरे के नाते एक लोकप्रिय छवि रखते हैं किंतु उनका संकट यह है उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाहक टकराव लेकर और मांझी प्रकरण में जल्दबाजी दिखाकर अपनी विश्वसनीयता को चोट ही पहुंचाई है। आज जनता परिवार के दल ही उनको नेता स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। बिहार के भीतर-बाहर भी उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन रही है, जो अवसरवाद के साथ- साथ सत्ता के लिए समझौते कर सकता है। इससे निश्चय ही नीतीश की नैतिक आभा कम हुयी है। वहीं नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान स्वयं को एक पिछड़ा वर्ग से आने वाला प्रधानमंत्री प्रचारित कर बिहार के जनमानस में पैठ बनाई है। विकास के सवाल पर भाजपा के नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि भाजपा जब तक जेडीयू सरकार में थी तभी तक यह विकास और सुशासन का मामला चला और अब क्योंकि भाजपा अलग है इसलिए नीतीश पर भरोसा करना कठिन है।यह कह पाना कठिन है कि भाजपा का यह विकास मंत्र कितना काम करेगा। बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को समझते हैं कि इस प्रदेश के चुनाव साधारण नहीं है, यहां से हवा बिगड़ने और बनने का काम प्रारंभ होता है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव का भविष्य जहां इस चुनाव से तय होगा, वहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए भी ये चुनाव भाजपा संगठन में उनकी उपस्थिति को तय करेंगें। दिल्ली प्रदेश के बाद मोदी के लिए यह दूसरी कठिन परीक्षा है। भाजपा को बिहार में मौजूदा विधायकों से अधिक लाने की चुनौती जहां मौजूद है,वहीं उप्र के नेता इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि वहां तो मौजूदा विधायकों से ज्यादा विधायक निश्चित ही आएंगें। जानकारी के लिए दिल्ली और उप्र दो ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा के लोकसभा सदस्यों की संख्या विधायकों से ज्यादा है।