गुरुवार, 24 सितंबर 2015

दीनदयाल उपाध्याय होने का मतलब

जन्मशती वर्ष पर विशेष (जयंती 25 सितंबर)

-संजय द्विवेदी

     राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। अब जबकि उनकी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता में स्थान पा चुकी है, तब यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर दीनदयाल उपाध्याय की विचारयात्रा में ऐसा क्या है जो उन्हें उनके विरोधियों के बीच भी आदर का पात्र बनाता है।
   दीनदयाल जी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे एक पत्रकार, लेखक, संगठनकर्ता, वैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकार, अर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके चिंतन, मनन और अनुशीलन ने देश को एकात्म मानवदर्शन जैसा एक नवीन भारतीय विचार दिया। सही मायने में  एकात्म मानवदर्शन का प्रतिपादन कर दीनदयाल जी ने भारत से भारत का परिचय कराने की कोशिश की। विदेशी विचारों से आक्रांत भारतीय राजनीति को उसकी माटी से महक से जुड़ा हुआ विचार देकर उन्होंने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया। अपनी प्रखर बौद्धिक चेतना, समर्पण और स्वाध्याय से वे भारतीय जनसंघ को एक वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफल रहे। सही मायने में वे गांधी और लोहिया के बाद एक ऐसे राजनीतिक विचारक हैं, जिन्होंने भारत को समझा और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए सचेतन प्रयास किए। वे अनन्य देशभक्त और भारतीय जनों को दुखों से मुक्त कराने की चेतना से लैस थे, इसीलिए वे कहते हैं-प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगें जब तक हम हर एक को यह आभास न करा दें कि वह भारत माता की संतान है। हम इस धरती मां को सुजला, सुफला, अर्थात फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण बनाकर ही रहेंगें। उनका यह वाक्य बताता है कि वे किस तरह का राजनीतिक आदर्श देश के सामने रख रहे थे। उनकी चिंता के केंद्र में अंतिम व्यक्ति है, शायद इसीलिए वे अंत्योदय के विचार को कार्यरूप देने की चेष्ठा करते नजर आते हैं।
   वे भारतीय समाज जीवन के सभी पक्षों का विचार करते हुए देश की कृषि और अर्थव्यवस्था पर सजग दृष्टि रखने वाले राजनेता की तरह सामने आते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी बारीक नजर थी और वे स्वावलंबन के पक्ष में थे। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन और वैचारिक प्रशिक्षण पर उनका जोर था। वे मानते थे कि राजनीतिक दल किसी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रकल्प की तरह चलने चाहिए। उनकी पुस्तक पोलिटिकल डायरी में वे लिखते हैं- भिन्न-भिन् राजनीतिक पार्टियों के अपने लिए एक दर्शन (सिद्दांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र होने वाले लोगों का समुच्च मात्र नहीं बनना चाहिए। उनका रूप किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या ज्वाइंट स्टाक कंपनी से अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए। उनका यह कथन बताता है कि वे राजनीति को विचारों के साथ जोड़ना चाहते थे। उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है कि भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) को उन्होंने वैचारिक प्रशिक्षणों से जोड़कर एक विशाल संगठन बना दिया। यह विचार यात्रा दरअसल दीनदयाल जी द्वारा प्रारंभ की गयी थी, जो आज वटवृक्ष के रूप में लहलहा रही है। अपने प्रबोधनों और संकल्पों से उन्होंने तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा जीवनदानी उत्साही नेताओं की एक बड़ी श्रृंखला पूरे देश में खड़ी की।
  कार्यकर्ताओं और आम जन के वैचारिक प्रबोधन के लिए उन्होंने पांचजन्य, स्वदेश और राष्ट्रधर्म जैसे प्रकाशनों का प्रारंभ किया। भारतीय विचारों के आधार पर एक ऐसा दल खड़ा किया जो उनके सपनों में रंग भरने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। वे अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी बहुत उदार थे। उनके लिए राष्ट्र प्रथम था। गैरकांग्रेस की अवधारणा को उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर साकार किया और देश में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। भारत-पाक महासंघ बने इस अवधारणा को भी उन्होंने डा. लोहिया के साथ मिलकर एक नया आकाश दिया। विमर्श के लिए बिंदु छोड़े। यह राष्ट्र और समाज सबसे बड़ा है और कोई भी राजनीति इनके हितों से उपर नहीं है। दीनदयाल जी की यह ध्रुव मान्यता थी कि राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते देश के हित नजरंदाज नहीं किए जा सकते। वे जनांदोलनों के पीछे दर्द को समझते थे और समस्याओं के समाधान के लिए सत्ता की संवेदनशीलता के पक्षधर थे। जनसंघ के प्रति कम्युनिस्टों का दुराग्रह बहुत उजागर रहा है। किंतु दीनदयाल जी कम्युनिस्टों के बारे में बहुत अलग राय रखते हैं। वे जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में 28 दिसंबर,1967 को कहते हैं- हमें उन लोगों से भी सावधान रहना चाहिए जो प्रत्येक जनांदोलन के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ देखते हैं और उसे दबाने की सलाह देते हैं। जनांदोलन एक बदलती हुयी व्यवस्था के युग में स्वाभाविक और आवश्यक है। वास्तव में वे समाज के जागृति के साधन और उसके द्योतक हैं। हां, यह आवश्यक है कि ये आंदोलन दुस्साहसपूर्ण और हिंसात्मक न हों। प्रत्युत वे हमारी कर्मचेतना को संगठित कर एक भावनात्मक क्रांति का माध्यम बनें। एतदर्थ हमें उनके साथ चलना होगा, उनका नेतृत्व करना होगा। जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं वे इस जागरण से घबराकर निराशा और आतंक का वातावरण बना रहे हैं।
  इस प्रकार हम देखते हैं कि दीनदयाल जी का पूरा लेखन और जीवन एक राजनेता की बेहतर समझ, उसके भारत बोध को प्रकट करता है। वे सही मायने में एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील मनुष्य हैं। उनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुयी है। सादा जीवन और उच्च विचार का मंत्र उनके जीवन में साकार होता नजर आता है। वे अपनी उच्च बौद्धिक चेतना के नाते भारत के सामान्य जनों से लेकर बौद्धिक वर्गों में भी आदर से देखे जाते हैं। एक लेखक के नाते आप दीनदयाल जी को पढ़ें तो अपने विरोधियों के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखती। उनकी आलोचना में भी एक संस्कार है, सुझाव है और देशहित का भाव प्रबल है। जन्मशताब्दी वर्ष में उनके जैसे लोकनायक की याद सत्ता में बैठे लोग करेंगें, शेष समाज भी करेगा। उसके साथ ही यह भी जरूरी है कि उनके विचारों का अवगाहन किया जाए, उस पर मंथन किया जाए। वे कैसा भारत बनाना चाहते थे? वे किस तरह समाज को दुखों से मुक्त करना चाहते थे? वे कैसी अर्थनीति चाहते थे?

    दीनदयाल जी को आयु बहुत कम मिली। जब वे देश के पटल पर  अपने विचारों और कार्यों को लेकर सर्वश्रेष्ठ देने की ओर थे, तभी हुयी उनकी हत्या ने इस विचारयात्रा का प्रवाह रोक दिया। वे थोड़ा समय और पाते थे तो शायद एकात्म मानवदर्शन के प्रायोगिक संदर्भों की ओर बढ़ते। वे भारत को जानने वाले नायक थे, इसलिए शायद इस देश की समस्याओं का उसके देशी अंदाज में हल खोजते। आज वे नहीं हैं, किंतु उनके अनुयायी पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में हैं। यह अकारण नहीं है कि इसी वर्ष दीनदयाल जी का जन्मशताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। भाजपा और उसकी सरकार को चाहिए कि वह दीनदयाल जी के विचारों का एक बार फिर से पुर्नपाठ करे। उनकी युगानूकूल व्याख्या करे और अपने विशाल कार्यकर्ता आधार को उनके विचारों की मूलभावना से परिचित कराए। किसी भी राजनीतिक दल का सत्ता में आना बहुत महत्वपूर्ण होता है, किंतु उससे कठिन होता है अपने विचारों को अमल में लाना। भाजपा और उसकी सरकार को यह अवसर मिला है वह देश के भाग्य में कुछ सकारात्मक जोड़ सके। ऐसे में पं.दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों की समझ भी कसौटी पर है। सवाल यह भी है कि क्या दीनदयाल उपाध्याय,कांग्रेस के महात्मा गांधी और समाजवादियों के डा. लोहिया तो नहीं बना दिए जाएंगें? उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता के नए सवार दीनदयाल उपाध्याय को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेंगें।

रविवार, 6 सितंबर 2015

हिंदी की जरूरत किसे है?


-संजय द्विवेदी
   अब जबकि भोपाल में 10 सितंबर से विश्व हिंदी सम्मेलन प्रारंभ हो रहा है, तो यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधाओं पर बात जरूर करें। यह भी पहचानें कि हिंदी किसकी है और हिंदी की जरूरत किसे है?
     लंबे समय के बाद दिल्ली में एक ऐसी सरकार है जिसके मुखिया हिंदी बोलते और उसमें व्यवहार करते हैं। वे एक ऐसे विचार परिवार से आते हैं, जहां हिंदी को प्रतिष्ठा हासिल है। इसी तरह विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी हिंदी प्रेम जाहिर है। विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजक विदेश मंत्रालय ही है, ऐसे में एक ऐसे विदेश मंत्री का होना एक सौभाग्य है,जिसने अपनी सुंदर भाषा के जादू से लोगों को सम्मोहित कर रखा है। इसी तरह हमारे गृहमंत्री भी उ.प्र. की माटी से आते हैं जो वास्तव में हिंदी का ह्दय प्रदेश है। मध्यप्रदेश में इस आयोजन के मायने खास हैं। म.प्र. एक ऐसा राज्य है, जहां हिंदी का वास्तविक सौंदर्य और शक्ति दिखती है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब भोपाल की सड़कों पर व्यापारियों से यह आग्रह करने निकले कि आप अंग्रेजी के साथ बोर्ड पर हिंदी में भी नाम लिखें, तो यह पहल भी साधारण नहीं है। यानि राजनीति के मैदान पर हिंदी इस वक्त बहुत ताकतवर दिखती है।
   सत्ता और समय दोनों हिंदी के साथ दिखता है। फिर हिंदी इतनी दयनीय क्यों? क्या हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी रह गयी है या हम हिंदी को उसकी स्वाभाविक दीनता से निकालने के इच्छुक नहीं दिखते? हिंदी का व्यापक आधार है, उसकी पहुंच, उसके सरोकार सभी कुछ व्यापक हैं किंतु हिंदी कहां है? क्या कर्मकांडों से अलग हिंदी अपनी जगह बना पा रही है? क्या हम चाहते हैं कि वह रोजगार और शिक्षा की भाषा बने? क्या हम आश्वश्त हैं कि हमारी आनेवाली पीढ़ियां हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर भी किसी तरह की हीनता और अपराधबोध की शिकार नहीं बनी रहेंगीं। क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, उसे शिक्षा से हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है।
   कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। दवाएं हमारी भाषा में मिल पातीं। शिक्षा का माध्यम हमारी भारतीय भाषाएं बन पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है। कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब लोग, मजबूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते तो हिंदी और भारतीय भाषाएं कहां दिखती। मदरसे में गरीब का बच्चा, संस्कृत विद्यालयों में गरीब ब्राम्हणों के बच्चे और अन्य गरीबों के बच्चे, हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे। कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी तो हिंदी और भारतीय भाषाएं भी लुप्त हो जाएंगीं। गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। यही मजबूरी ही राजनेताओं को हिंदी-हिंदी करने को मजबूर कर रही है। मजबूरी का नाम क्या हिंदी भी होता है, यह सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। अगर मजबूर के हाथ ही हिंदी के साथ हैं तो हिंदी का हम क्या कर सकते हैं। लेकिन समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर, दो घंटे ज्यादा करके अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। उसने यह काम शुरू कर दिया है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों भारतीय भाषाओं का क्या होगा। हिंदी को मनोरंजन,बाजार,विज्ञापन और वोट मांगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान- विज्ञान, उच्चशिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आंकी जा रही है किंतु उसकी गहराई कम हो रही है।
   देश की भाषा को हम उपेक्षित करके अंग्रेजी बोलने वाली जमातों के हाथ में इस देश का भविष्य दे चुके हैं। ऐसे में देश का क्या होगा। संतोष है कि इस देश के सपने अभी हिंदी और भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। पर क्या भरोसा आने वाली पीढ़ी अपने सपने भी अंग्रेजी में देखने लगे। संभव है कि वही समय, अपनी भाषाओं से मुक्ति का दिन भी होगा। आज अपने पास-पड़ोस में रह रहे बच्चे की भाषा और ज्ञान के संसार में आप जाएं तो वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू कर दिया है। उसे हिंदी में लिखते हुए मुश्किलें आ रही हैं, वह अपनी कापियां अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। इसे रोकना मुश्किल नहीं नामुमकिन है। अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर गौरवान्वित और गलत अंग्रेजी पर दुखी है। हिंदी का यही आकाश है और हिंदी की यही दुनिया है। हिंदी की चुनौतियां दरअसल वैसी ही हैं जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। चालीस वर्ष की आयु के बाद लोग गीता पढ़ रहे थे, संस्कृत के मूल पाठ को सीखने की कोशिशें कर रहे थे। अंततःसंस्कृत लोकजीवन से निर्वासित सी हो गयी और देश देखता रह गया। आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया  है। वे खत्म हो रही है और अपने साथ-साथ हजारों हजार शब्द और अभिव्यक्तियां समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएं विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। वे ताकतें जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहती हैं, एक से वस्त्र पहनाना चाहती हैं,एक से विचारों, आदतों और भाषा से जोड़ना चाहती हैं, वे साधारण नहीं हैं। कपड़े, खान-पान, रहन-सहन, केश विन्यास से लेकर रसोई और घरों के इंटीरियर तक बदल गए हैं। भाषा कब तक और किसे बाँधेगी? समय लग सकता है, पर सावधान तो होना ही होगा। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ की जा रही है कि आपकी हिंदी बहुत अच्छी है। वहीं शेष भारत के संवाद की शुरूआत मेरी हिंदी थोड़ी वीक है कहकर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं। पर खतरे को समझकर आज ही हमने अपनी तैयारी नहीं की तो कल बहुत देर जाएगी। विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने क्या इस बात पर सोच सकते हैं कि अब जमाने को भी बता दें कि हिंदी की जरूरत हमें है।

बुधवार, 2 सितंबर 2015

सुधीर सक्सेना होने के मायने

-संजय द्विवेदी

  सुधीर भाई भिगो देने वाली आत्मीयता के धनी कवि-पत्रकार हैं। अपने फन के माहिर, एक बेहद जीवंत भाषा के धनी, कवि और कविह्दय दोनों। वे ज्यादा बड़े कवि हैं या ज्यादा बड़े पत्रकार, यह तय करने का अधिकारी मैं नहीं हूं, किंतु इतना तय है कि वे एक संवेदनशील मनुष्य हैं, अपने परिवेश से गहरे जुड़े हुए और उतनी ही गहराई से अपनों से जुड़े हुए। जाहिर तौर पर यही एक गुण (संवेदनशीलता) एक अच्छा कवि और पत्रकार दोनों गढ़ सकता है। मुझे याद है माया के वे उजले दिन जब वह हिंदी इलाके की वह सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। सुधीर जी की लिखी रिपोर्ट्स पढ़कर हमारी पूरी पीढ़ी ने राजनीतिक रिपोर्टिंग के मायने समझे। वे मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से कम रोमांचक और दो-ध्रुवीय राजनीति में रहने वाले राज्य से भी जो खबरें लिखते थे, उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का पता चलता था। उनकी राजनीति को समझने की दृष्टि विरल है। वे अपनी भाषा से एक दृश्य रचते हैं जो सामान्य पत्रकारों के लिए असंभव ही है। उनका लेखन अपने समय से आगे का लेखन है। उनकी यायावरी, लगातार अध्ययन ने उनके लेखन को असाधारण बना दिया है। उनकी कविताएं मैंने बहुत नहीं पढ़ीं क्योंकि मैं साहित्य का सजग पाठक नहीं हूं किंतु मैं उनके गद्य का दीवाना हूं। आज वे कहीं छपे हों, उन्हें पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाता।
यकीन से भरा कविः
  एक अकेला आदमी कविता, पत्रकारिता, अनुवाद, संपादन और इतिहास-लेखन में एक साथ इतना सक्रिय कैसे हो सकता है। लेकिन वे हैं और हर जगह पूर्णांक के साथ। ऐसे आदमी के साथ जो दुविधा है उससे भी वे दो-चार होते हैं। एक बार सुधीर भाई ने अपने इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहा था कि संजय, पत्रकार मुझे पत्रकार नहीं मानते और साहित्यकार मुझे साहित्यकार नहीं मानते।  मैंने सुधीर जी से कहा था सर आप पत्रकार या साहित्यकार नहीं है, जीनियस हैं। उनके कविता संग्रहों के नाम देखें तो वे आपको चौंका देगें, वे कुछ इस प्रकार हैं- समरकंद में बाबर, बहुत दिनों के बाद, काल को नहीं पता, रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यकीन। कविताओं से मेरी दूरी को भांपकर भी वे मुझे अपनी कविता की किताब देते हैं। एक बार एक ऐसी ही किताब पर उन्होंने लिखकर दिया-
यकीन मानो
एक दिन पढ़ेंगें
लोग
कविता की
नयी किताब
   सच, मुझे लगा कि यह एक दिग्गज पत्रकार की हमारे जैसे अपढ़ पत्रकारों को सलाह थी कि भाई शब्दों से भी रिश्ता रखो। सुधीर जी की कविताएं सच में उम्मीद और प्रेम की कविताएं हैं। उनके मन में जो आद्रता है वही कविता में फैली है। उन्होंने समरकंद में बाबर में जिस तरह बाबर को याद किया है, वह पढऩा अद्भुत है। माटी और उसकी महक कैसे दूर तक और देर तक व्यक्ति की स्मृतियों का हिस्सा होती है, यह कविता संग्रह इसकी गवाही देता है। बाबर के सीने, होंठों, आंखों सबमें समरकंद था, पर बाबर समरकंद में नहीं था। यह कल्पना भी किसी साधारण कवि की हो नहीं सकती। वे समय से आगे और समय से पार संवाद करने वाले कवि हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश और दोस्तों तक भी जाती हैं। दोस्तों को वे अपनी कविताओं में याद करते हैं और सही मायने में अपने बीते हुए समय का पुर्नपाठ करते हैं। उनका कवि इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह सिर्फ कहने के लिए नहीं कहता। यहां कविता आत्म का विस्तार नहीं है बल्कि वह समय और उसकी चुनौतियों से एकात्म होकर पूर्णता प्राप्त कर रही है। उनकी कविता टुकड़ों में नहीं है, एक थीम को लेकर चलती है। चार पंक्तियों में कविता करके भी वे अपना पूरा पाठ रचते हैं। उनकी कविता में प्रेम की अतिरिक्त जगह है। यही प्रेम हमारे समय में सिकुड़ता दिखता है तो उनकी कविता में ज्यादा जगह घेर रहा है।
माटी की महकः
 सुधीर सक्सेना कहां के हैं, कहां से आए, तो आपको साफ उत्तर शायद न मिलें। हम उन्हें भोपाल और दिल्ली में एक साथ रहता हुआ देखते हैं। रायपुर-बिलासपुर उनकी सांसों में बसता है तो लखनऊ से उन्होंने पढ़ाई लिखाई कर अपनी यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ में जन्मे और पले-बढ़े इस आदमी ने कैसे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को अपना बना लिया इसे जानना भी रोचक है। उनके दोस्त तो पूरे ग्लोब पर बसते हैं पर उनका दिल मुझसे कोई पूछे तो छत्तीसगढ़ में बसता और रमता है। यह सिर्फ संयोग है कि मैं भी लखनऊ से अपनी पढ़ाई कर भोपाल आया और रायपुर और बिलासपुर में मुझे भी रमने का अवसर मिला। जब मैं बिलासपुर-रायपुर पहुंचा तो सुधीर जी छत्तीसगढ़ छोड़ चुके थे। लेकिन हवाओं में उनकी महक बाकी थी। उनके दोस्तों में मप्र सरकार में मंत्री रहे स्व.बीआर यादव से लेकर पत्रकार रमेश नैयर, साहित्यकार तेजिंदर तक शामिल थे। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता तीनों के शिखर पुरूषों तक सुधीर की अंतरंगता जाहिर है। वे यारों के यार तो हैं कई मायने में खानाबदोश भी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भाभी-बच्चों के लिए तो घर बनाया और सुविधाएं जुटायीं पर खुद वे यायावर और फकीर ही हैं। जिन्हें कोई जगह बांध नहीं सकती। अपने परिवार पर जान छिड़कने वाली यह शख्सियत घर में होकर भी एक सार्वजनिक निधि है। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें आपको हर जगह पूर्णांक देना होगा। उनकी सदाशयता इतनी कि आप उन्हें काम का आदमी मानें न मानें अगर आप उनके कवरेज एरिया में एक बार आ गए तो उनके फोन आपका पीछा करते हैं। जिंदगी की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी उनमें एक स्वाभिमानी मनुष्य है जो निरंतर चलता है और रोज नई मंजिलें छूता है। अथक परिश्रम, अथक यात्राएं और अथक अध्ययन। आखिर सुधीर भाई चाहते क्या हैं? उनके दोस्त उनसे मुंह मोड़ लें पर वे हर दिन नए दोस्त बनाने की यात्रा पर हैं। बिना थके, बिना रूके। सही मायने में उनमें कोलंबस की आत्मा प्रवेश कर गयी है। कई देशों को नापते, कई शहरों को नापते, तमाम गांवों को नापते वे थकते नहीं है। वे आज भी एक पाक्षिक पत्रिका दुनिया इन दिनों के नियमित संपादन-प्रकाशन के बीच भी अपनी यायावरी के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उनकी यही जिजीविषा तमाम लोगों को हतप्रभ करती है।
 स्मृतियों का व्यापक संसारः
  आजकल वे भोपाल में कम होते हैं। होंगे तो मुझे बुलाकर मिलेंगें जरूर। आत्मीयता से भीगा उनका संवाद और निरंतर लिखने के लिए कहना वे नहीं भूलते। वे ही हैं जो कहते हैं लिखो, लिखो और लिखो। उनका सामना करने से संकोच होता है। उनकी सक्रियता मन में अपराधबोध भरती है। उनका बहुपठित होना, एक आईने की तरह सामने आता है। अपने दोस्तों,परिवेश और सूखते रिश्तों के बीच वे एक जीवंत उपस्थिति हैं। वे इस निरंतर नकली हो रही दुनिया में खड़े एक असली आदमी की तरह हैं। वे अपने अनुभव साझा करते हैं, सावधानियां भी बताते हैं पर खुद सब कुछ मन की करते हैं। उनके पास बैठना एक ऐसे वृक्ष की छांव में बैठना है जहां सुरक्षा है, ढेर सी आक्सीजन है, ढेर सा प्यार है और स्मृतियों का व्यापक संसार है। सुधीर जी ने एक लंबी और सार्थक पारी खेली है। उनका पहला दौर बहुतों के जेहन में है। उम्मीद है कि वे अभी एक बार और अपने जीनियस होने का यकीन कराएंगें। उनसे कुछ खास रचने का यकीन हमें है, वे तो कभी नाउम्मीद होते ही नहीं। उनके सफल,सार्थक और दीर्घजीवन की कामनाएं।