सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

शिक्षा परिसर राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त हों

-संजय द्विवेदी


  हमारे कुछ शिक्षा परिसर इन दिनों विवादों में हैं। ये विवाद कुछ प्रायोजित भी हैं, तो कुछ वास्तविक भी। विचारधाराएं परिसरों को आक्रांत कर रही हैं और राजनीति भयभीत। जैसी राजनीति हो रही है, उससे लगता है कि ये परिसर देश का प्रतिपक्ष हैं। जबकि यह पूरा सच नहीं है। कुछ मुट्ठी भर लोग भारतीय युवा और उसकी समझ को चुनौती नहीं दे सकते। देश का औसतन युवा देशभक्त और अपने विवेक पर भरोसा करने वाला है। उसे अपने देश की शक्ति और कमजोरियों का पता है। वह भावुक है, पर भावनात्मक आधार पर फैसले नहीं लेता। दुनिया की चमकीली प्रगति से चमत्कृत भी है, पर इसके पीछे छिपे अंधेरों को भी पहचानता है।
  कई स्थानों से यह विमर्श सुनने में आता है कि शिक्षा परिसरों को राजनीति मुक्त कर देना चाहिए और विद्यार्थी सिर्फ पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें। उन्हें राजनीति से क्या मतलब? जबकि यह सोच एकांगी है। देश के एक महत्वपूर्ण छात्र संगठन का मानना है कि छात्र कल का नहीं, आज का नागरिक है। अतएव छात्र शक्ति को सही मार्गदर्शन देते हुए राष्ट्रहित में उसका योगदान सुनिश्चित करना जरूरी है। हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, हमारे परिसर भी इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। राजनीति, छात्रों का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को मजबूत तो करना चाहती है, किंतु छात्रसंघों के चुनाव अनेक राज्यों में प्रतिबंधित हैं। छात्रसंघों से राजनीति और सत्ता को घबराहट होती है। यहां तक कि जो राजनेता छात्रसंघों के माध्यम से राजनीति में आए, वे भी छात्रसंघों के प्रति उदार नहीं हैं। होना यह चाहिए कि छात्रसंघ विद्यार्थियों के सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रूझानों के विकास में सहायक बनें। ताकि छात्र नेतृत्व और उसकी गंभीरता को समझकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। छात्रसंघ और छात्र राजनीति कहीं न कहीं इस भूमिका से विरत हुयी है, इसलिए देश के राजनेताओं व अन्य प्रशासकों को इनका गला दबाने का अवसर मिला। कहा जाता है कि इसके चलते परिसर में तनाव और हिंसाचार भी बढ़ता है। हम देखते हैं कि जब अनेक बुराइयों के बावजूद भी हम संसदीय राजनीति के खिलाफ नहीं हो जाते, बल्कि उसमें सुधार का ही प्रयास करते हैं। इसी तरह छात्रसंघों के रचनात्मक इस्तेमाल की भूमिका बनाने के बजाए, उनका गला दबा देने का विचार लोकतांत्रिक नहीं है। हमें देखना होगा कि छात्र संगठन क्यों राजनीतिक दलों के हस्तक बन रहे हैं। सभी प्रकार के आंदोलनों की तरह छात्र आंदोलन भी मर रहे हैं। विचारधारा के आधार पर विभाजित राजनीति कब पंथ और जाति की गलियों में भटक जाती है, कहा नहीं जा सकता।
  ऐसे समय में शिक्षकों, शिक्षाविदों और परिसरों को जीवंत देखने की आकांक्षा रखने वाले लोगों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। सत्ता- राजनीति तो चाहती ही है कि परिसरों में फेयरवेल पार्टियां हों, फ्रेशर्स पार्टियां हों, मनोरंजन प्रधान आयोजन हों। किंतु ऐसे आयोजन जिससे बहस का प्रारंभ हो, नए विचार सृजित हों-उन्हें किए जाने से परिसरों के अधिपति घबराते हैं। एक लोकतंत्र में होते हुए हमें असहमतियों के लिए स्थान बनाना होगा। विमर्शों को जगह देनी होगी और असुविधाजनक सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा। एक लोकतंत्र का यही सौंदर्य है और यही उसकी ताकत भी है। विद्यार्थियों को इस तरह से तैयार करना कि वे भावी चुनौतियों से टकराने का साहस अर्जित कर सकें, जरूरी है। यहां यह कहना आवश्यक है कि यह सारा कुछ अपने तिरंगे और देश को मजबूत करने के लिए होगा। देश को तोड़ने और खंडित करने वाले विचारों के लिए, यहां जगह नहीं होनी चाहिए- अगर ऐसा होगा तो परिसर आतंक की जगह बनेंगे। राज्य की ताकत को हम जानते हैं, इसलिए परिसर विमर्शों का केन्द्र तो बनें, किंतु देशतोड़कों की पनाहगाह नहीं। अपने शोध-अनुसंधान और शिक्षण-प्रशिक्षण से हमें इस देश को बनाना है, बर्बाद नहीं करना है, यह सोच हमेशा केन्द्र में रहनी चाहिए। कोई भी विश्वविद्यालय अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के अवदान से ही बड़ा बनता है। हमें हमारे परिसरों को जीवंत बनाने के लिए इन्हीं दो पर ध्यान देना होगा। ऊर्जावान, नए विचारों से भरे हुए अध्यापक ही अपने विद्यार्थियों को नई रोशनी दे सकते हैं। वे ही नवाचारों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।
  एक विद्यार्थी जब किसी भी परिसर में आता है तो एक उम्मीद के साथ आता है। उसे अपने दल का कैडर बनाने के बजाए, एक विचारवान नागरिक बनाना, शिक्षकों का पहला कर्तव्य है। वे उसे आंखें दें पर उधार की आंखें न दें। शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि वे चाणक्य बनें और उनके विद्यार्थी चंद्रगुप्त। अध्यापकों के सामने सर्वश्री डा. राधाकृष्णन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डा.एपीजे अबुल कलाम, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, श्यामाचरण दुबे, विद्यानिवास मिश्र जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके सानिध्य में जाकर कोई भी साधारण बालक भी एक असाधारण प्रतिभा में बदल जाता है। विद्यार्थी के इस रूपांतरण के लिए ऐसे शिक्षकों का राष्ट्र भी आदर करता है। गुरू-शिष्य परंपरा ऐसी हो, जिससे राष्ट्र के लिए हर क्षेत्र में नायक गढ़े जाएं।

  सही बात तो यह है कि कुछ शिक्षकों को यह खबर ही नहीं कि उनके विद्यार्थी क्या कर रहे हैं, वे एक वेतन भोगी कर्मचारी की तरह अपनी कक्षा को बहुत निरपेक्ष तरीके से करते हुए, बस जिए जा रहे हैं तो कुछ ऐसे हैं, जिन्हें अपनी कक्षा से ही अपनी विचारधारा के लिए वैचारिक योद्धा और अपने राजनीतिक दल के लिए कैडर गढ़ने हैं। ऐसी दोनों प्रकार की अतियां गलत हैं। हमारी शिक्षा और उकसावे से हमारे किसी विद्यार्थी का जीवन बदल जाए तो ठीक है पर बिगड़ जाए तो...। हमारे क्रांतिकारी विचार उसे जेल की यात्राएं करवा दें, तो विचार करना होगा कि हमने शिक्षा में क्या गड़बड़ की है। हमारे विद्यार्थी हमारी अपनी संतानों की तरह हैं। हम उनसे वही अपेक्षा करें, वही मार्ग दिखाएं जिस पर हमारी अपनी संतानों के चलने पर हमें आपत्ति न हो। यही एक ही सूत्र है जो हमारी खुद की परीक्षा के लिए काफी है। हमारे विद्यार्थी बहुत सी उम्मीदों, आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों के साथ परिसर में आते हैं। उनके सपनों में रंग भरने की उन्हें ताकत देना, हम शिक्षकों की जिम्मेदारी है। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या हम उनके साथ ऐसा कर पा रहे  हैं। परिसरों को राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त बनाकर ही हम देश की प्रतिभाओं को उचित मंच दे पाएंगे। हम शिक्षकों ने आज ही यह शुरूआत नहीं की, तो कल बहुत देर हो जाएगी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

क्या शिक्षक हार रहे हैं?

जेएनयू या जादवपुर विवि से आई बेसुरी आवाजें रोकना ही होगा
-संजय द्विवेदी
  कई बार लगता है कि विचारधारा राष्ट्र से बड़ी हो गयी है। पार्टी, विचारधारा से बड़ी हो गयी है, और व्यक्ति पार्टी से बड़ा हो गया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में रहते हुए, जैसी बेसुरी आवाजें शिक्षा परिसरों से आ रही हैं, वह बताती हैं कि राजनीति और राजनेता तो जीत गए हैं, किंतु शिक्षक और विद्यार्थी हार रहे हैं। समाज को बांटना, खंड-खंड करना ही तो राजनीति का काम है, वह उसमें निरंतर सफल हो रही है। हमारे परिसर, विचारधाराओं की राजनीति के इस कदर बंधक बन चुके हैं, कि विद्यार्थी क्या, शिक्षक भी अपने विवेक को त्यागकर इसी कुचक्र में फंसते दिख रहे हैं।
सबसे पहले राष्ट्रः
 पहले राष्ट्र, फिर समाज, फिर परिवार और फिर स्वयं को रखने का भाव अपने विद्यार्थियों में भरना, बताना और उसे भविष्य के लिए तैयार करना दरअसल शिक्षकों का ही काम है। हमारे विद्यार्थी गुमराह होकर अगर देशद्रोह की हद तक जा पहुंचे हैं तो शिक्षकों को सोचना होगा कि वे उन्हें कैसी शिक्षा दे रहे हैं? अपने राजनीतिक इरादों के लिए विद्यार्थियों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है, राजनीतिक दल ऐसा करते भी आए हैं। युवाओं की ऊर्जा का इस्तेमाल करने में यह होड़ प्रारंभ से ही है, क्योंकि युवा ही किसी भी समाज में बदलाव का जरिया बनते हैं। किंतु बदलाव सकारात्मक हों, राष्ट्र की एकता-अखंडता, भाईचारे को मजबूती देने वाले हों, तो उसे सार्थक कहा जा सकता है। लेकिन विडंबना है कि आज विदेशी विचारों, विदेशी पैसों और प्रेरणाओं के चलते भारत विरोधी विचारधारा रखने वाली शक्तियां भी हमारे परिसरों में सक्रिय हैं। यही कारण है कि नौजवान अपने राष्ट्र और उसकी अस्मिता को चोटिल करने वाली कार्रवाईयों में संलग्न हो जाता है। जब तक उसकी आंखें खुलती हैं, देर हो चुकी होती है। कश्मीर जैसे खूबसूरत राज्य को अशांत करने, घाटी को खून से रंगने और कश्मीरी पंडितों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए उन्हें घाटी छोड़ देने के लिए विवश करने वाली वहां की युवा शक्ति ही थी, जो पाक प्रेरित अभियानों से गुमराह होकर अपने ही माटी पुत्रों के खिलाफ खड़ी हो गयी। दक्षिण- पूर्व के सात राज्यों में आज अनेक आतंकी संगठन सक्रिय हैं, जिसमें अगली पंक्ति में युवा ही हैं। नक्सल आंदोलन की पृष्ठभूमि निर्मित करने और उसके नेतृत्व में युवाओं की भूमिका रही। दुनिया के एक हिस्से में खून की नदियां बहा रहे आईएस के खूनी अभियान में हिस्सा लेने के लिए भारत के कुछ युवा भी देश छोड़कर निकल पड़े हैं। उक्त उदाहरणों का सबक है कि अब अपने नौजवानों को गुमराह होने से बचाने और सही राह दिखाने का वक्त आ गया है।
हमारी कमजोरियों के नाते फैलता रोगः
   युवा अवस्था में क्रांति की बातें, और सब कुछ बदल देने का विचार, बहुत अच्छा लगता है। खून का लाल रंग, बंदूकों की आवाज और बमों के धमाके से सब कुछ बदलने का ख्वाब बहुत पास दिखता है, पर हकीकत इसके विपरीत होती है। विदेशी विचारों से प्रेरित अनेक अभियान आज हमारे समाज की कमजोरियों के कारण सफल हो रहे हैं। भारतीय समाज में व्याप्त बहुस्तरीय शिक्षा, छूआछूत, गैरबराबरी, प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता, पुलिस-तंत्र द्वारा किए जाने वाले अन्याय, अवसरों की असमानता ने भारत को कई स्तरों पर बांट दिया है। ऐसे में प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गए वर्गों में असंतोष की भावना व्याप्त है। इसी असंतोष और गुस्से को वैचारिक जामा पहनाकर देश विरोधी ताकतें हमारे युवाओं का इस्तेमाल कर ले जाती हैं। असंतोष को भुनाने के लिए वह कोई भी आंदोलन हो सकता है, और उसका नाम कुछ भी हो सकता है। कश्मीर से लेकर नक्सल इलाकों में हमारे युवाओं के हाथों में इन्हीं ताकतों ने बंदूकें पकड़ा दी हैं। आज हमारा राष्ट्रबोध इतना सीमित हो गया है कि कोई भी जाति, भाषा, आरक्षण, उपेक्षा, पंथ के नाम पर हमें बरगला सकता है। हमारे विरोधी जितने सजग, सक्रिय और एकजुट हैं- हम उतने ही बिखरे, लड़ते-भिड़ते और एक- दूसरे को मिटाकर सत्ता प्राप्ति की लालसा में लिप्त हैं।
मोदी विरोध या भारत विरोधः
 इसलिए राष्ट्र विरोधी नारेबाजी के सवाल भी हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने का अवसर लगते हैं। नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, वे भारत नहीं हैं। मोदी का विरोध, कब भारत विरोध में बदल जाता है, हमें पता भी नहीं लगता। ऐसे में राजनेताओं से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे अपने राजनीतिक स्वार्थों से उपर उठ कर बात करेगें। उनका हर स्टैंड, उनके वोट बैंक और एजेंडे से परिचालित है। नहीं तो क्या कारण हैं कि दादरी में अखलाक की मौत पर स्यापा करने वाले राजनेता केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता की हत्या पर खामोश हैं। यहां तक कि भाजपा के लिए भी यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि जेएनयू मामले से जिस ध्रुवीकरण की उम्मीद भाजपा को है, वह राजनीतिक लाभ एक बेचारे स्वयंसेवक की मौत से नहीं मिल सकता। राजनीतिक दलों के इसी चयनित दृष्टिकोण तथा चीजों को बांटकर देखने की प्रवृत्ति से देश को एकात्म करना कठिन होता जा रहा है। यह देश ऐसे राजनेताओं और ऐसी राजनीति से एक कैसे रह सकता है, जहां विभाजन और बंटवारा भी एक मूल्य की तरह सहेजे और पाले पोसे जा रहे हैं।

वैचारिक गुलामी के शिकार अध्यापकः
   ऐसे कठिन समय में शिक्षकों की जिम्मेदारी बहुत अहम हो सकती थी, किंतु वे भी विचारधारा के मारे, अपने राजनीतिक आकाओं की गुलामी में व्यस्त हैं। शिक्षक अगर निरपेक्ष होकर इस देश की आन-बान-शान के लिए नौजवानों को प्रेरित नहीं कर पाते तो आप क्या यह उम्मीद राहुल गांधी, सीताराम येचुरी और अमित शाह से कर सकते हैं? विद्यार्थियों के निर्माण का जिम्मा राजनीतिक दलों के पास नहीं शिक्षकों और शिक्षा मंदिरों के पास ही है। सही मायने में जेएनयू प्रसंग ने हमारे राजनीतिक दलों, प्रशासनिक तंत्र और सामाजिक संगठनों की पोल खोलकर रख दी है। इनमें तमाम बेशर्मी से टीवी चैनलों पर देशद्रोहियों की पैरवी में जुटे हैं। इस हालात से आहत एक रिटायर्ड फौजी एक टीवी चैनल पर ही द्रवित होकर रो पड़े। स्थितियां यह हैं कि हजारों बेगुनाहों भारतीय जेलों में बंद है और देशविरोधी नारे लगाने वालों के लिए दिग्गज वकीलों का पूरा पैनल खड़ा हो जाता है। ऐसे देश की दशा समझी जा सकती है। लगता है हमारे नेताओं का हमारी सेना पर भरोसा जरूरत से ज्यादा है, कि वे कुछ भी करेगें, कितने भी पाप करेंगें, भारतीय सेना और सुरक्षा बलों के जवान इस देश और उनको बचा ही लेगें। इसी का परिणाम है कि भारतीय सेना पर पत्थर फेंक रही नौजवानी, अफजल गुरू और मकबूल भट्ट की शहादत मनाने में व्यस्त है।
स्वायत्तता और सम्मान दोनों खतरे में-
  एक बार फिर हमें शिक्षकों की ओर देखना होगा। शिक्षकों को यह सोचना होगा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया कि उनके परिसरों में पुलिस डेरा डाल रही है। उनकी स्वायत्तता और सम्मान आज हाशिए पर है। राजनीतिक दलों से जुड़ी अपनी आस्थाओं के चलते अगर शिक्षक अपनी भूमिका से समझौता करेगें, तो उनका सम्मान बच नहीं सकता। विचारधारा और देशद्रोही विचारों के आधार पर चलने वाली शक्तियां परिसर को तो कलंकित करेंगी ही, शिक्षकों के सम्मान को भी आहत करेंगी। जेएनयू में कई वर्षों से चल रही देश विरोधी गतिविधियों को अगर रोकने, संभालने और अपने युवाओं को सही राह दिखाने की कोशिशें होतीं तो यह जहर आज नासूर बनकर न फूटता। आखिर जेएनयू में ऐसा क्या है कि हर देशद्रोही को वहां स्पेस मिल जाता है? कोई भी विचार तभी तक स्वीकार्य है, जब तक हमारी अकादमिक योग्यताओं को निखारने और संवर्धित करने में सहायक हो। जो विचार देश को तोड़ने और उसके टुकड़े करने के स्वप्न देखे उसका मिट जाना ही ठीक है।

   भारत जैसे लोकतंत्र में रहते हुए आप आजादी की रट लगा रहे हैं, यह आजादी क्या आपको माओ, आईएस, तालिबानी या साम्यवादी राज में मिलेगी? आप इस देश को तोड़ने की नारेबाजी में लगे हैं, लेकिन यह महान देश और उसका लोकतंत्र, हमारी अदालतें आपकी हर बात सुनने को तैयार हैं और आपकी शिकायतों पर भी संज्ञान ले रही हैं। कई देश विरोधी नेता इसी जमीन पर भारतीय राज्य की दी गयी सुरक्षा के नाते जिंदा हैं, किंतु वे भी नौजवानों का गुमराह करने का कोई जतन नहीं छोड़ते। शिक्षक समुदाय की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना का ऐसा ज्वार पैदा करे, कि कोई भी ताकत उन्हें उनके मार्ग से हटा न सके। शिक्षकों को तय करना होगा कि वे खुद में चाणक्य का चरित्र विकसित करें। राष्ट्र के निर्माण में अपने योगदान को सुनिश्चित करके ही वे वर्तमान की चुनौतियों और अपने सम्मान के सुरक्षित रख सकेगें। अगर अब भी आपको राजनीति से बहुत कुछ बदल जाने की उम्मीद है, तो कृपया छोड़ दीजिए और खुद पर भरोसा करते हुए एक नए भारत के निर्माण में जुट जाइए। जेएनयू प्रसंग को एक बुरे सपने की तरह भूलना और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना शिक्षक समुदाय की ही जिम्मेदारी है, सवाल यह है कि क्या हम इस जिम्मदारी को उठाने के लिए तैयार हैं?

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

जेएनयू के भारत विरोधी!

उन सिरफिरों का इलाज जरूरी जो जेएनयू की छवि और राष्ट्र की अस्मिता से खेल रहे हैं
-संजय द्विवेदी


   यह एक यक्ष प्रश्न है कि इतने बड़े विचारकों, विश्व राजनीति-अर्थनीति की गहरी समझ, तमाम नेताओं की अप्रतिम ईमानदारी और विचारधारा के प्रति समर्पण के किस्सों के बावजूद भारत का वामपंथी आंदोलन क्यों जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका? अब लगता है, भारत की महान जनता इन राष्ट्रद्रोहियों को पहले से ही पहचानती थी, इसलिए इन्हें इनकी मौत मरने दिया। जो हर बार गलती करें और उसे ऐतिहासिक भूल बताएं, वही वामपंथी हैं। वामपंथी वे हैं जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रनायक को 'तोजो का कुत्ता' बताएं, वे वही हैं जो चीन के साथ हुए युद्ध में भारत विरोध में खड़े रहे। क्योंकि चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमेन थे। वे ही हैं जो आपातकाल के पक्ष में खड़े रहे। वे ही हैं जो अंग्रेजों के मुखबिर बने और आज भी उनके बिगड़े शहजादे (माओवादी) जंगलों में आदिवासियों का जीवन नरक बना रहे हैं।

देश तोड़ने की दुआएं कौन कर रहे हैः    अगर जेएनयू परिसर में वे पाकिस्तान जिंदाबाद करते नजर आ रहे हैं, तो इसमें नया क्या है? उनकी बदहवासी समझी जा सकती है। सब कुछ हाथ से निकलता देख, अब सरकारी पैसे पर पल रहे जेएनयू के कुछ बुद्धिधारी इस इंतजाम में लगे हैं कि आईएसआई (पाकिस्तान) उनके खर्चे उठा ले। जब तक जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने वाली ताकतें हैं ,देश के दुश्मनों को हमारे मासूम लोगों को कत्ल करने में दिक्कत क्या है? हमारा खून बहे, हमारा देश टूटे यही भारतीय वामपंथ का छुपा हुआ एजेंडा है। हमारी सुरक्षा एजेंसियां देश में आतंकियों के मददगार स्लीपर सेल की तलाश कर रही हैं, इसकी ज्यादा बड़ी जगह जेएनयू है। वहां भी नजर डालिए।
सरकारी पैसे पर राष्ट्रद्रोह की विषवेलः जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है, जहां सरकारी पैसे से राष्ट्रद्गोह के बीज बोए जाते हैं। यहां ये घटनाएं पहली बार नहीं हुयी हैं। ये वे लोग हैं नक्सलियों द्वारा हमारे वीर सिपाहियों की हत्या पर खुशियां मनाते हैं। अपनी नाक के नीचे भारतीय राज्य अरसे से यह सब कुछ होने दे रहा है,यह आश्चर्य की बात है। इस बार भी घटना के बाद माफी मांग कर अलग हो जाने के बजाए, जिस बेशर्मी से वामपंथी दलों के नेता मैदान में उतरकर एक राष्ट्रद्रोही गतिविधि का समर्थन कर रहे हैं, वह बात बताती है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। यह कहना कि जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है,ठीक नहीं है। गांधी हत्या की एक घटना के लिए आजतक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लांछित करने वाली शक्तियां क्यों अपने लिए छूट चाहती हैं? जबकि अदालतों ने भी गांधी हत्या के आरोप से संघ को मुक्त कर दिया है। टीवी बहसों को देखें तो अपने गलत काम पर पछतावे के बजाए वामपंथी मित्र भाजपा और संघ के बारे में बोलने लगते हैं। भारत को तोड़ने और खंडित करने के नारे लगाने वाले और इंडिया गो बैक जैसी आवाजें लगाने वाले किस तरह की मानसिकता में रचे बसे हैं, इसे समझा जा सकता है। देश तोड़ने की दुआ करने वालों को पहचानना जरूरी है।
राहुल जी, आप वहां क्या कर रहे हैः वामपंथी मित्रों की बेबसी, मजबूरी और बदहवासी समझी जा सकती है, किंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी जिम्मेदार पार्टी के नेता राहुल गांधी का रवैया समझ से परे है। कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय आंदोलन का अतीत और उसके नेताओं का राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान लगता है राहुल जी भूल गए हैं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि वे जाकर देशद्रोहियों के पाले में खड़े हो जाएं? उनकी पं. नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी की विरासत का यह अपमान है। इनमें से दो ने तो अपने प्राण भी इस राष्ट्र की रक्षा के लिए निछावर कर दिए। ऐसे परिवार का अंध मोदी विरोध या भाजपा विरोध में इस स्तर पर उतर जाना चिंता में डालता है। पहले दो दिन कांग्रेस ने जिस तरह की राष्ट्रवादी लाइन ली, उस पर तीसरे दिन जेएनयू जाकर राहुल जी ने पानी फेर दिया। जेएनयू जिस तरह के नारे लगे उसके पक्ष में राहुल जी का खड़ा होना बहुत दुख की बात है। वे कांग्रेस जैसी गंभीर और जिम्मेदार पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उन्हें यह सोचना होगा कि भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते कहीं वे देशद्रोहियों के एजेंडे पर तो नहीं जा रहे हैं। उन्हें और कांग्रेस पार्टी को यह भी ख्याल रखना होगा कि किसी दल और नेता से बड़ा है देश और उसकी अस्मिता। देश की संप्रभुता को चुनौती दे रही ताकतों से किसी भी तरह की सहानुभूति रखना राहुल जी और उनकी पार्टी के लिए ठीक नहीं है। जेएनयू की घटना को लेकर पूरे देश में गुस्सा है, ऐसे समूहों के साथ अपने आप को चिन्हित कराना, कांग्रेस की परंपरा और उसके सिद्धांतों के खिलाफ है।
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम परः कौन सा देश होगा जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर खुद को तोड़ने की नारेबाजी को प्रोत्साहन देगा। राष्ट्र के खिलाफ षडयंत्र और देशद्रोहियों की याद में कार्यक्रम करने वालों के साथ जो आज खड़े हैं, वे साधारण लोग नहीं हैं। जिस देश ने आपको सांसद, विधायक, मंत्री और प्रोफेसर बनाया। लाखों की तनख्वाहें देकर आपके सपनों में रंग भरे, आपने उस देश के लिए क्या किया? आजादी आप किससे चाहते हैं? इस मुल्क से आजादी, जिसने आपको एक बेहतर जिंदगी दी। अन्याय और अत्याचार से मुक्ति दिलाने की आपकी यात्रा क्यों गांव-गरीब और मैदानों तक नहीं पहुंचती? अपने ही रचे जेएनयू जैसे स्वर्ग में शराब की बोतलों और सिगरेट की घुंओं में क्रांति करना बहुत आसान है किंतु जमीन पर उतर कर आम लोगों के लिए संघर्ष करना बहुत कठिन है। हिंदुस्तान के आम लोग पढ़े-लिखे लोगों को बहुत उम्मीदों से देखते हैं कि उनकी शिक्षा कभी उनकी जिंदगी में बदलाव लाने का कारण बनेगी। किंतु आपके सपने तो इस देश को तोड़ने के हैं। समाज को तोड़ने के हैं। समाज में तनाव और वर्ग संघर्ष की स्थितियां पैदा कर एक ऐसा वातावरण बनाने पर आपका जोर है ताकि लोगों की आस्था लोकतंत्र से, सरकार से और प्रशासनिक तंत्र से उठ जाए। विदेशी विचारों से संचालित और विदेशी पैसों पर पलने वालों की मजबूरी तो समझी जा सकती है। किंतु भारत के आम लोगों के टैक्स के पैसों से एक महान संस्था में पढ़कर इस देश के सवालों से टकराने के बजाए, आप देश से टकराएंगें तो आपका सिर ही फूटेगा।
    जेएनयू जैसी बड़ी और महान संस्था का नाम किसी शोधकार्य और अकादमिक उपलब्धि के लिए चर्चा में आए तो बेहतर होगा, अच्छा होगा कि ऐसे प्रदर्शनों-कार्यक्रमों के लिए राजनीतिक दल या समूह जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राजधाट और रामलीला मैदान जैसी जगहें चुनें। शिक्षा परिसरों में ऐसी घटनाओं से पठन-पाठन का वातावरण तो बिगड़ता ही है, तनाव पसरता है, जो ठीक नहीं है। इससे विश्वविद्यालय को नाहक की बदनामी तो मिलती ही है, और वह एक खास नजर से देखा जाने लगता है। अपने विश्वविद्यालय के बचाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी शायद वहां के अध्यापकों और छात्रों की ही है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही, इस बार मिली बदनामी का सबसे बड़ा इलाज है।
    एक लोकतंत्र में होते हुए आपकी सांसें घुट रही हैं, तो क्या माओ के राज में, तालिबानों और आईएस के राज में आपको चैन मिलेगा? सच तो यह है कि आप बेचैन आत्माएं हैं, जिनका विचार ही है भारत विरोध, भारत द्वेष, लोकतंत्र का विरोध। आपका सपना है एक कमजोर और बेचारा भारत। एक टूटा हुआ, खंड-खंड भारत। ये सपने आप दिन में भी देखते हैं, ये ही आपके नारे बनकर फूटते हैं। पर भूल जाइए, ये सपना कभी साकार नहीं होगा, क्योंकि देश और उसके लोग आपके बहकावे में आने को तैयार नहीं है। देश तोड़क गतिविधियों और राष्ट्र विरोधी आचरण की आजादी यह देश किसी को नहीं दे सकता। आप चाहे जो भी हों। जेएनयू या दिल्ली भारत नहीं है। भारत के गांवों में जाइए और पूछिए कि आपने जो किया उसे कितने लोगों की स्वीकृति है, आपको सच पता चल जाएगा। राष्ट्र की अस्मिता और चेतना को चुनौती मत दीजिए। क्योंकि कोई भी व्यक्ति, विचारधारा और दल इस राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता। चेत जाइए।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

अमित शाहः कांटों का ताज


-संजय द्विवेदी
   भारतीय जनता पार्टी ने अंततः अमित शाह को दुबारा अपना अध्यक्ष बनाकर यह संदेश दे दिया है कि पार्टी में मोदी समय अभी जारी रहेगा। कई चुनावों में पराजय और नाराज बुजुर्गों की परवाह न करते हुए बीजेपी ने साफ कर दिया है कि अमित शाह, उसके शाह बने रहेगें। दिल्ली और बिहार की पराजय ने जहां अमित शाह के विरोधियों को ताकत दी थी, तथा उन्हें यह मौका दिया था कि वे शाह की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर सकें। किंतु विरोधियों को निराशा ही हाथ लगी, और शाह के लिए एक मौका फिर है कि वे अपनी आलोचनाओं को बेमतलब साबित कर सकें।
कार्यशैली पर उठे सवालः अमित शाह के बारे में कहा जाता है कि वे अधिनायकवादी हैं, और संवाद में उनका भरोसा कम है। वे आदेश देते हैं और उसे यथाशब्द पालन होते देखना चाहते हैं। उनके बारे में सुना जाता है कि वे लोकतांत्रिक कम हैं, और बिग बास सरीखा व्यवहार करते हैं। उ.प्र. में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता ने जहां शाह को एक कुशल रणनीतिकार के रूप में स्थापित किया वहीं उनके आलोचकों को किस्से बहुत मिल गए। हालांकि जब अमित शाह वहां पहुंचे तो उ.प्र. वैसे भी एक पस्तहाली से गुजर रहा था। नेता काफी थे, सब बड़े और अहंकार से भरे, किंतु काम के बहुत कम। अमित शाह ने जो भी किया वे उ.प्र. से बेहतर परिणाम ला सके। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि वे भाजपा के परंपरागत नेतृत्व की कम सुन रहे थे। क्या यह संभव था कि उ.प्र. जैसे राज्य में वहां के परंपरागत नेताओं की अगुवाई में चुनाव जीते जा सकें। अमित शाह ने जो भी किया, समय ने उसे सही साबित किया। मोदी का उ.प्र. का लड़ना साधारण फैसला नहीं था, किंतु उसने भाजपा की एक हवा बनाई और उ.प्र. अरसे बाद भाजपा की गोद में आ गया। अमित शाह को जानने वाले जानते हैं कि वे रणनीति के उस्ताद और काम में भरोसा रखने वाले हैं। संगठन को वैज्ञानिक ढंग से चलाना उनकी आदत है। वे भाषणप्रिय टीम के बजाए काम की टीम रखते हैं, और परिणाम देते हैं। ऐसे में बिहार और दिल्ली के परिणामों के आधार पर उनकी छुट्टी का कोई आधार नहीं बनता।
   दिल्ली के हार के कारण बहुत अलग हैं और बिहार भी एक अलग कहानी है। दोनों राज्यों में भाजपा की हार के कारण अध्ययन का विषय हैं। बिहार में भाजपा कुछ ज्यादा उम्मीदों से थी, जबकि यहां उसकी कोई जमीन है ही नहीं। मत विभाजन के चलते मिली सफलताओं को वह अपनी निजी सफलता मानने के भ्रम में थी। जैसे कल्पना करें उ.प्र. में सपा और बसपा का गठबंधन हो जाए तो परिणाम क्या होगें? जाहिर तौर पर उत्तर भारत की राजनीति में आज भी जातीय गोलबंदियां मायने रखती हैं। उनके परिणाम आते हैं। बिहार जैसे राज्य में जहां आज भी जाति सबसे विचार संगठन और विचार है, को जीतना भाजपा के परंपरागत तरीके से संभव कहां था? अपने व्यापक अभियान के चलते भाजपा ने अपना वोट बैंक तो बचा लिया, पर इतना तूफानी अभियान न होता तो भाजपा कहां होती?
नए अध्यक्ष की चुनौतियां- भाजपा के नए अध्यक्ष अमित शाह के लिए पराजयों का सिलसिला अभी जारी रहने वाला है। जिन राज्यों में आगामी चुनाव हैं वहां भाजपा कोई परंपरागत दल नहीं है। इसलिए उसकी ताकत तो बढ़ सकती है पर सत्ता में उसके आने के आसार बहुत कम हैं। राजनीति को पूरी तरह उलटा नहीं किया जा सकता। असम में भाजपा का उंचा दांव है, तो बंगाल में वह संघर्ष में आने को लालायित है। इसके साथ ही पंजाब से भी बहुत अच्छी खबरें नहीं है। उप्र का मैदान तो सपा-बसपा के बीच आज भी बंटा हुआ है। ऐसे में अमित शाह के लिए चुनौती यही है कि वे अपने दल की ताकत को बढ़ाएं और सम्मान जनक सफलताएं हासिल करें। इसके साथ ही उन पर सबसे आरोप संवादहीनता और मनमाने व्यवहार का है। उन्हें अपने साथ घट रही इस शिकायत पर भी ध्यान देना होगा। भाजपा एक परिवार की तरह चलने वाली पार्टी रही है, उसे कंपनी या कारपोरेट की तरह चलाना शायद लोगों को हजम न हो। किंतु अनुशासन की जिस तरह घज्जियां उड़ रही हैं, उसे संभालना होगा। अकेले बिहार के शत्रुध्न सिन्हा, कीर्ति आजाद, आर के सिंह, भोला सिंह, हुकुमदेव नारायण यादव जैसे लोकसभा सदस्यों ने जिस तरह की बातें कहीं, वह एक चेतावनी है। यह असंतोष बड़ा और संगठित भी हो सकता है। इसका उन्हें ध्यान देना होगा। उन्हें यह भी ध्यान देना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दुखी जन हमले मोदी पर नहीं अमित शाह पर ही करेगें, क्योंकि अमित शाह की विफलता को कहीं न कहीं मोदी की विफलता से जोड़कर ही देखा जाएगा।
भौगोलिक विस्तार और संगठनात्मक सुदृढ़ता का मोर्चाः भाजपा ने अपनी लंबी यात्रा में बहुत कुछ हासिल किया है। किंतु आज भी देश के तमाम वर्गों के लिए वह एक अछूत पार्टी है। अमित शाह को भाजपा के भौगोलिक-सामाजिक विस्तार के साथ संगठन की सुदृढ़ता पर भी ध्यान देना होगा। दक्षिण- भारत के राज्यों में उसका विस्तार अभी प्रतिक्षित है। उसकी कर्नाटक में रही अकेली सरकार भी जा चुकी है। ऐसे में भाजपा ऐसा क्या करेगी कि उसके माथे से उत्तर भारत का दल होने का तमगा हटे, इसे देखना रोचक होगा। भाजपा को समाज के बुद्धिजीवी वर्गों, तमाम प्रकार के प्रदर्शन कलाओं, और कलाक्षेत्र से जुड़े गुणवंतों से संपर्क बनाना होगा। उनके साथ संवाद निरंतर करना होगा और अपनी उदारता का परिचय देना होगा। संस्कृति और कला के सवालों पर अपने अपढ़ नेताओं को बोलने से रोकना होगा। इन विषयों पर अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ ही बात करने वाले नेता आगे आएं। भाजपा में बड़ी संख्या में ऐसे कार्यकर्ता हैं जो भावनात्मक आधार पर काम करते हैं, उनके राजनीतिकरण की प्रक्रिया पार्टी को तेज करनी होगी। इसका लाभ यह होगा कि वे हर स्थिति में अपने राजनीतिक पक्ष का साथ देगें, और उसे स्थापित करने के सचेतन प्रयास करेंगें। आज स्थिति यह है कि भावनात्मक आधार पर जुड़े कार्यकर्ता कुछ गड़बड़ देखकर या तो अपनी ही सरकार के कटु आलोचक हो जाते हैं या निष्क्रिय होकर घर बैठ जाते हैं। वैचारिक प्रशिक्षण के अभियान चलाकर उन्हें भाजपा में होने के मायने बताने होगें। अपने दल के कार्यकर्ताओं का यह प्रशिक्षण उन्हें नए भारत में उनकी भूमिका से संबंधित होना चाहिए। कम समय में निराश हो रही अपनी फौज को संभालने के लिए शाह को कड़ाई से दल के बयानवीरों पर रोक लगानी होगी। भाजपा के सांसद और विधायक या मंत्री हर विषय के विशेषज्ञ बनकर अपनी राय न दें, इससे दल की जगहंसाई भी रूकेगी और विवाद के अवसर कम आएंगे। मोदी सरकार के मंत्रियों को भी अपेक्षित संयम के साथ ही संवाद के मैदान में कूदना चाहिए। अमित शाह और नरेंद्र मोदी लंबे समय तक गुजरात में काम किया था, उन्हें ध्यान देना होगा कि भारत गुजरात नहीं है।