शनिवार, 26 मार्च 2016

इतने गुस्से में क्यों हैं लोग?

-संजय द्विवेदी

    यह कितना निर्मम समय है कि लोग इतने गुस्से से भरे हुए हैं। दिल्ली में डा. पंकज नारंग की जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी,वह बात बताती है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं। साधारण से वाद-विवाद का ऐसा रूप धारण कर लेना चिंता में डालता है। लोगों में जैसी अधीरता,गुस्सा और तुरंत प्रतिक्रिया देने का अंदाज बढ़ रहा है वह बताता है कि, हमारे समाज को एक गंभीर इलाज की जरूरत है। सोचना यह भी जरूरी है कि क्या कानून का कोई खौफ लोगों के भीतर बचा है या अब सब कानून को हाथ में लेकर खुद ही अपने फैसले करेगें। एक स्कूटी सवार को रबर गेंद लग जाए और वह नाराजगी में किसी की हत्या कर डाले, यह खबर बताती है कि हम कैसा संवेदनहीन समाज बना रहे हैं। कानून अपने हाथ में लेकर घूमते ये लोग दरअसल भारतीय राज्य और पुलिस के लिए भी एक चुनौती हैं।
    गुस्से से भरे लोग क्या यूं ही गुस्से में हैं या उसके कुछ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारण भी हैं। बताया जा रहा है रहा है मारपीट करने वाले लोग बेहद सामान्य परिवारों से हैं और उनमें कुछ बगल की झुग्गी में रहते थे। एक क्षणिक आवेश किस तरह एक बड़ी घटना में बदल जाता है, यह डा. पंकज के साथ हुआ हादसा बताता है। गुस्से और आक्रोश की मिली-जुली यह घटना बताती है लोगों में कानून का खौफ खत्म हो चुका है। लोगों की जाति-धर्म पूछकर व्यवहार करने वाली राजनीति और पुलिस तंत्र से ज्यादातर समाज का भरोसा उठने लगा है। आज यह सवाल पूछना कठिन है, किंतु पूछा जाना चाहिए कि डा. नारंग अगर किसी अल्पसंख्यक वर्ग या दलित वर्ग से होते तो शेष समाज की क्या इतनी सामान्य प्रतिक्रिया होती? इस घटना को मोदी सरकार के विरूद्ध हथियार की तरह पेश किया जाता। इसलिए सामान्य घटनाओं और झड़पों को राजनीतिक रंग देने में जुटी मीडिया और राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना जरूरी है कि एक मनुष्य की मौत पर उनमें समान संवेदना क्यों नहीं है? क्यों वे एक इंसान की मौत को धर्म या जाति के चश्मे से देखते हैं?
    डा. नारंग की मौत हमारी इंसानियत के लिए एक चुनौती है और समूची सामाजिक व्यवस्था के लिए एक काला घब्बा है। हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां सामान्य तरीके से जीने के लिए भी, हमें वहशियों से बचकर चलना होगा। भारत जैसे देश में जहां पड़ोसी के लिए हम कितनी भावनाएं रखते हैं और उसके सुख-दुख में उसके साथ होने की कामना करते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि हमारे पड़ोसी भी कितने ह्दयहीन हैं, वे कैसी पशुता से भरे हुए हैं, उनके मन में हमारे लिए कितना जहर है। समाज में फैलती गैरबराबरी-ऊंच-नीच, जाति-धर्म और आर्थिक स्थितियों के विभाजन बहुत साफ-साफ जंग की ओर इशारा कर रहे हैं। ये स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, क्योंकि परिवारों में हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और दूसरे को सहन करने, साथ लेने की आदतें नहीं विकसित कर रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों की हर जिद का पूरा होना जरूरी है और वहीं सामान्य परिवारों के बच्चे तमाम अभावों के चलते एक प्रतिहिंसा के भाव से भर रहे हैं। एक को सब चाहिए दूसरे को कुछ मिल नहीं रहा है-ये दोनों ही अतियां गलत हैं। समाज में संयम का बांध टूटता दिख रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सिमटते संसाधन, उपभोग की बढ़ती भूख, बाजारीकरण और बिखरते परिवारों ने एक ऐसे युवा का सृजन किया है जो गुस्से में है और संस्कारों से मुक्त है। संस्कारहीनता और गुस्से का संयोग इस संकट को गहरा कर रहा है। जहां माता-पिता अन्यान्य कारणों से अपनी संततियों को सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, वहीं विद्यालय और शिक्षक भी विफल हो रहे हैं। इस संकट से उबरने में सामाजिक संगठनों, परिवारों का एकजुट होना जरूरी है।
  बचपन से ही बच्चों में सहनशीलता, संवाद और साहचर्य को सिखाने की जरूरत है। दिल्ली की ह्दय विदारक घटना में जिस तरह नाबालिग बच्चों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया और एक परिवार को उजाड़ दिया वह बात बहुत चिंता में डालने वाली है। किसी भी घटना को हिंदू और मुसलमान के नजरिए से देखने के बजाए यह देखना जरूरी है कि इसके पीछे मानसिकता क्या है? इसी हिंसक मानस का रूप आप हरियाणा के जाट आंदोलन में देख सकते हैं जहां अपने पड़ोसियों और अपने शहर के साथ हिंसक आंदोलनकारियों ने क्या किया। इस हिंसक वृत्ति का विस्तार हमें रोकना ही होगा। हमारे आसपास और परिवेश में अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जिसमें समाज का हिंसक चेहरा उभर कर सामने आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन प्रवृत्तियों के खिलाफ हमें साथ आना और एकजुट होना भी सीखना होगा। सार्वजनिक स्थलों पर, बसों में, ट्रेनों में स्त्रियों के विरूद्ध हो रहे अपराध हों या हिंसक आचरण- सबको हम देखकर चुप लगा जाते हैं।

   देश में बढ़ रही हिंसा और अराजकता के विरूद्ध सामाजिक शक्ति को एकत्र होना होगा। सबसे बड़ी बात अपने आसपास हो रहे अपराध और अन्याय के प्रति हमारी खामोशी हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। अकेले पुलिस और सरकार के भरोसे बैठा हुआ समाज, कभी सुख से नहीं रख सकता। होते हुए अन्याय को चुप होकर देखना और प्रतिक्रिया न देना एक बड़ा संकट है ऐसे में मनोरोगियों और अपराधियों के हौसले बढ़ते हुए दिखते हैं। समाज को भयमुक्त और आतंक से मुक्त करना होगा। जहां हर बच्चा, बच्ची सुरक्षित होकर अपने बचपन का विकास  कर सके,जहां पिता और मां अपनी पीढ़ी को योग्य संस्कार दे सके। बदली हुयी दुनिया में हमें ज्यादा मनुष्य बनने के यत्न करने होगें। इसलिए एक शायर कहते हैं- आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना । हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इंसानियत के पाठ पढ़ाने होगें। परदुखकातरता सिखानी होगी। दूसरों के दुख में दुखी होना और दूसरों के सुख में प्रसन्न होना यही संस्कृति है। इसका विपरीत आचरण विकृति है। हमें संस्कृति और इंसानियत के साझा पाठ सीखने होगें। डा. नारंग की हत्या हमारे लिए चेतावनी है और एक पाठ भी कि हम आज भी संवेदना से, इंसानियत से चूके तो कल बहुत देर हो जाएगी। एक नया समाज बनाने की आकांक्षा से भरे-पूरे हम भारतवासी किसी भी इंसानी हत्या को इंसानियत की हत्या मानें और दुबारा यह दोहराया न जाए, इसके लिए सचेतन प्रयास करें। अपने धर्मों की ओर देखें वे भी हमें यही बता रहे हैं। इस्लाम बता रहा है कि कैसे पड़ोसी के साथ रहें, ईसाईयत करूणा को प्राथमिकता दे रही है, हिंदुत्व भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को ही समूची मनुष्यता में रूपांतरित करने का इच्छुक है। लोककवि तुलसीदास भी इसी बात को कह रहे हैं-परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। यानि दूसरों का हित करना ही सबसे धर्म है और दूसरे को पीड़ा देना सबसे बड़ा अधर्म है। गुस्से में अंधे हो चुके युवाओं और उनके माताओं-पिताओं की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे एक बार फिर जागृत विवेक की ओर लौटें ताकि मनुष्यता ऐसे कलंकों से बचकर अपना परिष्कार कर सके। डा. नारंग की हत्या का सबक यही है कि हम अपने क्रोध पर नियंत्रण करें और अपनत्व के दायरे को विस्तृत करें।  

शनिवार, 19 मार्च 2016

हम और हमारा राष्ट्रवाद

फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं
-संजय द्विवेदी
   देश में इन दिनों राष्ट्रवाद चर्चा और बहस के केंद्र में है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम भारतीय राष्ट्रवाद पर एक नई दृष्टि से सोचें और जानें कि आखिर भारतीय भावबोध का राष्ट्रवाद क्या है?‘राष्ट्र सामान्य तौर पर सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि भूगोल-संस्कृति-लोग के तीन तत्वों से बनने वाली इकाई है। इन तीन तत्वों से बने राष्ट्र में आखिर सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? जाहिर तौर पर वह लोग ही होगें। इसलिए लोगों की बेहतरी,भलाई, मानवता का स्पंदन ही किसी राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख तत्व होना चाहिए।
        जब हम लोगों की बात करते हैं तो भौगोलिक इकाईयां टूटती हैं। अध्यात्म के नजरिए से पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं। सभी संत, आध्यात्मिक नेता और मनोवैज्ञानिक भी यह मानने हैं कि पूरी दुनिया पर मनुष्यता एक खास भावबोध से बंधी हुयी है। यही वैश्विक अचेतन (कलेक्टिव अनकांशेसनेस) हम-सबके एक होने का कारण है। स्वामी विवेकानंद इसी बात को कहते थे कि इस अर्थ में भारत एक जड़ भौगोलिक इकाई नहीं है। बल्कि वह एक चेतन भौगोलिक इकाई है जो सीमाओं और सैन्य बलों पर ही केंद्रित नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद मनुष्य के विस्तार व विकास पर केंद्रित है। जिसे भारत ने वसुधैव कुटुम्बकम् कहकर संबोधित किया। यह वसुधैव कुटुम्बकम् राजनीतिक सत्ता का उच्चार नहीं है। उपनिषद् का उच्चार है। सारी दुनिया के लोग एक परिवार, एक कुटुम्ब के हैं, इसे समझना ही दरअसल भारतीय राष्ट्रवाद को समझना है। यह राष्ट्रवाद मनुष्य की सांस्कृतिक एकता के विस्तार का प्रतीक है और हमारे सांस्कृतिक मूल्य, मानववादी सांस्कृतिक मूल्यों पर केंद्रित है। हमारी भारतीय अवधारणा में राज्य निर्मित भौगोलिक-प्रशासनिक इकाईयां प्रमुख स्थान नहीं रखतीं बल्कि हमारी चेतना, संस्कृति, मूल्य आधारित जीवन और परंपराएं ही यहां हमें राष्ट्र बनाती हैं। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखें तो आर्यावर्त की सीमाएं कहां से कहां तक विस्तृत हैं, जबकि सच यह है कि इस पूरे भूगोल पर राज्य बहुत से थे, राजा अनेक थे- किंतु हमारा सांस्कृतिक अवचेतन हमें एक राष्ट्र का अनुभव कराता था। एक ऐतिहासिक सत्य यह  भी यह है  कि हमारा राष्ट्रवाद दरअसल राज्य संचालित नहीं था, वह समाज और बौद्धिक चेतना से संपन्न संतों, ऋषियों द्वारा संचालित था। वह राष्ट्रवाद इस व्यापक भूगोल की चेतना में समाया हुआ था। यहां का ज्ञान विस्तार जिस तरह चारों दिशाओं में हुआ,वह बात हैरत में डालती है।
    आप देखें तो बुद्ध पूरी दुनिया में अपने संदेश को यूं ही नहीं फैला पाए, बल्कि उस ज्ञान में एक ऐसा नवाचार,नवचेतन था जिसे दुनिया ने स्वतः आगे बढकर ग्रहण किया। भारत कई मायनों में अध्यात्म और चेतना की भूमि है, सच कहें तो दुनिया की तमाम स्थितियों से भारत एक अलग स्थिति इसलिए पाता है, क्योंकि यह भूमि संतों के लिए, ज्ञानियों के लिए उर्वर भूमि है। दुनिया के तमाम विचारों की सांस्कृतिक चेतना जड़वादी है, जबकि भारत की चेतना जैविक है। इसलिए भारत मरता नहीं है, क्योंकि वह जड़वादी और हठवादी नहीं है। यहां का मनुष्य सांस्कृतिक एकता के लिए तो खड़ा होता है पर विचारों में जड़ता आते ही उससे अलग हो जाता है। हमारा ईश्वर आंतरिक उन्नयन और पाप  क्षय के लिए काम करता है। हमारे संत भी आध्यात्मिक उन्नयन और पापों के क्षय के लिए काम करते हैं। मनुष्य की चेतना का आत्मिक विस्तार ही इस राष्ट्रवाद लक्ष्य है। इसलिए यह सिर्फ एक खास भूगोल, एक खास विचारधारा और पूजा पध्दति में बंधे लोगों के उद्धार के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति के काम करने वाला यह विचार है। यहां मानव की मुक्ति ही उसका लक्ष्य है। यह राष्ट्रवाद सैन्यबल और व्यापार बल से चालित नहीं है, बल्कि यह चेतना के विस्तार, उसके व्यापक भावबोध और मनुष्य मात्र की मुक्ति का विचार से अनुप्राणित है।
   भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद को समझना वास्तव में मानवतावाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना है। यह विचार कहता है- संतों को सीकरी से क्या काम और फिर कहता है ‘’कोई नृप होय हमें क्या हानि इस मायने में हम राज या राज्य पर निर्भर रहने वाले समाज नहीं थे। राजा या राज्य एक व्यवस्था थी, किंतु जीवन मुक्त था-मूल्यों पर आधारित था। पूरी सांस्कृतिक परंपरा में समाज ज्यादा ताकतवर था और स्वाभिमान के साथ उदार मानवतावाद और एकात्म मानवदर्शन पर आधारित जीवन जीता था। वह चीजों को खंड-खंड करके देखने का अभ्यासी नहीं था। इसलिए इस राष्ट्रवाद में जो समाज बना, वह राजा केंद्रित नहीं, संस्कृति केंद्रित समाज था। जिसे अपने होने-जीने की शर्तें पता थीं, उसे उसके कर्तव्य ज्ञात थे। उसे राज्य की सीमाएं भी पता थीं और अपनी मुक्ति के मार्ग भी पता थे। इस समाज में गुणता की स्पर्धा थी- इसलिए वह एक सुखी और संपन्न समाज था। इस समाज में भी बाजार था, किंतु समाज- बाजार के मूल्यों पर आधारित नहीं था। आनंद की सरिता पूरे समाज में बहती थी और आध्यात्मिकता के मूल्य जीवन में रसपगे थे। भारतीय समाज जीवन अपनी सहिष्णुता के नाते समरसता के मूल्यों का पोषक है। इसीलिए तमाम धाराएं,विचार,वाद और पंथ इस देश की हवा-मिट्टी में आए और अपना पुर्नअविष्कार किया, नया रूप लिया और एकमेक हो गए। भारतीयता हमारे राष्ट्रवाद का अनिवार्य तत्व है। भारतीयता के माने ही है स्वीकार। दूसरों को स्वीकार करना और उन्हें अपनों सा प्यार देना। यह राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदर देने वाला और समाज को सुख देने वाला है। इसी नाते भारत का विचार आक्रामकता का, आक्रामण का, हिंसा या अधिनायकवाद का विचार नहीं है। यह श्रेष्ठता को आदर देने वाली,विद्वानों और त्यागी जनों को पूजने वाली संस्कृति है। अपने लोकतत्वों को आदर देना ही यहां राष्ट्रवाद है। इसलिए यहां भूगोल का विस्तार नहीं, मनों और दिलों को जीतने की संस्कृति यहां जगह पाती है।
   यहां शांति है, सुख है, आनंद है और वैभव है। यह देकर, छोड़कर और त्यागकर मुक्त होती है। समेटना यहां ज्ञान को है, संपत्ति, जमीन और वैभव को नहीं। इसलिए फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं। इसलिए यहां लोकसत्ता का भी मानवतावादी होना जरूरी है। यहां सत्ता विचारों से, कार्यों से और आचरण से लोकमानस का विचार करती है तो ही सम्मानित होती है। वैसे भी भारतीय समाज एक सत्ता निरपेक्ष समाज है। वह सत्ताओं की परवाह न करने वाला स्वाभिमानी समाज है। इसलिए उसने जीवन की एक अलग शैली विकसित की है, जो उसके राष्ट्रवाद ने उसे दी है। यही स्वाभिमान एक नागरिक का भी है और राष्ट्र का भी। इसलिए वह अपने अध्यात्म के पास जाता है, अपने लोक के पास जाता है और सत्ता या राज्य के चमकीले स्वप्न उसे रास नहीं आते। इसी राष्ट्र तत्व को खोजते हुए राजपुत्र सत्ता को छोड़कर वनों, जंगलों में जाते रहे हैं, ज्ञान की खोज में,सत्य की खोज में, लोक के साथ सातत्य और संवाद के लिए। राम हों, कृष्ण हों, शिव हों, बुद्ध हों, महावीर हों- सब राजपुत्र हैं, संप्रुभ हैं और सब राज के साथ समाज को भी साधते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते हैं। इसलिए भारतीय जमीन का राष्ट्रवाद एक अलग कथा है, उसे पश्चिमी पैमानों से नापना गलत होगा। आज इस वक्त जब भारतीय राष्ट्रवाद की अनाप-शनाप व्याख्या हो रही है, हमें ठहरकर सोचना होगा कि क्या सच में हममें अपने राष्ट्र की थोड़ी भी समझ बची है? 
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
   



सोमवार, 14 मार्च 2016

अनथक यात्री की कहानी बयां करती किताब

       -लोकेन्द्र सिंह
 

  भारतीय राजनीति के 'अनथक यात्री' लखीराम अग्रवाल पर किसी पुस्तक का आना सुखद घटना है। सुखद इसलिए है, क्योंकि लखीरामजी जैसे राजपुरुषों की प्रेरक कथाएं ही आज हमें राजनीति के निर्लज्ज विमर्श से उबार सकती हैं। दलबंदी के गहराते दलदल में फंसकर इधर-उधर हाथ-पैर मार रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को सीख देने के लिए लखीरामजी जैसे नेताओं के चरित्र को सामने लाना बेहद जरूरी है। विचार के लिए किस स्तर का समर्पण चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी राजनीतिक शुचिता कैसे बनाए रखी जाती है, यह सब सिखाने के लिए लखीरामजी सरीखे व्यक्तित्वों को अतीत से खींचकर वर्तमान में लाना ही चाहिए।
    लखीराम अग्रवाल सच्चे अर्थों में राजपुरुष थे। उन्होंने राजनीति का यथेष्ठ उपयोग समाजसेवा के लिए किया। शुचिता की राजनीति की नई लकीर खींच दी। शिखर पर पहुंचकर भी साधारण बने रहे। खुद को महत्वपूर्ण मानकर असामान्य व्यवहार कभी नहीं किया। वे अंत तक खुद को सच्चे अर्थों में जनप्रतिनिधि साबित करते रहे। ऐसे व्यक्तित्व की कहानियां बयां करती है-'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम'। श्री लखीराम अग्रवाल स्मृति ग्रंथ 'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम' का संपादन राजनीतिक विचारक संजय द्विवेदी ने किया है। श्री द्विवेदी ने अपना महत्वपूर्ण समय छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को दिया है। उन्होंने स्वदेश, दैनिक भास्कर, हरिभूमि और जी-24 घंटे संपादक रहते हुए छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचलों को बेहद करीब से देखा है। लखीरामजी के प्रयासों से जब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मजबूत हो रही थीं, तब इस पुस्तक के संपादक श्री द्विवेदी वहीं थे। इस संदर्भ में पुस्तक में शामिल उनके लेख 'भाजपा की जड़ें जमाने वाला नायक' और 'विचारधारा की राजनीति का सिपाही' को देख लेना उचित होगा। उन्होंने लखीरामजी के मिशन-विजन को नजदीक से देखा-समझा है। इसलिए यह पुस्तक अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि, इसमें उन सब बातों, घटनाओं और विचारों का समावेश निश्चिततौर पर है, जिनसे लखीरामजी की वास्तविक तस्वीर उभरकर सबके सामने आएगी।
      मौटे तौर पर पुस्तक में लखीरामजी से संबंधित सामग्री को तीन स्तरों में रखा गया है। परिचय और छवियों में लखीरामजी सहित इस स्मृतिग्रंथ के पांच भाग हो जाते हैं। पहला है मूल्यांकन, जिसमें पत्रकारों, संपादकों, शिक्षाविदों और लेखकों के अनुभव शामिल हैं। पुस्तक के सलाहकार संपादक बेनी प्रसाद गुप्ता लिखते हैं कि लखीरामजी की सूझ-बूझ के कारण बिना किसी हिंसक आंदोलन, धरना-प्रदर्शन या शोर-शराबे के छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हो गया। वरना हम देखते हैं कि राज्यों के निर्माण में कितना संघर्ष होता है। लखीरामजी जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता कम ही देखने को मिलती है। सबको भरोसे में लेकर काम करना उनका विशेष गुण था। इसी खण्ड में वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर लखीरामजी के समाचार-पत्र प्रकाशन और प्रबंध के कौशल का जिक्र करते हैं। श्री नैयर अग्रवाल परिवार के दैनिक समाचार पत्र 'लोकस्वर' के संस्थापक संपादक रहे हैं। वे एक घटना के माध्यम से बताते हैं कि कभी भी लखीरामजी ने पत्रकारिता को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं किया। न कभी संपादक पर दबाव डाला। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भी सहृदय संगठक के पत्रकारीय विशेषता को रेखांकित किया है। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि लखीरामजी ने नागपुर टाइम्स और युगधर्म जैसे समाचार-पत्रों में संवाददाता के रूप में काम किया था। लखीरामजी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे बल्कि वे 'राजनीति के ओल्ड स्कूल के नेता' थे। इंडिया टुडे के संपादक रहे श्री जगदीश उपासने लिखते हैं कि लखीरामजी उन नेताओं में थे जो पार्टी-संगठन को प्रमुखता और उसके लिए समयानुकूल कार्यकर्ता तथा धन की व्यवस्था करने की परम्परागत राजनीतिक शैली में ढले थे। संगठन के पद पर कार्यकर्ता का चयन पार्टी को बढ़ाने की उसकी योग्यता के आधार पर तो होता ही था, वे यह भी देखते कि उस कार्यकर्ता की नियुक्ति से सांगठनिक संतुलन भी न बिगड़े। ऐसे में कई बार तो वे विरोध पर भी उतर आते थे। लेकिन, लखीरामजी का कौशल ऐसा था कि नाराज कार्यकर्ता उनके साथ एक बार लम्बी बातचीत के बाद फिर से पुराने उत्साह से काम पर लग जाता था। हरेक कार्यकर्ता उनके लिए अपने परिवार के सदस्य की तरह था।
      पुस्तक के दूसरे हिस्से 'राजनेताओं की स्मृतियां' में अनेक रोचक प्रसंग हैं। इस खण्ड में उन नेताओं के लेख शामिल हैं, जिन्होंने उनके राजनीतिक सहयात्री रहे। उन नेताओं ने भी अपनी यादें साझा की हैं, जिन्होंने लखीरामजी के सान्निध्य में रहकर पत्रकारिता का ककहरा सीखा है। एक सर्वप्रिय नेता के संबंध में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, अविभाज्य मध्यप्रदेश प्रभावशाली नेता कैलाश जोशी, मोतीलाल वोरा, स्व. विद्याचरण शुक्ल, कैलाश नारायण सारंग सहित अन्य नेताओं के विचारों का एक ही जगह संग्रह महत्वपूर्ण है। इस खण्ड में कैलाश जोशी और लखीराम अग्रवाल का एक-दूसरे के खिलाफ संगठन का चुनाव लडऩे का अविस्मरणीय और शिक्षाप्रद प्रसंग भी शामिल है। महज 21 वर्ष की युवावस्था में नगरपालिका में पार्षद चुना जाना। खरसिया नगरपालिका का अध्यक्ष चुने जाने का प्रसंग। भाजपा में विभिन्न दायित्व मिलने के किस्से और खरसिया के सबसे चर्चित उपचुनाव को समझने का मौका यह पुस्तक उपलब्ध कराती है। खरसिया उपचुनाव में लखीरामजी ने मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ दिलीप सिंह जूदेव को मैदान में उतारा था। चुनाव की ऐसी रणनीति उन्होंने बनाई थी कि कद्दावर नेता अर्जुन सिंह को पसीना आ गया था। हालांकि श्री जूदेव चुनाव हार गए। लेकिन, लखीरामजी के चुनावी प्रबंधन के कारण यह चुनाव ऐतिहासिक बन गया।
   बहरहाल, पुस्तक के तीसरे अध्याय में 'परिजनों की स्मृतियाँ' शामिल हैं। यह एक तरह से लखीरामजी के प्रति उनके अपनों के श्रद्धासुमन हैं। इस अध्याय में लखीरामजी के अनुज रामचन्द्र अग्रवाल, श्याम अग्रवाल, उनके बड़े बेटे बृजमोहन अग्रवाल, लखीराम अग्रवाल, सजन अग्रवाल और पुत्रवधु शशि अग्रवाल ने अपनी स्मृतियों को सबके सामने प्रस्तुत किया है। लखीरामजी का पारिवारिक जीवन भी कम प्रेरणास्पद नहीं है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि किस तरह पूरी ईमानदारी के साथ राजनीति और परिवार दोनों का संचालन किया जाता है। उनके लम्बे सार्वजनिक जीवन में कोई राजनीतिक कलंक नहीं है। राजनीति में अपनी पार्टी को और व्यक्तिगत जीवन में अपने परिवार को मजबूत करने के लिए लखीरामजी ने अथक परिश्रम किया है। जैसा कि शुरुआत में ही लिखा है कि ऐसे धवल राजनेताओं का चरित्र सबके सामने आना ही चाहिए। ताकि अपने मार्ग से भटक रही राजनीति इन्हें देख-सुन और स्मरण कर शायद संभल सके। 275 पृष्ठों की पुस्तक के अंतिम पन्नों पर ध्येयनिष्ठ राजनेता और समाजसेवी लखीराम अग्रवाल से संबंधित महत्वपूर्ण चित्रों का संग्रह है। इन चित्रों से होकर गुजरना भी महत्वपूर्ण होगा।
पुस्तक                        :          लक्ष्यनिष्ठ लखीराम
संपादक                       :         संजय द्विवेदी
प्रकाशक          :          मीडिया विमर्श
                     47, शिवा रॉयल पार्क, साज री ढाणी (विलेज रिसोर्ट) के पास,
                     सलैया, आकृति इकोसिटी से आगे, भोपाल - 462042
                      फोन : 9893598888

मूल्य             :         200 रुपये

शुक्रवार, 11 मार्च 2016

शक्ति को सृजन में लगाएं मोदी

हाथ में आए ऐतिहासिक अवसर का करें राष्ट्रोत्थान के लिए इस्तेमाल

-संजय द्विवेदी


पिछले कुछ दिनों से सार्वजनिक जीवन में जैसी कड़वाहटें, चीख-चिल्लाहटें, शोर-शराबा और आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह बना रहे हैं, उससे हम देश की ऊर्जा को नष्ट होता हुआ ही देख रहे हैं। भाषा की अभद्रता ने जिस तरह मुख्य धारा की राजनीति में अपनी जगह बनाई है, वह चौंकाने वाली है। सवाल यह उठता है कि नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने से दुखीजन अगर आर्तनाद और विलाप कर रहे हैं तो उनकी रूदाली टीम में मोदी समर्थक और भाजपा के संगठन क्यों शामिल हो रहे हैं? वैसे भी जिनको बहुमत मिला है, उन्हें शक्ति पाकर और शालीन व उदार हो जाना चाहिए, पर वे भी अपने विपक्षियों की तरह ही हल्लाबोल की मुद्रा में हैं। ताकत का रचनात्मक इस्तेमाल इस देश के वंचितों को ताकत देने, देश को शक्ति देने और एकजुट करने के लिए होना चाहिए किंतु लगता है कि भाजपा और उसके समर्थक मार्ग से भटक गए हैं और अपने विरोधियों द्वारा नित्य रचे जा रहे नाहक मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने में वक्त खराब कर रहे हैं।
उनसे सिर टकराकर क्या हासिलः  ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से हाशिए पर जा चुके वामपंथियों से सिर टकराने और उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के बजाए भाजपा को लंबे समय और संघर्ष के बाद मिले इस अवसर का सही इस्तेमाल करना चाहिए। गर्जन-तर्जन और टीवी पर बाहें चढ़ाने के बजाए देश को जोड़ने, सामाजिक समरसता पैदा करने, मुसलमानों, ईसाईयों और वंचित वर्गों को इस अहसास से जोड़ना चाहिए कि वे उन्हें अपना शत्रु न समझें। रची जा रही कृत्रिम लड़ाईयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश रखने में कामयाब होगी, किंतु इतिहास को बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से चूक जाएगी। इन नकली लड़ाईयों की उपेक्षा ही सबसे बड़ा दंड है। वरन रोज कोई कन्हैया हीरो बनेगा और देश की राजसत्ता को चुनौती देता दिखाई देगा। नान इश्यू पर बहस करना सबसे बड़ा अपराध है, किंतु अफसोस कि बीजेपी उसी ट्रैक में फंस रही है, जिसमें वामपंथियों का रिकार्ड है। वे सिर्फ बहस कर सकते हैं, नए नारे गढ़ सकते हैं, भ्रम पैदा कर सकते हैं। उन्हें दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के जीवन स्तर को उठाने, भारत के विकास और उद्धार से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए देश की समग्र तस्वीर बदलने के ऐतिहासिक संकल्प से आई सरकार को इन सवालों में नहीं उलझना चाहिए।
तोड़िए पूंजीवादी होने का मिथकः केन्द्र की भाजपा सरकार को इस मिथक को तोड़ने के लिए तेजी के साथ काम करना होगा कि वह नारे और मुखौटे तो आम- आदमी व देश के विकास के लगा रही है, पर उसका छिपा हुआ एजेंडा नंगा पूंजीवाद है। इस मिथक को तोड़कर ही भाजपा अपना जनसमर्थन बचाए और बनाए रख सकती है। यह काम भाषणों से नहीं हो सकता, इसके लिए जमीन पर काम करना होगा। प्रतिपक्ष की राजनीतिक शक्तियों से टकराकर सत्ता उन्हें शक्ति ही देती है, इसलिए उनकी उपेक्षा और बहस में उनसे न उलझकर विकास की गति को तेज करना, कम प्रतिक्रिया देना ही विकल्प है। सबसे पहले देश की भावना का विस्तार करते हुए हमें एक ऐसा जन समाज बनाना होगा जो राष्ट्र प्रथम की ऊर्जा से लबरेज हो।
बौद्धिक और राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौतीः हमारे देश का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने आजादी के इन सालों में बौद्धिक चेतना संपन्न राष्ट्रप्रेमी, भारतीयता के भावों से भरा समाज बनाने के बजाए, बौद्धिक रूप से विपन्न समाज को सृजित किया है। जन समाज में बौद्धिक विपन्नता बढ़े इस पर हमारी राजनीति, शिक्षा और मीडिया का सामूहिक योगदान रहा है। यह खतरा 1991 में उदारीकरण के बाद और बढ़ गया। ऐसे में समाज के बजाए हम भीड़ बना रहे हैं। एक अरब के देश में हर सही-गलत मुद्दे पर हजार-दस हजार जोड़ लेना और अपनी बात कहने लगना बहुत आसान हो गया है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आंधी में टूटते परिवार, बिखरते गांव, कमजोर होते संस्कार, शिक्षा में बढ़ती असमानता के चलते कई स्तरों वाला समाज निर्मित हो रहा है। जिसकी सपने और आकांक्षाएं इस राष्ट्र की आकांक्षाओं से कई बार अलग-अलग दिखती हैं। जन समाज की बौद्धिक विपन्नता, घर में घुस आए बाजार, मीडिया के हर क्षेत्र में एफडीआई के माध्यम से आयातित विचारों की घुसपैठ और नागरिकों को ग्राहक बनाने में जुटा पूरा तंत्र हमें आतंकित करता हुआ दिखता है। यहां स्लोगन की शक्ल में कुछ चीजें हैं, पर संकल्प नदारद हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार और उनके विचार परिवार की यह जिम्मेदारी है कि वह देश में ऐसी बौद्धिक चेतना के निर्माण का वातावरण बनाए, जो सत्ता को भी आईना दिखा सके। आलोचना के प्रति औदार्य और राष्ट्रप्रेम की स्वीकार्यता से यह संभव है। मोदी समर्थकों को यह स्वीकरना चाहिए कि मोदी पर हमला, देश पर हमला नहीं है। सरकार की आलोचना, भारतद्रोह नहीं है। जेएनयू जैसे प्रसंगों को ज्यादा हवा देकर हम विदेशियों को यह बता रहे हैं कि हम कितने बँटे हुए हैं। जबकि सच यह है कि यह कुछ मुट्टी भर बीमार-मनोरोगी-बुद्धिजीवियों का षडयंत्र है, जिसमें पूरा देश उलझ गया है।  हमें समाज जीवन में ऐसी बौद्धिक चेतना का विकास करना है, जिसमें हम शासन-सत्ता से लेकर राज-काज की शैलियों पर सवाल उठा सकें। अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप कर सकें। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को यह ऐतिहासिक विजय सत्ता परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में ही नहीं बल्कि सत्ता संस्कृति में भी परिर्वतन के लिए भी मिली है। एक ऐसी विचारधारा के अवलंबन के लिए मिली है जिसके लिए देश प्रथम है। लोगों को यह अहसास होना चाहिए कि यह कुछ अलग लोग हैं, कुछ अलग सरकार है। दिल्ली में जाकर दिल्लीवाला न होना ही नरेंद्र मोदी की शक्ति है। अगर वे दिल्ली वाले हो गए, तो उनमें क्या बचेगा? उनके विरोधियों की बिलबिलाहट यही है कि नरेंद्र मोदी लुटियंस के मिजाज में फिट नहीं बैठते। विरोधियों की नजर में वे वहां एक अवैध उपस्थिति हैं। लेकिन यह उपस्थिति अपार जनसमर्थन से संयुक्त है। ऐसे में सरकार के बढ़िया-अच्छे कामों को प्रचारित करने में शक्ति लगाने की जरूरत है, न कि वामपंथियों के रोज रचे षडयंत्रों में फंसकर उस पर प्रतिक्रिया देने की। यह बहुत अच्छा है कि प्रधानमंत्री इस बात को समझते हैं, और वे हर बात पर प्रतिक्रिया देने के लिए उपलब्ध नहीं होते, किंतु उनके उत्साही समर्थक जिन्हें भक्त कहकर संबोधित किया जा रहा है, वे मोदी विरोधियों के षडयंत्र में फंसते रहे हैं।
आलोचना से क्या डरनाः लोकतंत्र में आलोचना तो शक्ति देती है। ऐसे में आलोचना से क्या डरना। आलोचना स्वस्थ हो या अस्वस्थ इससे क्या फर्क पड़ता है। आलोचनाओं से घबराकर, खुद हमलावर हो जाना, बिखरे और पस्त पड़े विपक्ष को जीवनदान देना ही है। मोदी और उनकी पार्टी यहीं चूक रही है और उसने अपने एनडीए के कुनबे को विस्तार को रोककर, अपनों की तो नाराजगी ली है, पर विपक्ष को एक कर दिया है। दिल्ली से बिहार तक इसके परिणाम बिखरे पड़े हैं। ऐसे समय में जब भाजपा और उसके परिवार को मुसलमानों और ईसाईयों के साथ संवाद को निरंतर और तीव्र करते हुए, उनमें भारत प्रेमी नेतृत्व का विकास करते हुए अपनी भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण करना चाहिए। वह खुद को छुद्र मुद्दों पर घेरने की विपक्षियों की रणनीति में स्वयं शामिल होने को आतुर दिखती है। हाशिए के समाज के अपनी संलग्नता को स्थाई करने के प्रयासों के बजाए, वह जेएनयू जैसे विवादों पर अपनी शक्ति जाया कर रही है।
ज्यादा डिजीटिलाईजेशन से बचिएः  मोदी सरकार को यह साबित करना होगा कि वह अंतिम आदमी के साथ है। हाशिए के लोगों के साथ उसकी संलग्नता और संवाद ही मोदी और उनकी पार्टी की शक्ति बन सकती है। अधिक डिजीटलाईजेशन के बजाए, हाशिए के समाज के शक्तिवान बनाने और फैसले लेने की शक्ति देने के प्रयास होने चाहिए। इससे डिजीटल डिवाइट का खतरा बढ़ेगा और एक नया दलाल वर्ग यहां भी विकसित हो जाएगा, जो इस डिजीटलाईजेशन के फायदे खुद खा जाएगा। इससे असमर्थ को क्या हासिल होगा, इस पर सोचना चाहिए। गुणवत्तापूर्ण श्रेष्ठ शिक्षा गांवों तक पहुंचाए बिना हम समर्थ भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते। निजी क्षेत्र को ताकतवर बनाने की नीतियों से आगे हमें अपने सरकारी शिक्षण संस्थाओं की गुणवत्ता पर बहुत काम करने की जरूरत है। यह बहुत जरूरी है कि हम ऐसे दिन देख पाएं कि कृष्ण और सुदामा दोनों एक स्कूल में साथ पढ़ सकें। इससे समाज में असंतोष और गैरबराबरी कम होगी। गरीबों को चोर या भ्रष्टाचारी बनाने वाला तंत्र अपना इलाज पहले खुद करे। इस तंत्र को यह भी सोचना होगा कि देश के आम गरीब लोग कामचोर, काहिल या बेईमान नहीं हैं- उन्हें अवसर देकर, सुविधाएं और अच्छी शिक्षा देकर ही कोई भी लोकतंत्र सार्थक हो सकता है। भारतीयों की तरफ अंग्रेजों की सोच और नजरिए से ही हमारा तंत्र और प्रशासन देखता आया है, उस सोच में बदलाव की जरूरत है, जो हमें नागरिक के बजाए प्रजा समझती है। इसलिए विकल्प यही है कि सरकारें वो राज्य की हों या केंद्र की, वे जवाबदेह बनें और डिलेवरी पर मुख्य फोकस करें। वोट की परवाह क्या और क्यों करना?
    याद कीजिए 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के संविद सरकारों के प्रयोग को जिसने पहली बार देश को यह भरोसा दिलाया कि कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो सकती है। राज्यों में ऐसी सरकारें बनीं जिसमें कम्युनिस्ट और जनसंघ के लोग साथ बैठे। ऐसे में एनडीए का कुनबा बिखरा और भाजपा की अहंकारजन्य प्रस्तुति रही तो सत्ता तो हाथ से फिसलनी ही है। नरेन्द्र मोदी और उनके भक्तों को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अवसर उन्हें किसलिए मिला है? उन्हें यह भी याद होगा कि वे क्या करने सत्ता में आए हैं, और यह तो जरूर पता होगा कि वे क्या कर रहे हैं? इतिहास की घड़ी में पांच साल का वक्त कुछ नहीं होता, दो साल गुजर गए हैं। कुछ करिए भाई।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

एक संत-राजनीतिज्ञ की याद

छत्तीसगढ़ की अस्मिता और स्वाभिमान के प्रतीक थे पवन दीवान
-संजय द्विवेदी



        संत श्री पवन दीवान ने जब गुडगांव के मेदांता अस्पताल में 2 मार्च,2016 को आखिरी सांसें लीं तो सही मायने में एक युग का अवसान हो गया। छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी लगा देने वाले और समाज जीवन के हर मोर्चे पर सक्रिय श्री दीवान की कई स्मृतियां एक साथ दिमाग में कौंध जाती हैं। मंत्री और सांसद रहे पवन जी की निजी जिंदगी में जैसी सादगी थी, वह आज की धर्मनीति और राजनीति दोनों में दुर्लभ है। मुझे उनके आश्रम में उनका टीवी इंटरव्यू करने का मौका मिला, एक कमरे में एक लकड़ी का एक बेहद सामान्य तख्त, कुछ खाना बनाने के बरतन, बस इतने से संसाधन। कोई वैभव नहीं- जो आज के संतों के लिए अनिवार्य हैं। आश्रम तो आश्रम सरीखा ही था। स्वयं बनाकर खाना और अपनी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ अपने लोगों के लिए सदा उपलब्ध।  8 अगस्त,1945 को जन्में और छत्तीसगढ़ के महासमुंद क्षेत्र से दो बार सांसद रहे संत पवन दीवान मप्र सरकार में जेल मंत्री भी रहे। बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ गो सेवा आयोग के अध्यक्ष भी रहे। उनकी राजनीति, धर्मनीति, कविता और कथावाचन सब कुछ लोगों के लिए थी।
   कवि, साहित्यकार के रूप में भी उनकी पीड़ा ज्यादातर छत्तीसगढ़ को लेकर ही मुखर होती थी। एक विलक्षण कथावाचक, वे कथा कह रहे हों और आपकी आंखों से आंसू न निकल आएं यह संभव नहीं था । उन्होंने अपनी कविताएं छत्तीसगढ़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखीं। कथा भी वे छत्तीसगढ़ी में कहना पसंद करते थे। लोकभाषा और लोकसंस्कृति को लेकर उनके मन में गहरा अनुराग था। वे सही मायने में लोक को जीने और उसी में बसनेवाले व्यक्ति थे। अपनी एक कविता में वे अपने इस राष्ट्रवादी लोकमन को व्यक्त करते हैं-
सागर में दही भरा जैसे, नदियों में दूध छलकता है
यादें बच्चों की किलकारी,दर्पण में रूप झलकता है
दक्षिण में बाजे बजते हैं,उत्तर में झांझ झमकता है
पश्चिम मन ही मन गाता है,पूरब का भाल दमकता है
   एक कवि के नाते वे मंचों पर बहुत लोकप्रिय रहे। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के गांव-गांव तक उनकी ख्याति थी। वे जहां पहुंचते वहां उन्हें देखने और मिलने वालों का तांता लग जाता। उनकी लोकप्रियता के मद्देनजर राजनीति के मंच पर उनकी उपस्थिति भले ही बहुत ऊंचाई लेती हुयी न दिखती हो, किंतु उन्होंने छत्तीसगढ की अस्मिता के सवालों,यहां को भूमिपुत्रों के प्रश्न और उनकी चिंताओं को अपने विचार के केंद्र में रखा। ये बड़ी बात है कि उन्होंने जिस छत्तीसगढ. राज्य का सपना अपनी युवा अवस्था में देखा और वह उनकी आंखों के सामने पूरा हुआ। 2014 के चुनाव के बाद मेरी किताब 'मोदी लाइव'  उन्हें मिली तो उसकी प्राप्त की सूचना, उन्होंने मेरे मित्र नीरज गजेंद्र से वाट्सअप पर फोटो के रूप में भेजी। वे बेहद भावुक और राजनीति के लिए एक अनुपयोगी व्यक्ति थे। उनके भोलेपन का हर राजनीतिक दल ने इस्तेमाल किया। बार-बार दलबदल शायद उनके इसी भोलेपन का परिणाम था। वे संत थे, जल्दी रूठना और जल्दी खुश हो जाना उनका स्वभाव था। वे सही मायने में राजनीति के लिए नहीं बने थे, लोक की चिंता और सामान्य जनों की पीड़ा उन्हें राजनीति में खींच लाई। उनका राजनीति में आगमन साधारण नहीं था। वे खुद में एक आंदोलन बन गए और इस छत्तीसगढ की जमीन पर लंबे समय तक यह नारा चर्चित रहा-
पवन नहीं ये आंधी है,
छत्तीसगढ़ का गांधी है।
    राजनीति की दुनिया में उनका होना कई बार आश्चर्यचकित करता था। वे कई बार गलत निर्णय लेते और बहुत भावुक होते दिखे, किंतु वे मन की करते थे और लाभ- हानि की परवाह कहां करते थे। उन्होंने सोचकर और संकल्प के साथ शायद सन्यास तो लिया था, पर राजनीति में भावना के कारण ही आए। तमाम लोगों की तरह उन्हें भी लगता था कि राजनीति से बहुत कुछ बदल सकता है। पर उनकी मूल भावना क्या थी-यही न कि छत्तीसगढ़ की सालों से उपेक्षित घरती को न्याय मिले, यहां के लोगों को न्याय मिले। वे इसी भावना के तहत राजनीति में थे। बाद में आयु के साथ उनकी यह धार भी कम होती गयी। एक संत होने के नाते उनकी सीमाएं थीं और वे राजनीति में होकर भी इन सीमाओँ का अतिक्रमण नहीं कर सके।
    राजनीति और धर्म दोनों मंच पर समान उपस्थिति के बाद भी कोई वैभव का संसार न बसाना, उनकी सादगी- सौजन्यता को ही स्थापित करता है। वे चाहते तो क्या कर सकते थे, पर क्या नहीं कर सके- ऐसे तमाम सवाल उनके जीवित रहते भी थे, आज भी हैं। किंतु पवन दीवान की सार्थकता यही है कि उन्होनें मनचाही जिंदगी जी और कभी किसी की परवाह नहीं की। यह जिंदादिली राजनीति के पथरीले रास्ते पर कहां रास आती है। किंतु पवन दीवान होने का दरअसल यही मतलब है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की सुनें तो वे कहते हैं कि "श्री दीवान ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए जनचेतना जागृत करने में अपना ऐतिहासिक योगदान दिया। उन्होंने अपनी हिंदी और छत्तीसगढ़ी कविताओं के माध्यम से जहां मानवीय संवेदनाओं को लगातार अपनी हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति दी, वहीं राज्य निर्माण के लिए जन-जागरण में भी उनकी कविताओं ने उत्प्रेरक का कार्य किया। उन्होंने रामायण और भागवत प्रवचन के माध्यम से छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक योगदान दिया। ” यह बात बताती है कि छत्तीसगढ़ के लोकजीवन को पवन दीवान जी ने किस तरह स्पंदित किया होगा। वे सही अर्थों में लोकमन के चितेरे और व्याख्याकार थे। वे छत्तीसगढ़ के आम आदमी के प्रतिनिधि थे, उसी की तरह भोले और निष्पाप। पवन दीवान से छल करना आसान था, आप उन्हें इस्तेमाल कर धोखा दे दीजिए पर दीवान जी एक ठहाके में उस सारे दर्द को उड़ा देते थे। उन्हें लोक का सम्मान मिला, राजनीति में धोखे मिले। वे संत थे, इसलिए वे इसका न प्रतिकार करते थे, ना ही जख्मों को डायरी में दर्ज करते थे। वे जब भी बोले अपनी माटी के शोषण के विरूद्ध बोले। एक कविता में वे इसी दर्द को, गुस्से को व्यक्त करते हैं-
घोर अंधेरा भाग रहा है, छत्तीसगढ़ अब जाग रहा है।
खौल रहा नदियों का पानी, खेतों में उग रही जवानी।
गूंगे जंगल बोल रहे हैं, पत्थर भी मुंह खोल रहे हैं।
धान कटोरा रखने वाले, अब बंदूकें तोल रहे हैं।

    मुझे और मेरे परिवार को उनकी सदा कृपा और आशीष मिला। हम जब भी राजिम गए उन्हें याद किया और खोजकर मिले। उनकी सहजता और खिलखिलाकर हंसना हमें याद है। वे सच में संत थे और कई मायनों में बहुत निश्चल। उन जैसी मुक्त हंसी मैंने कम सुनी है। अब वह मुक्त हंसी, छत्तीसगढ़ या मेरी जानकारी के संसार में कितने लोग हंस सकते हैं, कह नहीं सकता। एक रूहानी शख्सियत, और जिंदादिल तबीयत के मालिक ऐसे महापुरूष से जुड़ा होना एक भाग्य ही था, जो हमें मिला। मेरी श्रद्धांजलि कि प्रभु उन्हें अपने समीप शरण दे।