सोमवार, 9 मई 2016

मोदी सरकारः कितना इंतजार

                            -संजय द्विवेदी   
              
      सत्ता के शिखर पर दो साल पूरे करने के बाद अब शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को भी अहसास हो गया होगा कि दिल्ली का सिंहासन किसी भी शासक के लिए अवसर से ज्यादा चुनौती ही होता है।
     देश में यथास्थितिवादी ताकतें इतनी सबल हैं, कि वे किसी भी परिवर्तन को न तो समर्थन दे सकती हैं न ही शांत होकर बैठ सकती हैं। इनकी पूरी ताकत किसी भी बदलाव को टालने और विफल बना देने में लगती है। इसमें सबसे अग्रणी है, हमारी नौकरशाही। भारतीय सेवा के अफसरों को राज करने का अभ्यास इतना लंबा है कि वे अस्थायी सरकारों ( राजनीतिक तंत्र) को विफल बनाने की अनेक जुगतें जानते हैं। बावजूद इसके इन दो सालों में नरेंद्र मोदी की सरकार अगर बदलाव और परिवर्तन के कुछ संकेत दे पा रही है, तो यह मानिए कि ये बहुत बड़ी बात है। खासकर मोदी सरकार के कुछ मंत्रियों नितिन गडकरी, श्रीमती सुषमा स्वराज, मनोहर पारिकर, सुरेश प्रभु, राजनाथ सिंह, पीयूष गोयल की गति तो सराही जा रही है। दिल्ली की सत्ता पर परिर्वतन के नारे के साथ आई मोदी सरकार की जिम्मेदारियां जाहिर तौर पर बहुत बड़ी हैं।
   समूचे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में परिर्वतन करने का वादा करके यह सरकार आयी है और देश की जनता ने पूर्ण बहुमत देकर इसे शक्ति भी दी है। लेकिन देखा जा रहा है कि परिर्वतनों की गति उतनी तेज नहीं है और लोगों में सरकार से निराशा आ रही है। खासकर आर्थिक क्षेत्र में सरकार उन्हीं समाजवादी और जनता पर कृपा करने वाली नीतियों की शिकार है जिसके चलते देश का कबाड़ा हुआ है। गरीबी को संरक्षित करने और गरीबों को गरीब बनाए रखनी वाली नीतियों के चलते देश का पिछले साठ सालों में यह हाल हुआ है। जिस तेजी से आर्थिक बदलाव के संकल्प प्रकट होने थे, वह होने से रहे। ईपीएफ और पीएफ पर नजरें गड़ाए वित्त मंत्रालय ने जरूर नौकरीपेशा लोगों को नाराज कर दिया है। फैसले लेना और रोलबैक करना सरकार के अस्थिर चित्त को ही दिखाता है। लोग बदलावों के इंतजार में हैं लेकिन बदलावों की गति से संतुष्ठ नहीं हैं। कोई भी सरकार अपने नायक के सपनों को ही साकार करती हुयी दिखनी चाहिए। लगता है कि मोदी सरकार दिल्ली आकर कई तरह के दबावों के चलते रास्ते से भटकती हुयी दिख रही है। संसद के अंदर- बाहर विकास विरोधी दबाव समूहों के नारों और प्रायोजित विमर्शों ने भी उनकी राह रोक रखी है। नरेंद्र मोदी जिस तेजी और त्वरा के साथ अपने सपनों को गुजरात में अंजाम दे पाए, दिल्ली में उन्हें उन्हीं चीजों के लिए सहमति बना पाना कठिन हो रहा है।
     दूसरा संकट यह है कि दिल्ली के बौद्धिक, राजनीति, सामाजिक और मीडिया तबकों के एक वर्ग ने आज भी मोदी को स्वीकार नहीं किया है। मोदी का दिल्ली प्रवेश आज भी इन तबकों के लिए एक अवैध उपस्थिति है। देश की जनता ने भले ही नरेंद्र मोदी को अपार बहुमत से संयुक्त करके दिल्ली भेजा है, किंतु अभारतीय सोच के बुद्धिजीवी वर्गों के लिए आज भी एक मोदी एक अस्वीकार्य नाम हैं। इस कारण से मीडिया के एक वर्ग में उनके हर काम का विरोध तो होता ही है, साथ ही एक खास छवि के साथ जोड़ने के प्रयास होते हैं। मोदी के खिलाफ षडयंत्र आज भी रूके नहीं हैं और प्रायोजित विचारों और खबरों का संसार उनके आसपास मंडराता रहता है। षडयंत्रों में उलझने और उनका जबाव देने में केंद्र सरकार और भाजपा संगठन की बहुत सारी शक्ति नष्ट हो रही है। पहले दिन से मोदी सरकार को प्रायोजित मुद्दों पर घेरने और बदनाम करने की कोशिशें जारी हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी और उनके साथियों को यह सोचना होगा कि नाहक मुद्दों में समय जाया कराने में सरकार के संकट कम नहीं होगें बल्कि बढ़ते जाएंगें। पांच साल का समय बहुत कम होता है, इसमें भी दो साल बीत चुके हैं।
   अनेक योजनाओं के माध्यम से सरकार ने एक सही शुरूआत की है, किंतु अब सारा जोर डिलेवरी पर देना होगा। जनता का भरोसा बचाए और बनाए रखना ही, मोदी सरकार और भाजपा संगठन के भविष्य के लिए उचित होगा। दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली पराजय से शायद मोदी और उनके सलाहकारों का आत्मविश्वास हिल गया है और लोकप्रियतावादी कदमों की ओर बढ़े हैं, किंतु हमें देखना होगा कि सरकारों को लाभ सिर्फ सुशासन और छवि के कारण के मिलता है। अन्यथा लोकप्रियतावादी कदमों की मनमोहन सरकार में क्या कमी थी। जनता को कई तरह के अधिकार दिलाने के बाद भी मनमोहन सरकार सत्ता से चली गयी। ऐसे में केंद्र सरकार के लिए यह सोचने का समय है कि वह बचे हुए समय का कैसा इस्तेमाल करती है। कैसे वह जनता के मनों वह भरोसा बनाए रखती है जिसके नाते वह सत्ता के शिखर पर पहुंची है। यह एक अलग बात है कि कांग्रेस एक कमजोर प्रतिपक्ष है, जिसके नाते भाजपा राहत में दिखती है। किंतु यह मानना होगा कि सिर्फ 45 सांसदों के साथ कांग्रेस ने जिस तरह का वातावरण बना रखा है और सरकार की गति लगभग संसदीय मामलों में रोक दी है, उस पर विचार करने की जरूरत है। दोनों सदनों में कांग्रेस ने जैसा रवैया अपना रखा है, उस व्यवहार में परिवर्तन की उम्मीद कम ही है। ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार को यह सोचना होगा कि कैसे वह संसद से लेकर सड़क तक कांग्रेस की घेरेबंदियों से निकलकर जनता के लिए राहत और बदलाव के अवसर उपलब्ध करा सके।

    कारण कुछ भी हों मोदी सरकार के प्रति एक साल पहले तक जो उत्साह था, वह आज कम होता दिखता है। यह बहुत स्वाभाविक भी है, किंतु नरेंद्र मोदी जैसे नेता जो निरंतर लोगों से संवाद करते हुए दिखते हैं के संदर्भ में इसे सामान्य नहीं माना जा सकता। देश के आर्थिक क्षेत्र में पसरी मंदी, पाकिस्तान के साथ संबंधों में कड़वाहट, रोजगार का इंतजार करते युवा, कश्मीर में उभर रही नई चुनौतियों के साथ अनेक विषय दिखते हैं जिससे मोदी सरकार को टकराना होगा। अपने समय की चुनौतियों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल निकालना किसी भी सरकार की जिम्मेदारी है। इतिहास ने नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है कि वे इस वृहत्तर भूगोल(भारत) के सामने खड़े संकटों और उसके समाधानों के लिए काम करें। मोदी और उनकी सरकार के दो साल पूरे होने पर उनकी नीति-नीयत और संकल्पों पर संदेह न करते हुए भी यह कहना होगा कि कामों की गति तेज करनी होगी, विपक्षी षडयंत्रों  से बचते हुए सही अपने मार्ग की पहचान करते हुए, मध्यवर्ग को चिढाने वाले फैसलों से बचना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि जनता के बीच नरेंद्र मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनसे लोगों की आज भी भारी उम्मीदें हैं, देखना है कि वे आशाओं को पूरा करने के लिए क्या जतन करते हैं।

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