शनिवार, 16 जुलाई 2016

क्या संभव हैं एक साथ लोस-विस चुनाव ?

-संजय द्विवेदी
  देश में इस वक्त यह बहस तेज है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। देखने और सुनने में यह विचार बहुत सराहनीय है और ऐसा संभव हो पाए तो सोने में सुहागा ही होगा।
   भारतीय लोकतंत्र दुनिया का विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ परिपक्व भी हुआ है। बावजूद इसके चुनाव सुधारों की तरफ हम बहुत तेजी से नहीं चल पा रहे हैं। चुनाव आयोग जैसी बड़ी और मजबूत संस्था की उपस्थिति के बाद भी चुनाव में धनबल का प्रभाव कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। यह धनबल हमारे प्रजातंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ हों इसे लेकर जो विमर्श प्रारंभ हुआ है, वह कई मायनों में बहुत महत्व का है। इसके चलते देश में विकास की गति बढ़ने की संभावनाएं भी जताई जा रही है। चुनाव आचार संहिता के चलते बाधित विकास के काम, एक बार ही रूकेंगें और देश की गाड़ी तेजी से चल पड़ेगी। इसके साथ ही वर्ष भर पूरे देश में कहीं न कहीं चुनाव होने के कारण सरकारों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। राजनीतिक दल राज्यों के चुनावों के चलते तमाम फैसलों को टालते हैं या लोक-लुभावन फैसले लेते हैं। इससे सुशासन का स्वप्न धरा रह जाता है। सरकारें लोकप्रियतावाद में फंसकर रह जाती हैं और राजनेता चुनावी मोड  से वापस नहीं आ पाते। भारतीय राजनीति के लिए यह एक गहरा संकट और चुनौती दोनों है।
  यह अच्छी बात है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के सवाल पर सरकार और चुनाव आयोग तो साथ हैं ही, देश के अनेक राजनीतिक दल इससे सहमत हैं। एक साथ चुनाव कराने की मूल भावना को दल और चुनाव आयोग दोनों समझ रहे हैं। लगातार चुनावों के चलते भारत जैसे देश में हमेशा चुनावी माहौल बना रहता है। हमारे देश में लोकसभा से लेकर पंचायतों तक के चुनाव होते हैं और सब उत्सव सरीखे ही हैं। इन्हें ही लोकतंत्र का पर्व कहा जाता है। इसमें हर चुनाव के चलते आचार संहिता लगती है और विकास के काम रूक जाते हैं। इसके साथ ही सरकार और चुनाव आयोग को चुनाव कराने में भारी धन खर्च करना पड़ता है। इतना ही नहीं राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को भी अरबों-रूपये खर्च करने पड़ते हैं। बार-बार चुनाव समाज जीवन और राजनीतिक जीवन में कड़वाहट और रस्साकसी का वातावरण बनाए रखता है। वाद-विवाद की स्थितियां बनी रहती हैं। कुल मिलाकर चुनाव के ये दिन हर तरह की अस्थिरता के दिन होते हैं। आजादी के बाद 1952, 57,62 और 67 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते रहे। उसके बाद हालात बदले और अलग-अलग चुनावों का सिलसिला ऐसा बना कि आज देश में वर्ष भर चुनाव होते रहते हैं।
  जहां तक साथ-साथ चुनाव कराने की बात है तो इस बारे में मंच से चिताएं तो व्यक्त की जा रही हैं किंतु कोई ठोस काम नहीं हो सका। देश आज विकास की नई चुनौतियों के समक्ष खड़ा है, जब उसे वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति को साबित करना है। ऐसे में बिगड़ी गाड़ी को पुनः ट्रेक पर लाने की जरूरत है। लंबे समय बाद फिर इस बार बात शुरू हुयी है। यह फैसला निश्चय ही एक बड़ा निर्णय होगा जो हमारे राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को भी प्रभावित करेगा। माना जा रहा है कि राजनीतिक दल बढ़ते चुनाव खर्च और चुनाव की अन्य समस्याओं से जूझते रहते हैं, इसलिए उनको भी यह मार्ग उचित दिख रहा है। समय-समय पर चुनाव सुधारों को लेकर जब भी बातें चलती हैं तो यह मुद्दा केंद्र में आता ही है। देश की राजनीतिक पार्टियां अगर एकमत होकर इस बात पर सहमत हो जाती हैं तो यह एक बड़ी छलांग होगी। इससे न सिर्फ हमारे राजनीतिक परिवेश में कुछ मात्रा में शुचिता बढ़ेगी बल्कि लोकतंत्र भी मजबूत होगा। देश की सामूहिक शक्ति का प्रकटीकरण होगा और राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय सोच का विकास होगा। राज्यों में अलग और केंद्र में अलग व्यवहार करने की प्रवृत्ति भी कम होगी। देश में यह व्यवस्था कई मायनों में हमारे लोकतंत्र को ज्यादा व्यवहारिक बनाएगी। आम जनता के राजनीतिक प्रबोधन का संकल्प भी एक स्तर पर जा पहुंचेगा। ये चुनाव दरअसल एक राष्ट्रीय चुनाव बन जाएंगें, जहां देश अपनी संपूर्णता और समग्रता में व्यक्त हो रहा होगा।
   इस व्यवस्था को लागू होने से हमारे सामने कुछ यक्ष प्रश्न भी होंगें जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें। अनेक राज्यों में सरकारें अपना कार्यकाल कई कारणों से पूरा नहीं कर पाती, तो वहां के लिए क्या व्यवस्था होगी। कई बार कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री चुनाव की छः माह पूर्व ही सिफारिश कर देते हैं। केंद्र सरकार भी पहले चुनाव में जाने का मन बना सकती है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्थाओं के हल भी हमें खोजने होगें। एक आदर्श विचार को जमीन पर उतारने से पहले हमें अपनी व्यवस्था के सामने खड़े ऐसे प्रश्नों पर भी विचार करना होगा। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने या सरकार गिर जाने की स्थिति में क्या चुनाव पूर्व में होगें या इंतजार करना होगा। हमें यह भी देखना होगा कि राज्यों में एक लोकप्रिय सरकार से जनता को लंबे समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता।

   चुनाव सुधारों पर काम करने वाले विद्वानों को चुनाव सुधार और विधानसभाओं की अवधि से जुड़े ऐसे सभी सवालों पर काम करने की जरूरत है। लोकसभा चुनावों में अभी तीन साल शेष हैं, यह प्रयोग और इसकी तैयारी में अभी से जुटा जा सकता है। इस प्रयोग के करने के बाद उठने वाले सवालों के ठोस और वाजिब हल भी तलाशे जा सकते हैं। राजनीति के मैदान में सक्रिय खिलाड़ियों के अलावा राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र, चुनाव सुधार, प्रशासन और सुशासन में रूचि रखने वाले अध्येता इस मामले पर विमर्श प्रारंभ कर सकते हैं। पांच दशक बाद ही सही इस दिशा में सोच और अध्ययन से हम भारतीय लोकतंत्र को पुनः एक नई ऊर्जा से भर सकते हैं। सारा देश जब समवेत स्वर और समवेत आकांक्षाओं से अपनी-अपनी राज्य और केंद्र की सरकारों को चुन रहा होगा तब हम इस अवसर को वास्तव में लोकतंत्र का महापर्व कह पाएंगें।

विश्व मंच पर भारत का परचम

प्रधानमंत्री के दौरों से दुनिया में बनी एक अलग पहचान
-संजय द्विवेदी
  विश्व मंच पर भारत की इतनी प्रभावी उपस्थिति शायद पहले कभी नहीं थी। दुनिया के तमाम देश भारत के इस उभार को देख रहे हैं, तो कुछ परंपरागत प्रतिद्वंदी देश भारी दुख और पीड़ा से भर गए हैं। अपनी निरंतर विदेश यात्राओं से नरेंद्र मोदी ने जो हासिल किया है, दुनिया के तमाम राजनेता उसके लिए तरसते हैं। दुनिया के राष्ट्रध्यक्षों से दोस्ताना ऐसा कि सामान्य कूटनीतिक प्रोटोकाल अक्सर टूटते हुए दिखते हैं। यह बड़ी और महत्वपूर्ण बात इसलिए है क्योंकि नरेंद्र मोदी सिर्फ दो साल पहले तक एक राज्य के मुख्यमंत्री थे और वैश्विक राजनीति का उनका अनुभव बहुत नया है। वे न तो केंद्र कभी मंत्री रहे न ही कूटनीति के क्षेत्र के विद्यार्थी। दिल्ली में आकर जिस तरह उन्होंने वैश्चिक राजनेता सरीखी छवि बनाई है, वह किसी को भी प्रेरित कर सकती है। उनकी राजनीतिक यात्रा में यह बेहद महत्वपूर्ण दिन हैं, जब उन्हें दुनिया की सबसे ताकतवर शक्तियां सलाम कर रही हैं और राष्ट्राध्यक्ष उनके लिए प्रोटोकाल को धता बता रहे हैं।
   यह एक संयोग ही है कि विदेश नीति भारतीय प्रधानमंत्रियों का एक पसंदीदा क्षेत्र रहा है। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी और अटलबिहारी वाजपेयी तक हम इस धारा को देखते हैं। इंद्रकुमार गुजराल और डा. मनमोहन सिंह तो वैश्विक अनुभवों वाले राजनेता रहे ही हैं। इस सूची में नरेंद्र मोदी का प्रवेश सर्वथा नया किंतु विस्मयकारी है। वे भारत और भारतीय जन को संबोधित करने वाले नेता रहे हैं। उनकी देहभाषा और उनकी जीवन यात्रा भारत के उत्थान और उसके जनमानस को स्पंदित करती रही है। उनकी वाणी उनके साथ है तो गुजरात में मुख्यमंत्री के नाते किए गए काम एक उदाहरण। लेकिन दिल्ली आकर जिस तरह वैश्चिक मंच पर उन्होंने धूम मचाई वह एक लंबी तैयारी के बाद ही संभव है।
   एक तरफ जहां वे गुजरात के मुख्यमंत्री के नाते अमरीकी वीजा से वंचित थे, वहीं अमरीका में सांसदों के बीच वे अति गरिमामय तरीके से सम्मानित होते नजर आए। यह साधारण नहीं है कि उन्होंने बराक ओबामा के साथ कम समय में जैसा रिश्ता विकसित किया है, उसने वर्षों की दूरियां महीनों में पाट दी हैं। अप्रैल,2016 में जब ह्वाइट हाउस में ओबामा ने दुनिया के पचास से अधिक राष्ट्राध्यक्षों को डिनर दिया तो नरेंद्र मोदी को ओबामा के बगल वाली सीट दी गयी। हालांकि ओबामा डा. मनमोहन सिंह का भी बहुत आदर करते थे, किंतु रिश्चों में जो गर्मजोशी मोदी के साथ दिखती है, वह दुर्लभ है। अब जबकि ओबामा अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में हैं तो वे जो विरासत छोड़कर जाएंगे, उस पर भारत और अमरीका अपना नया भविष्य गढ़ रहे होगें। पिछले दिनों पांच देशों की यात्रा से लौटे प्रधानमंत्री की यात्रा की जैसी व्याख्याएं पाकिस्तान और चीन के मीडिया में हुयी हैं, वे बताती हैं कि हालात बदल चुके हैं। कूटनीति के मोर्चे पर भारत आज एक लंबी छलांग लगा चुका है और उसकी पीड़ा उसके परंपरागत प्रतिद्वंदियों के हाव-भाव और प्रतिक्रियाओं से प्रकट हो रही है। चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स की टिप्पणियां बताती हैं कि चीन इस यात्रा को किस नजर से देखता है। मोदी के इस प्रवास को चीन और पाकिस्तान दोनों ही एक प्रकार की खेमेबंदी मान रहे हैं, जो उनके खिलाफ है। शायद इसीलिए चीनी अखबार ने कहा कि चीन का रास्ता रोककर भारत के सपने पूरे नहीं होगें। जाहिर तौर पर यह बौखलाहट है और चीन का दर्द भी। पाकिस्तान भी इसी प्रकार की जलन और कुंठा का शिकार है। उनके टीवी पर तो पाकिस्तान की सरकार को कोसने वाले लोग छाए हुए हैं। वे अपनी ही सरकार की चुन-चुन कर गलतियां बता रहे हैं और कोस रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के दो वर्षों में 38 देशों की यात्राएं कर चुके मोदी जिस भरोसे और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, वह बात महत्व की है। वे भारतीय समुदाय के लोगों को दुनिया भर में अपने भरोसे से जोड़ रहे हैं, जो आज एक बड़ी ताकत बन चुके हैं। दुनिया सब देशों के राजनीतिक-सामाजिक- आर्थिक जीवन में भारतीयों की एक बड़ी उपस्थिति है। ईरान से लेकर ब्रिटेन और अमरीका सब मोदी की नजर में हैं। अफगानिस्तान से रिश्तों को उन्होंने एक तरह से फिर पटरी पर ला दिया है। उनकी यह वैश्विक उपस्थिति साधारण नहीं हैं।
   उनका आत्मविश्वास, उनकी भाषण कला ने उनके विरोधियों को भी मोदी का मुरीद बनाती है। यह बात सही है कि एनएसजी में भारत की राह आसान नहीं है किंतु मोदी ने जिस तरह भारत का पक्ष और भारत का व्यक्तित्व दुनिया के सामने रखा है, उसे आजतक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन ही कहा जाएगा। आप इस बात पर उनका आनंद ले सकते हैं कि वे ज्यादातर विदेशों में रहते हैं, लेकिन उनकी दिनचर्चा और सक्रियता देखकर क्या यह दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने एक पल भी व्यर्थ गंवाया है। वे समय को साधने और भारतीय जन में आत्मविश्वास भरने वाले राजनेता  के रूप में उभरे हैं। देश की आंतरिक राजनीति और उसके मुद्दों से मोदी की इस कवायद को मापा नहीं जा सकता। ये भारत के कल को बनाने वाली यात्राएं हैं, जिनके सुफल आने शीध्र ही प्रारंभ हो जाएंगे।

   अनेक समस्याओं, संकटों और गरीबी जैसे हजारों दुखों से घिरे देश भारत के पास, उसके नेता के पास रास्ता क्या है? क्या वह इन दुखों पर विलाप करता बैठा रहे या वह उपलब्ध शक्ति और संसाधनों का अधिकतम उपयोग करता हुआ कर्मरत रहे? जाहिर तौर पर मोदी अपने संकटों में उलझने के बजाए संभावनाओं में निवेश कर रहे हैं। वे विलाप के बजाए समाधानों पर ध्यान दे रहे हैं। मंदी की शिकार विश्व व्यवस्था में भारतीय जन के जीवन स्तर को उठाने के लिए, उनके जीवन को वैभव से भरने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मोदी की ये कोशिशें देश के अंदर और बाहर दोनों उनकी जिजीविषा को प्रकट करती हैं। वे सही कर रहे हैं या गलत इसका आकलन करना हो, तो पिछले दिनों के पाकिस्तान और चीन के अखबारों को पढ़ लीजिए।