सोमवार, 27 मार्च 2017

वैचारिक आत्मदैन्य से बाहर आती भाजपा

-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश अरसे बाद एक ऐसे मुख्यमंत्री से रूबरू है, जिसे राजनीति के मैदान में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। उनके बारे में यह ख्यात था कि वे एक खास वर्ग की राजनीति करते हैं और भारतीय जनता पार्टी भी उनकी राजनीतिक शैली से पूरी तरह सहमत नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भारी विजय के बाद भाजपा ने जिस तरह का भरोसा जताते हुए राज्य का ताज योगी आदित्यनाथ को पहनाया है, उससे पता चलता है कि अपनी राजनीति के प्रति भाजपा का आत्मदैन्य कम हो रहा है।
   भाजपा का आज तक का ट्रैक हिंदुत्व का वैचारिक और राजनीतिक इस्तेमाल कर सत्ता में आने का रहा है। देश की राजनीति में चल रहे विमर्श में भाजपा बड़ी चतुराई से इस कार्ड का इस्तेमाल तो करती थी, किंतु उसके नेतृत्व में इसे लेकर एक हिचक बनी रहती थी। वो हिचक अटल जी से लेकर आडवानी तक हर दौर में दिखी है। भाजपा का हर नेता सत्ता पाने के बाद यह साबित करने में लगा रहता है वह अन्य दलों के नेताओं के कम सेकुलर नहीं है।
  उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ परिघटना दरअसल भाजपा की वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नजर आती है। नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के बाद योगी आदित्यनाथ का उदय भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की राजनीति की स्वीकृति का प्रतीक है। एक धर्मप्राण देश में धार्मिक प्रतीकों, भगवा रंग, सन्यासियों के प्रति जैसी विरक्ति मुख्यधारा की राजनीति में दिखती थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाजपा जैसे दल भी इस सेकुलर विकार से कम ग्रस्त न थे। धर्म और धर्माचार्यों का इस्तेमाल, धार्मिक आस्था का दोहन और सत्ता पाते ही सभी धार्मिक प्रतीकों से मुक्ति लेकर सारी राजनीति सिर्फ तुष्टीकरण में लग जाती थी। प्रधानमंत्रियों समेत जाने कितने सत्ताधीशों के ताज जामा मस्जिद में झुके होगें, लेकिन हिंदुत्व के प्रति उनकी हिचक निरंतर थी।  
  यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं की एक समय में दीनदयाल जी उदार थे, तो अटलजी और बलराज मधोक अपनी वक्रता के चलते उग्र नेता माने जाते थे। अटलजी का दौर आया तो लालकृष्ण आडवाणी उग्र कहे जाने लगे, फिर एक समय ऐसा भी आया जब आडवानी उदार हो गए और नरेंद्र मोदी उग्र मान जाने लगे। आज की व्याख्याएं सुनें- नरेंद्र मोदी उदार हो गए हैं और योगी आदित्यनाथ उग्र  माने जाने लगे हैं। यह मीडिया, बौद्धिकों की अपनी रोज बनाई जाती व्याख्याएं हैं। लेकिन सच यह है कि अटल, मधोक, आडवानी, मोदी या आदित्यनाथ कोई अलग-अलग लोग नहीं है। एक विचार के प्रति समर्पित राष्ट्रनायकों की सूची है यह। इसमें कोई कम जा ज्यादा उदार या कठोर नहीं है। किंतु भारतीय राजनीति का विमर्श  ऐसा है जिसमें वास्तविकता से अधिक ड्रामे पर भरोसा है। भारतीय राजनेता की मजबूरी है कि वह टोपी पहने, रोजा भले न रखे किंतु इफ्तार की दावतें दे। आप ध्यान दें सरकारी स्तर पर यह प्रहसन लंबे समय से जारी है। भाजपा भी इसी राजनीतिक क्षेत्र में काम करती है। उसमें भी इस तरह के रोग हैं। वह भी राष्ट्रनीति के साथ थोड़े तुष्टिकरण को गलत नहीं मानती। जबकि उसका अपना नारा रहा है सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं। उसका एक नारा यह भी रहा है-राम, रोटी और इंसाफ।
  लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है।
   आजादी के बाद के सत्तर सालों में देश की राजनीति का विमर्श भारतीयता और उसकी जड़ों की तरफ लौटने के बजाए घोर पश्चिमी और वामपंथी रह गया था। जबकि बेहतर होता कि आजादी के बाद हम अपनी ज्ञान परंपरा की और लौटते और अपनी जड़ों को मजबूत बनाते। किंतु सत्ता,शिक्षा, समाज और राजनीति में हमने पश्चिमी तो, कहीं वामपंथी विचारों के आधार पर चीजें खड़ी कीं। इसके कारण हमारा अपने समाज से ही रिश्ता कटता चला गया। सत्ता और जनता की दूरी और बढ़ गयी। सत्ता दाता बन बैठी और जनता याचक।  सेवक मालिक बन गए। ऐसे में लोकतंत्र एक छद्म लोकतंत्र बन गया। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हम सत्तर साल के बाद सड़कें बना रहे हैं। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हमारे अपने नौजवानों ने भारतीय राज्य के खिलाफ बंदूकें उठा रखी हैं। लोकतंत्र की विफलता की ये कहानियां सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। राजनीतिक तंत्र के प्रति उठा भरोसा भी साधारण नहीं है।

   बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम एक उम्मीद का अवतरण भी हैं। वे आशाओं, उम्मीदों से उपजे परिणाम हैं। नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ इन्हीं उम्मीदों  के चेहरे हैं। दोनों अंग्रेजी नहीं बोलते। दोनों जन-मन-गण के प्रतिनिधि है। यह भारतीय राजनीति का बदलता हुआ चेहरा है। क्या सच में भारत खुद को पहचान रहा है ? वह जातियों, पंथों, क्षेत्रों की पहचान से अलग एक बड़ी पहचान से जुड़ रहा है- वह पहचान है भारतीय होना, राष्ट्रीय होना। एक समय में राजनीति हमें नाउम्मीद करती हुयी नजर आती थी। बदले समय में वह उम्मीद जगा रही है। कुछ चेहरे ऐसे हैं जो भरोसा जगाते हैं। एक आकांक्षावान भारत बनता हुआ दिखता है। यह आकांक्षाएं राजनीति दलों के एजेंडे से जुड़ पाएं तो देश जल्दी और बेहतर बनेगा। राजनीतिक विमर्श और जनविमर्श को साथ लाने की कवायद हमें करनी ही होगी। जल्दी बहुत जल्दी। यह जितना और जितना जल्दी होगा भारत अपने भाग्य पर इठलाता दिखेगा।

शनिवार, 11 मार्च 2017

भारतीय राजनीति का ‘मोदी समय’

चुनावों का संदेशः अपनी रणनीति पर विचार करे विपक्ष
-संजय द्विवेदी


    सही मायनों में यह भारतीय राजनीति का मोदी समय है। नरेंद्र मोदी हमारे समय की ऐसी परिघटना बन गए हैं, जिनसे निपटने के हथियार हाल-फिलहाल विपक्ष के पास नहीं हैं। अपनी सारी कलाबाजियों के बावजूद उत्तर प्रदेश में यादव परिवार और बसपा को समेट कर जो ऐतिहासिक जीत भाजपा ने दर्ज की है, वह अटल-आडवानी-कल्याण युग पर भारी है।
  उत्तर प्रदेश के राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक मतदाता सही मायनों में वहां फैली अराजकता, विकास विरोधी व जातिवादी राजनीति से त्रस्त हैं, इसलिए वे पिछले तीन विधानसभा चुनावों से किसी भी दल को संपूर्ण शक्ति देते हैं और इस बार यह मौका भाजपा को मिला है। इसके पहले बसपा और सपा क्रमशः वहां पूर्ण बहुमत की सरकारें बना चुके हैं। यह बात बताती है कि उत्तर प्रदेश के लोगों में कैसी बेचैनी है और वे किस तरह अपने राज्य को बदलते हुए देखना चाहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में यह जनमत मोदी के पक्ष में आ चुका है, वह अभी भी अडिग है, और उनके साथ है। सही मायने में अब परीक्षा भाजपा की है कि वह इस जनमत पर खरे उतरने के लिए हर जतन करे।
भाजपा का स्वर्णयुगः
    राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए यह समय वास्तव में स्वर्णयुग है, जबकि पूर्वांचल के असम में सरकार बनाकर उसने एक कीर्तिमान रच दिया। हरियाणा भी इसकी एक मिसाल है, जहां पहली बार भाजपा की अकेले दम पर सरकार बनी है। मणिपुर जैसे राज्य में उसके विधायक चुने गए हैं। ऐसे कठिन राज्यों में जीत रही भाजपा सही मायनों में अपने भौगोलिक विस्तार के रोज नए क्षितिज छू रही है। भाजपा और संघ परिवार को ये अवसर यूं ही नहीं मिले हैं। इसके लिए अपने वैचारिक अधिष्ठान पर खड़े होकर उन्होंने लंबी तैयारी की है। उत्तर प्रदेश के चुनाव इस अर्थ में खास हैं, क्योंकि भाजपा ने यह चुनाव विकास और सुशासन के नाम पर लड़ा। सांप्रदायिकता के आरोप लगाने वालों के पास बस यही तर्क था कि भाजपा ने किसी मुस्लिम को मैदान में नहीं उतारा। जाहिर तौर पर लोग इस तरह की राजनीति से तंग आ चुके हैं।
जातिवादी राजनीति के बुरे दिनः
   जातिवादी-सांप्रदायिक राजनीति के दिन अब लद चुके हैं। उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक का यही संदेश है। पंजाब की अकाली सरकार भी लंबे समय से सरकारविहीनता और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी। ऐसे में भाजपा के साथ के बाद भी वे हारे और यह अच्छे संकेत हैं। इसी तरह उत्तराखंड से हरीश रावत सरकार की विदाई भी ऐसे ही संकेत देती है। खुद हरीश रावत का मुख्यमंत्री होते हुए, दोनों सीटों से हारना जनता के गुस्से का ही प्रकटीकरण है। परिर्वतन की यह राजनीति सार्थक बदलाव की वाहक भी बने, इस पर सर्तक नजर रखनी होगी।
   नरेंद्र मोदी दरअसल इस विजय के असली नायक और योद्धा हैं, उन्होंने मैदान पर उतर एक सेनापति की भांति न सिर्फ नेतृत्व दिया बल्कि अपने बिखरे परिवार को एकजुटकर मैदान में झोंक दिया। यह साधारण था कि उन पर तमाम आरोप लगे कि वे प्रधानमंत्री पद की मर्यादा को लांघ रहे हैं, पर उन्होंने अपेक्षित परिणाम लाकर अपने विरोधियों को लंबे समय के लिए खामोश कर दिया है। अब विपक्ष को उनके विरोध के नए हथियार और नए नारे खोजने होंगे। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि इसका अहसास भाजपा के स्थानीय नेताओं को भी नहीं था। वे आपसी जंग में इतने मशगूल थे कि उन्हें जनता के बीच चल रही हलचलों का अहसास ही नहीं था।
बसपा करे अपनी राजनीतिक शैली पर  पुनर्विचारः
उत्तर प्रदेश के इस परिणाम के दो असर और हैं, जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए। 2014 के चुनाव में एक भी लोकसभा सीट न जीत सकी बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता को अपनी राजनीतिक शैली पर पुनर्विचार करना होगा। वरना वह इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। मायावती ने जिस तरह अपने दल में अपनी तानाशाही चलाई और नए नेतृत्व को उभरने से रोका इस कारण उसके पास नेतृत्व का खासा अभाव है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने जहां जमीनी संपर्क और अपनी अलग शैली से नए वोटरों को लुभाने का काम किया और नए नेतृत्व को पार्टी में एक बड़ी लड़ाई लड़कर भी सामने ला दिया है, वह करिश्मा भी मायावती नहीं कर सकीं । अखिलेश के साथ अभी एक लंबी आयु है और वे अपने पिता की छाया से बाहर आ चुके हैं। मायावती के पास यह अवसर भी सीमित हैं। ऐसे में बसपा को गंभीरतापूर्वक अपनी भावी राजनीति पर विचार करना होगा।
      उत्तर प्रदेश का मुख्य विपक्षी दल बन चुकी समाजवादी पार्टी के लिए यह चुनाव एक चेतावनी भी हैं और सबक भी। उन्हें इसके संदेश पढ़कर सावधानी से अपने संगठन को बनाना और संवारना होगा। एक सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन करते हुए भाजपा सरकार पर दबाव बनाए रखना होगा। अखिलेश यादव को यह मानना होगा कि उनकी अच्छी छवि, युवा चेहरे के बाद भी सपा के अराजक शासन, गुंडागर्दी से लोग तंग थे, जिसका परिणाम उनके दल को मिला है। ऐसे में अपनी पार्टी की शैली बदलने और कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने के लिए उन्हें लंबे जतन करने होगें।
  सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः

 इस समूचे परिदृश्य में उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत ने उसके लिए चुनौतियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब केंद्र और राज्य में सरकार होने के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश में कुछ सार्थक काम करके दिखाना होगा। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस तरह अपनी प्रतिष्ठा लगाई है, उसके नाते उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। उत्तर प्रदेश की जनता ने अरसे बाद भाजपा को राज्य की सत्ता सौंपी है। भाजपा को इस भरोसे को बचाए और बनाए रखना होगा। यह वोट सही मायने में विकास, सुशासन और गरीबों के हितवर्धन के लिए है। उत्तर प्रदेश ने सबको मौका दिया है, उसे सबने निराश किया है। पिछले तीन बार से बसपा, सपा से होता हुआ यह अवसर खुद भाजपा के पास आया है। यह मौका उत्तर प्रदेश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासन पर दिया है। ऐसे में भाजपा और उसके नए शासकों का कर्त्तव्य है कि वे उत्तर प्रदेश के विकास के हर पल का उपयोग करें। अरसे बाद उत्तर प्रदेश फिर ड्राइविंग सीट पर है। ऐसे में उसकी किस्मत कितनी बदलती है, इसे देखना रोचक होगा।

आतंकवाद के विरूद्ध एकजुटता का समय

-संजय द्विवेदी

  देश की आतंरिक सुरक्षा को जिस तरह आतंकवादी संगठनों से लगातार चुनौती मिल रही है, उसमें हमारी एकजुटता, भाईचारा और समझदारी ही हमें बचा सकती है। आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग हटकर अब हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने लोगों को कैसे बचाएं। अब यह कहने का समय नहीं है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, बल्कि हमें राष्ट्रधर्म निभाना होगा। हमारी मातृभूमि हमारे लिए सर्वस्व है और उसके लिए सबकुछ निछावर करने का भाव ही हमें जगाना है।
  देश प्रथम एक नारे की तरह नहीं, बल्कि संकल्प की तरह हमारे जीवन में उतरना चाहिए। हमें देखना होगा कि हम अपने नौजवानों में क्या राष्ट्रीय चेतना का संचार कर रहे हैं या हमने उन्हें दुनिया में बह रही जहरीली हवाओं के सामने झोंक दिया है। इंटरनेट और साइबर मीडिया पर भटकती यह पीढ़ी कहीं देश के दुश्मनों के हाथ में तो नहीं खेल रही है, यह देखना होगा। आईएस जैसे खतरनाक संगठन और तमाम विचारधाराओं द्वारा पोषित देशतोड़क गतिविधियों में शामिल युवा कैसा भारत बनाएगें, यह भी सोचना होगा। आज हमें खतरे के संकेत दिखने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में युवाओं की देशविरोधी नारेबाजी के लिए उकसाया जा रहा है तो एक प्रोफेसर को हमने माओवादी संगठनों की मदद करने के आरोप में कोर्ट से सजा मिलते देखा। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं।
   आज जबकि समूची दुनिया में हिंदुस्तानी गहरे संकट में हैं, तो हमें अपने देश को बचाना ही होगा। जिन्हें जन्नत का सपना दिख रहा है, उन्हें बताना होगा कि ट्रंप द्वारा खदेड़े गए हिंदुस्तानियों को अंततः इसी जमीन पर जगह मिलेगी। इतिहास हमें कई तरह से सिखाता है पर हम सीखते नहीं हैं। आप देखें 1947 में अपना वतन छोड़कर एक सुंदर सपना लेकर जो लोग पाकिस्तान गए थे, वे आज भी वहां मुजाहिर हैं। कराची की गलियां आज भी उनके रक्त से लाल हैं। इसी तरह दुनिया के तमाम देशों में हिंदुस्तानी रहते हैं और वहां के राष्ट्रजीवन में उनका श्रेष्टतम योगदान है। किंतु उनके हर संकट के समय उनकी अंतिम शरणस्थली हिंदुस्तान ही है। यह साधारण सी बात अगर हम समझ जाएं तो हमारे नौजवान किसी आईएस, आईएसआई या माओवादियों के भटकाव भले अभियानों के झांसे में नहीं आएंगे। हम यह भी स्वीकारते हैं कि राजसत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज देशद्रोही नहीं है, भारत में लोकतंत्र का होना इसका प्रमाण है। लोकतंत्र की जीवंतता इसी में है कि वहां संवाद और विमर्श निरंतर हों। लेकिन आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न होना, या ऐसे अभियानों को वैचारिक या नैतिक समर्थन देना स्वीकार कैसे किया जा सकता है। राज्य के आतंक के विरूद्ध भी आतंक फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर अनेक ऐसे फोरम हैं जहां जाकर लोगों ने अपने हक हासिल किए हैं। जनांदोलनों से सरकार को झुकाया है, किंतु हथियार उठाना और अपनी बौद्धिकता और तार्कितता से आतंक को महिमामंडित करना ठीक नहीं है।
     देश के बौद्धिक वर्गों की एक बड़ी जिम्मेदारी देश के लोगों के प्रति है। सिर्फ असंतोष को बढ़ाना या समाज में फैली विद्रूपता को ही लक्ष्य कर उसका प्रचार जिम्मेदारी नहीं है। दायित्व है लोगों को न्याय दिलाना, उनकी जिंदगी में फैले अँधेरे को कम करना। बंदूकें पकड़ा कर हम उनकी जिंदगी को और नरक ही बनाते हैं। देश में बस्तर से लेकर कश्मीर और वहां से लेकर पूर्वांचल के कई राज्यों में अनेक हिंसक आंदोलन सक्रिय हैं। पर हम विचार करें कि क्या इससे वास्तव में न्याय हासिल हुआ है। हममें से कई पंथ के आधार पर राज्य व्यवस्था के सपने देखते हैं। पर क्या हमें पता है कि पंथों के आधार पर चलने वाले राज्य सबसे पहले स्वतंत्रता और मनुष्यता का ही गला घोंटते हैं। आज अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप मुस्लिमों के निशाने पर हैं, पर क्या दुनिया के मुस्लिम राष्ट्रों ने अपना चेहरा देखा है? वहां मानवाधिकारों की स्थिति क्या है? इसी तरह वामविचारी मित्रों को लोकतंत्र की कुछ ज्यादा ही चिंता हो आई है। किंतु उनकी अपनी विचारधारा के आधार पर बने और चले देशों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन ही नहीं हुआ, बल्कि विचारधारा के नाम पर खून की होली खेली गई। ऐसे में सबसे ज्यादा चिंता हमें अपने देश और उसके लोकतंत्र को बचाने की होनी चाहिए। समृद्धि और स्वतंत्रता लोकतंत्र में ही साथ-साथ फल-फूल सकते हैं। इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। कोई भी पंथ आधारित राज्य या वामपंथी विचारों के आधार पर खड़ा देश लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता, यह कटु सत्य नहीं है। यह बात तब और साबित होती है जब हमें पता चलता है अरब, ईरान और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम राष्ट्रों में बसने वालों में किस तरह अमरीकी वीजा पाने की ललक है। क्या समृद्धि और धन के लिए नहीं। अगर ऐसा है तो अरब में क्या कमी है? सच तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन को जीने की आजादी ही लोकतंत्र का मूल्य है, शायद इसलिए अमरीकी वीजा धनी-मानी मुस्लिम देशों के लोगों का सपना है। वो एक ऐसी दुनिया के सपने देखते हैं जहां वे अपनी जिंदगी को बेहतर तरीके से जी सकें। घुट-घुटकर पहरों में जीना कितनी भी समृद्धि के साथ किसे स्वीकार है? एक मनुष्य होने के नाते आरोपित बंधन हमें रास नहीं आते।

   दुनिया के तमाम देशों के बीच भारत एक उम्मीद का चेहरा है। जब दुनिया में खून के दरिया बह रहे हैं तो गौतम बुद्ध, महावीर, नानक की घरती रास्ता दिखाती है। उपनिषद् हमें बताते हैं कि अंतर्यात्रा पर निकलें। मन की यात्रा पर जाएं। खुद का परिष्कार करें। एक बेहतर दुनिया के लिए सुंदर सपनें देखें और उन्हें सच करने के लिए जिंदगी लगा दें। हमने विविधता के साथ जीने और रहने की शक्ति सालों की साधना से अर्जित की है। इसलिए दुनिया के तमाम विचार, पंथ और विविधताएं यहां की जमीन पर आईं और इसकी खुशबू को बढ़ाती रहीं। हजारों फूल खिलने दो, का विचार हमारा ही है। हमने कभी नहीं कहा कि हम ही अंतिम सत्य हैं। जबकि दुनिया में बह रहे खून के पीछे खुद को सबसे बेहतर समझने की समझ है। अब लंबे समय के बाद फिर आतंकवाद का दानव सिर उठाता दिख रहा है। हमारे नौजवान फिर एक जहरीली हवा के प्रभाव में आ रहे हैं। ऐसे कठिन समय में हमें फिर से अपनी राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय मनीषा का पुनर्पाठ करना होगा। देश के हर कोने से राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाली शक्तियों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। यह काम सरकार के भरोसे नहीं होगा। लोगों के भरोसे होगा। राजनीति का पंथ अलग है, वे तोड़कर ही अपने लक्ष्य संधान करते हैं। हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। राष्ट्रीय सवालों पर देश एक दिखे, इतनी सी कोशिश भी हमें सुरक्षित रख सकती है। हर खतरे से और हर हमले से।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण




भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी द्वारा संपादित किताब 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण 'मीडिया विमर्श' पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में निशा राय(भास्कर डाटकाम),आर जे अनादि( बिग एफ.एम),कौशल वर्मा(कोएनजिसिस,दिल्ली),अनुराधा आर्य(महिला बाल विकास अधिकारी बिलासपुर), शिखा शर्मा( इन्सार्ट्स),अन्नी अंकिता (दिल्ली प्रेस, दिल्ली),ऋचा चांदी( मीडिया प्राध्यापक),शीबा परवेज (फारच्यूना पीआर, मुंबई) ने किया। पुस्तक में कमल कुमार, विजय बहादुर सिंह, जया जादवानी,अष्टभुजा शुक्ल,उर्मिला शिरीष,मंगला अनुजा, अल्पना मिश्र, सच्चिदानंद जोशी,इरा झा,वर्तिका नंदा,रूपचंद गौतम, गोपा बागची, सुभद्रा राठौर,संजय कुमार, हिमांशु शेखर,जाहिद खान,रूमी नारायण, अमित त्यागी, स्मृति आदित्य, कीर्ति सिंह, मधु चौरसिया, लीना, संदीप भट्ट, सोमप्रभ सिंह, निशांत कौशिक, पंकज झा, सुशांत झा,माधवीश्री,अनिका अरोड़ा, फरीन इरशाद हसन, मधुमिता पाल, उमाशंकर मिश्र, महावीर सिंह, विनीत उत्पल, यशस्विनी पाण्डेय, आदित्य कुमार मिश्र के लेख शामिल हैं। इस पुस्तक में देश के जाने-माने साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के 39 लेख शामिल हैं।
किताबः मीडिया की ओर देखती स्त्री
संपादकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस,1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्यः495 रूपए मात्र, पृष्ठः 184
पुस्तक अमेजान और फ्लिपकार्ड पर भी उपलब्ध है।

सोमवार, 6 मार्च 2017

एक साहसी जनप्रतिनिधि की ‘काशी हुंकार’

-संजय द्विवेदी

   एक प्रधानमंत्री का अपने चुनाव क्षेत्र में तीन दिन रूककर मतदाताओं से मिलना, चर्चा में है। जाहिर तौर पर ऐसा नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। वे कर रहे हैं, आलोचनाओं के बाद भी कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, कोई भी प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी को न सीमित करता, बल्कि इस बात से बचता कि ठीकरा उसके सिर न फोड़ा जा सके। किंतु नरेंद्र मोदी की शख्सियत अलग है, वे भले ही श्रेय लेना जानते हैं लेकिन पराजय के डर से मैदान छोड़ना भी उन्हें पसंद नहीं है। अपने चुनाव क्षेत्र में उनका तीन दिन रूकना और संपर्क करना, कई अर्थों में दुस्साहस ही कहा जाएगा। वे अपनी जान को जोखिम में डालकर यह क्यों कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है।
मोदी ही हैं सबसे बड़ी ताकतः
    यह बात तो साफ है कि उत्तर प्रदेश के मैदान में भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति नरेंद्र मोदी हैं। यह भी मानिए कि उत्तर प्रदेश भाजपा जैसा पस्तहाल भाजपा संगठन शायद ही उत्तर भारत में दूसरा हो। बड़े-बड़े नेताओं की मौजूदगी के बाद भी, उत्तर प्रदेश भाजपा एक हारी हुयी टीम है। वो तो मोदी लहर और अमित शाह का चुनाव प्रबंधन था, जिसने उप्र में 2014 के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम दिए और राजग को 73 लोकसभा सीटें मिलीं।
   उप्र के विधानसभा चुनाव में आयातित नेताओं के भरोसे लड़ रही भाजपा के सामने मैदान जीतने की कठिन चुनौती है, जबकि उसके परंपरागत नेता कोपभवन में ही हैं। कई बार विधायक-सांसद और मंत्री रहे लोग अब भी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है और टिकट खुद को या परिवार को न मिलने पर कोपभवन में हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की टीम या तो उप्र का मैदान भगवान भरोसे छोड़ दे या खुद मैदान में उतरकर परिणाम दे। नरेंद्र मोदी रिस्क लेना जानते हैं, इसलिए वे खुद मैदान में कूदे हैं। उन्हें पता है उत्तर प्रदेश के वर्तमान नेतृत्व में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो परिणाम ला सके। इसके साथ ही सबकी सीमित अपील भी एक समस्या है। महंत आदित्यनाथ गोरखपुर मंडल में अपनी खास तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं, जिसमें अनेक बार संगठन के ऊपर दिखने व दिखाने की कवाय़द भी शामिल दिखती है। सुलतानपुर के सांसद वरूण गांधी को इतने नाराज हैं कि वे पूरे चुनाव में अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। ऐसे ही अन्य दिग्गज डा. मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार हैं तो पर इनकी मास अपील नहीं है। कुल मिलाकर उप्र नेताओं से भरा एक ऐसा राज्य हैं, जहां कार्यकर्ता और वोटबैंक दोनों नदारद है।
करो या मरो जैसे हालातः
   ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी और उनकी नयी टीम के सामने उप्र का मैदान करो या मरो जैसा ही है। यह भी मानिए कि वे मनमोहन सिंह या अटलबिहारी वाजपेयी नहीं हैं। मनमोहन सिंह मैदान में क्या उतरते क्योंकि उन्हें जनता का नेता माना नहीं जाता। अटल जी के समय में कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता प्रदेश में थे, जिन्हें न सिर्फ प्रदेश की हर विधानसभा सीट की गहरी समझ थी बल्कि वे जनाधार के मामले भी किसी राज्य स्तरीय नेता से कम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस प्रदेश की बीमारियों को जानते हैं और उसके अनुसार जैसे-तैसे उन्होंने भारी संख्या में अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल कर हर क्षेत्र में भाजपा को लड़ाई में ला दिया है। कुछ छोटी जाति आधारित पार्टियों से तालमेल कर यादव विहीन पिछड़ा वर्ग को संगठित करने के सचेतन प्रयास किए हैं। अनजाने से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी और बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य की भाजपा में इंट्री कुछ कहती है। इसी तरह चुनाव अभियान में उमा भारती का होर्डिग्स में चेहरा होना, बताता है कि भाजपा को लोध वोटों की साधने की भी चिंता है।
    उप्र में नरेंद्र मोदी सक्रियता साफ बताती है वे उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन और स्थानीय नेताओं की क्षमता पर भरोसा नहीं कर रहे। उन्हें पता है कि अकेले उत्तर प्रदेश के नेता यहां विजयश्री दिलाने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश का मैदान खुद अध्यक्ष अमित शाह और उनके खास संगठन मंत्री ओम माथुर ने संभाल रखा है। हालात यहां तक हैं कि उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सक्रिय रहे संघ प्रचारकों और वहां रहे संगठनमंत्रियों को बहुत तरजीह नहीं दी गयी। मोदी-शाह अपने दम पर उप्र फतह कर क्या संदेश देना चाहते हैं, ये तो वे ही जानें, किंतु इतना तो तय है कि भाजपा का परंपरागत नेतृत्व और संगठन यहां हाशिए पर है। उत्तर प्रदेश के मैदान में बड़ी संख्या में दूसरे दलों से आए लोग भाजपा के टिकट पर मैदान में है। जाहिर तौर पर यह टीम भाजपा की नहीं मोदी-शाह की होगी। ऐसे में सारा कुछ ठीक रहा तो चुनाव बाद मोदी महात्मय के अलावा कोई चारा नहीं होगा किंतु अगर परिणाम विपरीत होते हैं तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोग मुखर होगें।
टीम लीडर और मैदानी कार्यकर्ता की छविः

   उत्तर प्रदेश का मैदान दरअसल नरेंद्र मोदी की ही अग्निपरीक्षा है। क्योंकि 80 सांसदों वाले इस राज्य से भाजपा की पकड़ अगर ढीली होती है तो आने वाले समय में भाजपा के खिलाफ वातावरण बनना प्रारंभ हो जाएगा। विपक्षी दल भी उत्तर प्रदेश को एक प्रयोगभूमि मान रहे हैं, क्योंकि इसी मैदान से सन 2019 के संसदीय चुनाव की भावभूमि बन जाएगी। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी इसलिए दूसरों के भरोसे नहीं रहना चाहते। आप इसे उनका दुस्साहस भले कहें किंतु वे सुनिश्चित करना चाहते है उनके अपने चुनाव क्षेत्र में भाजपा असंतोष के बाद भी जीते ताकि वे अन्य सांसदों से उनके क्षेत्रों का हिसाब मांगने का नैतिक बल पा सकें। वाराणसी की सीटें हारकर मोदी और अमित शाह अन्य सांसदों का सामना कैसै करेगें, ऐसे तमाम प्रश्न मोदी टीम के सामने हैं। शायद इसीलिए मोदी ने परिणामों की परवाह न करते हुए अपेक्षित साहस का परिचय दिया है। खुद को एक सांसद, कार्यकर्ता और टीम लीडर की तरह मैदान में झोंक दिया है। परिणाम जो भी पर इससे उनकी लड़ाकू और मैदानी कार्यकर्ता की छवि तो पुख्ता हो ही रही है।