गुरुवार, 18 मई 2017

बौद्धिक तेज से दमकता था उनका व्यक्तित्व

-संजय द्विवेदी

  केंद्रीय पर्यावरण मंत्री श्री अनिल माधव दवे,देश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थे, जिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था। उन्हें देखने, सुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानी, पर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमे गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपाल, अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गए, जब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जब राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थे, जो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी के, प्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।
     भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे, विचार को लेकर स्पष्टता, दृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़ना, सीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनाना, उन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।
गहरा सौंदर्यबोध और सादगीः
  उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थे, तो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दी, जब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैं, यह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छवि, सौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्था, गहरी वैचारिकता, सांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थे, वह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरण, नदी संरक्षण, स्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहीं, करके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।
कुशल संगठक और रणनीतिकारः
    वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैं, रणनीतिकार हैं, वे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लाना, यह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भी, बड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।


बौद्धिकता-लेखन और संवाद से बनाई जगहः

     उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकता, शोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्‍दी के पांच काले पन्‍ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैं, इसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदी, पर्यावरण, जलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने नदी का घर रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों से, प्रकृति से, पहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे भारत (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा है, प्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा है, हमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैं, अनिल दवे की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

सोमवार, 15 मई 2017

केजरीवालः हर रोज नया बवाल

-संजय द्विवेदी

    अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी में इन दिनों जो कुछ चल रहा है, उससे राजनीतिज्ञों के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है। वे उम्मीदों को तोड़ने वाले राजनेता बनकर रह गए हैं। साफ-सुथरी राजनीति देने का वादा करके बनी आम आदमी पार्टी को सत्ता देने में दिल्ली की जनता ने जितनी तेजी दिखाई, उससे अधिक तेजी केजरीवाल और उनके दोस्तों ने जनता की उम्मीदें तोड़ने में दिखाई है।
  भारतीय राजनीति में अन्ना हजारे के चेलों ने जिस तेजी से भरोसा खोया, उस तेजी से तो जयप्रकाश नारायण और महात्मा गांधी के चेले भी नहीं गिरे। दिल्ली की सत्ता में आकर अपनी अहंकारजन्य प्रस्तुति और देहभाषा से पूरी आप मंडली ने अपनी आभा खो दी है। खीजे हुए, नाराज और हमेशा गुस्सा में रहने वाली यह पूरी टीम रचनात्मकता से खाली है। एक महान आंदोलन का सर्वनाश करने का श्रेय इन्हें दिया जा सकता है किंतु भरोसे को तोड़ने का पाप भी इन सबके नाम जरूर दर्ज किया जाएगा। जिस भारतीय संसदीय राजनीति के दुर्गुणों को कोसते हुए ये उसका विकल्प देने का बातें कर रहे थे, उन सारे दुर्गुणों से जिस तरह स्वयं ग्रस्त हुए वह देखने की बात है। राजनीति के बने-बनाए मानकों को छोड़कर नई राह बनाने कि हिम्मत तो इस समूह से गायब दिखती है। उसके अपनों ने जितनी जल्दी पार्टी से विदाई लेनी शुरू की तो लगा कि पार्टी अब बचेगी नहीं, किंतु सत्ता का मोह और प्रलोभन लोगों को जोड़े रखता है। सत्ता जितनी बची है,पार्टी भी उतनी ही बच तो जाए तो बड़ी बात है।
   योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और प्रो. आनंद कुमार जैसे चेहरों से प्रारंभ हुई रुसवाई की कहानियां रोज बन रही हैं। कपिल मिश्र इस पूरी जंग में सबसे नया किंतु सबसे प्रभावी नाम हैं। उन्होंने जिस तरह केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमला किया, वह बताता है कि पार्टी में कुछ भी बेहतर नहीं चल रहा है। एक नई पार्टी जिसने एक नई राजनीति और नई संभावनाओं का अहसास कराया था, उसने बहुत कम समय में खासा निराश किया है। आम आदमी पार्टी का संकट यह है कि वह अपने परिवार में पैदा हो रहे संकटों के लिए भी भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रही है। जबकि भाजपा एक प्रतिद्वंदी दल है और उससे किसी राहत की उम्मीद आप को क्यों करनी चाहिए। मुंह खोलते ही आप के नेता प्रधानमंत्री को कोसना शुरू कर देते हैं। भारत जैसे देश में जहां संघीय संरचना है वहां यह बहुत संभव है कि राज्य व केंद्र में अलग-अलग सरकारें हों। उनकी विचारधाराएं अलग-अलग हों। किंतु ये सरकारें समन्वय से काम करती हैं, एक दूसरे के खिलाफ सिर्फ तलवारें ही नहीं भांजतीं। ऐसा लगता है जैसे दिल्ली में पहली बार कोई सरकार बनी हो। सरकार बनाकर और अभूतपूर्व बहुमत लाकर निश्चित ही अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने एक ऐतिहासिक काम किया था। किंतु सरकार भी ठीक से चलाकर भी दिखाते तो उससे वे इतिहासपुरूष बन सकते थे। एक राज्य को संभालने की क्षमता प्रदर्शित किए बिना वे प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देखते हैं। जबकि जिस नरेंद्र मोदी को सुबह-शाम वे कोसते हैं वे भी गुजरात में तीन बार लगातार बेहतर सरकार चलाने के ट्रैक रिकार्ड के चलते दिल्ली पहुंचे हैं। ऐसे में सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना का काम आम आदमी पार्टी को नित नए विवादों में फंसा रहा है। अब तक वे अन्य दलों के सारे नेताओं को चोर और बेईमान कहने की सुविधा से लैस थे, किंतु अब उनके अपने ही उनकी नीयत पर शक कर रहे हैं। जिन पत्थरों से आम आदमी पार्टी ने दूसरे दलों के नेताओं को घायल किया था, वही पत्थर अब उनकी ओर हैं।
     नितिन गडकरी जैसे अनेक नेताओं के खिलाफ आरोप और बाद में माफी मांग लेना का चलन बताता है कि आम आदमी पार्टी को मीडिया का इस्तेमाल आता है। लेकिन यह भी मानना होगा कि समाज बहुत बड़ा और मीडिया उसका बहुत छोटा हिस्सा है। जनमत को साधने के लिए एक बार झूठ काम आ सकता है किंतु बार-बार सफलताओं के लिए आपको विश्वसनीयता कायम करनी पड़ती है। आज की तारीख में आम आदमी पार्टी विश्वसनीयता के सबसे निचले तल पर है। अरविंद केजरीवाल कभी उम्मीदों का चेहरा था। हिंदुस्तान की आकाक्षांओं के प्रतीक थे, भ्रष्टाचार के विरूध्द एक प्रखर हस्तक्षेप थे, आज वे निराश करते नजर आते हैं। यह निराशा भी बहुत गहरी है और उजास कहीं नजर नहीं आती। अपने आंदोलनकारी तेवरों से वे जनता के दिलों में बहुत जल्दी जगह बना सके। शायद इसका कारण यह था कि वे दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे और ऐसे समय में कर रहे थे , जब सोशल मीडिया और टीवी मीडिया की विपुल उपस्थिति के चलते व्यक्ति रातोंरात स्थापित हो सकता है। उनके दिखाए सपनों और वादों के आधार अनेक युवा अपना कैरियर छोड़कर उनके साथ वालंटियर के रूप में मैदान में उतरे। उन सबके साझा प्रयासों ने दिल्ली में उन्हें सत्ता दिलाई। किंतु अपने अहंकार, संवादहीनता और नौकरशाही अकड़ से उन्होंने अपने परिवार को बहुत जल्दी बिखेर दिया। उनके प्रारंभिक अनेक साथी आज अनेक दलों में जा चुके हैं। आंदोलन के मूल नायक अन्ना हजारे उनसे मिलना पसंद नहीं करते। ये उदाहरण बताते हैं कि आंदोलन खड़ा करना और उसे परिणाम तक ले जाना दो अलग-अलग बातें हैं। एक संगठन को खड़ा करना और अपने कार्यकर्ताओं में समन्वय बनाए रखना सरल नहीं होता।

    आम आदमी पार्टी जो एक वैकल्पिक राजनीति का माडल बन सकती थी, आज निराश करती नजर आ रही है। यह निराशा उसके चाहने वालों में तो है ही, देश के बौद्धिक वर्गों में भी है। लोकतंत्र इन्हीं विविधताओं और सक्रिय हस्तक्षेपों से सार्थक व जीवंत होता है। आम आदमी पार्टी में वह उर्जा थी कि वह अपनी व्यापक प्रश्नाकुलता से देश की सत्ता के सामने असुविधाजनक सवाल उठा सके। उनकी युवा टीम प्रभावित करती है। उनकी काम करने की शैली, सोशल मीडिया से लेकर परंपरागत माध्यमों के इस्तेमाल में उनकी सिद्धता, भ्रष्टाचार के विरूध्द रहने का आश्वासन लोगों में आप के प्रति मोह जगाता था। वह सपना बहुत कम समय में धराशाही होता दिख रहा है। सिर्फ एक आदमी की महत्वाकांक्षा, उसके अंहकार, टीम को लेकर न चल सकने की समस्या ने आम आदमी पार्टी को चौराहे पर ला खड़ा किया है। दल का अनुशासन तार-तार है। पहले दूसरे दलों और नेताओं की हर बात को मीडिया के माध्यम से सामने लाने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अब अपनी सामान्य दलगत समस्याओं को भी टीवी पर तय करने लगे हैं। ऐसे में दल के कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जा रहा है। ऐसे में वे कहते रहे हैं कि यह भाजपा करवा रही है। जबकि अपने दल में अनुशासन और संवाद कायम करना आम आदमी पार्टी के नेताओं का काम है। यह काम भाजपा का नहीं है। आम आदमी पार्टी में मची घमासान राजनीतिक दलों के लिए सबक भी है कि सिर्फ  चुनावी सफलताओं से मुगालते में आ जाना ठीक नहीं है। अंततः आपको लोगों से संवाद बनाए रखना होता है। दल हो या परिवार समन्वय, संवाद और सहकार से ही चलते हैं, अहंकार-संवादहीनता और दुर्व्यवहार से नहीं। आज की राजनीति के शासकों को चाहिए कि राजा की तरह नहीं, समन्वयवादी राजनेता की आचरण करें। अरविंद केजरीवाल के पास अभी भी आयु और समय दोनों है, पर सवाल यह है कि वे क्या चीजों के लिए खुद को जिम्मेदार मानते हैं या नहीं। या केजरीवाल को यही लगता है कि उनकी सरकार, संगठन में सब जगह उन्हें नरेंद्र मोदी के लोगों ने घेर रखा है। राजनीति सच को स्वीकारने और सुधार करने  से आगे ही बढ़ती है, पर क्या वे इसके लिए तैयार हैं?

सोमवार, 1 मई 2017

कश्मीरः ये आग कब बुझेगी ?


-संजय द्विवेदी

 कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर नहीं लगता कि आग जल्दी बुझेगी। राजनीतिक नेतृत्व की नाकामियों के बीच, सेना के भरोसे बैठे देश से आखिर आप क्या उम्मीद पाल सकते हैं? भारत के साथ रहने की कीमत कश्मीर घाटी के नेताओं को चाहिए और मिल भी रही है, पर क्या वे पत्थर उठाए हाथों पर नैतिक नियंत्रण रखते हैं यह एक बड़ा सवाल है। भारतीय सुरक्षाबलों के बंदूक थामे हाथ सहमे से खड़े हैं और पत्थरबाज ज्यादा ताकतवर दिखने लगे हैं।
   यह वक्त ही है कि कश्मीर को ठीक कर देने और इतिहास की गलतियों के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराने वाले आज सत्ता में हैं। प्रदेश और देश में भाजपा की सरकार है, पर हालात बेकाबू हैं। समय का चक्र घूम चुका है। जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है का नारा लगाती भाजपा देश की केंद्रीय सत्ता में काबिज हो चुकी है। प्रदेश में भी वह लगभग बराबर की पार्टनर है। लेकिन कांग्रेस कहां हैइतिहास की इस करवट में कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं भी नदारद हैं। फारूख अब्दुल्ला को ये पत्थरबाज देशभक्त दिख रहे हैं। आखिर इस देश की राजनीति इतनी बेबस और लाचार क्यों है। क्यों हम साफ्ट स्टेट का तमगा लगाए अपने सीने को छलनी होने दे रहे हैं। कश्मीर में भारत के विलय को ना मानने वाली ताकतें, भारतीय संविधान और देश की अस्मिता को निरंतर चुनौती दे रही हैं और हम इन घटनाओं को सामान्य घटनाएं मानकर चुप हैं। जम्मू, लद्दाख, लेह के लोगों की राष्ट्रनिष्ठा पर, घाटी के चंद पाकिस्तानपरस्तों की आवाज ऊंची और भारी है। भारतीय मीडिया भी उन्हीं की सुन रहा है, जिनके हाथों में पत्थर है। उसे लेह-लद्दाख और जम्मू के दर्द की खबर नहीं है। अपनी जिंदगी को जोखिम में डालकर देश के लिए पग-पग पर खड़े जवान ही पत्थरबाजों का निशाना हैं। ये पत्थरबाज तब कहां गायब हो जाते हैं, जब आपदाएं आती हैं, बाढ़ आती है। भारतीय सेना की उदारता और उसके धीरज को चुनौती देते ये युवा गुमराह हैं या एक बड़ी साजिश के उत्पाद, कहना कठिन है। दरअसल हम कश्मीर में सिर्फ आजादी के दीवानों से मुकाबिल नहीं हैं बल्कि हमारी जंग उस वैश्विक इस्लामी आतंकवाद से भी जिसकी शिकार आज पूरी दुनिया है। हमें कहते हुए दर्द होता है पर यह स्वीकारना पड़ेगा कि कश्मीर के इस्लामीकरण के चलते यह संकट गहरा हुआ है। यह जंग सिर्फ कश्मीर के युवाओं की बेरोजगारी, उनकी शिक्षा को लेकर नहीं है-यह लड़ाई उस भारतीय राज्य और उसकी हिंदू आबादी से भी है। अगर ऐसा नहीं होता कि कश्मीरी पंडित निशाने पर नहीं होते। उन्हें घाटी छोड़ने के लिए विवश करना किस कश्मीरियत की जंग थी? क्या वे किसी कश्मीरी मुसलमान से कश्मीरी थे? लेकिन उनकी पूजा-पद्धति अलग थी? वे कश्मीर को एक इस्लामी राज्य बनने के लिए बड़ी बाधा थे। इसलिए इलाके का पिछड़ापन, बेरोजगारी, शिक्षा जैसे सवालों से अलग भी एक बहस है जो निष्कर्ष पर पहुंचनी चाहिए। क्या संख्या में कम होने पर किसी अलग समाज को किसी खास इलाके में रहने का हक नहीं होना चाहिए? दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में मानवाधिकारों और बराबरी के हक की बात करने वाले इस्लाम मतावलंबियों को यह सोचना होगा कि उनके इस्लामी राज में किसी अन्य विचार के लिए कितनी जगह है? कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि कैसे अन्य मतावलंबियों को वहां से साजिशन बाहर किया गया। यह देश की धर्मनिरपेक्षता, उसके सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने की साजिश है। कश्मीर का भारत के साथ होना दरअसल द्विराष्ट्रवाद की थ्यौरी को गलत साबित करता है। अगर हिंदुस्तान के मुसलमान पहले भारतीय हैं, तो उन्हें हर कीमत पर इस जंग में भारतीय पक्ष में दिखना होगा। हिंदुस्तानी मुसलमान इस बात को जानते हैं कि एक नयी और बेहतर दुनिया के सपने के साथ बना पाकिस्तान आज कहां खड़ा है। वहां के नागरिकों की जिंदगी किस तरह हिंदुस्तानियों से अलग है। जाहिर तौर पर हमें पाकिस्तान की विफलता से सीखना है। हमें एक ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जहां उसका संविधान सर्वोच्च और बाकी पहचानें उसके बाद होगीं। एक पांथिक राज्य में होना दरअसल मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर जाना है।
   कश्मीर को एक पांथिक राज में बदलने में लगी ताकतों का संघर्ष दरअसल मानवता से भी है। यह जंग मानवता और पंथ-राज्य के बीच है। भारत के साथ होना दरअसल एक वैश्विक मानवीय परंपरा के साथ होना है। उस विचार के साथ होना है जो मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करती, भले उसकी पूजा-पद्धति कुछ भी हो। कश्मीर का दर्द दरअसल मानवता का भी दर्द है, लाखों विस्थापितों का दर्द है, जलावतन कश्मीरी पंडितों का दर्द है। कश्मीर की घरती पर रोज गिरता खून आचार्य अभिनव गुप्त और शैव आचार्यों की माटी को रोज प्रश्नों से घेरता है। सूफी विद्वानों की यह माटी आज अपने दर्द से बेजार है। दुनिया को रास्ता दिखाने वाले विद्वानों की धरती पर मचा कत्लेआम दरअसल एक सवाल की तरह सामने है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हम एक नादान पड़ोसी की हरकतों के चलते अपने नौजवानों को रोज खो रहे हैं। दर्द बड़ा और पुराना हो चुका है। इस दर्द की दवा भी वक्त करेगा। किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना यह कब तक हो पाएगा, कहना कठिन है।