शनिवार, 15 जुलाई 2017

मोदी विमर्श का दस्तावेज है मोदी युग

समीक्षक – डा.शाहिद अली *


प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी केवल भारत ही नहीं बनिस्बत दुनिया के देशों के लिए एक विमर्श का विषय बन चुके हैं। भारत की राजनीति में आजादी के बाद श्री नरेन्द्र मोदी पहले नेता बन चुके हैं जो किसी राजनीति के राजाश्रय से नहीं जन्में हैं किन्तु उनकी ताकतवर छवि और नेतृत्व किसी अचंभे से कम नहीं है। भारत में अच्छे दिन आने वाले हैं, की खोज के संकल्प से शुरु प्रधानमंत्री के रुप में श्री नरेन्द्र मोदी का सफर किसी करिश्माई नेता से कम नहीं है जो दुनिया के लोगों का ध्यान निरंतर अपनी ओर खींचता है। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत का कोई प्रधानमंत्री विदेशों में बसे भारतीय समुदाय के लिए भी लोकप्रिय श्री नरेन्द्र मोदी अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारतीयों की स्थिति को सशक्त बनाने में पूरी ताकत से लगे हुए हैं। नोटबंदी और जी.एस.टी. जैसे क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम रखते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भारत की नई पहचान का पर्याय बन चुके हैं। डिजीटल इंडिया की सुनहरी तस्वीर में स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने का बीड़ा उठाने वाले राजनेता श्री नरेंद्र मोदी एक तरफ लोगों की सराहना बटोरते हैं तो दूसरी तरफ मीडिया सहित विपक्ष की आलोचना का भी सामना करते हैं। इन्हीं चुनौतियां के बीच मोदी युग की जमीन को देखने का काम लेखक एवं शिक्षाविद श्री संजय द्विवेदी करते हैं।
लगभग दो दशक से भारतीय राजनीति के टिप्पणीकार श्री संजय द्विवेदी विभिन्न विषयों पर अपनी सधी हुई कलम से समकालीन मुद्दों को रेखांकित करने का काम कर रहे हैं। श्री द्विवेदी ने मीडिया विमर्श की मशाल से सच्ची पत्रकारिता की रोशनी में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली अनेक घटनाओं पर सही समय और सही रुप  में अनेकों टिप्पणियों से पाठकों को नए चिंतन से जोड़ने का सराहनीय लेखन किया है। इसी क्रम में वे जन-जन के लोकप्रिय राजनेता श्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक कार्यशैली को भी नजदीक से देखते हैं और मोदी युग की ग्रंथावली बिना किसी पक्षपात के अपने सैंकड़ों पाठकों और प्रशंसकों के सामने रखते हैं। जिसे आज सर्वाधिक पढा जा रहा है।
मीडिया शिक्षा से जुड़े श्री द्विवेदी के समक्ष मोदी का व्यक्तित्व, वैचारिक आकाश और उनके राजनीतिक फैसलों का लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव विशेष अभिरुचि बन कर उभरा है। यही कारण है कि श्री द्विवेदी, मोदी सरकार के कार्यों और उसकी कार्यशैली पर लिखे 63 आलेखों के संकलन से मोदी युग को कलमबद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस कृति में लेखक की मान्यता है कि लंबे समय बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाईन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। अरसे बाद वे भारतीय राजनीति के सेक्युलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े हैं।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान श्री नरेन्द्र मोदी की अग्निपरीक्षा और कैशलेस व्यवस्था पर मोदी युग का विश्लेषण अति उत्तम है। मोदी ने स्मार्ट सिटी, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया जैसे नारों से भारत के नव मध्य वर्ग को आकर्षित किया था किन्तु बिहार और दिल्ली विधानसभा में मिली हार कई सवालों और आलोचनाओं को जन्म देती है, इसकी पड़ताल भी लेखक बेहद संजीदा होकर करते हैं। वे विपक्ष को टटोलते हैं कि आखिर क्या वज़हें हैं कि जनता कई बार तकलीफों में होने के बावजूद मोदी के विरोध पर चुप क्यों हो जाती है। काले धन के खिलाफ आभासी की लड़ाई, जेएनयू के भारत विरोधी, शहादत और मातम, साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घटनाएँ, सांप्रदायिक हिंसा के खतरे, उद्योग जगत की चिंताएं, भारत पाक रिश्ते, कश्मीर की घटनाएं इत्यादि लेखों को गहराई से मोदी युग में पढ़ा जा सकता है।
अक्सर राजनीतिक लेखन में भावात्मक पक्षधरता हावी होती है। इसका यह नुक़सान होता है कि हम राजनीतिक घटनाओं की गवेषणा निष्पक्षता से नहीं कर पाते हैं। किन्तु मोदी युग को सामने लाते हुए लेखक ने स्वयं को भावात्मक पक्षधरता से सर्वथा अलग रखा है। इन कारणों से इस कृति को देखने का नजरिया पाठकों के लिए भी उसे निष्पक्षता के साथ निर्णय करने में मदद करता है। लेखक आशावादी हैं। मोदी को जिन आशाओं पर खरा उतरना है उसके लिए सचेत भी करते हैं। मसलन अरसे बाद मुस्कुराया देश, विश्व मंच पर भारत का परचम, बौद्धिक वर्ग और मोदी सरकार, मोदी सरकार कितना इंतजार, राष्ट्रवाद, शक्ति को सृजन में लगाएं मोदी जैसे लेखों की श्रृंखला अहम मसलों पर ध्यान केन्द्रित करती है। यहां लेखन सफल हो जाता है।
इन दिनों सरकार से ज्यादा चर्चा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की होती है। संघ के लिए यह बात अहम है कि संघ की नई सामाजिक अभियांत्रिकी के प्रयोगों में एक स्वयं सेवक नरेन्द्र मोदी देश में सकारात्मक नेतृत्व देने में वरदान साबित हो रहे हैं। इस मायने में संघ का मार्गदर्शन स्वयं सेवक के लिए जरुरी है कि वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लंबी साधना एवं परिश्रम को विफल न होने दे। लेखक ने आरएसएस के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की सलाह का हवाला भी इन लेखों में दिया है साथ ही संघ परिवार के रणनीतिकारों सर्वश्री भैयाजी जोशी, सुरेश सोनी, दत्तात्रेय होसबोले, डा.कृष्ण गोपाल, मनमोहन वैद्य एवं राम माधव के विविध दायित्वों पर भी प्रकाश डाला है।
लालकृष्ण आडवाणी से लेकर समकालीन राजनेताओं और नए राजनीतिक परिदृश्य में उभरते युवा नेतृत्व में मोदी के रिश्ते और गर्माहट का अहसास भी इस मोदी युग की कृति में होता है। आखिर मोदी होने का क्या मतलब है यह पुस्तक का प्रमुख आकर्षण है। लेखक की  यह मान्यता है कि मोदी की भाषण कला, भाजपा का विशाल संगठन, कांग्रेस सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार की कथाएँ मिलकर मोदी को महानायक के शीर्ष पर लाती हैं। कुल मिलाकर लेखक श्री संजय द्विवेदी का मोदी युग का 249 पृष्ठीय दस्तावेज अद्वितीय लेखन का प्रकाशपुंज है। मोदी युग की इस कृति में देश के प्रख्यात टीकाकारों, पत्रकारों, मीडिया शिक्षकों सर्वश्री विजय बहादुर सिंह, अकु श्रीवास्तव, आशीष जोशी, इंदिरा दागी, डा.वर्तिका नंदा, तहसीन मुनव्वर और सईद अंसारी की सटीक टिप्पणियां भी हैं। लोकप्रिय राजनेता श्री नरेन्द्र मोदी के ऐतिहासिक छायाचित्रों से युक्त यह पुस्तक विद्यार्थियों, शिक्षकों, राजनीति और समाज सेवा से जुड़े सभी वर्गों के लिए पठनीय तथा संग्रहणीय है।


पुस्तक: मोदी युग, लेखक: संजय द्विवेदी
प्रकाशकः पहले पहल प्रकाशन , 25, प्रेस काम्पलेक्स, एम.पी. नगर,
भोपाल (म.प्र.) 462011मूल्य: 200 रूपए, पृष्ठ-250

समीक्षकः *एसोसिएट प्रोफेसर, जनसंचार विभाग
 कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

                                    E-Mail : drshahidktujm@gmail.com

सोमवार, 10 जुलाई 2017

भारत और इजराइल के रिश्तेःसंस्कृति के दो पाट

-संजय द्विवेदी

   इजराइल और भारत का मिलन दरअसल दो संस्कृतियों का मिलन है। वे संस्कृतियां जो पुरातन हैं, जड़ों से जुड़ी है और जिन्हें मिटाने के लिए सदियां भी कम पड़ गयी हैं। दरअसल यह दो विचारों का मिलन है, जिन्होंने इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सपने देखे। वे विचार जिनसे दुनिया सुंदर बनती है और मानवता का विस्तार होता है। भारत की संस्कृति जहां समावेशी और सबको साथ लेकर चलने की पैरवी करती है, वहीं इजराइल ने एक अलग रास्ता पकड़ा, वह अपने विचारों को लेकर दृढ़ है और आत्ममुग्धता की हद तक स्वयं पर भरोसा करता है। उसके बाद आए विचार इस्लाम और ईसायत की आक्रामकता और विस्तारवादी नीतियों के बाद भी अगर भारत और इजराइल दोनों इस जमीन पर हैं, तो यह सपनों को जमीन पर उतर जाने जैसा ही है। ये दोनों देश बताते हैं कि लाख षडयंत्रों के बाद भी अगर विचार जिंदा है, संस्कृति जिंदा है तो देश फिर धड़कने लगते है। वे खड़े हो जाते हैं। दोनों देश दरअसल अपनी सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर आज तक जीवित हैं और निरंतर उसका परिष्कार कर रहे हैं। तमाम टकराहटों, हमलों, विनाशकारी षडयंत्रों के बाद भी यहूदी और हिंदू संस्कृति एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सत्य की तरह वैश्विक पटल पर आज भी कायम हैं।  
    भारत के साथ इजराइल के रिश्ते बहुत सहमे-सहमे से रहे हैं। भला हो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव का जिन्होंने हमें इजराइल से रिश्तों को लेकर हमें सहज बनाया और हमारे रिश्ते प्रारंभ हुए। यह भारतीय हिचक ही हमें दुनिया भर में दोस्त और दुश्मन पहचानने में संकट में डालती रही है। सत्तर वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इजराइल यात्रा आखिर क्या बताती है? यह हमारी कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है। जो हमारे घरों में बम बरसाते रहे, सीमा पर कायराना हरकतें करते रहे उनके लिए हम लालकालीन बिछाते रहे, क्रिक्रेट खेलते रहे, हिंदी-चीनी भाई-भाई करते रहे किंतु सूदूर एकांत में खड़ा एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रगति के शिखर छू रहा एक देश हमें चाहता रहा, दोस्ती के हाथ बढ़ाए खड़ा रहा पर हम संकोच से भरे रहे। यह संकोच क्या है? यही न कि हिंदुस्तानी मुसलमान इस दोस्ती पर नाराज होगा। आखिर इजराइल-फिलिस्तीन के मामले से हिंदुस्तानी मुसलमान का क्या लेना देना? हमें आखिर क्या पड़ी है,जब दुनिया के तमाम मुस्लिम देश भी इजराइल से रिश्ते और संवाद बनाए हुए हैं। शक्ति की आराधना दुनिया करती है और वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर इजराइल आज एक ऐसी शक्ति से जिससे कोई भी सीख सकता है। अपनी माटी के प्रति प्रेम, अपने राष्ट्र के प्रति अदम्य समर्पण हमें इजराइल सिखाता है, किंतु हम हैं कि अपने कायर परंपरावादी रवैये में दोस्त और दुश्मन का अंतर भी भूल गए हैं। भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कि उन्होंने अपने साहस और इच्छाशक्ति से वह कर दिखाया है जिसकी हिम्मत हमारे तमाम नायक नहीं कर पाए।
    विश्व शांति का उपदेश देने वाली शक्तियां भी दरअसल शक्ति संपन्न देश हैं। दुर्बल व्यक्ति का शांति प्रवचन कौन सुनता है। आज हमें यह तय करना होगा कि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को चुनौती देने वाले किसी विचार को सहन नहीं करेगा। भारत अपने सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर अपने शत्रु और मित्र चुनेगा। आखिर क्या कारण है कि ईरान के सर्वोच्च नेता कश्मीर की जंग में पाकिस्तान की तरह कश्मीरी अतिवादियों को समर्थन देते हुए दिखते हैं। ऐसे में भारत को क्यों यह अधिकार नहीं है कि वह उन राष्ट्रों के साथ समन्वय करे जो वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के विरूद्ध खड़े हैं।
   भारत की वर्तमान सरकार के प्रयत्नों से वैश्विक स्तर पर भारत का जो मान बढ़ा है और उसकी आवाज सुनी जा रही है।वह एक दुर्लभ क्षण है। भारत अब एक दुर्बल राष्ट्र की छवि को छोड़कर अपने पुरूषार्थ का अवगाहन कर रहा है। वह स्वयं की शक्ति को पहचान रहा है। हमें भी इजराइल और उसके नागरिकों के आत्मसंघर्ष को समझना होगा। हमें समझना होगा कि किस प्रकार इजराइल के नागरिकों ने अपने सपने को जिंदा रखा और एक राष्ट्र के रूप में आकार लिया। देश के प्रति उनकी निष्ठा, उनका समर्पण हमें सिखाता है कि कैसे हम अपने देश को एक रख सकते हैं। भारत और इजराइल के स्वभाव का अंतर आप इससे समझ सकते हैं कि गुलामी के लंबे कालखंड ने हमें हमारी चीजों से विरक्त कर दिया, हम आत्महीनता से भर गए, आत्मदैन्य से भर गए। अपनी जमीन पर भी लांछित रहे। वहीं इजराइल के लोगों ने उजाड़े जाने के बाद भी अपने को दैन्य से भरने नहीं दिया, सर ऊंचा रखा और अपने राष्ट्र के सपने को मरने नहीं दिया। यहीं हिंदु संस्कृति और यहूदी संस्कृति के अंतर को समझा जा सकता है। काल के प्रवाह से अविचल यहूदी अपनी मातृभूमि का स्वप्न देखते रहे, हम अपनी मातृभूमि पर रह कर भी विस्मरण के शिकार हो गए। लेकिन हर राष्ट्र का एक स्वप्न होता है जो जिंदा रहता है। इसीलिए हमारे आत्मदैन्य को तोड़ने वाले नायक आए, हमें गुलामी से मुक्ति मिली और हमने अपनी जमीन फिर से पा ली। लेकिन राष्ट्रों का भाग्य होता है। इजराइल में जो आए वे एक सपने के साथ थे, उनका सपना इजराइल को बनाना था, उसके उन्हीं मूल्यों पर बनाना था, जिनके लिए वे हजारों मुसीबतें उठाकर भी वहां आए थे। हमें बलिदानों के बाद आजादी मिली, किंतु हमने उसकी कीमत कहां समझी। हम एक ऐसा देश बनाने में लग गए जिसकी जड़ों में भारतीयता और राष्ट्रवाद के मूल्य नहीं थे। विदेशी समझ,विदेशी भाषा और विदेशी चिंतन के आधार पर जो देश खड़ा हुआ, वह भारत नहीं इंडिया था। इस यात्रा को सत्तर सालों के बाद विराम लगता दिख रहा है। भारत एक जीता जागता राष्ट्रपुरूष है और वह अपने को पहचान रहा है। सही मायनों में ये दो-तीन साल भारत से भारत के परिचय के भी साल हैं। राजनीतिक संस्कृति से लेकर सामाजिक स्तर पर इसके बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं। इजराइल की ओर बढ़े हाथ दरअसल खुद को भी पहचानने की तरह हैं। भूले हुए रास्तों के याद आने की तरह हैं। उन जड़ों और गलियों में लौटने की तरह हैं, जहां भारत की रूहें बसती और धड़कती हैं। इजराइल जैसे देश में होना दरअसल भारत में होना भी है। दुनिया की दो पुरातन संस्कृतियों-परंपराओं और जीवन शैलियों का मिलन साधारण नहीं हैं। यह एक नई दुनिया जरूर है लेकिन वह अपनी जड़ों से जुड़ी है। उन जड़ों से जिन्हें सींचने में पीढ़ियां लगीं हैं। एक बार भारत दुनिया के चश्मे से खुद को देख रहा है, उसे अपने निरंतर तेजमय होने का अहसास हो रहा है। इजराइल यात्रा के बहाने प्रधानमंत्री ने सालों की दूरियां दिनों में पाट दीं हैं, हमें भरोसा दिया है कि भारत अपने आत्मविश्वास से एक बार फिर से अपनी उम्मीदों में रंग भरेगा। आम हिंदुस्तानी अपने प्रधानमंत्री के वैश्विक नेतृत्व के इस दृश्य पर मुग्ध है।


सोमवार, 3 जुलाई 2017

मोदीः जनविश्वास पर खरा उतरने की चुनौती

-संजय द्विवेदी

  जिस दौर में राजनीति और राजनेताओं के प्रति अनास्था अपने चरम पर हो, उसमें नरेंद्र मोदी का उदय हमें आश्वस्त करता है। नोटबंदी, कैसलेश जैसी तमाम नादानियों के बाद भी नरेंद्र मोदी लोगों के दुलारे बने हुए हैं, तो यह मामला गंभीर हो जाता है। आखिर वे क्या कारण हैं जिसके चलते नरेंद्र मोदी अपनी सत्ता के तीन साल पूरे करने के बाद भी लोकप्रियता के चरम पर हैं। उनका जादू चुनाव दर चुनाव जारी है और वे हैं कि देश-विदेश को मथे जा रहे हैं। इस मंथन से कितना विष और कितना अमृत निकलेगा यह तो वक्त बताएगा, पर यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता साबित हुए हैं।
  नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए चार बातें सामने आती हैं- एक तो उनकी प्रामाणिकता अंसदिग्ध है, यानी उनकी नीयत पर आम जनता का भरोसा कायम है। दूसरा उन-सा अथक परिश्रम और पूर्णकालिक राजनेता अभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोई और नहीं है। तीसरा ताबड़तोड़ और बड़े फैसले लेकर उन्होंने सबको यह बता दिया है कि सरकार क्या सकती है। इसमें लालबत्ती हटाने, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, कैशलेस अभियान और जीएसटी को जोड़ सकते हैं। चौथी सबसे बड़ी बात उन्होंने एक सोए हुए और अवसादग्रस्त देश में उम्मीदों का ज्वार खड़ा कर दिया है। आकांक्षाओं को जगाने वाले राजनेता होने के नाते उनसे लोग जुड़ते ही जा रहे हैं। अच्छे दिन भले ही एक जुमले के रूप में याद किया जाए पर मोदी हैं कि देश के युवाओं के लिए अभी भी उम्मीदों का चेहरा है। यह सब इसके बाद भी कि लोग महंगाई से बेहाल हैं, बैंक अपनी दादागिरी पर आमादा हैं। हर ट्रांजिक्शन आप पर भारी पड़ रहा है। यानी आम लोग मुसीबतें सहकर, कष्ट में रहकर भी मोदी-मोदी कर रहे हैं तो इस जादू को समझना जरूरी है। अगर राजनीति ही निर्णायक है और चुनावी परिणाम ही सब कुछ कहते हैं तो मोदी पर सवाल उठाने में हमें जल्दी नहीं करनी चाहिए। नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश एक अग्निपरीक्षा सरीखा था, जिसमें नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है। ऐसे में आखिर क्या है जो मोदी को खास बनाता है। अपने कष्टों को भूल कर, बलिदानों को भूलकर भी हमें मोदी ही उम्मीद का चेहरा दिख रहे हैं। आप देखें तो आर्थिक मोर्चे पर हालात बदतर हैं। चीजों के दाम आसमान पर हैं। भरोसा न हो तो किसी भी शहर में सिर्फ टमाटर के दाम पूछ लीजिए। काश्मीर के मोर्चे पर हम लगातार पिट रहे हैं। सीमा पर भी अशांति है। पाक सीमा के साथ अब चीन सीमा पर भी हालात बुरे हैं। सरकार के मानवसंसाधन मंत्रालय का हाल बुरा है। तीन साल से नई शिक्षा नीति लाते-लाते अब उन्होंने कस्तूरीरंगन जी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है। जाहिर है हीलाहवाली और कामों की प्राथमिकता में इस सरकार का अन्य सरकारों जैसा बुरा है। दूसरा नौकरशाही पर अतिशय निर्भरता और अपने काडर और राजनीतिक तंत्र पर अविश्वास इस सरकार की दूसरी विशेषता है। लोगों को बेईमान मानकर बनाई जा रही नीतियां आर्थिक क्षेत्र में साफ दिखती हैं। जिसका परिणाम छोटे व्यापारियों और आम आदमी पर पड़ रहा है। बैंक और छोटी जमा पर घटती ब्याज दरें इसका उदाहरण हैं। यहां तक कि सुकन्या समृद्धि और किसान बचत पत्र भी इस सरकार की आंख में चुभ रहे हैं। आम आदमी के भरोसे और विश्वास पर चढ़कर आई सरकार की नीतियां आश्चर्य चकित करती हैं। विश्व की मंदी के दौर में भी हमारे सामान्य जनों की बचत ने इस देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा, आज हालात यह हैं कि हमारी बचत की आदतों को हतोत्साहित करने और एक उपभोक्तावादी समाज बनाने के रास्ते पर सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। आखिर छोटी बचत को हतोत्साहित कर, बैकों को सामान्य सेवाओं के लिए भी उपभोक्ताओ से पैसे लेने की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक ही कही जाएगी। आज हालात यह हैं कि लोगों को अपने बैंक में जमा पैसे पर भी भरोसा नहीं रहा। इस बढ़ते अविश्वास के लिए निश्चित ही सरकार ही जिम्मेदार है।
   अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा  कुछ जनविरोधी तंत्र होने के बाद भी मोदी की जय-जयकार क्यों लग रही है। इसके लिए हमें इतिहास की वीथिकाओं में जाना होगा जहां लोग अपने ताकतवर नेता पर भरोसा करते हैं और उससे जुड़ना चाहते हैं। आज अगर नरेंद्र मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से हो रही है तो कुछ गलत नहीं है। क्योंकि उनकी तुलना मनमोहन सिंह से नहीं हो सकती। किंतु मनमोहन सिंह के दस साल को गफलत और गलतियों भरे समय ने ही नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है। मनमोहन सिंह ने देश को यह अहसास कराया कि देश को एक ताकतवर नेता की जरूरत है जो कड़े और त्वरित फैसले ले सके। उस समय अपने व्यापक संगठन आधार और गुजरात की सरकार के कार्यकाल के  आधार पर नरेंद्र मोदी ही सर्वोच्च विकल्प थे। यह मनमोहन मार्का राजनीति  से ऊब थी जिसने मोदी को एक बड़ा आकाश दिया। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी अब प्रशासनिक स्तर पर जो भी कर रहे हों पर राजनीतिक फैसले बहुत सोच-समझ कर ले रहे हैं। उप्र में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी से लेकर राष्ट्रपति चयन तक उनकी दूरदर्शिता और राजनीति केंद्रित निर्णय सबके सामने हैं।
   जाहिर तौर पर मोदी इस समय की राजनीति का प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। वे संकटकाल से उपजे नेता हैं और उन्हें समाधान कारक नेता होना चाहिए। जैसे बेरोजगारी के विकराल प्रश्न पर, सरकार की बेबसी साफ दिखती है। प्रचार, इवेंट्स और नारों से अलग इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड का आकलन जब भी होगा, उससे वे सारे सवाल पूछे जाएंगें, जो बाकी सत्ताधीशों से पूछे गए। भावनात्मक भाषणों, राष्ट्रवादी विचारों से आगे एक लंबी जिंदगी भी है जो हमेशा अपने लिए सुखों, सुविधाओं और सुरक्षा की मांग करती है। आक्रामक गौरक्षक, काश्मीर घाटी के पत्थरबाज, नक्सली आतंकी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। आकांक्षाएं जगाने के साथ आकांक्षाओं को संबोधित करना भी जरूरी है। नरेंद्र मोदी के लिए आने वाला समय इस अर्थ में सरल है कि विपक्ष उनके लिए कोई चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है, पर इस अर्थ में उनकी चुनौती बहुत कठिन है कि वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं और उम्मीदें तोड़ नहीं सकते। अब नरेंद्र मोदी की जंग दरअसल खुद नरेंद्र मोदी से है। वे ही स्वयं के प्रतिद्वंद्वी हैं। 2014 के चुनाव अभियान में गूंजती उनकी आवाज मैं देश नहीं झुकने दूंगा, लोगों के कानों में गूंज रही है। आज के प्रधानमंत्री के लिए ये आवाजें एक चुनौती की तरह हैं, क्योंकि उसने देशवासियों से अच्छे दिन लाने के वादे पर वोट लिए थे। लोग भी आपको वोट करते रहेगें जब उन्हें भरोसा ना हो जाए कि 2014 का आपका सारा चुनाव अभियान और उसके नारे एक जुमले की तरह थे। कांग्रेसमुक्त भारत के लिए देश ने आपको वोट नहीं दिए थे। कांग्रेस की सरकार से ज्यादा मानवीय, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा संवेदनशील शासन के लिए लोगों ने आपको चुना था, साहेब भी शायद इस भावना को समझ रहे होगें।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)