सोमवार, 14 अगस्त 2017

सावर्जनिक संवाद में गिरावटः सनक में बदलती उत्तेजना

-संजय द्विवेदी
  भारतीय राजनीति और समाज में संवाद के गिरते स्तर और संवाद माध्यमों पर भीड़ के मुखर हो उठने का यह विचित्र समय है। यह वाचाल भीड़ समाज से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह अपनी खास राय के साथ खड़ी है। गुण या दोष के आधार पर विवेक के साथ नहीं। आलोचना के निर्मम अस्त्रों और घटिया भाषा के साथ। ऐसे कठिन समय में अपने विचार रखना भी मुश्किल हो जाता है। वे एक पक्ष पर खड़े हैं और दूसरे को सुनने को भी तैयार नहीं है। अफसोस तब होता है जब यह सारा कुछ लोकतंत्र के नाम पर घट रहा है।
  सोशल मीडिया ने इस उत्तेजना को सनक में बदलने का काम किया है। वैचारिकता की गहरी समझ और विचारधारा से आसपास भी न गुजरे हुए लोग किस तरह लोकतंत्र, सरकार और जनता के पहरेदार बन गए हैं कि आश्चर्य होता है। सवाल हरियाणा भाजपा अध्यक्ष के बेटे का हो या गोरखपुर के राधवदास अस्पताल में मौतों का पक्ष-विपक्ष के रायचंद अपनी राय के साथ खड़े हैं। आखिर क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उप्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ इतने कमजोर हैं उन्हें आपकी मदद की जरूरत है। ये लोग एक अनियंत्रित भीड़ की तरह सरकार के पक्ष या विपक्ष में कूद पड़ते हैं। पुलिस की विवेचना के पहले ही विश्लेषण कर डालते हैं। किसी को भी स्वीकार या खारिज कर देते हैं। इतनी तुरंता भीड़ इसके पहले कभी नहीं देखी गयी। ये पक्ष लेते समय यह भी नहीं देखते कहां पक्ष लिया जाना है, कहां नहीं। कई बार लगता है परपीड़न में सुख लेना हमारा स्वभाव बन रहा है। चंडीगढ़ की घटना पर भाजपा के कथित समर्थक पीड़ित लड़की वर्णिका कुंडू के चरित्र चित्रण पर उतर आए। आखिर उन्हें यह आजादी किसने दी है कि वे भाजपाई या राष्ट्रवादी होने की खोल में एक स्त्री का चरित्र हनन करें। इसी तरह गोरखपुर के अत्यंत ह्दयविदारक घटनाक्रम में जैसे गलीज टिप्पणियां हुयीं वे चिंता में डालती हैं। लोकतंत्र में मिली अभिव्यक्ति की आजादी का क्या हम इस तरह उपयोग करेंगें?
  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आप में एक समर्थ और ताकतवर नेता हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी सोशल मीडिया एक्टिविस्ट को उनकी मदद की दरकार है लेकिन लोग हैं कि मोदी जी की मदद के लिए मैदान में उतरकर उनकी भी छवि खराब करते हैं। हर बात पर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री न दोषी हो सकता है न ही उन्हें दोष दिया जाना चाहिए। किंतु अगर लोग किन्हीं कारणों से अपने नेता से सवाल पूछ रहे हैं तो उनसे यह हक नहीं छीना जाना चाहिए। लोग अपने चुने गए प्रधानमंत्री और अन्य जनप्रतिनिधियों से सवाल कर सकते हैं, यह उनका जायज हक है। आप उन्हें ट्रोलिंग करके खामोश करना चाहते हैं तो यह अलोकतांत्रिक आचरण है। एक लोकतंत्र में रहते हुए संवाद-विवाद की अनंत धाराएं बहनी ही चाहिए, भारत तो संवाद परंपरा सबसे जिम्मेदार उत्तराधिकारी है। लेकिन यह संवाद वितंडावाद न बने। कोई भी संवाद समस्या का हल लेकर समाप्त हो, न कि नए विवादों को जन्म दे दें।
   राजनीति के क्षेत्र में सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग और किराए के टट्टुओं ने हालात और बदतर किए हैं। संवाद की शुचिता तो दूर अपने विपक्षी की हर बात की आलोचना और गलत भाषा के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है। सारी क्रांति फेसबुक पर कर डालने की मानसिकता से लैस लोग यहां विचरण कर रहे हैं, जिनके पास अध्ययन, तर्क, परंपरा, ज्ञान ,सामयिक यर्थाथ चिंतन का भी अभाव दिखता है पर वे हैं और अपनी चौंकाने वाली घटिया टिप्पणियों से मनोरंजन कर रहे हैं। कुछ ने प्रधानमंत्री की सुपारी ले रखी है। वे दुनिया की हर बुरी चीज के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हैं। वही मोदी भक्त कहकर संबोधित किया जा रहा संप्रदाय भी है जिसे दुनिया के हर अच्छे काम के लिए मोदी को श्रेय देने की होड़ है। ऐसे में विवेक की जगह कहां है। आलोचनात्मक विवेक को तो छोड़ ही दीजिए। मोदी के साथ हैं या मोदी के खिलाफ हैं। ऐसे में स्वतंत्र चिंतन के लिए ठौर कहां है। मैदान खुला है और आभासी दुनिया में एक ऐसा महाभारत लड़ा जा रहा है जहां कभी कौरव जीतते हैं तो कभी पांडव। किंतु सत्य यहां अक्सर पराजित होता है क्योंकि इस आभासी दुनिया में हर व्यक्ति के सच अलग-अलग हैं। यहां लोग पक्ष तय करके मैदान में उतरते हैं। यहां विरोधी नहीं दुश्मन मानकर बहसें होती हैं। वैचारिक विरोध यहां षडयंत्र और अपमान तक बढ़ जाते हैं। इस युद्ध की सीमा नहीं है। इस युद्ध में एक पक्ष अंततः हारकर मैदान छोड़ देता है और अगली सुबह नए तथ्यों (शायद गढ़े हुए भी) के साथ मैदान में उतरता है। यानि यहां युद्ध निरंतर है। जबकि महाभारत भी 18 दिनों बाद समाप्त हो गया था।
    इस दुनिया में सही या झूठ कुछ भी नहीं है। यहां यही बात मायने रखती है कि आप कहां खड़े हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी कमोबेश इसी रोग से ग्रस्त हो रहा है। जहां सबकी पहचान जाहिर हो चुकी है। आप मुंह खोलेंगे, तो क्या बोलेगें यह लोगों को पता है। आप लिखेगें तो कलम किधर झुकी है वह अखबार में आपके नाम और फोटो से पता चल जाता है। पढ़ने की जरूरत नहीं है। एक समय था जब हम अपनी पत्रकारिता की दुनिया के चमकते नामों को इस उम्मीद से पढ़ते थे कि आखिर उन्होंने आज क्या लिखा होगा। जबकि आज ज्यादातर नामों को पढ़कर हम कथ्य का अंदाजा लगा लेते हैं। विश्वास के इस संकट से लड़ना जरूरी है। बौद्धिक दुनिया के सामने यह संकट बिलकुल सम्मुख आ खड़ा हुआ है। सोशल मीडिया की मजबूरियां और उसके इस्तेमाल से उसे नाहक बना देने वालों की मजबूरियां समझी जा सकती हैं, किंतु अगर मुख्यधारा का मीडिया भी सोशल मीडिया से प्रभाव ग्रहण कर उन्हीं गलियों में जा बसेगा तो उसकी विश्वसनीयता के सामने गहरे सवाल खड़े होगें।

   मोदी भक्त और मोदी विरोधियों ने सार्वजनिक संवाद को जिस स्तर पर ला दिया है। वहां से इसे अभी और नीचे जाना है। आने वाले समय में हमारे सार्वजनिक संवाद का चेहरा कितना खौफनाक होगा, यह चीजें हमें बता रहीं हैं। सरकार और पार्टी के प्रवक्ताओं से अलग मानवीय त्रासदी की घटनाओं पर भी हम सरकार और किसी दल की ओर से बोलने लगें तो यह काहे का सोशल मीडिया? सरकार की सफाई हम देने लगेगें तो उनके प्रवक्ता क्या करेगें? जिम्मेदार नागरिकता का पाठ पढ़ने के लिए स्कूल की जरूरत नहीं है किंतु संवेदनशीलता, दिनायतदारी, ईमानदार अभिव्यक्ति की जरूरत जरूर है। लेकिन यह साधारण सा पाठ हम तभी पढ़ सकेगें, जब स्वयं चाहेंगें।

बुधवार, 9 अगस्त 2017

असहिष्णुता की बहस के बीच केरल की राजनीतिक हत्याएं




-संजय द्विवेदी
    केरल में आए दिन हो रही राजनीतिक हत्याओं से एक सवाल उठना लाजिमी है कि भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में क्या असहमति की आवाजें खामोश कर दी जाएगीं? एक तरफ वामपंथी बौद्धिक गिरोह देश में असहिष्णुता की बहस चलाकर मोदी सरकार को घेरने का असफल प्रयास कर रहा है। वहीं दूसरी ओर उनके समान विचारधर्मी दल की केरल की राज्य सरकार के संरक्षण में असहमति की आवाज उठाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है।
    हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अपने विचारों के प्रसार की सबको आजादी देता है। भारत के विभिन्न राज्यों में भाषाई मतभेद, जातीय मतभेद और राजनीतिक मतभेद हमेशा से रहे हैं। सरकार की नीतियों का विरोध भी होता रहा है। उसके तरीके जनांदोलन,घरना-प्रदर्शन, नारेबाजी,बाजार बंद कराना जैसे विविध प्रकल्प राजनीतिक दल करते रहे हैं। अभी हाल में ही भारत में हुए राजनीतिक परिवर्तन के तहत केंद्र सहित कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें जनता के बहुमत से सत्ता में आई हैं। जब यह सत्ता परिवर्तन हो रहा था तो हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी इसे पचा नहीं पा रहे थे। और वे छोटी सी बात को तिल  का ताड़ बनाने का काम कर रहे थे। उनकी इस मुहिम में मीडिया का एक बड़ा वर्ग शामिल था। हम देखते हैं कि जहां पर भाजपा शासित राज्य हैं वहां विरोधी दलों के साथ एक लोकतांत्रिक व्यवहार कायम है। लेकिन केरल में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचलने और समाप्त कर डालने की हद तक जाकर कुचक्र रचे जा रहे हैं,वह आश्चर्य में डालते हैं। केरल में पिछले 13 महीने में दो दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों की हत्याएं हो चुकी हैं। यह आंकड़ा पुलिस ने बताया है। जबकि चश्मदीद लोग इससे भी अधिक बर्बरता की कहानी बताते हैं।
   राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने केरल में हो रही आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्याओं का आरोप सीपीएम पर लगाया है। उनका कहना है कि जिस-जिस क्षेत्र में सरकार की नीतियों का हमारे कार्यकर्ता लोकतांत्रिक ढंग से विरोध करते हैं, उन्हें या तो पुलिस थानों में अकारण बंद कर दिया जाता है और बाद में झूठे मुकदमे लादकर अपराधी घोषित कर दिया जाता है। कई जगहों पर स्वयंसेवकों को घरों से खींचकर गोलियों से उड़ाया जा रहा है।यह तांडव राज्य सरकार के संरक्षण में वामपंथी कार्यकर्ता कर रहे हैं। चूंकि शासन- सरकार का वामपंथियों को संरक्षण प्राप्त है इसलिए उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो रही है। केरल की इन रक्तरंजित घटनाओं को लेकर पिछले दिनों लोकसभा में भी जमकर हंगामा हुआ। जबकि केंद्र सरकार ने केरल के मुख्यमंत्री से इस संबंध में जवाब तलब किया है। परंतु आरएसएस का मानना है कि राज्य सरकार के इशारे पर अफसर सही जानकारी केंद्र को नहीं भेजते हैं।
   केरल में जो घटनाएं हो रही हैं वे कम्युनिस्टों की तालिबानी मानसिकता का परिचायक हैं ये पूरी तरह लक्षित और सुनियोजित हमले हैं। इन हमलों में मुख्य रूप से दलित स्वयंसेवकों को निशाना बनाया गया है। केरल में आरएसएस के बढ़ते प्रभाव और वामपंथियों की खिसकती जमीन के चलते वामपंथी हिंसक हो रहे हैं। वे आरएसएस सहित दूसरे विरोधियों पर भी हिंसक हमले कर रहे हैं। पर न जाने किन राजनीतिक कारणों से कांग्रेस वहां खामोश है, जबकि उनके अपने अनेक कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं और कई की जानें भी गयी हैं। एक तरफ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का आलाप और दूसरी तरफ विरोधी विचारों को खामोश कर देने की खूनी जंग भारतीय वामपंथियों के असली चेहरे को उजागर करती है। यह बात बताती है कि कैसे विपक्ष में रहने पर उनके सुर अलग और सत्ता में होने पर उनका आचरण क्या होता है। निर्दोष संघ कार्यकर्ता तो किसी राजनीतिक दल का हिस्सा भी नहीं हैं किंतु फिर भी उनके साथ यह आचरण बताता है कि वामपंथी किस तरह हिंदू विरोधी रूख अख्तियार किए  हुए हैं। राजनीति के क्षेत्र में केरल एक ऐसा उदाहरण है जिसकी बबर्रता की मिसाल मिलना कठिन है। एक सुशिक्षित राज्य होने के बाद भी वहां के मुख्य और सत्तारूढ़ दल का आचरण आश्चर्य चकित  करता है। पिछले दिनों केरल की घटनाओं की आंच तो दिल्ली तक पहुंची है और लोकसभा में इसे लेकर हंगामा हुआ है। भाजपा ने केरल की घटनाओं पर चिंता जताते हुए एनआईए या सीबीआई जांच की मांग की है।
  हमें यह देखना होगा कि हम ऐसी घटनाओं पर किस तरह चयनित दृष्टिकोण अपना रहे हैं। अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों पर हमारी पीड़ा छलक पड़ती है किंतु जब केरल में किस दलित हिंदु युवक  के साथ यही घटना होती है हमारी राजनीति और मीडिया, खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ हो रहे बर्बर आचरण पर किसी को कोई दर्द नहीं है। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं। हम किस तरह विरोधी विचारों को नष्ट कर देना चाहते हैं। आखिर इससे हमें क्या हासिल हो रहा है। क्या राजनीति एक मनुष्य की जान से बड़ी है। क्या संघ के लोगों को केरल में काम करने का अधिकार नहीं है।आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसवाले ने अपनी प्रेस कांफ्रेस में जो वीडियो जारी किए हैं वह बताते हैं कि वामपंथी किस दुष्टता और अमानवीयता पर आमादा हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन कर रहे हैं। किस तरह वे गांवों में जूलूस निकालकर संघ के स्वयंसेवकों को कुत्ते की औलाद कहकर नारे बाजी कर रहे हैं।वे धमकी भरी भाषा में नारे लगा रहे हैं कि अगर संघ में रहना है तो अपनी मां से कहो वे तुम्हें भूल जाएं। आखिर यह किस राजनीतिक दल की सोच और भाषा है? आखिर क्या वामपंथी का वैचारिक और सांगठनिक आधार दरक गया है जो उन्हें भारतीय लोकतंत्र में रहते हुए इस भाषा का इस्तेमाल करना पड़ रहा है या यह उनका नैसर्गिक चरित्र है। कारण जो भी हों लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाली हर आवाज को आज केरल में आरएसएस के साथ खड़े होकर इन निर्मम हत्याओं की निंदा करनी चाहिए।

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