-संजय
द्विवेदी
भारतीय राजनीति और समाज में संवाद के गिरते
स्तर और संवाद माध्यमों पर भीड़ के मुखर हो उठने का यह विचित्र समय है। यह वाचाल
भीड़ समाज से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह अपनी ‘खास राय’ के साथ खड़ी है। गुण या दोष के आधार पर
विवेक के साथ नहीं। आलोचना के निर्मम अस्त्रों और घटिया भाषा के साथ। ऐसे कठिन समय
में अपने विचार रखना भी मुश्किल हो जाता है। वे एक पक्ष पर खड़े हैं और दूसरे को
सुनने को भी तैयार नहीं है। अफसोस तब होता है जब यह सारा कुछ लोकतंत्र के नाम पर
घट रहा है।
सोशल मीडिया ने इस उत्तेजना को सनक में बदलने
का काम किया है। वैचारिकता की गहरी समझ और विचारधारा से आसपास भी न गुजरे हुए लोग
किस तरह लोकतंत्र, सरकार और जनता के पहरेदार बन गए हैं कि आश्चर्य होता है। सवाल
हरियाणा भाजपा अध्यक्ष के बेटे का हो या गोरखपुर के राधवदास अस्पताल में मौतों का
पक्ष-विपक्ष के ‘रायचंद’ अपनी राय के साथ खड़े हैं। आखिर क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उप्र के
मुख्यमंत्री आदित्यनाथ इतने कमजोर हैं उन्हें आपकी मदद की जरूरत है। ये लोग एक अनियंत्रित
भीड़ की तरह सरकार के पक्ष या विपक्ष में कूद पड़ते हैं। पुलिस की ‘विवेचना’ के पहले ही ‘विश्लेषण’ कर डालते हैं। किसी को भी स्वीकार या खारिज कर देते हैं। इतनी ‘तुरंता’ भीड़ इसके पहले कभी नहीं देखी गयी। ये पक्ष
लेते समय यह भी नहीं देखते कहां पक्ष लिया जाना है, कहां नहीं। कई बार लगता है
परपीड़न में सुख लेना हमारा स्वभाव बन रहा है। चंडीगढ़ की घटना पर भाजपा के कथित
समर्थक पीड़ित लड़की वर्णिका कुंडू के चरित्र चित्रण पर उतर आए। आखिर उन्हें यह
आजादी किसने दी है कि वे भाजपाई या राष्ट्रवादी होने की खोल में एक स्त्री का
चरित्र हनन करें। इसी तरह गोरखपुर के अत्यंत ह्दयविदारक घटनाक्रम में जैसे गलीज
टिप्पणियां हुयीं वे चिंता में डालती हैं। लोकतंत्र में मिली अभिव्यक्ति की आजादी
का क्या हम इस तरह उपयोग करेंगें?
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी अपने आप में एक समर्थ और ताकतवर नेता हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी
सोशल मीडिया एक्टिविस्ट को उनकी मदद की दरकार है लेकिन लोग हैं कि मोदी जी की मदद
के लिए मैदान में उतरकर उनकी भी छवि खराब करते हैं। हर बात पर प्रधानमंत्री या
मुख्यमंत्री न दोषी हो सकता है न ही उन्हें दोष दिया जाना चाहिए। किंतु अगर लोग
किन्हीं कारणों से अपने नेता से सवाल पूछ रहे हैं तो उनसे यह हक नहीं छीना जाना
चाहिए। लोग अपने चुने गए प्रधानमंत्री और अन्य जनप्रतिनिधियों से सवाल कर सकते
हैं, यह उनका जायज हक है। आप उन्हें ‘ट्रोलिंग’ करके खामोश करना चाहते हैं तो यह अलोकतांत्रिक आचरण है। एक लोकतंत्र में
रहते हुए संवाद-विवाद की अनंत धाराएं बहनी ही चाहिए, भारत तो संवाद परंपरा सबसे
जिम्मेदार उत्तराधिकारी है। लेकिन यह संवाद वितंडावाद न बने। कोई भी संवाद समस्या
का हल लेकर समाप्त हो, न कि नए विवादों को जन्म दे दें।
राजनीति के क्षेत्र में सोशल मीडिया के बढ़ते
उपयोग और किराए के टट्टुओं ने हालात और बदतर किए हैं। संवाद की शुचिता तो दूर अपने
विपक्षी की हर बात की आलोचना और गलत भाषा के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है। सारी
क्रांति फेसबुक पर कर डालने की मानसिकता से लैस लोग यहां विचरण कर रहे हैं, जिनके
पास अध्ययन, तर्क, परंपरा, ज्ञान ,सामयिक यर्थाथ चिंतन का भी अभाव दिखता है पर वे
हैं और अपनी चौंकाने वाली घटिया टिप्पणियों से मनोरंजन कर रहे हैं। कुछ ने
प्रधानमंत्री की ‘सुपारी’ ले रखी है। वे दुनिया की हर बुरी चीज के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार
मानते हैं। वही ‘मोदी भक्त’ कहकर
संबोधित किया जा रहा संप्रदाय भी है जिसे दुनिया के हर अच्छे काम के लिए मोदी को
श्रेय देने की होड़ है। ऐसे में विवेक की जगह कहां है। आलोचनात्मक विवेक को तो
छोड़ ही दीजिए। मोदी के साथ हैं या मोदी के खिलाफ हैं। ऐसे में स्वतंत्र चिंतन के
लिए ठौर कहां है। मैदान खुला है और आभासी दुनिया में एक ऐसा महाभारत लड़ा जा रहा
है जहां कभी कौरव जीतते हैं तो कभी पांडव। किंतु सत्य यहां अक्सर पराजित होता है
क्योंकि इस आभासी दुनिया में हर व्यक्ति के सच अलग-अलग हैं। यहां लोग पक्ष तय करके
मैदान में उतरते हैं। यहां विरोधी नहीं दुश्मन मानकर बहसें होती हैं। वैचारिक
विरोध यहां षडयंत्र और अपमान तक बढ़ जाते हैं। इस युद्ध की सीमा नहीं है। इस युद्ध
में एक पक्ष अंततः हारकर मैदान छोड़ देता है और अगली सुबह नए तथ्यों (शायद गढ़े
हुए भी) के साथ मैदान में उतरता है। यानि यहां युद्ध निरंतर है। जबकि महाभारत भी
18 दिनों बाद समाप्त हो गया था।
इस दुनिया में सही या झूठ कुछ भी नहीं है।
यहां यही बात मायने रखती है कि आप कहां खड़े हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी कमोबेश
इसी रोग से ग्रस्त हो रहा है। जहां सबकी पहचान जाहिर हो चुकी है। आप मुंह खोलेंगे,
तो क्या बोलेगें यह लोगों को पता है। आप लिखेगें तो कलम किधर झुकी है वह अखबार में
आपके नाम और फोटो से पता चल जाता है। पढ़ने की जरूरत नहीं है। एक समय था जब हम
अपनी पत्रकारिता की दुनिया के चमकते नामों को इस उम्मीद से पढ़ते थे कि आखिर
उन्होंने आज क्या लिखा होगा। जबकि आज ज्यादातर नामों को पढ़कर हम कथ्य का अंदाजा
लगा लेते हैं। विश्वास के इस संकट से लड़ना जरूरी है। बौद्धिक दुनिया के सामने यह
संकट बिलकुल सम्मुख आ खड़ा हुआ है। सोशल मीडिया की मजबूरियां और उसके इस्तेमाल से
उसे नाहक बना देने वालों की मजबूरियां समझी जा सकती हैं, किंतु अगर मुख्यधारा का
मीडिया भी सोशल मीडिया से प्रभाव ग्रहण कर उन्हीं गलियों में जा बसेगा तो उसकी
विश्वसनीयता के सामने गहरे सवाल खड़े होगें।
मोदी भक्त और मोदी विरोधियों ने सार्वजनिक
संवाद को जिस स्तर पर ला दिया है। वहां से इसे अभी और नीचे जाना है। आने वाले समय
में हमारे सार्वजनिक संवाद का चेहरा कितना खौफनाक होगा, यह चीजें हमें बता रहीं
हैं। सरकार और पार्टी के प्रवक्ताओं से अलग मानवीय त्रासदी की घटनाओं पर भी हम
सरकार और किसी दल की ओर से बोलने लगें तो यह काहे का सोशल मीडिया? सरकार की सफाई हम देने लगेगें तो उनके प्रवक्ता क्या करेगें? जिम्मेदार नागरिकता का पाठ पढ़ने के लिए स्कूल की जरूरत नहीं है किंतु संवेदनशीलता,
दिनायतदारी, ईमानदार अभिव्यक्ति की जरूरत जरूर है। लेकिन यह साधारण सा पाठ हम तभी
पढ़ सकेगें, जब स्वयं चाहेंगें।
बिल्कुल सत्य कहा सर । संवाद के स्तर को गिराने में मोदी भक्त और मोदी विरोधी दोनों जिम्मेदार हैं।
जवाब देंहटाएंSir आपके लेख में पूणॆता सत्य का उल्लेख किया गया है
जवाब देंहटाएंआज का नागरिक अपनी बुद्धि और विवेक से सत्यता का निर्णय नहीं करता है वल्की वो किस पार्टी से संबंधित है और वो पार्टी किस तरफ झुक रही है बस उस नागरिक का झुकाव भी उस पार्टी की तरफ हो जाता है
और हमारा मीडिया और उसका संवाद का स्तर क्यो गिरता जा रहा है यह बात Siddharth sarathe sir ने अपने comment बहुत खूब कही है इससे आगें मैं कुछ और नहीं कहना चाहता
क्या सोशल मीडिया एक सोची समझी रणनीति तो नहीं हैं? निक्सन ने जैसे टीवी का इस्तेमाल किया शायद कोई कर रहा है। इसकी चमक वाली कहानी हैं सबको स्टार बनने का मौका है। इतनी बातें क्यों हो रही हैं ? क्या ज़्यादातर लोग एक रात में गुल मोहर कौर बनाना नहीं चाह रहे हैं? क्या यह तथाकथित संचार विस्फोट मानसिकरूप से गुलाम बनाने की साजिश तो नहीं है? अगर है तो किसके लिए है और कौन इसके पीछे है?
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