मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

नंदकिशोर त्रिखाः पत्रकारिता के आचार्य

-संजय द्विवेदी
  इस कठिन समय में जब पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता दोनों पर गहरे सवाल खड़े हो रहे हों, डा. नंदकिशोर त्रिखा जैसे पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक के निधन का समाचार विह्वल करने वाला है। वे पत्रकारिता के एक ऐसे पुरोधा थे जिसने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की और बेहद प्रामाणिक लेखन किया। अपने विचारों और विश्वासों पर अडिग रहते हुए संपादकीय गरिमा को पुष्ट किया। उनका समूचा व्यक्तित्व एक अलग प्रकार की आभा और राष्ट्रीय चेतना से भरा-पूरा था। भारतीय जनमानस की गहरी समझ और उसके प्रति संवेदना उनमें साफ दिखती थी। वे लिखते, बोलते और विमर्श करते हुए एक संत सी धीरता के साथ दिखते थे। वे अपनी प्रस्तुति में बहुत आकर्षक भले न लगते रहे हों किंतु अपनी प्रतिबद्धता, विषय के साथ जुड़ाव और गहराई के साथ प्रस्तुति उन्हें एक ऐसे विमर्शकार के रूप में स्थापित करती थी, जिसे अपने प्रोफेशन से गहरी संवेदना है। इन अर्थों में वे एक संपादक और पत्रकार के साथ पत्रकारिता के आचार्य ज्यादा दिखते थे।
  नवभारत टाइम्स, लखनऊ के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, एनयूजे के  माध्यम से पत्रकारों के हित की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी जैसी उनकी अनेक छवियां हैं, लेकिन वे हर छवि में संपूर्ण हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में उनके छोटे से कार्यकाल की अनेक यादें यहां बिखरी पड़ी हैं। समयबद्धता और कक्षा में अनुशासन को उनके विद्यार्थी आज भी याद करते हैं। ये विद्यार्थी आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं लेकिन उन्हें उनके बेहद अनुशासनप्रिय प्राध्यापक डा. त्रिखा नहीं भूले हैं। प्रातः 8 बजे की क्लास में भी वे 7.55 पर पहुंच जाने का व्रत निभाते थे। वे  ही थे, जिन्हें अनुशासित जीवन पसंद था और वे अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखते थे। समय के पार देखने की उनकी क्षमता अद्भुत थी। वे एक पत्रकार और संपादक के रूप में व्यस्त रहे, किंतु समय निकालकर विद्यार्थियों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखते थे। उनकी किताबें हिंदी पत्रकारिता की आधारभूत प्रारंभिक किताबों  में से एक हैं। खासकर समाचार संकलन और प्रेस विधि पर लिखी गयी उनकी किताबें दरअसल हिंदी में पत्रकारिता की बहुमूल्य पुस्तकें हैं। हिंदी में ऐसा करते हुए न सिर्फ वे नई पीढ़ी के लिए पाथेय देते हैं बल्कि पत्रकारिता के शिक्षण और प्रशिक्षण की बुनियादी चिंता करने वालों में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह दिल्ली और लखनऊ में उनकी पत्रकारिता की उजली पारी के पदचिन्ह बिखरे पड़े हैं। वे ही थे जो निरंतर नया विचार सीखते, लिखते और लोक में उसका प्रसार करते हुए दिखते रहे हैं। उनकी एक याद जाती है तो दूसरी तुरंत आती है। एनयूजे के माध्यम से पत्रकार हितों में किए गए उनके संघर्ष बताते हैं कि वे सिर्फ लिखकर मुक्त होने वालों में नहीं थे बल्कि सामूहिक हितों की साधना उनके जीवन का एक अहम हिस्सा रही है। डॉ. त्रिखा छह वर्ष भारतीय प्रेस परिषद् के भी सदस्य रहे ।उन्होंने 1963 से देश के अग्रणी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता, वरिष्ठ सहायक-संपादक, राजनयिक प्रतिनिधि और स्थानीय संपादक के वरिष्ठ पदों पर कार्य किया । उससे पूर्व वे संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के काठमांडू (नेपाल), उड़ीसा और दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख और संपादक रहे ! अपने इस लम्बे पत्रकारिता-जीवन में उन्होंने देश-विदेश की ज्वलंत समस्याओं पर हजारों लेख, टिप्पणिया, सम्पादकीय, स्तम्भ और रिपोर्ताज लिखे।

   विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी समूची पत्रकारिता में एक गहरी अंतर्दृष्टि, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य बोध, तटस्थता के दर्शन होते हैं। उनके संपादन में  निकले अखबार बेहद लोकतांत्रिकता चेतना से लैस रहे। वे ही थे जो सबको साध सकते थे और सबके साथ सधे कदमों से चल सकते थे। उनका संपादक सभी विचारों- विचार प्रवाहों को स्थान देने की लोकतांत्रिक चेतना से भरा-पूरा था। जीवन में भी वे इतने ही उदार थे। यही उदात्तता दरअसल भारतीयता है। जिसमें स्वीकार है, तिरस्कार नहीं है। वे व्यक्ति और विचार दोनों के प्रति गहरी संवेदना से पेश आते थे। उन्हें लोगों को सुनने में सुख मिलता था। वे सुनकर, गुनकर ही कोई प्रतिक्रिया करते थे। इस तरह एक मनुष्य के रूप में उन्हें हम बहुत बड़ा पाते हैं। आखिरी सांस तक उनकी सक्रियता ने हमें सिखाया है किस बड़े होकर भी उदार, सक्रिय और समावेशी हुआ जा सकता है। वे रिश्तों को जीने और निभाने में आस्था रखते थे। उनके मित्रों में सत्ताधीशों से लेकर सामान्य जन सभी शामिल थे। लेकिन संवेदना के तल पर वे सबके लिए समभाव ही रखते थे।  बाद के दिनों उनकी किताबें बड़े स्वरूप में प्रकाशित हुयीं जिसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। अंग्रेजी में उनकी किताब रिपोर्टिंग आज के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसी तरह प्रेस ला पर उनकी किताब बार-बार रेखांकित की जाती है। वे हमारे समय के एक ऐसे लेखक और संपादक थे जिन्हें हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। वे अपने जीवन और लेखन में अगर किसी एक चीज के लिए याद किए जाएंगें तो वह है प्रामणिकता। मेरे जैसे अनेक पत्रकारों और मीडिया प्राध्यापकों के लिए वे हमेशा हीरो की तरह रहे हैं जिन्होंने खुद को हर जगह साबित किया और अव्वल ही रहे। हिंदी ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को उनकी अनुपस्थिति ने आहत किया है। आज जब समूची पत्रकारिता बाजारवाद और कारपोरेट के प्रभावों में अपनी अस्मिता संरक्षण के संघर्षरत है, तब डा. नंदकिशोर त्रिखा की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

मुज्जफर हुसैनः हम तुम्हें यूं भुला ना पाएंगें


                                          -संजय द्विवेदी

    मुंबई की सुबह और शामें बस ऐसे ही गुजर रही थीं। एक अखबार की नौकरी,लोकल ट्रेन के घक्के,बड़ा पाव और ढेर सी चाय। जिंदगी में कुछ रोमांच नहीं था। इस शहर में बहुत कम लोग थे, जिन्हें अपना कह सकें। पैसे इतने कम कि मनोरंजन के बहुत उपलब्ध साधनों से दूर रहना जरूरत और विवशता दोनों ही थी। ऐसे कठिन समय में जिन लोगों से मुलाकात ने मेरी जिंदगी में बहुत से बदलाव किए, लगा कि लिखकर भी व्यस्त और मस्त रहा जा सकता है, उन्हीं में एक थे पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार-स्तंभकार-अप्रतिम वक्ता श्री मुजफ्फर हुसैन। 13फरवरी,2018 की रात जब श्री मुजफ्फर हुसैन के निधन की सूचना मिली, तबसे मुंबई में बीता सारा समय चलचित्र की भांति आंखों के सामने तैर रहा है।
   श्री मुजफ्फर हुसैन हमारी जिंदगी में एक ऐसी जगह रखते थे, जो उनकी अनुपस्थिति में  और ज्यादा महसूस हो रही है। उनका घर और उनकी धर्मपत्नी नफीसा आंटी सब याद आते हैं। एक याद जाती है, तो तुरंत दूसरी आती है। लिखने का उनका जुनून, लगभग हर भारतीय भाषा के अखबारों में उनकी निरंतर उपस्थिति, अद्भुत भाषण कला, संवाद की आत्मीय शैली,सादगी सारा कुछ याद आता है। सत्ता के शिखर पुरुषों से निकटता के बाद भी उनसे एक मर्यादित दूरी रखते हुए, उन्होंने सिर्फ कलम के दम पर अपनी जिंदगी चलाई। वे सही मायने में हिंदी के सच्चे मसिजीवी पत्रकार थे। नौकरी बहुत कम की। बहुत कम समय देवगिरि समाचार, औरंगाबाद के संपादक रहे। एक स्वतंत्र लेखक, पत्रकार और वक्ता की तरह वे जिए और अपनी शर्तों पर जिंदगी काटी। सच कहें तो यह उनका ही चुना हुआ जीवन था। मनचाही जिंदगी थी। वे चाहते तो क्या हो सकते थे, क्या पा सकते थे यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है। भाजपा और संघ परिवार के शिखर पुरुषों से उनके अंतरंग संबंध किसी से छिपे नहीं थे। लेकिन उन्हें पता था कि वे एक लेखक हैं, पत्रकार हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं।
    वे लिखते रहे एक विचार के लिए, एक सपने के लिए,ताजिंदगी और अविराम। भारतीय मुस्लिम समाज को भारतीय नजर से देखने और व्याख्यायित करने वाले वे विरले पत्रकारों में थे। अरब देशों और वैश्विक मुस्लिम दुनिया को भारतीय नजरों से देखकर अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों में प्रस्तुत करने वाले वे ही थे। वे ही थे जो भारतीय मुस्लिमों को एक राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल करने के स्वप्न देखते थे। उन्हें अपनी मातृभूमि और उसके लोगों से प्यार था। वे भारतीयता और इस देश के सपनों को जीने वाले पत्रकार थे। उन्हें संवाद प्रिय था। वे अपनी प्रिय भाषा हिंदी में लिखते, बोलते और संवाद करते हुए देश भर के दुलारे बने। श्री अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर उन दिनों के संघ प्रमुख श्री केसी सुदर्शन अगर उनकी प्रतिभा के प्रशंसक थे, तो यह अकारण नहीं था।
  आज कंगूरों पर बैठे लोगों को शायद श्री मुजफ्फर हुसैन नजर न आएं, किंतु जिन्हें परंपरा के पाठ का तरीका पता है, वे अपने इस बुजुर्ग को यूं भुला न पाएंगें। जिन दिनों में भारतीयता और भारतबोध जैसी बातें मुख्यधारा के मीडिया में अछूत थीं, उन्हीं दिनों में सिर्फ पांचजन्य जैसे पत्रों में ही नहीं, देश के हर भाषा के बड़े अखबार मुजफ्फर हुसैन को सम्मान के साथ छापते थे। अखबारों में छपने वाले लेखों से ही उनकी जिंदगी चलती थी। इसलिए उन्हें मसिजीवी कहना अकारण नहीं है। वे सही मायने में कलम के हो गए थे। एक विचार के लिए जीना और उसी के लिए अपनी समूची प्रतिभा, मेघा, लेखन और जीवन को समर्पित कर देना उनसे सीखा जा सकता है।
  आज जब वे नहीं हैं तो उनकी पत्रकारिता से कई बातें सीख सकते हैं। पहला है उनका साहस और धारा के विरूद्ध लिखने का । दूसरा वे सिद्धांतनिष्ठ जीवन, ध्येयनिष्ठ जीवन का भी उदाहरण हैं। वे पल-पल बदलने वाले लोगों में नहीं हैं। जीवन के कठिन संघर्ष उनमें अपने विचार के प्रति आस्था कम नहीं करते। वे अपने लेखन में कड़वाहटों से भरे नहीं हैं, बल्कि इस महादेश की समस्याओं के हल खोजते हैं। वे सुविधाजनक सवाल नहीं उठाते बल्कि असुविधाजनक प्रश्नों से टकराते हैं। वे अपने मुस्लिम समाज में भारतीयता का भाव भरने के लिए सवाल खड़े करते हैं और अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं। उन पर हुए हमले, विरोधों ने उन्हें अपने विचारों के प्रति और अडिग बनाया। वे वही कहते,लिखते और बोलते थे जो उनके अपने मुस्लिम समाज और राष्ट्र के हित में था। वे कट्टरपंथियों की धमकियों से डरकर रास्ते बदलने वाले लोगों में नहीं थे। उनके लिए राष्ट्र और उसके लोग सर्वोपरि थे। अपने इन्हीं विचारों के नाते देश भर में वे आमंत्रित किए जाते थे। लोग उन्हें ध्यान से सुनते और गुनते थे। एक प्रखर वक्ता, सम्मोहक व्यक्तित्व के रूप में वे हर सभा का गौरव बने रहे। भारत, भारतप्रेम की प्रस्तुति से उनका शब्द-शब्द ह्दय में उतरता था। उन्हें मुझे मुंबई से लेकर भोपाल,रायपुर, बिलासपुर की अनेक सभाओं में सुनने का अवसर मिला। उनके अनेक आयोजनों का संचालन करते हुए, साथ रहने का अवसर मिला। यूं लगता था, जैसे मां सरस्वती उनके कंठ से बरस रही हैं। वे कश्मीर, देश विभाजन जैसे प्रश्नों पर बोलते तो स्वयं उनकी आंखों से आंसू झरने लगते। सभा में मौजूद लोगों की आंखें पनीली हो जाती थीं। ऐसा आत्मीय और भावनात्मक संवाद वही कर सकता है जिसकी कथनी-करनी, वाणी और कर्म में अंतर न हो। वे ह्दय से ह्दय का संवाद करते थे। इसलिए उनकी वाणी आज भी कानों में गूंजती है। महाराष्ट्र के अनेक नगरों में गणेशोत्वों पर दिए गए उनके व्याख्यान एक बौद्धिक उपलब्धि हैं।
   इन चार दशकों में उनका लिखा-बोला गया विपुल साहित्य उपलब्ध है। दैनिक अखबारों समेत, पांचजन्य जैसे पत्रों में उन्होंने नियमित लिखा है। उस पूरे साहित्य को एकत्र कर उनके लेखन का समग्र प्रकाशित होना चाहिए। केंद्र और महाराष्ट्र सरकार को उनकी स्मृति को संरक्षित करने के लिए कुछ सचेतन प्रयास करने चाहिए। वे अपनी परंपरा के बिरले पत्रकारों में हैं। वे भारतीय पत्रकारिता में साहस, धैर्य,प्रतिभा, स्वावलंबन और वैचारिक चेतना के प्रतीक भी हैं। लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने जो प्रयास किए उनको रेखांकित करते हुए कुछ प्रयत्न उनसे जुड़े लोग और संस्थाएं भी कर सकती हैं। राष्ट्रवादी पत्रकारिता के तो वे शिखर हैं ही, उनकी स्मृति हमें संबल देगी, इसमें दो राय नहीं हैं। किंतु इससे जरूरी यह भी है कि उनके जाने के बाद, उनकी स्मृति संरक्षण के लिए हम क्या प्रयास करते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां याद कर सकें कि इस घरती पर एक मुजफ्फर हुसैन नाम का पत्रकार भी रहा, जिसने बिना बड़े अखबारों की कुर्सियों के भी, सिर्फ कलम के दम पर अपनी बात कही और देश ने उसे बहुत ध्यान से सुना। इन दिनों जब भारतीय पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर गहरे काले बादल छाए हुए हैं तब श्री मुजफ्फर हुसैन  का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है, बहुत कठिन।